नीलांजना--भाग(७) Saroj Verma द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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नीलांजना--भाग(७)

रात्रि का समय!!
कबीले में,
सब भोजन करके विश्राम कर रहे हैं, दिए के प्रकाश को देखकर,ना जाने क्यों? नीला मंद-मंद मुस्कुरा रही हैं!!
तभी चित्रा बोली!!क्या बात है जीजी, ऐसा क्या सोच-सोच कर मुस्कुरा रही हो?
कुछ नहीं !! तुझे ऐसा क्यों लगा? नीला बोली।।
अपनी दशा तो देखो जीजी!!मादक नयन, गुलाबी गाल और ये तुम्हारे ओंठ, बताना तो बहुत कुछ चाह रहे हैं लेकिन शायद हृदय की सहमति नहीं है कि राज को खोला जाए।।
बड़ी बड़ी बातें बना रही है, जैसे कि प्रेम के बारे में बहुत कुछ जानती है, नीला बोली।।
जानती तो नहीं, जानना चाहती हूं, लेकिन आज तक कोई मिला ही नहीं,जिसे देखकर हृदय पुकार उठे कि हां तुम वहीं हो मेरे सपनों के राजकुमार हो,चित्रा बोली।।
और दोनों बहनों की खी.....खी....की आवाज सुनकर, सौदामिनी बोली,क्यो कौतूहल मचा रखा है,तुम दोनों बहनों ने ,सोती क्यो नही?
सोते हैं मां!!क्यो चिल्ला रही हो? चित्रा बोली।।
अच्छा बोलों ना ,जीजी कौन है वो?जिसे देखकर तुम मंद मंद मुस्कुरा रही थी, चित्रा ने पूछा।।
अरे, कोई नहीं,मृग का वध करने आया था, वहीं झरने वाले स्थान पर,बस और कुछ नहीं, थोड़ी सी कहासुनी हो गई, उसने कहा तुम बहुत सुंदर हो और इसके अलावा हमारे बीच कोई भी वार्तालाप नहीं हुआ।। नीला बोली,
अच्छा, जीजी देखने में कैसा है,ये बताओ, चित्रा ने फिर पूछा।।
अच्छा,सो जा अब मुझे निद्रा आ रही है, प्रात: बात करते हैं,नीला बोली....।
और नीला ने सोने का अभिनय कर अपनी आंखें बंद कर ली लेकिन आज उसे सच में निद्रा नहीं आ रही थी,वो आंखें बंद करती और कैलाश की शक्ल उसकी आंखों के सामने आने लगती,वो सुंदर सी मुस्कान और प्रेम में डूबी उसकी बातों का ध्यान आ रहा था,वो जितना भी सोंने का प्रयत्न कर रही थी, उतनी ही निद्रा आंखों से दूर भागती जा रही थी।
फिर नीला दूसरे दिन उस स्थान पर अपने आप को जाने से रोक ना सकी, कुछ देर उसने अभ्यास किया, कुछ फल और पुष्पो पर निशाना साधा और एक टीले पर बैठकर, कैलाश की प्रतीक्षा करने लगी, कुछ देर में कैलाश आता हुआ दिखाई दिया,आज उसने बड़े चित से कैलाश की ओर दृष्टि डाली,वो उसके रूप को अपनी आंखों और हृदय में बसा लेना चाहती थी।
कैलाश के घुंघराले केश, सुंदर-सुडौल, सांवला हृष्ट-पुष्ट शरीर, और कद-काठी भी अच्छी थी, नीला बड़े ध्यानपूर्वक कैलाश को एकटक देखे जा रही थी, कैलाश ने नीला के समीप आकर पूछा,इतने ध्यानमग्न होकर क्यो देख रही थी, मुझे।।
नीला कहा,मैं तुम्हें क्यो देखने लगी भला!! ऐसे कौन से हीरे-मोती लगे हैं तुममें जो मै तुम्हे देखूं।
इधर-उधर की बातें करने के बाद दोनों, अपने अपने स्थान लौट गये,जाते समय दोनों एक-दूसरे को मुड़ मुड़ कर देखते जा रहे थे,दिन ना ढ़लता तो शायद दोनों एक-दूसरे के साथ दोनों यूं ही समय बीताते रहते लेकिन बस एक-दूसरे की आंखों में झांक लेते, फिर एक-दूसरे से दृष्टि हटा लेते जैसे कि देखा ही नहीं,बस यही अभिनय चल रहा था दोनों के बीच, सारी बातें हुई, लेकिन प्रेम स्वीकार करने की बातें नहीं हुई और चले गए।
इधर नीला की आंखों में तो कैलाश की छवि बस गई थी उसे और कुछ ना याद रहता और ना किसी चीज़ की सुध रहती,अब उसने श्रृंगार भी करना शुरू कर दिया था,वो बस एक नवयुवती की समान सजना संवरना चाहती थी, उसके ऐसे भाव देखकर सौदामिनी थोड़ी शंकित हुई।
उधर कैलाश का भी वहीं हाल था, उसने तो अपने हृदय की बात नीला से एक बार पहले कह दी थी लेकिन नीला तो उसके प्रेम-भाव को अनदेखा और अनसुना कर चली गई थी फिर बहुत दिनों तक नीला उस स्थान पर ना जा सकी।
कैलाश ने सोचा,इस बार नीला मिलेगी तो अपने हृदय की बात नीला को खुलकर बता दूंगा, चाहें वो मेरा प्रेम स्वीकार करें या ना करें!
इसी बीच सुखमती ने राजा चन्द्रदर्शन के बारे सारी जानकारियां प्राप्त कर ली, कबीले पहुंचकर दिग्विजय और सौदामिनी से बोली कि अब नीला को सारी बातें बताने का समय आ गया है,उसे वेष बदलकर पुलस्थ राज्य में जाना होगा, जहां वो एक नर्तकी बनकर जाएगी और धीरे-धीरे राज्य की सारी गुप्त बातें एकत्र कर हमें बताएंगी,आज ही उसे बताओ कि वो कौन है और उसे अब क्या करना है, महाराज के विश्वासघाती को सजा देने का समय आ गया है।
नीला को बुलाया गया और उसे बीती सारी बातें बताई गई, उससे कहा गया कि बस उसे अब अपने लक्ष्य पर ध्यान देना है, अपने पिता महाराज का राज्य वापस लेना है।
आज नीला आखिरी बार उस स्थान पर विचरण करने गई,वो एक टीले पर बैठ गई,उसका आज अभ्यास करने का मन नहीं था,उसका मन बहुत अशांत था,उस दिन के बाद आज आई थीं, तभी कैलाश उपस्थित हुआ।
वो नीला को देखकर प्रसन्न होकर बोला, कहां थीं तुम,इतने दिनों पश्चात् यहां आई,तो तुमने क्या सोचा।
किस विषय पर?नीला ने पूछा!!
मुझसे प्रेम करने के विषय पर, कैलाश ने कहा।।
नीला बहुत ही दुविधा में थी उसके पास कैलाश के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था, उसके हृदय में कैलाश ने अपना स्थान बना लिया था,वो उससे कहना चाहती थी कि मैं भी तुमसे प्रेम करने लगी हूं लेकिन उसके कर्त्तव्य अब उसके प्रेम के आड़े आ रहे थे।
और वो बिना कोई उत्तर दिए, वहां से जाने लगी, कैलाश ने शीघ्रता से उसका हाथ पकड़ा और बोला, बिना उत्तर दिए मत जाओ,
मैं बहुत विवश हूं, मेरे कुछ कर्त्तव्य है जिसे मैं भूल नहीं सकती,अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम है तो तुम मेरी प्रतीक्षा करना, नीला उदास मन से बोली।।
ठीक है, नीला तुम अगर कुछ भी नहीं कहना चाहती तो कोई बात नहीं, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा, लेकिन जाने से एक बार मेरे हृदय से लग कर जाओगी तो तुम्हारी प्रतीक्षा करना मेरे लिए सरल होगा, कैलाश ने द्रवित हृदय से नीला से कहा।।
नीला जैसे ही कैलाश के हृदय से लगी उसकी आंखों से झर झर आंसू बह निकले और बिना कुछ कहे ही उसने अपने आंसू पोंछे और बिना पीछे मुड़े चली गई।।

क्रमशः_____
सरोज वर्मा____🦋