क़ुदरती तौर पर कुछ चीज़ें..कुछ बातें...कुछ रिश्ते केवल और केवल ऊपरवाले की मर्ज़ी से ही संतुलित एवं नियंत्रित होते हैं। उनमें चाह कर भी अपनी मर्ज़ी से हम कुछ भी फेरबदल नहीं कर सकते जैसे...जन्म के साथ ही किसी भी परिवार के सभी सदस्यों के बीच, आपस का रिश्ता। हम चाह कर भी अपने माता-पिता या भाई बहनों को बदल नहीं सकते कि...
"हे!...मेरे परवरदिगार...है!...मेरे मौला, ये पिता या माँ अथवा भाई या बहन हमें पसंद नहीं। इन्हें बदल कर आप हमें दूसरे अभिभावक या भाई-बहन दे दीजिए।"
साथ ही हर व्यक्ति की पैदाइश के साथ ही ऊपरवाले द्वारा उसका स्वभाव...उसकी आदतें वगैरह भी सब तयशुदा मंज़िल की तरफ बढ़ने के लिए भेज दी जाती हैं कि वह मीठा...मिलनसार..दूसरों की मदद को तत्पर रहने वाला निकल कर सबका जीवन खुशमय करेगा अथवा कड़वा...कसैला...शंकालु एवं झगड़ालू बन के सबका जीवन नर्क बनाता हुआ हराम करेगा। इस बार ऐसे ही अटकते चटकते रिश्ते और एकदम विपरीत स्वभाव की दो बहनों की दास्तान पढ़ने को मिली मुझे प्रसिद्ध साहित्यकार वंदना अवस्थी जी के उपन्यास "अटकन चटकन" में।
जी!...हाँ...आपने सही सुना "अटकन चटकन"। अभी हाल फिलहाल ही एक फ़िल्म आयी है इसी...याने के "अटकन चकटन" के ही नाम से जिसे बनाया है प्रसिद्ध संगीत निर्देशक ए आर रहमान ने। वो कहते हैं ना कि...दुनिया गोल है। क्या ग़ज़ब का संयोग बनाया है ऊपरवाले ने? और मज़े की बात ये देखिए कि फ़िल्म की शुरुआत में ही एक किताब दिखाई देती है जिसका नाम भी हमारी वाली किताब की ही भांति "अटकन चटकन" है। यकीन मानिए कि बस नाम के अलावा कुछ भी समान नहीं है...सब का सब अलग है।
चलिए!...अब बात करते हैं इसकी कहानी की तो कहानी कुछ यूँ है कि एक ही परिवार में जन्मी दो बहनों की शक्ल सूरत और स्वभाव एक दूसरे से एकदम भिन्न है। एक को जहाँ ऊपरवाले ने दुनियां जहां की खूबसूरती की नेमत बक्शी है तो वहीं दूसरी तरफ दूसरी बहन शक्ल औ सूरत क्या...सीरत के मामले में भी उससे एकदम भिन्न।
ऐसे में तो भय्यी...आप कुछ भी कह लो...थोड़ी बहुत ईर्ष्या..जलन तो बनती ही है...इसमें कोई शक नहीं लेकिन हद दर्ज़े की नफरत? ना बाबा ना...इसे तो भय्यी हम किसी भी कीमत पर जायज़ नहीं ठहरा सकते।
चलो!...माना कि बचपन बड़ा भोला होता है। गुस्से के मारे हो जाता है कि एक ने शरारत की और दूसरे की उसी वक्त...उसी के सामने...ढंके की चोट पर धड़ाधड़ बोलते हुए चुगली कर शिकायत लगा दी कि...इस बाबत मैनें तो जो करना था..कर दिया। अब तू देख तमाशा। तमाशे तो भय्यी उस छुटकी ने इतने किए...इतने किए कि बस पूछो मत। आए दिन घर के कभी बड़ों से तो कभी स्कूल में अध्यापकों से खामख्वाह में कानाफूसी करते इधर उधर की इतनी चुगलियाँ कि बड़की बेचारी कभी इहां डाँट खाएं तो कभी उहां आँसू बहा..रो..रो आँख सुजाए।
आँखें सुजाने में तो चुटकी का भी भय्यी बस पूछो मत। क्या ग़ज़ब रो रो के अपनी आँखें सुजाती कि सब उसको सच्चा और बड़की को झूठा मान..बड़की को ही गरियाते रहते और बड़की बेचारी..ना चूं...ना चां...ना हूँ हाँ, बस छुप छुप के अकेले में सुबक सुबक रोती रहती।
कहते हैं कि बढ़ती उम्र के साथ सब में समझ आ जाती है। अब अगर सच में आ जाती तो क्या बात थी। छुटकी का अब भी वही रोना धोना...वही नौटंकी..वही लटके झटके। हद तो इस बात की कि बड़की के उसके प्रति किए गए हर अच्छे काम में उसको कोई ना कोई साजिश नज़र..कोई ना कोई खोट नज़र आता। अब कोई उससे साजिश कर साफ़ बच के निकल जाए, ऐसा भला कैसे हो सकता था? बदले में वो अपनी कुंठाओं के चलते साजिशों..चालों का अंबार लगा देती।
पढ़ते वक्त सोचा कि चलो...ब्याह के जब दोनों अपने अपने घर चली जाएँगी तो उनके साथ साथ हमें भी चैन आ जाएगा। मगर चैन कहाँ भला अपनी किस्मत में लिखा था? बड़की की मति फिर गयी जो उसी को अपनी जेठानी बना अपनी ही ससुराल में..अपनी ही छाती पे मूंग ढलने को ला बैठी कि... चलो!...बचपन तो इसका जैसे तैसे बीता...बाकी की जून ही कम से कम सुधर जाए। उसका कुछ सुधर या संवर जाए? वो भी बड़की के हाथों? ये भला छुटकी को कैसे मंज़ूर होता? हो गया नए सिरे से शुरू फिर वही नौटंकी..वही साजिशों का दौर।
कहानी...यूँ समझ लो कि शुरू से अंत तक बस मज़ेदार ही मज़ेदार है। अब सारी किस्सागोई अगर मैनें यहीं कर दी तो भय्यी इतनी बढ़िया किताब फिर पढ़ेगा कौन? शिक्षा...रोजगार और महिला सशक्तिकरण जैसे कई मुद्दों को अपने में समेटे इस लघु उपन्यास में बस इतना समझ लो कि एकदम से समय और पैसे..दोनों की फुल्ल बटा फुल्ल वसूली है।
अब आप कहेंगे कि डायबिटीज़ के ज़माने में यहाँ तो सब मीठा ही मीठा हो गया। बैलेंस के लिए कम से कम थोड़ा बहुत नमकीन तो हो। अब वैसे तो कुछ खास नमकीन है नहीं मेरे झोले में मगर अब जब इतने प्यार से आप ज़िद कर ही रहे हैं तो वह भी लीजिए।
पूरे उपन्यास में स्थानीयता के पुट के चलते बुंदेलखंडी भाषा का खूब धड़ल्ले से इस्तेमाल हुआ है और यही इस्तेमाल शुरू में थोड़ा मेरी दुविधा का कारण भी बना। ये तो शुक्र मनाओ मेरे स्टाफ और बॉलीवुड की उन तमाम फिल्मों का जिनमें बुंदेलखंडी या फिर उससे मिलती जुलती भाषाओं का प्रयोग किया गया। मेरा तो चलो..जैसे तैसे गुज़ारा करते हुए काम चल गया मगर ये सोचो कि बुंदेलखंडी या ऐसी ही अन्य किसी भाषा को बिल्कुल भी ना जानने वाले हिंदी किताबों के शौकीन पाठकों का क्या होगा? कैसे वो किसी कहानी या उपन्यास के असली मर्म याने के भीतरी तहों तक पहुँच पाएँगे?
वैसे..एक सुझाव है तो सही कि या तो ऐसे संवादों को हिंदी मिश्रित स्थानीय भाषा में लिखा जाए। या फिर दो किरदारों में से कम से कम एक किरदार स्थानीय भाषा के बजाए हिंदी में बात करे। एक अन्य तरीका यह भी हो सकता है कि स्थानीय भाषा के सभी संवादों के हिंदी अनुवाद भी साथ साथ दिए जाएँ।
संग्रहणीय क्वालिटी के इस 88 पृष्ठीय लघु उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य महज़ ₹125/- रखा गया है जो कि किताब की क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही कम है। आने वाले सुखद भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।