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अगन पाखी (उपन्यास) मैत्रेयी पुष्पा

पुस्तक समीक्षा-

ग्रामीण स्त्री की महागाथा - अगनपाखी

समीक्षक - राजनारायण बोहरे

अगनपाखी उपन्यास कथा लेखिका का मैत्रैयी पुष्पा का नया उपन्यास है और इस उपन्यास को लेखिका के रचनात्मक विकास की सीड़ी दर सीड़ी ऊँची उठती क्षमता का परिचायक माना जा सकता है, उपन्यास पढ़ते समय लगातार यह आभास भी होता रहता है। उपन्यास “चाक से मोड़ लेती लेखिका के कथ्य की शैली और दिशा यहां आकर स्त्रिीयों के स्वनिर्णय के अधिकार के पक्ष में जोरदार वकालत करती हैं समाज द्वारा वर्जित संबंधो के दायरे में प्रवेश करते भुवन और चन्दर सिर्क स्त्री और पुरूष बने रह जाते हैं, जो तमाम रिश्तो नातो और वर्जनाओ को भुलाते लांघते हुये विराटा से चल के झांसी दतिया और इंदरगढ़ तक पहुंच गये हैं, उन्हे सेवड़ा पहुचाना है जहा एक हाथ के कृशकाय शरीरधारी डॉ. सीता किशोर अपने आसपास के लोक की हजारो भुजाओ से सहस्त्रबाहु बन के इन दोनो को प्राश्रय और सामाजिक मान्यता देने वाले हैं। इस तरह इस कथा में काल्पनिक पात्रों की मंजिल वास्तविक व्यक्ति बता के लेखिका कथा जगत में एक ओर जहां नई शैली स्थापित कर रही हैं, वही अपनी कथा को प्रमाणिक सी बना रही है। जानने वाले जानते है कि इस कथा के अंत में लेखिका ने जीवित की वदंती बनकर सृजन व संघर्व में जुटे दादा सीता किशोर खरे जैसे जन पक्षधर व्यक्ति को इस तरह स्नेहिल भेट की है।

विराटा के ठाकुर अमानसिंह की किशोरी बेटी भुवन बचपन से ही अपनी बहन के समवयस्क बेटे चंदर के साथ खेलती कूदती रही है। पितृ हीना इस लड़की का दैहिक अनायास आकर्षण भी चंदर के प्रति हो जाता है। जिसकी भनक लगने पर दोनो को दूर दूर रखा जाने लगता है भुवन खुद को चुप्पी और कर्मठता के आवरण में बंद कर लेती है।

उधर चंदर अपने पिता के घर बरूआसागर और झांसी में रहके उच्च श्क्षिा प्राप्त करता है। चंदर के पिता एक बड़े घर के छोटे कुंअर विजय सिंह से भुवन का रिश्ता तय करा देते हैं फिर ब्याह भी हो जाता है। चंदर शादी में नही जाता है क्योकि उन्ही दिनो उसकी नौकरी लग जाती है। जनश्रुतियों से पता चलता है कि भुवन का पति बीमार, मंदबुद्धि और नामर्द है जिसका ईलाज किसी तांत्रिक द्वारा झाड़ फूक से किया जा रहा है। मायके लौटी भुवन वापस नही जाना चाहती पर माँ जिद करके भेज देती है। वहां भुवन एक मंदिर में रोज जाने लगती है और रहा का बुद्धिजीवी वृद्ध पुजारी उसे हवेली की सवाइयों रहस्यों से वाकिफ कराता है पुजारी का युवा बेटा राजेश और भुवन भी एक दूसरे के प्रति आकृष्ट होते है। चंदर भुपन की ससुराल जाकर वहां का हाल देख के भुवन को मायके लौटाना चाहता है वह भुवन के जेठ से भिढ़ भी जाता है और अनायास यह रहस्य पा लेता है कि बड़े कुंवर ने भुवन के ब्याह के बदले में चंदर की नौकरी लगवाई है- चंदर मन ही मन ग्लानि से भर जाता है। वह उन्मादग्रस्त सा यहां वहां भटकता रहता है। भुवन का पति आगरा के पागलखाने में भर्ती करा दिया जाता है। बड़े कुंवर के यहां यह होता है जिससे साधु महंतो का दल चंदर के छोटे भाई ब्रजेश की सामूहिक पिराई कर डालते है, बड़े कुंवर माफी मांगते है। अचानक छोटे कुंवर अस्पताल में ही मर जाते है उनकी लाश के आने के इंतजार में अजीब से मनोद्वंद्व में फंसी भुवन स्तंभित सी बैठी है, जेठानी उसे भीतर कमरे मे ले जाती है। बाहर आके वह घोषणा करती है कि भुवन सती होना चाहती है। पूरे गांव मैं सनसनी है, लोग सती दशर््न को टूटे पड़ रह हैं। भुवन पूरा श्रृंगार करती है और पूजा करने के लिए मंदिर जाती है, वही से वह पुजारी के सहयोग से गुप्त रास्ते निकल पड़ती है और बेतवा किनारे बैठे चंदर से मिलती है। अपनी चप्पलें और कपड़े नदी छोड़कर वह जल समाधि लेने का भ्रम फैला के चंदर के साथ भाग निकलती है। बड़े कुंवर यह प्रचार कर देते है कि जल समाधि लेकर भुवन सती हो गई जबकि गांव के लोग उत्तेजित होकर मंदिर को तहस नहस करके पुजारी को मार डालते है।

बड़ी उम्दा बनावट में फंसी यह कथा आद्यंत पाठक को बांधे रखती है। सहज संभाव्य संबंधो को चित्रित करते वक्त लेखिका आदम और हव्वा द्वारा वर्जित फल खाने की तर्ज पर ही मौसी बहनौता के प्रेम संबंधो की कथा बड़ी रूचि से बुन गई है।

बुंदेलखण्ड की इस कथा पर उस कहावत कोई असर नही है कि “मां मरे, मौसी जिये।” अथवा मालवा और मराठी का यह मुहाविरा कि“ मौसी यानी मां सी” भी यहां अमान्य सा लगने लगता है यहां तो मौसी प्रेयसी बनकर आती है।

उपन्यास में बुंदेलखण्ड का लोकोत्सव मामुलिया और उसके गीत तो है ही, ढ़ेर सारी कहावते और बुदेली बोली की मिठास भी इसमें है। चरित्रो की जो विविधता इस कथा के लिये अनिवार्य थी वह यथा आवश्यक्ता मौजूद है।

दृश्यो के विवरण और मनोद्वंद्व के विश्लेषण में मैत्रेयी पुष्पा का जवाब नही। कथा कहने की उनकी अनूठी शैली “इदन्नमम” से ही बदलती और निखरती आई है। इस कथा का प्रथम पुरूष चंदर पुरी कथा हर बार कोण बदल के आगे बढ़ाता है।

मौसी बहनोता के प्रेम संबंध चित्रित करते वक्त लेखिका ने इतनी मेहरवानी जरूर की है कि अपने दूसरे उपन्यासांे की तरह अभिसार और यौन समागम के दृश्य पाठको के सामने नही खोले है हिन्दी का आम आदमी शायद इन संबंधो को इसी पतली दरार के आधार पर कुछ हद तक स्वीकार कर लेगा।

इस कव्य के बहाने बुंदेलखण्ड (अमूमन तो हर अंचल) में लोक प्रचलित छल-कदम बैर-प्रीत, चाले, घात प्रतिघात अंधविश्वास, लोक मान्यताओ का सहज प्रस्तुतिकरण हुआ है। जायदाद के लिए रचे जाते षडयंत्रो की गंध इस कथा में खूब है तो धर्म यज्ञ का आसरा लेकर समाज में मान्यता प्राप्त करने का इन नये छुटभैया सामंती ग्रामीण नेताओं का साकार चित्र कुवर अजयसिंह को देखकर पाठक के सामने उपस्थित हो जाता है।

संक्षेपतः मैत्रेयी पुष्पा ने इस उपन्यास में नया कुछ नही रचा है, बल्कि हमारे जाने पहचाने जीवन जगत को एक अलग आँख से दिखा दिया है यह आँख एक सहज-सजग स्त्री की आँख है, जो कि अपने जीवन का निर्णय खुद करना चाहती हैं। इसमे उसे किसी का दखल पसंद नही, न समाज का, न धर्म का रिवाजों का। यहां तक कि स्त्री विरादरी की माँ और बहन का भी नहीं।

उपन्यास भले ही पश्चिम से आयातित विधा हो पर कुछ उपन्यास के भीतर की सारी मूल भावनाये, सारे उत्स सारी कथायें, सारे इति वृत्त भारतीय जनमानस से उठकर आई है, और इसके चरित्र इसके मुद्दे, इसके संदेश इसके विवरण ठीक वैसे ही अविस्मरणीय, कौतूहलपूर्ण और बन गये हैं जैसे प्रेमी लोग हर किस्से मे पाते थे।

कुल मिला के यह उपन्यास वर्तमान भारतीय ग्रामीण स्त्री की महागाथा है।

समीक्षक

पुस्तक - अगन पाखी (उपन्यास) राजनारायण बोहरे

लेखिका - मैत्रेयी पुष्पा एल-19, हाऊसिंग बोर्ड कालोनी

प्रकाशन - वाणी प्रकाशन दतिया (म0प्र0) 475661

नई दिल्ली

मूल्य - 150 / रू.




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