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गवाक्ष - 43

गवाक्ष

43==

मंत्री जी कॉस्मॉस के साथ वृक्ष पर बैठकर अपनी मृत्यु का तमाशा देखकर अपने बीते दिनों में पत्नी स्वाति के पास पहुँच गए थे, वे अपने पुत्रों के बारे में भी सोचते रहे थे। काश ! मेरे बेटों को भी उनकी माँ स्वाति जैसी समझदार जीवन-साथी मिल सकती !

बिटिया भक्ति में माँ की समझदारी व गुण सहज रूप से आए थे । मनुष्य-जीवन प्राप्त हुआ है तो मनुष्य की सेवा मनुष्य का धर्म है । आज की परिस्थितियों में जागृत मनुष्य के कुछ कर्तव्य बनते हैं, वह केवल अपने जीवन को ही अपना लक्ष्य समक्ष रखकर नहीं चल सकता। समाज के प्रति जागरूकता उसका दायित्व है। भक्ति स्वामी विवेकानंद के विचारों से बहुत प्रभावित थी। वह प्रो.श्रेष्ठी की छात्रा थी,

भारतीय-दर्शन की पुरज़ोर हिमायती ! वह कहती;

"गांधी को हमने नोट पर छापकर अदृश्य सूली पर लटका दिया है। कहाँ है सादगी, सरलता !उनके विचार! पल-पल गांधीवाद का गला घोटा जा रहा है। यदि कुछ लोग उनके निर्णयों से अप्रसन्न भी हैं तब भी सादगी, सरलता, सहजता के मापदंड के लिए वे कौनसा पैमाना लाएंगे ? मैं उनकी राजनैतिक स्थिति के बारे में कुछ नहीं कहना चाहती, मैं उस गांधी का चित्र प्रस्तुत करना चाहती हूँ जिसने दूसरों के प्रति करुणा सिखाई, दूसरों की बेचारगी से जो पीड़ित हुए ----!!"

मंत्री जी का चोला रेशमी चादर पर पुष्पों से ढका था, पूरी रात चहलकदमी रही और वे अपने बेटों की खुफुसाहट सुन रहे थे जिन्हें भय था कि कहीं पिता के न रहने पर भक्ति अपने भाग के जायदाद की मांग न कर बैठे। मंत्री सत्यव्रत केवल एक मंत्री नहीं थे वरन उच्च धनाढ्य परिवार के एकमात्र वारिस भी थे जो उनके पुत्रों के विचार में अपनी दौलत बेसहारा तथा ज़रूरतमंद लोगों पर लुटाने की मूर्खता करते रहे थे, जिससे दोनों पुत्रों का सदा अपने पिता से छत्तीस का आँकड़ा रहा था ।

" परेशानी तो यह है कॉस्मॉस कि जब हम दूसरे के विचारों से बिना सोचे-समझे प्रभावित होते हैं तब न केवल हम दुखी होते हैं वरन अपने से जुड़े सबको प्रताड़ित करते हैं ---" इस चोले को त्याग करने की बेला में भी मंत्री जी का अप्रसन्न रहना कॉस्मॉस को पीड़ित कर रहा था किन्तु वह उनकी बात पूरी तरह से समझ नहीं पा रहा था ।

" महोदय! वैसे तो आप स्वयं अपनी देह त्याग के लिए तत्पर हो गए हैं, आपके अनुसार आपके सभी महत्वपूर्ण कार्य पूर्ण हो चुके हैं फिर भी आपके मुख पर मैं एक अजीब सी बैचैनी महसूस कर रहा हूँ -"

" तुम मेरी बैचैनी को ठीक भाँपे हो कॉस्मॉस! तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ती जा रही है । मैं अब तक अपने बेटों के लिए कुछ नहीं कर पाया, इन्हें अच्छाई-बुराई की तहज़ीब नहीं सिखा पाया, बस उनके लिए ही थोड़ी सी कसक मन में रह गई है । मैं जानता हूँ इस समय यह सोच व्यर्थ है किन्तु अभी भी इस नश्वर संसार में हूँ न, सो मन न चाहने पर भी कभी उद्विग्न हो जाता है । "

सत्यव्रत जी कॉस्मॉस से इन्हीं सब बातों की चर्चा करते रहे व बीच में कई बार भीतर जाकर मित्र प्रोफेसर के गले मिल आए, बेटों के भीतर चलती गुपचुप मंत्रणा से परिचित थे ही। अंत में समय पर भक्ति की गाड़ी बंगले के अहाते में प्रविष्ट हुई । उसने ड्राईवर के दरवाज़ा खोलने की प्रतीक्षा किए बिना गाड़ी का दरवाज़ा खोला और अंदर भागी । बीच में खड़े लोगों ने उसे मार्ग दे दिया था । वह किसीकी ओर देखे बिना पिता की निश्चेष्ट देह से चिपट गई ।

'अरे!मंत्री जी अचानक कहाँ चले गए?"कॉस्मॉस ने चौंककर देखा और उसके चेहरे पर मुस्कराहट आ गई ।

मंत्री सत्यव्रत जी बेटी को देखकर विचलित हो उठे थे, न जाने कब वे अपने शरीर में प्रवेश कर गए थे। भक्ति पिता के शव के गले मिली, उसने महसूस किया पिता का आधा शरीर कुछ ऐसे ऊंचा उठा जैसे वे जीवित थे। उसने पिता के वात्सल्य की उष्णता महसूस की और उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा।

मंत्री जी की देह को इस प्रकार ऊपर उठता देखकर बेटों व वहाँ उपस्थित अन्य लोगों ने देह को ज़ोर लगाकर नीचे लिटाया । बेटी भक्ति अभी तक स्नेह की उष्णता महसूस कर रही थी । पिता का स्नेहिल स्पर्श उसके कानों में यह कहकर पुनः वहाँ से चला गया था ;

"सदा इसी मार्ग पर चलना, मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ । "

भक्ति एक बार भाईयों के गले मिलकर प्रोफ़ेसर के कंधे पर सिर रखकर शांत मुद्रा में पिता के पार्थिव शरीर को निहारने लगी । प्रोफ़ेसर उसके सिर पर स्नेह से सांत्वनापूर्ण हाथ फिराते रहे । दोनों एक-दूसरे की मन:स्थिति समझ रहे थे।

दिवस की गहमागहमी से वातावरण में पुन:चुप्पी का अहसास पसर गया। मंत्री जी के पार्थिव शरीर को ले जाने का समय हो रहा था। तैयारियाँ ज़ोर-शोर से होने लगीं । जो लोग कल वापिस लौट गए थे, वे सब फिर दिखाई दे रहे थे।

मिडिया के लोगों में अधिक चलकदमी होने लगी थी। चारों ओर कैमरे घूम रहे थे। मंत्री जी के शव को बेटों व अन्य समीपी लोगों द्वारा गंगाजल से स्नान करवाया जा रहा था और वे आनंदमग्न कॉस्मॉस के साथ कमरे में जाकर प्रत्येक गतिविधि बड़ी उत्सुकता से देख रहे थे। प्रोफेसर व बिटिया भक्ति तथा कुछ और वे लोग जो मंत्री जी की वास्तविक सदाशयता को समझते थे, उदास थे।

" यह सब धर्म है क्या?" कॉस्मॉस ने मंत्री जी के शरीर को स्नान करवाते हुए देखकर पूछा ।

" इस समय शरीर को घर से निकाला जा रहा है, हम कहीं पर जाते हैं तब स्नान करके स्वच्छ होकर जाते हैं न? अब यह शरीर सदा के लिए जा रहा है, इसे स्वच्छ किया जा रहा है । आज का धर्म तो पंडितों का व्यवसाय है, ये सामजिक परंपराएं बना दी गई हैं । ये सब पंडित लोगों का व्यवसाय है। बल्कि मैं तो कहूँगा --राजनीति है---। "

" इसमें राजनीति की बात कहाँ से आ गई ?" कॉसमॉस की छोटी सी बुद्धि में इतनी गहन बातें कैसे आतीं ?

" ये जन्म तथा मृत्यु के समय जो संस्कार होते थे उनके पीछे विज्ञान होता था किन्तु अब व्यवसाय होता है । और तो और चिकित्सक से लेकर पंडित के क्षेत्र में, सबमें राजनीतिक भावनाएं प्रविष्ट हो गई हैं । तुम्हें क्या लगता है जो सब कुछ होगा वह मेरे लिए या मेरी मुक्ति होगा, नहीं यह सब राजनैतिक चोंचले हैं । '

"वो कैसे?"

" सबको एक राजनेता की पार्टी में रूचि है, मुझमें क्या और किसकी रूचि हो सकती है?मैं प्रयास करता रहा हूँ न तो किसी का गलत काम में साथ दूँ और न ही यथाशक्ति किसीको कुछ ऐसा दुरुपयोगी कार्य करने दूँ जिससे समाज का अहित हो । मेरे व्यक्तिगत रूप से जीवित रहते जो लोग लाभ नहीं उठा सके, इस समय मेरी अनुपस्थिति का लाभ तो उठाएंगे । "

कॉस्मॉस के मन में न जाने कितने प्रश्न बारंबार कुलबुला रहे थे ।

"यह जीवन कैसा उपहार है जिसकी प्राप्ति की अनुभूति प्रसन्नता है तो उसका बिछुड़ना पीड़ा है ? जब मनुष्य का शरीर ही उसका साथ छोड़ देता है तब और कोई कैसे उसका साथ दे सकता है ?क्या और कैसा रहस्य है यह जीवन का ? "

" जब हम अपने आपमें जीना सीख लेते हैं तब जीवन का रहस्य भी जान लेते हैं, जब मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में जीवन को सहजता से जीने लगता है तब वह अपने भीतर ईश्वर को पा लेता है, जीवन के रहस्य को पहचान लेता है, समझ लेता है उसके स्वयं के भीतर ही ईश्वर है जिसका वह भाग है, उसे कहीं खोजने की आवश्यकता नहीं है । "

"आपकोअपने भीतर ईश्वर मिला क्या?"कॉस्मॉस की तहकीकात जारी थी ।

"ईश्वर न तो कहीं खोता है, न ही उसे कहीं तलाशने की आवश्यकता है। मैंने स्वाति के मुझे दर्पण दिखाने के पश्चात सदा ईश्वर को अपने भीतर महसूस किया है। "

अन्य मंत्रीगणों का पहुंचना प्रारंभ हो चुका था। प्रत्येक स्थान की भाँति सत्यव्रत जी की राजनैतिक पार्टी में भी कुछ लोग आस्तीन के साँप थे लेकिन उस समय वे इस प्रकार चेहरे लटकाए घूम रहे थे मानो उनके सबसे बड़े हितैषी चले गए हों और वे निराधार हो गए हों, बिलकुल अनाथ ! उनके कलफ लगे धवल वस्त्रों में से महंगे विदेशी इत्र की सुगंध आ रही थी। उन्होंने राजनीति के पर्दे में न जाने कितने डाके डाले थे और घोटालों पर घोटाले करते जा रहे थे जिनसे सत्यव्रत बहुत खिन्न थे। "कॉस्मॉस ! मनुष्य को ज्ञात होता है उसके पास कितना धन है किन्तु उसे यह ज्ञात नहीं होता कि उसके पास समय कितना है ? यह कितने आश्चर्य की बात है कि सब कुछ समझते हुए भी मनुष्य अपने धन को खर्च करने में संकोच करता है तथा समय को ऐसे नष्ट करता चला जाता है जैसे वह कभी ऊपर जाने वाली पंक्ति में खड़ा ही नहीं होगा । मेरी यहाँ की यात्रा समाप्ति पर है फिर भी मैं यही सोच रहा हूँ मेरे पास अभी कितना समय है? । "

" क्या यहाँ कोई अपनी आत्मा की आवाज़ नहीं सुनता ?"

" कोई अपनी आत्मा की आवाज़ सुनना ही नहीं चाहता, आत्मा तो कभी मरती नहीं कॉस्मॉस --!" मंत्री जी की मनोदशा से दूत भी पीड़ित था। अब भी कॉस्मॉस चुप बना रहा।

" क्या सोच रहे हो?" सत्यव्रत ने कॉस्मॉस को चुप देखकर पूछा ।

"महोदय! मैं बहुत दुविधा में हूँ। मैं जानता हूँ संभवत: अब आप मेरी सहायता नहीं कर सकेंगे। मैंने ही देरी कर दी है --अब?"वह चिंतित दिखाई दे रहा था।

" प्रयास करूंगा, तुम समस्या तो बताओ--"

"आपके पास से लौटने के पश्चात मैं एक गर्भवती स्त्री को लेने पहुंचा किन्तु उसने अपने गर्भस्थ शिशु के कारण मेरे साथ चलने से मना कर दिया । मुझे इस बात का आश्चर्य था कि उसने पति अर्थात शिशु के पिता का नाम बताने से मुझे कठोरता से क्यों इंकार कर दिया था ? उसने कहा था कि वह अपने शिशु की माँ व पिता दोनों है। "

" उसका नाम जानते हो?" मंत्री जी का स्वर अचानक बेचैन हो उठा ।

"सत्य पर ही तो था, इसीलिए मैं उसे ले जाने गया था लेकिन वह मुझ पर बरस उठी । मुझे भी पश्चाताप हुआ, मुझे गर्भवती स्त्री की संवेदनाओं को पीड़ित करने का अधिकार नहीं था। "वह रुंआसा हो उठा ।

" तुम्हें अचानक उसकी स्मृति क्यों आई कॉस्मिक?"

"मेरे मन में न जाने जाने क्यों यह विचार उठा कि मैं पृथ्वी से सदा के लिए जाने वाले और इसी पृथ्वी पर कुछ समय के लिए जन्म लेने वाले दोनों का साक्षी बन रहा हूँ । "

"उसका नाम कहीं सत्याक्षरा तो नहीं था ?"मंत्री जी की आँखों में नन्ही सी चमक भर आई ।

" जी, बिलकुल ! यही नाम था । आप जानते हैं उसे?" दूत के चेहरे पर प्रसन्नता मिश्रित उत्कंठा थी ।

"क्या तुमने प्रोफेसर से इस बारे में चर्चा की थी?"

"जी नहीं ---"

"क्या आप सत्याक्षरा से परिचित हैं ?" उसने अपना प्रश्न दोहराया जिसका मंत्री जी ने कोई उत्तर नहीं दिया ।

"कॉस्मॉस!मुझे अब चलना होगा, मेरी अंतिम यात्रा आरंभ होने वाली है । मुझे प्रोफेसर को इस सत्य से अवगत कराना है । तुम मेरे जीवन में आए, मैं तुमसे प्राप्त ज्ञान व सूचनाओं के लिए तुम्हारा आभारी हूँ । मेरे साथ चलो और मेरे अंतिम संस्कार के पश्चात प्रोफेसर के साथ सत्याक्षरा के पास जाना, तुम्हें सब ज्ञात हो जाएगा। "

मंत्री जी ने 'हाँ', 'न'कहने के स्थान पर समय की सीमा की ओर इंगित किया था । क्यों? संभवत:वे इस दुनिया को छोड़ते समय इस घड़ी किसी पीड़ा से गुज़रना नहीं चाहते थे ।

क्रमश..

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