कामनाओं के नशेमन
हुस्न तबस्सुम निहाँ
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‘‘यह आपका आशीर्वाद है बाबू जी।‘‘ बेला ने बहुत ही रूंघे गले से कहा।- ‘‘यही सब पा कर जिंदा हूँ। अब देखिए न आज मेरी शादी की सालगिरह है और मुझे आज पूरी तरह सिंगार करना चाहिए, एक सुहागन की तरह लेकिन मैं कितनी विवश हूँ कि मैं ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी होकर अपने गले में पड़ा यह हार भी नहीं निहार सकती।‘‘ कहते हुए बेला फफक कर रो पड़ी।
केशव नाथ जी उस क्षण जैसे बेला को देखते भर रह गए। वह बेला की इस निरीहता पर पूरी तरह आहत होकर चुप लगा गए। बस बेला के सिर पर हाथ फेरते रहे। माला चुपचाप खड़ी बेला के गले में पड़े उस हार को बड़ी मासूमियत से निहारती रही। उसके बाल मन को शायद इस क्षण उस हार से ज्यादा और कुछ नहीं छू पाया था। वह धीरे से मुस्कुरा कर बोली- ‘‘माँ जी, यह हार आप पर बहुत अच्छा लग रहा है। सिनेमा में जो हीरोईनें पहनती हैं वैसा ही इस समय आप पर लग रहा है।...बहुत ही सुंदर।‘‘
हालांकि माला ने बहुत ही सहज भाव में यह बात कही फिर भी केशव नाथ जी और बेला को यह बात कहीं अंदर तक दंशित कर गई थी।
‘‘मेरे सुंदर दिखने या न दिखने का अब अर्थ ही क्या है। एक प्लास्टिक के खूबसूरत फूल की तरह हूँ जिसमें कहीं कोई गंध नहीं, कोई खुशबू नहीं।‘‘
तभी बाहर के फाटक के खुलने की आवाज आई। लूसी फिर अपने स्नेहिल अंदाज में कुंवाने लगा है। सब के सब चुप हो गए हैं। पास खड़ी माला फिर बहुत ही उल्लासित स्वर में बोली- ‘‘लगता है छोटे बाबू आ गए। लूसी उन्हें देख कर इसी आवाज में कुंकवाता है।‘‘ इतना कह कर वह कमरे के बाहर तेजी से देखने के लिए भाग गई और कुछ पलों में अमल का ट्राली बैग खींचती हुई भीतर दाखिल हुई और उत्साह से बोली- ‘‘मैं कहती थी न आज छोटे बाबू जरूर आएंगे। मेरा मन कह रहा था।‘‘
बेला ने माला की ओर देख कर कहा- ‘‘तेरा मन मुझसे भी बड़ा है और बहुत विश्वासी भी। आज तू ही अपने छोटे बाबू को डांटना इतने दिनों बाद वापस आने के लिए।‘‘
अमल आते ही केशव नाथ जी के पांव छू कर बोले- ‘‘किससे मुझे डांट खिलवा रही हो बाबू जी से या फिर इस माला दादी से।‘‘ माला हँस कर बोली- ‘‘आज माँ जी आपको डांटेंगी। कहाँ रह गए थे इतने दिनों तक। सब यहाँ चिंता करने लगे थे।‘‘
अमल ने जैसे इस चिंता वाली बात के संदर्भ को काटते हुए हँस कर बोले- ‘‘माला, तेरे लिए लड़का ढूंढ़ने लगा था। लेकिन खाली हाथ लौटना पड़ा।‘‘
उनकी इस बात पर किसी में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी। एक अर्थ भरी चुप्पी तनी रह गई थी। सबकी आँखें अमल की ओर टिकी हुई थीं ढेर सारे अर्थ लिए।
तभी शायद बेला को लगा कि अभी केशव नाथ जी अमल पर कुछ तीखी बातों से बरस पड़ेंगे, उसने उस असहज स्थिति से अमल को उबारने के लिए माला से कहा- ‘‘जाकर पानी गरम कर दे और जब तक फ्रेश हो कर लौटें एक बढ़िया सी चाय बना लाना।‘‘
अमल बेला की ओर फिर केशव नाथ जी की ओर बहुत चुप दृष्टि से निहारते हुए बाथरूम की तरफ चले गए। अमल जब लौट कर बेला के पास आए तो उसके माथे को चूमते हुए कहा- ‘‘मेरे न लौटने को लेकर काफी चिंतित रही होगी न...?‘‘ बेला ने अमल का गाल छूते हुए मुस्कुरा कर कहा- ‘‘बाबू जी ज्यादा परेशान हो रहे थे। पचमढ़ी वाले कार्यक्रम का कवरेज टी.वी. और अखबारों में आया था। उसमें तुम्हें न पा कर आश्चर्य चकित भी थे और चिंतित भी। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश भी की कि बहुत दिनों बाद वह घर से बाहर निकले हैं, उन्हें थोड़ा चेंज मिल जाएगा। नहीं तो मेरे पास ही बैठे रहना चुपचाप। मेरे ही भविष्य के बारे में सोचते रहना।
‘‘तुम्हारे बारे में सोचना बहुत सुखद लगता है।...तुम्हें मेरी चिंताएं मन को अच्छी नहीं लगतीं...? ऐसी चिंताओं में बहुत शहद भरा होता है। यही मिठास सारी व्यथाओं को काट डालती है।‘‘
‘‘सो तो मैं महसूस करती हूँ...तुम्हारी यही चिंता मुझे जिलाए जा रही है।‘‘ बेला ने अमल की उंगलियों को मुट्ठयों में भींचते हुए कहा। तभी अमल ने बेड पर पड़े बड़े से पैकेट की ओर देखा और फिर बेला के गले में पड़े हार को देखते हुए कहा- ‘‘बाबू जी ये सब ले आए हैं?‘‘
‘‘हाँ, माँ का पुराना हार था उसी को तोड़वा कर नए डिजाईन में बनवाया कर ले आए हैं।‘‘ फिर हँस कर पूछा- ‘‘तुम्हें याद है आज कौन सी तारीख है?‘‘
‘‘याद है, आज चार नवंबर है। हमारी शादी की चौथी सालगिरह। मैं तभी भाग कर आया हूँ आज।‘‘ फिर कुछ आहत भाव से बोले मानस- ‘‘मन मसोस कर रह गया था पचमढ़ी में तुम साथ नहीं थीं। बड़ी खूबसूरत पहाड़ियां हैं। बड़ी प्यारी जगह है। बड़ा सुहावना मौसम था वहाँ का।‘‘
बेला ने शायद जैसे अमल की पीड़ा को समेटते हुए कहा था- ‘‘तुम्हारी छुवन से ही मुझे सारा कुछ सुहावना लगने लगता है। मैं तो सारा कुछ तुम्हारी इस छुवन से ही पा जाती हूँ। लेकिन तुम मुझसे क्या पाते हो। मैं तुम पर, तुम्हारी पुरूषवत् कामनाओं पर और तुम्हारे पूरे भविष्य पर एक पहाड़ की तरह लदी हुई महसूस होती हूँ। कभी-कभी मुझे खुद पर हँसी छूटती है कि मैं किसी रद्दी कागज की तरह बहुत ही हल्की हो चुकी हूँ और मुझमें वजन पहाड़ों का है। ...है न सच्ची बात।‘‘
‘‘धत्त...ये सब बातें छोड़ो आज। तुम्हें वो रात याद है, आज से चार साल पहले की जब तुम्हें पहली बार मैंने बांहों में भर कर उठाया था, तो मैंने तुमसे कहा था कि तुममें किसी सुरम्य पहाड़ियों का सा वजन है। ढेर सारे फूलों से लदी हुई असंख्य वृक्षों वाली पहाड़ियां।‘‘
बेला ने शायद उन पलों को याद करते हुए बहुत ही धीमें स्वरों में कहा था- ‘‘तब मैने तुमसे कहा था, यह मेरे भीतर लदी कामनाओं का वजन है। मेरे सपनों का वजन है।...सो तो आज भी उस वजन से मुक्त कहाँ हो पाई हूँ। शादी के साल भर बाद ही तो पूरी तरह अपाहिज हो गई, लेकिन मेरे भीतर कामनाओं का वजन जस का तस धरा हुआ है।‘‘
‘‘मैने तुमसे कितनी बार कहा कि इन सब बातों से मिलना क्या है। मैं तुम्हारे पास हूँ, इससे बढ़ कर तुम्हारी तृप्ति और क्या हो सकती है।?‘‘ फिर उन्होंने बात घुमाते हुए पूछा- ‘‘बाबू जी तो मुझसे बहुत नाराज होंगे न?‘‘
‘‘हाँ, लेकिन अभी मैंने उन्हें मना कर दिया कुछ बोलने से।‘‘ बेला भी शायद अपने आपको उस भारी पन से निकालते हुए बोली- ‘‘मैंने कहा बहुत थक कर आए हैं, फिर जो कहना हो बाद में कह लीजिएगा। वैसे तुम पर तो गुस्सा हैं।‘‘ फिर उसने थोड़ा ठिठक कर कहा- ‘‘तुम शराब पीने लगे हो वह जान गए हैं। तुमसे भी तो गलती हुई...तुम्हें अपने सितार के कवर में शराब छुपा कर नहीं रखना चाहिए था। पता नहीं क्यों उनका मन तुम्हारे सितार पे रियाज करने का हो गया था। कहने लगे हमारे पिता पं. यशनाथ हमेश मुझे यह समझाते थे कि कलाकार के लिए शराब बहुत बाधक है। यह पूजा और साधना की चीज है। इसे अपवित्र नहीं करना चाहिए।...मैं भी थोड़ा चौंकी थी कि तुम चुपके-चुपके शराब पीने लगे हो। लेकिन मैंने बाबू जी को समझाने का प्रयास किया कि आपका जमाना और था, विचार और थे। शराब बहुत बुरी चीज नहीं है कि यह किसी की महानता को नष्ट कर डाले। फिर मानस कितना तनाव में भी तो रहते हैं मुझे लेकर।‘‘
अमल बेला की आँखों में न जाने किस पीड़ा को देख कर अंदर तक हिल से गए। वह कुछ भी न बोल पाए थे। तभी बेला ने मुस्कुराते हुए कहा था- ‘‘देखो...मैं तुम्हें किसी बात के लिए मना नहीं करूंगी। बस तुम मुझे लेकर तनाव में न रहा करो।...यही मैं सह नहीं पाऊँगी।‘‘ इतना कह कर वह एक अजीब सी विवशता को जैसे स्वीकार करती हुई फफक कर रो पड़ी। तभी माला चाय लेकर आ गई। उसने बेला को रोते देख कुछ सहमी फिर हँस कर बोली- ‘‘छोटे बाबू, आज तो मैं भी नए कपड़े लूंगी आपसे। आप लोगों का कोई आज सालगिरह है...न...‘‘
तभी बेला सम्भलती हुई बोली- ‘‘हाँ माला...बिल्कुल। क्या पता ये सारा कुछ तेरा ही हो जाए। तेरी माँ नहीं हैं और तू मुझे माँ कह कर पुकारती है।...मैं ही तुझे ही गोद ले लूंगी।‘‘
माला तब बहुत ही मासूमियत से चहक कर बोली थी- ‘‘और जब आपको कोई बच्चा हो जाएगा तब?...तब तो आप मुझे निकाल देंगीं।‘‘ कह कर वह भोलेपन से हँसने लगी। अमल और बेला को जैसे साथ-साथ माला की इस सहज कल्पना ने झकझोर कर रख दिया है। वे एक दूसरे की आँखों में एक अव्यक्त सी पीड़ा जैसे तलाश करने लगे हैं-चुपचाप। माला की निश्चल हँसी की आवाज जैसे उन पलों में कांच की किरचें बिखेर गई है। तभी बहुत ही भर्राई आवाज में एक फीकी मुस्कुराहट के साथ बेला ने कहा- ‘’मैं इस जन्म में अब माँ कहाँ बनूंगी। तेरे ही माँ कहने से मैं अपने आपको माँ होने का एहसास कराऊँगी।‘‘
अमल बहुत डूबती आँखों से बेला का चेहरा बस निहारते भर रह गए हैं। शायद वह इस क्षण उसकी निरीहता झेल नहीं पा रहे थे। माला भी हठात् बेला का चेहरा निहारती चुप सी लगा गई थी, एक अपराधबोध के साथ। शायद उसे अंदर से महसूस हुआ था कि कहीं उससे बहुत गलत बात निकल गई थी। वह अबूझी सी पास खड़ी बातों का वो छोर नहीं पकड़ पा रही थी जिसके कहने से बेला अभी हँसने लगे और खुश हो जाए। तभी बेला ने उसे किचेन से कुछ नमकीन लाने को कहा। वह चली गई। तब बेला ने अमल से कहा- ‘‘मुझे माँ बन पाने की उतनी तकलीफ नहीं है जितनी तकीफ तुम्हें एक स्त्री का सुख न दे पाने की है। मैं तुम्हारे पुरूष का जन्म जैसे अकारथ करती जा रही हूँ। मैं तुम्हारी इस उम्र को एक बहुत ही निर्जन और विशाल रेगिस्तान में घसीटती जा रही हूँ।‘‘
अभी यह बेला की पीड़ा जैसे अमल को अंदर तक चीर गई है। वह एक अपराधबोध से जैसे कहीं गहरे धंसने लगे हैं। पचमढ़ी में वह मोहिनी के साथ के महकते हुए पल जैसे उनके अंदर किसी अंगार की तरह सुलगने लगे हैं। कभी-कभी किसी की बहुत ईमानदार आकुलता जब कहीं से चुपचाप कटने लगती हो तो मन एक अजीब अपराधी की तरह छटपटाने के लिए विवश हो जाता है। शायद अभी उनके प्रति एक ऐसी ही बेला की आकुलता उन्हें अविश्वसनीय बना गई है चुपचाप। बेला की ऐसी आकुलता में जो उनके प्रति एक सहज विश्वास था, उसे उन्होंने जैसे चुपचाप निःशब्द खंडित कर दिया हो। अमल एक अजीब भाव से बेला का निष्कलुष चेहरा निहारते भर रह गए हैं-निःशब्द।
तभी बेला ने बहुत सहज भाव में अमल से कहा- ‘‘बाबू जी को यहीं बुला लो, वे साथ ही चाय पी लें। अभी उन्होंने भी चाय नहीं पी है।‘‘
अमल चुपचाप बाजू वाले कमरे में बाबू जी को बुलाने चले गए।
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केशव नाथ जी के चेहरे पर एक अव्यक्त सी थकान ढरकी हुई थी। वह थकान उनके एक लंबे जीवन की यात्रा की थी या फिर वे बेला और अमल की असहज स्थितियों से चुपचाप जूझ रहे थे, उसकी थकान। वह अपनी आरम कुर्सी पर ढले से बैठे थे। अमल का साहस नहीं हो रहा था कि वह उनसे चाय के लिए इस क्षण कह सकें। उन्होंने अमल को पास खड़े देख लिया था लेकिन वे चुपचाप अमल का चेहरा निहारते भर रह गए थे। जैसे उनके भीतर ढेर सारे शब्द उबल रहे हों। लेकिन वह कह नहीं पा रहे थे। जब ढेर सारी स्थितियां बटुर जाती हैं तो किस स्थिति के बारे में पहले कहा जाए यह निर्णय कर पाना मुश्किल हो जाता है। शायद केशव नाथ भी अमल से कुछ कहने के लिए निर्णय तलाश रहे हों जैसे।
‘‘यहाँ आओ, मेरे पास बैठो।‘‘ केशव नाथ ने एक बहुत ही असहज स्वर में कहा- ‘‘मैं तुम्हारा सिर्फ पिता ही नहीं हूँ, एक गुरू भी हूँ। बहुत बचपन से ही तुम्हें सितार पर उंगलियां रखनी सिखाई थीं।....तुम्हारी माँ की बस एक ही आकांक्षा थी तुम्हारे लिए कि तुम्हें इस देश का सबसे बड़ा सितारवादक बना दूं...। भाग्य से तुम्हारे पास गजब की प्रतिभा है और तुमने मेरे साथ वही श्रम और साधना की है जिससे तुम बहुत ही उंचाईयों पर जा भी रहे हो। लेकिन पता नहीं क्यों लग रहा है कि तुम अपनी माँ का या फिर मेरे सपनों को साकार नहीं कर पाओगे।...सारा कुछ रहते हुए भी।‘‘
अमल चुपचाप केशव नाथ जी के पांवों के पास पड़ी चटाई के पास बैठ गए थे और शायद पहली बार उन्होंने अपने पिता के चेहरे पर अपने प्रति ऐसी हताशा महसूस की थी। वह चुपचाप उनका चेहरा निहारते भर रहे और शायद आज पहली बार उनके चेहरे पर फैली एक बहुत पवित्र सी मुस्कान लुप्त सी लगी है। उन्होंने फिर एक आहत भाव से कहा- ‘‘शायद तुमने पचमढ़़ी में अपना प्रोग्राम नहीं दिया।‘‘
अमल ने एक गहरे अपराधबोध के साथ सिर झुकाते हुए कहा- ‘‘मन अंदर से बहुत उखड़ा हुआ था। सितार छूने का साहस नहीं जुटा पाया। इसलिए प्रोग्राम में नहीं शमिल हुआ।‘‘
केशव नाथ जी अमल का चेहरा बहुत ही गहरी आत्मीयता के साथ निहारते हुए बोले- ‘‘मैं तुम्हारे मन की दशा को अच्छी तरह समझता हूँ...या फिर तुम जितना चुपचाप झेल रहे हो उसे भी महसूस करता रहता हूँ‘‘ फिर वह बहुत गहरे अर्थ क साथ धीमें स्वर में बोले- ‘‘देखो, बेला को यदि आभाष हो गया कि तुम उसकी परेशानियों या बीमारियों के कारण अपनी प्रतिभा या सितार छोड़ते जा रहे हो तो शायद वह उसे सह नहीं पाएगी। कुछ भी कर सकती हैं। आत्महत्या तक।‘‘
अमल बच्चों की तरह पिता के पांव पर सिर रखते हुए एक कातरता से बोला- ‘‘मैं खुद नहीं सोच पा रहा हूँ बाबूजी कि बेला और सितार में किससे विमुख होऊँ...मैं दोनों के बिना नहीं जी सकता।‘‘
केशव नाथ जी अमल के बालों पर बहुत पीड़ा के साथ हाथ फेरते हुए बोले- ‘‘सितार तेरी आत्मा है और बेला तेरा शरीर, लेकिन अब स्थितियां पलट सी गई है। अब सितार को शरीर मानना पड़ेगा और बेला को आत्मा...वह अब बहुत ही निरीह और हताश सी हो गई है। परसों डॉक्टर बता रहे थे कि अब वह शायद ही बेड से उठ पाए।...कमर से नीचे तक उसकी सारी नसें और हड्डियां बेदम हो चुकी हैं। वह पूरी तरह हमारे आश्रित है। मैं अगले माह रिटायर होने जा रहा हूँ नए प्राचार्य का चुनाव भी हो गया है। अब शायद तू भी कॉलेज में इतना समय नहीं दे पाएगा कि तेरी बंधी बंधाई तन्ख्वाह से गुजारा हो सके। अब तो तेरे पास इन्हीं प्रोग्रामों का ही भरेसा रह गया है।...मुझे पचमढ़ी वाला प्रोग्राम छोड़ना इसीलिए ज्यादा फील हुआ है।...कहाँ रूक गया था इतने दिनों तक जब प्रोग्राम नहीं देना था तो।?‘‘
इस प्रश्न पर अमल का पांव जैसे किसी दहकते अंगारे पर पड़ गया हो। वह पुनः एक अपराधी की तरह केशव नाथ जी का चेहरा तकने लगे थे और जैसे एक सच कहने के लिए मजबूर हुए हों। उन्होंने केशव नाथ जी की आँखों में झांकते हुए कहा- ‘‘सितार और बेला के सिवा मेरे पास एक और चीज है बाबू जी...‘‘
‘‘क्या...?‘‘ बहुत कुतुहल से केशव नाथ जी ने निहारते हुए पूछा।
‘‘मेरा अपना पुरूष, ...मैं अपने अपराधबोध से तभी मुक्त हो पाऊँगा जब मै अपने को ही आपके सामने पूरी तरह नंगा कर दूंगा....। पचमढ़ी में मोहिनी रहती है। उसी के पास इतने दिनों तक ठहर गया था। जिसे हमेशा यहाँ नकारा, उसे वहाँ जा कर स्वीकारने के लिए विवश हुआ था। मेरे पुरूष के आगे मेरी सारी नैतिकता भस्म हो गई थी।
केशव नाथ जी बहुत हतप्रभ से अमल का चेहरा बहुत ही दयनयता से निहारते रह गए थे। फिर बोले- ‘‘मुझे इस बात का एहसास है। बेला तुझे वो सब नहीं दे पा रही जो एक पुरूष को इस उम्र में मिलना चाहिए।...लेकिन ये बात बेला को न मालूम होने पाए। वह तेरे पुरूष पर अधिकार रखने वाली एक पत्नी है और एक स्त्री भी जिसका मन कभी दूसरी स्त्री को स्वीकार नहीं पाएगा। उसकी इस असाध्य रूग्णता की तकलीफ से कहीं ज्यादह मारक होगी यह तकलीफ‘‘
तभी माला बुलाने आ गई। बोली- ‘‘चाय वहाँ ठंठी हो रही है और आप लोग यहाँ गप्प लड़ा रहे हैं।‘‘ केशव नाथ जी ने जैसे अपने चेहरे पर आए विषाद को पोंछ कर जैसे हँस कर कहा- ‘‘तेरे लिए दूल्हे की बात कर रहा था जो तेरे बाबू पचमढ़ी में देख कर आए हैं। चल आता हूँ‘‘
इतना कह कर दोनों वहाँ से उठ गए।
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