जिंदगी मेरे घर आना - 25 - अंतिम भाग Rashmi Ravija द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जिंदगी मेरे घर आना - 25 - अंतिम भाग

भाग- 25

(अंतिम भाग )

अब डैडी के लिए मन्नत वाली बात मनगढ़ंत थी, ये नेहा और शरद दोनों जानते थे पर कुछ कह नहीं सकते. लम्बी, घुमावदार, बलखाती सडक पर दौड़ती जीप और आसमान में खरगोश के छौने से कूदते-फांदते सफेद बादलों के साथ लुका-छिपी खेलता सूरज एक रोमांच पैदा कर रहा था. सच है, ऐसे ड्राइव पर नेहा शायद पहली बार आई थी. यूँ तो किसी ना किसी बहाने शाहर का चप्पा -चप्पा घूम चुकी थी पर अगली सीट पर ड्राइवर होता और कुछ लोगों के साथ पिछली सीट पर नेहा. वह साथी टीचर्स से ज्यादा घुल-मिल नहीं पाती थी. उनकी बातचीत के विषय अक्सर उसके दायरे से बाहर होते थे. वह उनकी बातों पर सिर्फ सर हिलाती या फिर खिड़की से बाहर देखती रहती. पर आज सचमुच एन्जॉय कर रही थी.

बार-बार अपने उड़ते बाल और दुपट्टा समेटती रहती. शरद ने एक नजर उसकी तरफ देखकर कहा, ‘कार में ही आना चाहिए था...तुम कम्फर्टेबल नहीं लग रही..परेशानी हो रही है तुम्हे “

“अरे नहीं...मुझे बहुत अच्छा लग रहा है...कार में तो बंद बंद दम घुटता है मेरा..” नेहा ने चहक कर जोर से कहा और फिर अचानक चुप हो गई. ये क्या वो ऐसे चहक क्यूँ रही है.क्या सचमुच स्कूल की चहारदीवारी से बाहर निकल वह बदल गई है. इसीलिए घूमने पर इतना जोर दिया जाता है ? सचमुच क्या यात्राएं अंतर्मन के अर्गले खोल देती हैं.

शरद अपेक्षाकृत शांत था. शायद ड्राइविंग पर ध्यान दे रहा है या शायद उसे एन्जॉय करने देना चाहता था या वह नेहा का यह रूप देखकर अंदर से मुदित था और चुप रहकर बूंद ब्व्बून्द महसूस करना चाह रहा था.. नेहा खुद में इतनी मग्न थी कि उसने शरद के चुप रहने पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. दर्शन कर जब दोनों मन्दिर के पीछे की तरफ गए तो हवा इतनी तेज थी कि नेहा को पैर जमाने में मुश्किल हो रही थी जबकि शरद दोनों पैरों में थोड़ी दूरी रखे आराम से खड़ा था. पहाड़ी की इस चोटी से पूरा शहर दिखता था. छोटी छोटी पहाड़ियों और झीलों से घिरा शहर बहुत ही सुंदर दिख रहा था. नेहा को देखने की भी इच्छा हो रही थी पर बार बार उसका दुबला शरीर आगे पीछे होता और उसके पैर उखड़ जाते. नजरें सामने रखे हुए ही शरद ने अपना दाहिना हाथ नेहा की तरफ बढ़ा दिया. शरद के इस तरफ ना देखने से नेहा को कुछ अजीब सा लगा पर उसने हाथ थाम लिया. फिर से हवा का एक तेज झोंका आया और आगे की तरफ झुकते हुए नेहा ने दोनों हाथों से शरद की बांह पकड ली. शरद हंस पड़ा..”खाया पिया करो कुछ...देखो कैसे पत्ते सी हिल रही हो “. थोड़ी देर बाद दोनों नीचे उतरने लगे. जहाँ नेहा अजरा सा भी लडखडाती शरद उसका हाथ थाम लेता. नेहा भी बेझिझक शरद की बांह थाम लेती. नेहा को कुछ भी असहज नहीं लग रहा था.ऐसा लग रहा था ,जैसे वर्षों से वह शरद के साथ यूँ ही घूमती आ रही हो. मन हो रहा था यह सीढियां कभी खत्म ही ना हों और वह शरद के कंधे पर झुके उसकी बांह थामे यूँ ही चलती जाए.

दोनों ही चुप थे. बिना कुछ बोले भी धीमी धीमी सी आंच में मानो उनका मन सिंक रहा था. एक ऊष्मा का व्यूह उन्हें घेरे हुए था.

दोनों के यूँ खिले चेहरे देख कर मम्मी बहुत खुश हुईं और आगे भी वे इन्हें साथ भेजने की कुछ और योजनायें बनातीं, इस से पहले ही लखनऊ से फोन आ गया कि डैडी को बुखार आ गया है. मम्मी यहाँ दोनों को भूलकर लखनऊ जाने के लिए बेचैन हो उठीं.. नेहा मन ही मन मुस्कराई , ‘प्यार हो तो ऐसा...मम्मी के ना रहने पर डैडी बीमार हो जाते हैं, और मम्मी सेवा सुशुर्षा के लिए दौड़ी चली आती हैं.’

शरद अपने ऑफिस में ज्यादा ही बिजी हो गया था. नेहा भी बदस्तूर स्कूल के कार्य में लगी हुई थी.पर अंदर ही अंदर एक पुलक सी पलती रहती...अनजानी सी ख़ुशी ,धमनियों में बहती रहती. मन फूल सा हल्का हो आया था, पैरों में एक चपलता आ गई थी पर ऊपर से फाइलें निबटाती ,स्कूल के राउंड लेती, टीचर्स को निर्देश देती नेहा वैसी ही धीर गम्भीर दिखती. एक संडे, दोपहर बाद, बहुत ही थका हुआ सा शरद आया.

‘ क्या बात है...तबियत ठीक नहीं क्या..?’ नेहा देखते ही बोली.

“ ना तबियत को कुछ नहीं हुआ...काम का बहुत प्रेशर था.मैं फील्ड का आदमी हूँ. ये ऑफिस वर्क मुझे नहीं भाता. बेजार हो गया हूँ “

“चाय - कॉफ़ी क्या लोगे....” नेहा ने आत्मीयता से पूछा.

“ घर में बैठने का मन नहीं....इन दीवारों के बीच रहकर तंग आ गया हूँ. बाहर चलोगी ?...एक लम्बी ड्राइव पर ?.वहीँ कहीं...टपरी पर चाय पी लेंगे....इत्मीनान रखो शहर से बहुत दूर जायेंगे, वहाँ तुम्हें कोई नहीं पहचानेगा “ शरद ने हंस कर कहा.

“ तुम भूलोगे नहीं वो बात” , नेहा ने आँखें दिखाईं और...’अभी आती हूँ.’ कहकर अंदर चली गई. नेहा ने बालों को समेट कर एक क्लिप लगाया ,कंधे पर एक दुपट्टा डाला और पैरों में चप्पल डाल निकल आई.

“अरे तुम तो इतनी जल्दी तैयार हो गई....लडकियों वाली कोई बात ही नहीं “

“ लड़की रही कहां अब “ नेहा मुस्करा दी.

“औरतों वाली बात...अब ठीक है ?..बात पकड़ लेती हो. तुम्हें तो वकील होना चाहिए था...कहाँ टीचर बन गई “...

“चलो...चलो..देर हो जायेगी...” नेहा के होठों पर एक जबाब आया पर बोली नहीं.

शरद ने शहर से बिलकुल विपरीत सडक चुनी. इस तरफ नेहा कभी नहीं आई थी. थोड़ी ही देर में बस्ती पीछे छूट गई. आज शायद नेहा का ध्यान कर अंग्रेजी गाने की जगह हिंदी फिल्मों के पुराने गानों की सी डी लगा दी थी.

“तुम सुनते हो...ऐसे गाने “.नेहा ने अविश्वास से पूछा.

“सिर्फ सुनते ही नहीं हमलोग सुरूर में खूब गाते भी हैं. हमारी पार्टी जब परवान चढती है तो जूनियर-सीनियर सब कोरस में गाते हैं इन्हीं गानों पर डांस भी करते हैं. “ शरद जैसे उन पार्टी की यादों में खो गया था.

सडक के दोनों तरफ पेड़ इतने घने होकर ऊपर मिल गए थे कि सडक के ऊपर मेहराब सा घिरा लग रहा था.बीच बीच में छन कर जरा सी धूप आती और फिर पत्तों की छाया बिखर जाती. इन्हीं धूप छाँव से आँख-मिचौली करती जीप बढ़ी जा रही थी. शरद ने जीप की रफ्तार धीमी रखी थी. शायद उसे ध्यान था, तेज हवा से नेहा को बारबार बाल समेटने पड़ते हैं. या फिर वह जल्दी कहीं पहुंचना नहीं चाहता था.

नेहा को अब तक अपनी जिंदगी पूर्ण लगती थी. उसे कभी महसूस नहीं होता था कि वह कुछ मिस भी कर रही है.पर अभी लग रहा था...जिंदगी का एक हिस्सा तो वीरान ही रहा अब तक. शरद का साथ - सुहाना मौसम - रूमानी गीत उसे किसी और ही दुनिया में ले गए थे. शरद भी शायद ऐसा ही कुछ सोच रहा था.उसके जीवन में भी बरसों से ऐसे पल नहीं आये थे.

दोनों ही इन दिलकश लम्हों में में खो से गए थे कि शरद बोला, ‘ इधर तो कोई बस्ती भी नहीं दिख रही...न कोई दूकान. तुम्हे चाय कहाँ पिलाऊं ? “

“ थोडा सा रुक जाते न....सोनमती थर्मस में चाय बना कर दे देती.कहीं रुक कर पी लेते ‘

“ तुम और तुम्हारी सोनमती....ऐसे सुहाने रास्ते पर थर्मस की चाय...सारा मजा किरकिरा हो जाता.आगे कोई टपरी मिलेगी न. वैसे मुझे रास्ते से कुछ याद आ गया..” कहकर शरद ने मुस्करा कर नेहा की तरफ देखा..

“क्या...” नेहा को कुछ समझ नहीं आया.

“बताऊँ...? ”

“नेहा ने हाथ से ही ‘क्या’ का इशारा किया.

शरद ने किनारे कर गाड़ी रोक दी और कहा नीचे उतरो.

नेहा अबूझ सी नीचे उतर आई. शरद नेहा का हाथ पकड कर सडक के बीचोंबीच ले गया और उसके सामने घुटनों पर बैठ गया. मुस्कराते हुए अपना हाथ आगे बढ़ाया और बोला...” याद है, तुमने कभी कहा था सडक के बिलकुल बीच में प्रपोज़ करूं....बहुत देर हो गई पर अब और देर नहीं करनी. मेरे पास कोई अंगूठी नहीं. पहली बार भी घास की अंगूठी बनाई थी जो हमारे लिए लकी साबित नहीं हुई. नेहा, जितनी भी और जैसी भी जिंदगी बच गई है..ऊबड़-खाबड़-पथरीली-ऊंची-नीची-कांटो भरी और थोड़ी सी ऐसी सुहानी भी...इन राहों पर मेरे साथ चलोगी ??.अकेले चलते-चलते थक गया हूँ नेही “ कहते शरद का मुस्कराता चेहरा संजीदा हो गया था.

नेहा की आँखें डबडबा आईं.नेहा ने शरद के हाथों में अपना हाथ देकर उसे उठा लिया. ‘ड्रामे न करो ज्यादा ‘ कहती नेहा, शरद के फैले बलिष्ठ बाहों में समा गई. उसके सीने पर सर रखे ,उसकी धडकनों को सुनती दुनिया-जहान भूल गई थी.नेहा के खुले बालों में सर गडाये शरद की आँखें, उन बालों से उठती भीनी खुशबू से मुंदती जा रहीं थीं. इस तिलस्म का घेरा ज़रा सा ढीला पडा और शरद ने नेहा के चेहरे से बालों को परे करते हुए उसकी चिबुक उठा ,आँखों में सीधा देखते हुए पूछा, “ मुझे मिस किया ??...मुझे याद करती थी ??“

नेहा कुछ पल उन गहरी आँखों में देखती रही जहां उसके लिए प्यार का समुद्र उमड़ कर कोरों से बहने ही वाला था. फिर धीरे से बोली, “तुम्हे नहीं पता...”

“ पता है नेही...सब पता है...तभी तो कुदरत ने हमें ये सेकेण्ड चांस दिया “ कहते शरद की बाहें नेहा के गिर्द जोरों से कस गईं. नेहा भी शरद के गले में बाहें डाल,उसकी छाती से नन्ही बच्ची सी दुबक गई. पेड़ों से कुछ पत्ते उनके बालों- कन्धो पर गिर आये, मानो प्रकृति भी आशीष बरसा रही हो.

(समाप्त )