कामनाओं के नशेमन - 9 Husn Tabassum nihan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कामनाओं के नशेमन - 9

कामनाओं के नशेमन

हुस्न तबस्सुम निहाँ

9

रात में अमल ने बेला को अपने हाथों से सजाया संवारा। उसके जूड़े में एक खुबसूरत रजनी गंधा की वेणी लगाई। वह साड़ी पहनाई जिसे बाबू जील ले के आए थे। फिर बेला के होठों पर होंठ रखते हुए बेला से बोले- ‘‘कैसे तुमने सोच लिया कि मैं आज की तारीख भूल गया था‘‘

‘‘बेला ने अमल के बालों को हाथों से सहलाते हुए एक सहज विश्वास के साथ कहा- ‘‘मैंने तो यह कभी नहीं समझा था। बस, तुम्हारे न लौटने की चिंता होने लगी थी कि जब प्रोग्राम नहीं दिया तो कहाँ ठहर गए थे। कहीं बीमार तो नहीं पड़ गए थे। प्रमेह को भी साथ तबले की संगत के लिए नहीं ले गए थे। अकेले गए थे न बस इसीलिए परेशान थी।‘‘

किसी बहुत ही आत्मीय के प्रति कोई अभियुक्तता बन जाती हो तो मन अपने आप स्वयं को जैसे चुपचाप दण्डित करने लग जाता है। ऐसी स्थिति मन को चीरने वाली होती है। अमल अभी जैसे बेला की आँखों में देख नहीं पा रहे थे। वह अपने आपको बहुत ही लघु महसूस कर रहे थे। तभी बेला ने बहुत ही आहत भाव से मुस्कुरा कर कहा-‘‘...कितनी अभागी हूँ मैं...कि एक पत्नी का सुख तुम्हें नहीं दे पा रही। बिल्कुल असमर्थ हूँ।...अपने पुरूष को यह सुख न दे पाने की असमर्थता, उस स्त्री को पूरी तरह व्यर्थ बना डालती है। मैं कितनी अभियुक्त सी लग रही हूँ अभी इस पल तुम्हारे इस स्पर्श से। मैं इस अपनी असमर्थता को नहीं सह पाऊँगी।...नहीं सह पाऊँगी अमल....‘‘

अमल ने उसके सीने में अपना चेहरा धंसाते हुए कहा- ‘‘आत्मा में भी एक शरीर होता है।...मैं उसे पा रहा हूँ पूरी तरह से। उसी तरह...जैसे तुम्हारा यह शरीर। बहुत जल्दी ठीक हो जाओगी। फिर मैं पूरी तरह तुम्हें जिऊँगा। एक पल के लिए भी इस शरीर को नहीं छोड़ूंगा। दिन-रात सब हिसाब चुकता कर लूंगा समझी...‘‘

बेला अमल की इस बात पर जैसे कहीं सपने में डूबी सी लगी है फिर उसी में डूब कर बोली- ‘‘यदि ऐसा हुआ तो हम पूरे साल तक कहीं किसी सुरम्य पहाड़ी पर टिक कर अपना हनीमून मनाएंगे।‘‘

अमल ने एक भावातिरेक में उसकी उंगलियों को मुट्ठियों में भींचते हुए कहा- ‘‘इन तीन सालों का पूरा हिसाब चुकता कर लूंगा।‘‘ तभी अमल बेला के अंदर पनपे इस मोहक विश्वास को जैसे मुटिठयों में भींचते से रह गए हैं।

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आज सुबह पांच बजे ही बेला जाग गयी, बेड पर बाजू में सोए अमल को बेला ने देखा। वह गहरी नींद में थे। काफी देर तक वह सोए हुए अमल को देखती रही, फिर उसने हल्के से जगाया अमल उठ कर बैठ गए। वैसे वह कभी जगाती नहीं। अमल खुद सुबह उठ कर सितार पर रियाज करने लगते हैं। अमल ने बेला से पूछा- ‘‘क्या बात है? कुछ चाहिए तुम्हें...नीचे से पैन निकालूँ?‘‘

बेला इस बात पर अमल का चेहरा अजीब निरीहता के भाव से तकने लगी है। और फिर गहरी पीड़ा के साथ बोली-‘‘कितने दिन जी पाऊँगी तुम्हारे इस सहारे से। मैं बहुत डरने लगी हूँ जब तुम मेरे लिए पैन या नित्य कर्म की चीजों के लिए सहारा देते हो....। कहीं इन बातों से ऊब कर, मुझसे विरक्त न होने लगो...मुझे एक जरूरी बोझ समझने लगो। कैसी सजा दे रहा है ईश्वर मुझे।...मैंने शादी के बाद इस शरीर को कैसा बनाना चाहा था। बहुत सहेज रही थी कि तुम हमेशा मेरी बाँहों में झूलते रहो।....सारे सपने ही बिखर गए।‘‘

अमल बगल में झुकते हुए बेला के गालों पर होंठ रखते हुए मुस्कुरा कर बोले- ‘‘ये गाल तो अभी बिल्कुल सेब की तरह लाल-लाल हैं....काट लूँ....‘‘

बेला ने अमल का चेहरा हाथों में भरते हुए धीरे से कहा- ‘‘बस, यही तुम्हारा अंदाज मुझे जिंदा रखे हुए है। अभी तो मैं तुम्हारे चेहरे को छू पाती हूँ, क्या पता एक दिन ये हाथ भी साथ न दें। फिर सिर्फ आँखों से ही निहार कर संतोष करना पड़ेगा न।‘‘

अमल ने उसके होंठों पर उंगली रखते हुए कहा- ‘‘देखो बेला, इस तरह की बातों से मुझे नर्वस मत किया करो। मैं तुम्हारा समूचा शरीर ही बन जाऊँगा खुद ही। वैसे तुम बहुत ही जल्दी ठीक हो जाओगी। फिर एक-एक रात का सारा हिसाब चुका लूंगा।‘‘

बेला ने अमल के चेहरे को अपने सीने में भींचते हुए कहा-‘‘काश! मैं एक दिन के लिए भी पूरी तरह इस शरीर से समर्थ हो जाती तो तुम्हें पूरे जीवन भर का सुख दे डालती। अब तो अपने आपको इतना असहाय समझने लगी हूँ कि तुम्हें इन तकलीफों से मुक्त करने के लिए आत्महत्या करने के लिए भी किसी छत से कूदने की इच्छा करूं तो उसके लिए भी असमर्थ हूँ...तुम्हारा ही सहारा लेना पड़ेगा उस आत्महत्या के लिए भी।‘‘

‘‘यार बेला, सुबह-सुबह जगा दिया और यह सब बतियाने लगीं।‘‘ अमल ने थोड़ा हँस कर कहा- ‘‘क्यों जगाया ये बताओ।‘‘ बेला ने फिर कुछ सहमे से स्वर में कहा- ‘‘बाबू जी के कमरे की लाईट रात भर जलती रही। कल से जबसे वह रिटायर होकर लौटे हैं तबसे वह बहुत ही चुप-चुप से हैं। लगता है वे रात भर सोए नहीं हैं। जब तुम शाम को दवा लाने गए थे तब वे कह रहे थे मुझसे कि आज पहली बार लगा है कि मैं बूढ़ा हो चुका हूँ। कोई कलाकार कभी अपने आपको बूढ़ा नहीं महसूस करता है। लेकिन लगता है मैं बहुत थक गया हूँ। उनके चेहरे पर आए भावों से तो मैं बहुत ही डर गई थी। जाओ देखो। माला को बुखार है। उनको तुम्हीं चाय बना कर दे आओ।‘‘

‘‘हाँ, कल अपने रिटायर होने के बाद मुझसे बोले कि ‘‘यह विदाई की माला बहुत बोझिल लग रही है। तुम्हीं इसे साथ ले जाओ। मैं इसे ढो नहीं पऊँगा। इन फूलों में पत्थर के वजन भरे हैं।‘‘ अमल ने एक गहरी सांस खींच कर कहा फिर किचेन की ओर चले गए। जब वह चाय का कप ले कर केशव नाथ जी के कमरे में गए तो वे तकिए से सिर टिकाए न जाने क्या सोचते चुपचाप शून्य निहारते हुए लेटे थे। अमल ने धीरे से कहा-‘‘बाबू जी चाय लाया हूँ‘‘

केशव नाथ जी ने मुड़ कर देख और फिर बैठते हुए बोले- ‘‘माला कहाँ है? तुम क्यों लाए?‘‘

‘‘उसे कल रात से बुखार है‘‘ अमल ने धीरे से कहा।

केशव नाथ जी ने अभी एक गहरी सेंक के साथ अमल का चेहरा तकते हुए बहुत नम लहजे में कहा- ‘‘क्या कहूँ बेटे...मैं तेरी सारी तकलीफें सहने के लिए बहुत विवश हूँ, कभी तुझसे एक गिलास पानी मांगता था तो तेरी माँ बुरा मान जाती थी कहती थी बहुत देवी-देवताओं को पूजा कर इस अमल को पाया है मैने। इससे कोई काम मत लिया करो देवी देवताओं का अपमान होगा। वे इसे हमसे वापस छीन लेंगे। इससे डरा करो। तुझे कुछ करने से रोकता हूँ तो अब बेला अपनी असमर्थता के कारण इस एहसास से मर जाएगी।‘‘

अमल केशव नाथ जी के चेहरे पर तिर आई पीड़ा के भाव को सहन नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने चाय की प्याली उनकी तरफ बढ़ाते हुए कहा- ‘‘माँ ने मरते वक्त मेरा हाथ पकड़ कर यह भी तो कहा था कि ‘‘अमल तू बेटा ही नहीं अपने बाबू जी के लिए अमल की माँ, सुंदरी भी बन जाना उनकी सेवा के लिए।‘‘

‘‘मत याद दिला अमल अपनी माँ सुंदरी की‘‘ केशव नाथ जी ने भरे गले से कहा ‘‘कल सुंदरी बहुत याद पड़ती रही। आज पूरी रात उसे ही सोचता रहा। एक थके हुए शरीर को बहुत निकट का कांधा चाहिए न...कल से बहुत थकान महसूस करने लगा हूँ। मेरी उम्र तो थकने की है, तेरी तो नहीं। तुझे भी बहुत थकता हुआ महसूस कर रहा हूँ।...क्या समझेगा तू इस पीड़ा को जब एक बाप अपने जवान बेटे को उम्र से पहले ही थकता हुआ देखे।‘‘

अमल केशव नाथ जी का पीड़ित चेहरा निहारते हुए धीरे से बोले- ‘‘एक बात बोलूं बाबू जी। हमारी और आपकी पीड़ाएं जरूर आपस में सन चुकी हैं लेकिन इन सब बातों का एहसास अगर बेला को हो गया तो वह अंदर तक टूट जाएगी। जिसे न तो आप सह पाएंगे न ही मैं। हम दोनों उसे बहुत प्यार करते हैं।‘‘

अचानक केशव नाथ जी जैसे इस बात से सहम से गए थे और वह एक अजीब विवशता में अपने अंदर बाहर का सारा कुढ पोछ कर चाय की प्याली अमल के हाथ से ले ली। यह भी एक अलग ही पीड़ा पैदा करती है जब अपने अंदर की पीड़ा को स्व्यं सोख लेने की विवशता अपरिहार्य हो जाती है।

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केशव नाथ जी ने आकर माला का माथा छुआ और अमल से बोले- ‘‘इसे तो तेज बुखार है। मैं डॉक्टर से दवा लेकर आता हूँ। बेचारी बहुत काम करती है। पूरी तरह गृहस्थी यही संभाले है।‘‘

बेड पर लेटी बेला ने दरवाजे के पास किनारे पर सोयी माला की ओर निहारते हुए बहुत आसक्त भाव में कहा-‘‘इसने बहुत सारा कर्ज चढ़ा दिया है हम लोगों पर। यही हमारा हाथ-पांव है।‘‘ माला केशव नाथ जी की ओर देखती हुई बोली- ‘‘मुझे जल्दी से दवा लाकर दे दीजिए, दोपहर तक ठीक हो जाऊँ तो माँ जी को आज कढ़ी बना कर खिलाऊँगी।।

केशव नाथ जी ने बहुत स्नेह से उसके सिर पे हाथ फेरते हुए कहा- ‘‘तेरी दवा लाकर आज मैं तेरी माँ बेला के लिए बहुत बढ़िया खाना बनाऊँगा।...बहुत दिनों बाद आज अमल मेरे हाथ का बना खाना खाएगा।‘‘ बेला ने चीखते हुए कहा- ‘‘आप खाना नहीं बनांएगे बाबू जी। मैं इसे नहीं सह पाऊँगी। मेरी असमर्थता के पहाड़ को मेरे मन पर मत लादिए।‘‘ इतना कह कर बेला फूट-फूट कर रो पड़ी। अमल, केशव नाथ जी और माला के पास इस क्षण सिवाए चुप रह कर बेला को एक निरीहता के साथ तकने के और कोई विकल्प नहीं बचा था। फिर केशव नाथ जी ने बेला के पास आकर उसके सिर पे हाथ फेरते हुए कहा- ‘‘तू पूरी तरह पागल है। देखो मैं दिन भर पड़े-पड़े क्या करूंगा। अमल को कॉलेज जाना है। फिर मुझे अच्छा ही लगेगा कुछ बनाना खाना।...एक पिकनिक का सा माहौल बनने दो यहाँ। एक दिन मैं, फिर एक दिन अमल और फिर जब माला का बुखार उतर जाएगा तो वह सब करेगी ही।...तुम जब कहोगी बाबू जी दाल में नमक नहीं पड़ा है या नमक ज्यादह है तो कितना मजा आएगा।...क्या तुम तब मुझ पर हँसोगी नहीं?

बेला केशव नाथ जी के बहलाने वाली बातों को अच्छी तरह महसूस कर रही थी। उनकी मुस्कुराहट में कितनी छटपटाहट थी जिसे वह दबा रहे थे। वह बोली- ‘‘आपकी यह उंगलियां सितार के लिए बनी हैं। खाना बनाने के लिए नही। आप इतना भर करिएगा कि बस मुझे सितार सुनाते रहिएगा।...आप होटल से खाना मंगवा लीजिए। दो-तीन दिनों में माला ठीक हो जाएगी...मैं कल से ही सोच रही थी कि आपके इस रिटायरमेंट के बाद जो आपको एक भावनात्मक सहारा चाहिए। वह कहाँ से मिलेगा आपको?‘‘

‘‘अच्छा, आज मुझे खाना बना लेने दो। कल से होटल या दूसरा इंतजाम किया जाएगा।‘‘ केशव नाथ जी ने मुस्कुरा कर कहा -‘‘तुम ही सब मेरे लिए कंधे हो। तुम्हें देखने से ही सारी थकान जाती रहती है।‘’

बेला ने केशव नाथ जी के चेहरे की तरफ देखा जिसमें किंचित मात्र भी उम्र की ढलान नहीं दीख रही थी। बस, रिटायरमेंट से जो उनमें अचानक एक खालीपन भर गया था उसी से थोड़ा फीकापन आया था। जिस नियम और संयम से अब तक बाबू जी रहते आए हैं उसकी लालिमा उनके चेहरे पर इस बासठ साल की उम्र में भी झलक रही थी। बस, थोड़े से बाल कहीं-कहीं पक गए थे। लेकिन चेहरे पर अब भी वही आकर्षक कसाव था। आँखों में वही चमक, पूरा भरा पूरा व्यक्तित्व। ऐसा लगता अमल और वह बाप-बेटे न होकर छोटे-बड़े भाई हों।

शायद अभी इन्हीं सब बातों को सोच कर बेला ने कहा- ‘‘अभी आप में वह थकान कहाँ है बाबू जी, आपमें जितना आत्मबल है, थोड़ा अमल में भी डाल दें।...यह तो मुझे लेकर बहुत थकने से लगे हैं।...‘‘

‘‘क्यों रे अमल...‘‘ केशव नाथ जी ने मुस्कुरा कर पास खड़े अमल की ओर देखते हुए कहा- ‘‘क्या कह रही है बेला। तू उसे लेकर थकने लगा है। यदि तू ही हारने लगेगा तो बेला में अपने आप हारने का एहसास भर जाएगा।‘‘ अमल ने बेला की ओर देखा और फिर हँस कर कहा- ‘‘...मैं पूरी तरह जीतता रहता हूँ लेकिन बेला को मेरा जीतते रहना शायद अच्छा नहीं लगता और यह समझाने का प्रयास करती रहती है कि मैं हार रहा हूँ। यह ताश के खेल में भी यही बेईमानी करती है बाबू जी...। इसे मेरी जीत कभी स्वीकार ही नहीं।‘‘

बहुत गहरे अर्थों वाली बात को किसी रूई के फाहे की तरह उड़ा देने की एक विवशता बन जाती है। शायद उसी तरह विवश होकर अभी केशव नाथ जी ने हँस कर कहा-‘‘...आज शाम अमल के कॉलेज से लौटने के बाद हम सब ताश खेलेंगे...और तब देखेंगे कि बेला कैसे जीत को हार मानती है.....।‘‘ इस बात पर शायद सबको हँसना चाहिए था लेकिन सब चुप होकर न जाने किन अर्थों में डूबने लगे थे। एक अजीब सन्नाटा तन आया था। तब अमल ने उस ताश की बात से जैसे कटते हुए गंभीर आवाज में कहा था- ‘‘आज मैं कॉलेज नहीं जाऊँगा। बाबू जी आपको वहाँ न पाकर मन बड़ा अजीब हो जाएगा। सहना बहुत कठिन मालूम पड़ेगा। फिर दो चार दिनों बाद जाऊँगा। खाना मैं ही बनाऊँगा। माँ जब बीमार पड़ी थीं तो मैं ही खाना बनाता था। अभी मैं खाना बनाना भूला नहीं हूँ। केशव नाथ जी अमल की बात पर अंदर से सीझते हुए मुस्कुरा कर बोले- ‘‘एक बात कहूँ अमल और बेला, तुम दोनों इस बात को याद रखो कभी भी बहुत छोटे-छोटे मूल्यों वाली बातों के लिए अपने मन को नहीं झकझोरना चाहिए। मन को ऐसी कूड़े की टोकरी मत बनाओ कि फालतू कूड़े उसमें डालते फिरो। मन दीपों से भरा एक पवित्र थाल है इसमें सिर्फ फूलों की जगह ही होनी चाहिए। मिस्टर अमल आप कॉलेज जएंगे और जरूर जाएंगे।‘‘

तभी माला वहाँ से उठते हुए बोल पड़ी- ‘‘मैं एक दिन यहाँ बीमार क्या पड़ गई, यहाँ झगड़ा ही मच गया। दवा भी खाऊँगी और खाना भी मैं ही बनाऊँगी...।‘‘ अभी उस तपते रेगिस्तान में जैसे माला ने कुछ ओस की बूंदें टपका दी हैं। सबके सब माला की ओर तकने लगे थे। बेला ने तब एक स्नेह से भर कर थोड़ी तेज आवाज में कहा-‘‘अच्छा...तू चुपचाप पड़ी रह। अपना कर्ज ज्यादह मत बढ़ा। हम सब तेरे आगे कंगाल हो जाएंगे तो कहाँ से तेरा कर्ज पाट पाएंगे।...आज बाबू जी के हाथ का बनाया मैं खाऊँगी...बहुत अमृत होगा उसमें। क्या पता मैं उसे ही खा कर अच्छी हो जाऊँ...‘‘

तभी माला वहाँ से बोल पड़ी - ‘‘माँ जी, क्या मैं जहर बनाती हूँ.....? आप मेरे ही हाथ के बने खाने से बिल्कुल ठीक हो जाएंगी। यह मैं आप सबको बताए दे रही हूँ...‘‘

‘‘तू सही कहती है माला, तेरे हाथ से बने खाने में स्वाद ही नहीं ढेर सारा अमृत भी भरा रहता है।‘‘ केशव नाथ जी ने उस बच्ची की ओर एक स्नेह से निहारते हुए कहा। अभी फिर माला सबको एक ओस की बूंद की तरह चमकती दिखलाई पड़ी है। कभी-कभी एक बूंद भी सारे विषाक्त वातावरण में अमृत घोल जाता है। सब चुप लगा कर माला की ओर निहारने लगे थे।

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शाम को अमल कॉलेज से लौटे तो केशव नाथ जो बेला के पास चौकी पर बैठ कर सितार बजा रहे थे, वे न जाने किस तन्मयता में डूबे-डूबे जिस राग को छेड़े हुए थे वही राग पहले माँ के मरने के बाद अक्सर बजाया करते थे। उनकी आँखों में नितांत अकेलापन झांकने लगता था तब। शायद बेला इस राग के अर्थ को, उनके उस अतीत को समझ नहीं पा रही थी। वह बस सितार की जादुई आवाज में डूबी हुई थी। अमल को देखते ही केशव नाथ ने अचानक सितार बजाना बंद कर दिया एक झटके से। अमल ने केशव नाथ की आँखों में एक अर्थ के साथ झांका और फिर जैसे चुपचाप उनकी पीड़ा को पी कर, उस वातावरण को काटने का प्रयास करते हुए माला के सिर पर हाथ रख कर उससे पूछा- ‘‘तूने दवा तो खा ली थी न...बुखार तो कम लग रहा है।‘‘

‘‘खा ली थी, अब ठीक हूँ.....आप सबके लिए चाय बना कर लाऊँ क्य..?‘‘ माला ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘नहीं...अभी आराम करो, जब बिल्कुल ठीक हो जाओ तो करना। तुझे ही सबकुछ करना है। ठीक हो जाएगी तो आराम नहीं करने दूंगा।‘‘ अमल ने प्यार से डपटते हुए कहा। इतना कह कर अमल केशव नाथ के पास आ कर बैठ गए। बेला कुछ कहने वाली थी शायद चाय बनाने को लेकर उसके पहले ही केशव नाथ ने हँसते हुए कहा- ‘‘मैं सितार बजाते-बजाते थक गया हूँ....जा पहले चाय बना के ला फिर बैठ मेरे पास।‘‘

‘‘जा रहा हूँ‘‘ अमल ने उठते हुए बेला से कहा- ‘‘मैडम आपने दवा खा ली थी?‘‘

‘‘दवा तो मैने ही अपने हाथ से खिलाई है। तभी अपनी दवा भी खाई...आप अब चाय बना कर हम लोगों को पिलाईए।‘‘ माला ने खिलखिलाते हुए कहा। एक अजीब अपनत्व का भाव माला अचानक घोल गई है जैसे सब के सब उसकी ओर एक कृतज्ञता से निहारने लगे थे। अमल ने किचेन की ओर जाते-जाते केशव नाथ जी की तरफ एक बड़ा सा लिफाफा थमा दिया।

‘‘क्या बात है?‘‘ केशव नाथ जी ने लिफाफे को थामते हुए आश्चर्य से पूछा।

‘‘देख लीजिए‘‘ कह कर अमल चले गए। एक अजीब कुतुहल इस क्षण उत्पन्न हो गया था। बेला लिफाफे की तरफ एक अजीब सहम से निहारने लगी थी। केशव नाथ ने लिफाफा बहुत ही सहमते हाथों से खोला और फिर पढ़ कर एक उल्लास से तेज आवाज में बोल पड़े-‘‘बधाई बेला‘‘

‘‘क्या है बाबू जी‘‘ बेला ने आश्चर्य से पूछा।