जिंदगी मेरे घर आना - 24 Rashmi Ravija द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जिंदगी मेरे घर आना - 24

शरद को ड्राइंग रूम में बैठाकर नेहा ने किचन का रूख किया. जैसा कि उसे अंदेशा था. सोनमती ने ढेर सारी चीज़ें फैला ली थीं और अब लस्त-पस्त हो रही थी.

”इतना सारा क्या क्या बनाने लगी...तुम्हारी यही आदत है लाओ मैं कुछ मदद कर दूँ “

“अरे नहीं दीदी जी बस हो गया...आप जाकर बैठो न.मैं फटाफट कर लूँगी. “

नेहा ने शिकंजी बनाने के लिए नीम्बू निकाले तो सोनमती लपक कर आई, “मैं बना देती हूँ...”

“चुपचाप जो फैलाया है ,उसे समेटो...जल्दी करो वरना पांच बजे लंच मिलेगा “ नेहा ने डपटा.

जब नेहा दो ग्लास में शिकंजी लेकर आई तो पाया शरद उसकी बुकशेल्फ के सामने खड़ा गौर से किताबें देख रहा है. ग्लास थामते हुए बोला..”कितना पढ़ती हो बाबा “

किसी के भी ऐसा कहने पर नेहा कहती थी, ‘ किताबें हीं तो अब साथी हैं “ पर शरद से नहीं कहा.

शरद ने मार्खेज़ की ‘ लव इन द टाईम ऑफ कॉलरा “निकालते हुए कहा , “इसे ले जाऊं...कब से पढने की सोच रहा था.. पढ़कर लौटा दूंगा,पक्का “

“ नहीं लौटाने की जरूरत नहीं अपने पास रख लेना “

“ क्यूँ डर है कि लौटाने के बहाने फिर से धमक जाऊँगा...” कहते शरद जोर से हंस पड़ा.

“ नहीं भई...मेरा मतलब था , नई किताब के लिए जगह बन जायेगी “

“ यानी कि मैं जब चाहे आ सकता हूँ...”

नेहा ने कुछ नहीं कहा चुपचाप शिकंजी के घूँट भरती रही.

शरद भी समझ गया ये कहना बेमानी है. दो बार तो बिन बुलाये ही धमक चुका है.

“ठीक है...ये किताब नहीं लौटाऊँगा. अब गिफ्ट कर रही हो तो लो इस पर मेरा नाम लिख दो...इसी बहाने मेरा नाम तो लिखोगी “ किताब बढाते, शरद अर्थपूर्ण ढंग से मुस्करा दिया.

नेहा अपनी जगह से नहीं हिली. सीधा शरद की तरफ देखते हुए बोली, “ हमलोग टीनएजर्स हैं क्या...बच्चों सी हरकतें क्यूँ कर रहे हो ? “

“नहीं टीनेज कहाँ...तुम तो वानप्रस्थ में पहुंच गई हो...” शरद ने किताब के पन्ने पलटते हुए कहा.

“फिलहाल तो किचनप्रस्थ हो जाऊं...वरना लंच शाम की चाय के साथ मिलेगा.

खाना सचमुच बहुत लज़ीज़ बना था. शरद ने खुलकर सोनमती की तारीफ की. सारी बातें हो जाने से नेहा भी बहुत हल्का महसूस कर रही थी. अब पहले सा तनाव उसके चेहरे पर नहीं था.

शरद के जाने के बाद नेहा बहुत देर तक खुद का मन टटोलती रही. क्या अब वह शरद से नाराज़ नहीं है. ? पर शरद का बेतकल्लुफ व्यवहार कोई नाराजगी देर तक रहने भी तो नहीं देता. उदासीनता दिखाने की इतनी तो कोशिश कर रही है, पर शरद जैसा कल था, आज भी वैसा ही बातूनी है. बीच के वर्ष लगता है,उसे छू कर भी नहीं गए. उसके सामने चुप कैसे रहा जा सकता है. वो सख्ती से उसे आने के लिए मना कर सकती थी. पर शिष्टाचार के भी कुछ तकाजे होते हैं.

और नेहा का मन ? क्या शरद का साथ उसे भी अच्छा लग रहा है ? नेहा खुद को ही इस सवाल का जबाब नहीं दे पा रही थी. फिर जैसे खुद को ही दिलासा दिया, हंसना बोलना किसे अच्छा नहीं लगता. थोड़ा अच्छा वक्त गुजरा बस. इस से ज्यादा कुछ नहीं. शरद यहाँ नया आया है, नेहा को देखा तो मिलने आने लगा...इसमें कोई अर्थ ढूँढने की जरूरत नहीं.. वो स्कूल के प्रति समर्पित है. और स्कूल से अलग कुछ भी नहीं सोच सकती. नेहा ने मम्मी को भी शरद के विषय में कुछ नहीं बताया. वे जिस तरह से रिएक्ट करतीं, उसे हैंडल करना नेहा के वश में नहीं...क्या पता अगली गाड़ी से सीधा ही पधार जातीं.

नेहा ने उस वक्त तो मम्मी को आने से रोक दिया पर हर दो महीने पर मम्मी आती ही थीं. डैडी का यहाँ मन नहीं लगता. वे अपने ब्रिज क्लब के बिना बेचैन हो जाते. मम्मी दोनों के बीच पिस सी गईं थीं. नेहा के पास रहतीं तो डैडी की चिंता रहती और वहाँ रहतीं तो नेहा के अकेलेपन को लेकर पेरशान रहतीं. उसे झिडक देतीं..” हाँ ठीक है, स्कूल में बिजी रहती है पर स्कूल के बाद कोई अपना तो हो जिस से दो बातें भी कर सको. “. वे दस दिन रहकर चली जातीं. उनके आने के दिन नजदीक आ रहे थे और नेहा बेचैन हो रही थी. अभी तक शरद कभी इन्फॉर्म कर के नहीं आता. उसका रूटीन कुछ निश्चित नहीं रहता था. कभी पन्द्रह दिनों तक नहीं आता और कभी हफ्ते में दो बार आ जाता. जब भी मौका मिलता, धमक जाता. नेहा भी अब बहुत सहज हो गई थी. आपसी रिश्तों को छोडकर दुनिया जहान की बातें होतीं. बस बीच बीच में शरद कभी-कभी गहरी नजरों से उसे देर तक देखता रह जाता और नेहा एकदम कॉन्शस हो कर वहाँ से उठ जाती. शरद मुस्करा देता और खुद से ही कहता.....” तुम्हारा गुनाहगार हूँ... जब तक जी चाहे मेरे पेशेंस की परीक्षा लेती रहो,मैं खरा उतरूंगा. इतनी मुश्किल से मिली हो..अब नहीं जाने दूंगा.”

नेहा ने मम्मी के आने की बात शरद से भी नहीं बताई. पहले मम्मी का रिएक्शन देखना चाहती थी. मम्मी जब फ्रेश हो, खाना खाकर दीवान पर लेटीं तो नेहा उनके पास कुर्सी खींच कर बैठ गई और बोली, “ मम्मी शरद की पोस्टिंग इसी शहर में है. उसकी नीस मेरे स्कूल में पढ़ती है...उसके एडमिशन के लिए आया था “

पहले तो मम्मी समझी ही नहीं और जब समझीं तो एकदम से उठ कर बैठ गईं.,...”क्याss शरद...वो आर्मी ऑफिसर..यहाँ कैसे...उसने पहचाना तुम्हे ? “

“क्या कह रही हो...मैं क्या इतनी बदल गई हूँ...”

लेकिन मम्मी ने उसका जबाब नहीं सुना...फिर से बोलीं..” तुमने पहचान लिया ? “

“ मम्मी तुम अपने आपे में नहीं हो...पानी लोगी ?”

“हाँ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा, मैं क्या बोल रही हूँ...तुमलोग मिले ? बात हुई ? “

“ मम्मी...वो अक्सर घर पर आता है ?”

“ घर पर आता है ?....और तुमने कभी फोन पर बताया नहीं.”ममी नाराज़ हो गईं पर फिर रुक कर पूछा, “ शादी हो गई उसकी ? “

“मम्मी मुझे पता था तुम यही पूछोगी...” कहती नेहा खुलकर हंस दी.

“बता मुझे “

“नहीं हुई है...”

“ ओह...हाँ अब पानी पिला...और वो जो उसके दोस्त की पत्नी थी..क्या नाम था...वो कहां है ?”

“ वो सेटल हो गई हैं...उनके मायकेवाले उनके पास आ गए हैं “

“ हुंह अब आये....मुसीबत में तो बिचारी को अकेली छोड़ दिया था और ये शरद भी..”

“मम्मी तुमने तो पूछ-ताछ का दफ्तर ही खोल दिया है...अब मैं कुछ नहीं बताने वाली. कुछ स्कूल का काम है..मैं जा रही हूँ, फाइल्स देखने “

नेहा उस वक्त तो चली गई....पर मम्मी की जुबान पर एक ही नाम रहता ‘शरद’. नेहा के पीछे पड़ी रहतीं, वो कब आएगा...फोन कर बुला उसे.नेहा ने बहाना बना दिया, उसके पास फोन नम्बर नहीं है. आर्मी ऑफिसर्स अपना फोन नम्बर नहीं देते किसी को. भोली मम्मी ने उसका ये झूठ सच मान लिया. जबकि शरद का कार्ड तो उसके पर्स में ही पड़ा हुआ था.

संयोग से चार दिन बाद ही शरद आ गया...और मम्मी और शरद , दोनों एक दूसरे से ऐसे मिले कि नेहा की उपस्थिति ही भूल गए. नेहा जानती थी,ऐसा ही होगा. बरसों पहले जब उन सबने अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त होकर, मम्मी को सिर्फ घर सम्भालने के रोल में ही जड़ दिया था तो शरद ही उन्हें सबके बीच खींच कर लाया था.

मम्मी के मन में शरद को लेकर कोई गिला-शिकवा नहीं था , वे पीछे की तरफ देखती ही नहीं. उन्हें बस आगे की राह दिखाई देती और दिखाई देते उस पर शरद और नेहा के बढ़ते कदम.

नेहा कई बार समझा चुकी वे दोनों बहुत आगे निकल गए हैं. अपने अपने प्रोफेशन में व्यस्त ,उनके मन में ऐसी कोई भावना नहीं. इसपर मम्मी बिलकुल चुप हो जातीं.और उनकी ये चुप्पी नेहा को हैरानी से भर देती. मम्मी ने नेहा की आँखों में कुछ ऐसा पढ़ लिया क्या जिसकी खबर नेहा को भी नहीं. नेहा आँखें चुराती,वहां से चली जाती.

अब मम्मी नेहा के पीछे पड़ी थीं कि वो और शरद कहीं घूमने जायें. नेहा की दुनिया सिर्फ स्कूल की चहारदीवारी में ही कैद होकर रह गई है. शरद से कहा तो शरद ने व्यंग्य से नेहा की बात ही दुहरा दी, “आंटी नेहा कैसे जायेगी , वो शहर के इतने बड़े स्कूल की प्रिंसिपल है. हर नुक्कड़, हर मोड पर तो इसके स्टूडेंट्स और उनके पैरेंट्स नेहा के इस्तकबाल के लिए खड़े होंगे “

शरद ने कई बार बाहर घूमने चलने के लिए कहा था लेकिन तब नेहा ने यही बात कही थी और अपने बचपन की एक बात भी शेयर की थी कि वो कभी भी टीचर या लेक्चरर नहीं बनना चाहती थी क्यूंकि कहीं भी जाओ कोई स्टूडेंट मिल जाता है ,ज़रा भी प्रायवेसी नहीं रहती.

शरद हंसा था , ‘अरे नमस्ते का जबाब दो और आगे बढ़ो ‘ लेकिन नेहा ने बहाना बनाया था ,’नहीं हमलोग किसी टीचर को देख लेते तो वहाँ से चले जाते थे कि कोई शरारत करते देख ना लें, फिर क्लास में खबर ली जायेगी. मैं नहीं चाहती मेरी वजह से कोई एन्जॉय ना कर पाए.’ शरद चुप हो गया था , वह असली वजह समझता था. नेहा इन दीवारों के बीच खुद को महफूज़ समझती थी. यहाँ सोनमती थी, बाहर दरबान था....एक पैटर्न पर आधारित व्यवहार. खुद से ही डरती थी शायद.बाहर कहीं भावनाएं अपनी मनमर्जी ना दिखाने लगें. पर शरद इंतज़ार के लिए तैयार था. कयामत से आगे कुछ हो तो ,वहां तक भी. वह चाहता था, नेहा खुद धीरे धीरे अपने शेल से बाहर आये.

लेकिन मम्मी में धीरज कहाँ था.वे पहले ही बहुत धैर्य रख चुकी थीं. एकदम फरमान सुना दिया.वो पहाड़ी वाले देवी मन्दिर में जाओ और मेरी तरफ से प्रसाद चढा आओ. मुझसे सीढियां चढ़ी नहीं जायेंगी ,वरना खुद चली जाती. डैडी की तबियत खराब थी तो मन्नत मांगी थी.