गवाक्ष - 40 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गवाक्ष - 40

गवाक्ष

40==

कॉस्मॉस उलझन में दिखाई दे रहा था ।

" वह भी बता दो, संभव है मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देकर तुम्हारी संतुष्टि कर सकूँ ।

"मैंने महसूस किया है कि मनुष्य बहुत सी बातों को अनदेखा करता रहता है । मैंने बहुत से लोगों को यह कहते सुना है ' सब चलता है---' इस प्रकार त्रुटियाँ करके बार-बार यह कहना औचित्यपूर्ण नहीं है क्या?"

"मनुष्य में अच्छाईयां, बुराईयाँ सब हैं । त्रुटि होना स्वाभाविक है, न होना कभी अस्वभाविक भी लगता है किन्तु जब वह अपनी त्रुटियों को बारंबार दोहराता है तथा दूसरों को हानि पहुंचाता है तब उसकी सोच कमज़ोर होती जाती है । वह दूसरों की परवाह न करके केवल अपने अहं की तुष्टि में लग जाता है । 'सब चलता है' सोचकर वह अपने व्यक्तित्व को तुच्छ व निंदनीय बनाने लगता है । मनुष्य के लिए त्रुटि करना स्वाभाविक है किन्तु उससे कुछ न सीखना मूढ़ता है । यदि त्रुटि से हम कुछ सीखते हैं तब हमारे व्यक्तित्व में निखार आता है। मनुष्य के पास चिंतन की स्वतंत्रता है तो विवेकशीलता भी है, चेतना ही उसको विवेक का आचरण सिखाती है । चेतना मनुष्य को सिखाती है उसे कहाँ आगे बढ़ना है, कहाँ अर्ध विराम, कहाँ पूर्ण विराम लगाना है। "

इस बार काफी सारे पृष्ठ आकर आज्ञाकारी बालकों की भाँति प्रोफ़ेसर के समक्ष रखी थप्पी में एक के पश्चात एक ऐसे जुड़ने लगे मानो किसी फ़ौजी अफसर के आदेश का पालन कर रहे हों । कॉस्मॉस अपलक उन्हें जमता हुआ देख रहा था ।

“अर्थात मनुष्य का अधिकाँश जीवन सही सोच पर निर्भर है और मनुष्य के मस्तिष्क का शरीर के चलने में बहुत महत्वपूर्ण हाथ है ---?"

"हाँ, वास्तव में जीवन की एकाग्रता, उसका विकास, प्रगति सभी इसी पर निर्भर करते हैं। "

"अच्छा ! इसे आज्ञा-चक्र कहते हैं न?लेकिन क्यों?"दूत ने अपने माथे पर भौहों के बीचों बीच उंगली रखकर प्रोफ़ेसर से पूछा ।

"क्योंकि हमारे शरीर में जो कुछ भी घटित होता है, उसकी सर्वप्रथम सूचना मस्तिष्क के पास ही जाती है, जहाँ से हमें आज्ञा प्राप्त होती है । मान लो, शरीर पर कहीं चोट लगती है, तुरंत ही मस्तिष्क के पास उसकी सूचना जाती है और मस्तिष्क से पुन: तुरंत ही हमें सूचना प्राप्त हो जाती है, हमारा हाथ पवन की गति से अपनी चोट पर पहुँच जाता है। इस प्रकार सभी सूचनाएं पहले मस्तिष्क के पास पहुंचती हैं, फिर आज्ञा -चक्र से आज्ञा प्राप्त करके हमारे शरीर का संबंधित अंग कार्य करने लगता है। "

" और यह सेवा क्या है?"

" जब तुम बिना किसी लालच के किसी के लिए कोई कर्म प्रतिबद्धता से करते हो, वही सेवा है । वास्तव में मनुष्य इस संसार में सेवा के लिए ही आता है। प्रत्येक मनुष्य का सेवा का दायरा भिन्न है । "

" वो कैसे ?"

"जब हम अपने कर्तव्य को प्रतिबद्धता से, किसी अपेक्षा के बिना करते हैं, वही सेवा हो जाती है। "

" इस पृथ्वी पर सबको किसी न किसी उत्तरदायित्व के साथ प्रेषित किया गया है । बस, हमें वही उत्तरदायित्व पूर्ण करना है जो हमें देकर भेजा गया है । "

" मैं अपना उत्तरदायित्व पूर्ण नहीं कर सका --"कॉस्मॉस फिर से याद आ गया ।

"इसके लिए संकल्प का होना बहुत आवश्यक है । यदि संकल्प नहीं होता तब थोड़े श्रम के पश्चात ही शिथिलता आ जाती है। इससे मन में भी हीनता घर करने लगती है। संभवत:तुम्हारे साथ कुछ ऐसा ही हुआ होगा । "

क्षण भर रुककर प्रोफ़ेसर ने कहा ;

"मुझे लगता है तुम संभवत:इस पृथ्वी की हलचल को समझने के लिए ही भेजे गए हो --जो परिस्थिति हो उसमें निराश होने के स्थान पर उसका पूरी शक्ति व उत्साह से सामना करना आवश्यक है । "

कॉस्मॉस का मन मयूर की भाँति नृत्य करना चाहता था, कितनी सकारात्मकता से ओत -प्रोत हो रहा था वह ! उसके असंवेदन आकार में संवेदनाएं हिंडोले पर चढ़कर झूमने लगी थीं । उसने अब तक कई संवेदनाओं को महसूस किया था, अब उसे वे भीतर से आलोड़ित कर रही थीं।

अचानक फोन की घंटी से प्रो. विद्य की साधना भंग हुई। जो उन्होंने सुना, उससे कुछ विचलित हुए ।

" क्या मैं आपकी उद्विग्नता का कारण जान सकता हूँ ?" कॉस्मॉस जैसे गहन निद्रा से जागा था, वह प्रोफ़ेसर के मुख से निर्झरित शब्दों की प्रेम-गंगा में डुबकी लगा रहा था ।

"हूँ--"एक निश्वांस लेकर प्रो बोले ;

"मेरे मित्र गौड़ को अचानक ह्रदय का दौरा पड़ा है, उनकी स्थिति ठीक नहीं है, मुझे जाना होगा । "

"वही मंत्री जी, जिनके पास मैं सर्वप्रथम गया था ? वैसे ह्रदय का दौरा पड़ने का अर्थ यह है कि उनका अंतिम समय आने वाला है?" कॉस्मॉस ने भोलेपन से पूछा ।

" हो भी सकता है ---"प्रोफ़ेसर उद्विग्न लग रहे थे ।

" नहीं, कैसे हो सकता है ?मैं तो अभी दुबारा उनके पास गया भी नहीं !"

"वे ठीक भी हो सकते हैं अथवा उन्हें कोई अन्य कॉस्मॉस ले जा सकता है!"

" उन्होंने मुझसे प्रतिज्ञा की थी वे मेरे साथ चलेंगे फिर कैसे जा सकते हैं?मैंने भी उनसे एक प्रतिज्ञा की थी, मुझे भी वह पूरी करनी है । वे और किसीके साथ इस प्रकार नहीं जा सकते!मुझे भी वहाँ जाना होगा। "कॉस्मॉस ने अपने व मंत्री जी के मध्य हुआ वार्तालाप सारांश में प्रोफ़ेसर साहब को बता दिया ।

गैराज से गाड़ी निकालते हुए प्रोफ़ेसर असहज थे, उनका सारा आनंद सूचना सुनते ही क्षण भर में काफ़ूर हो गया था ।

"आप इतने विद्वान हैं, जीवन की वास्तविकता से परिचित हैं, क्या आपको भी इस प्रकार की सूचना से आघात लगता है?" न जाने कब कॉस्मॉस गाड़ी में आकर बैठ गया था ।

" तुम?"

"मुझे भी तो अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनी होगी । "

"लेकिन तुम अपनी अदृश्य शक्ति से मुझसे भी शीघ्र पहुँच सकते हो। "

"इतनी देर और आपका साथ बना रहेगा। आपसे कुछ और ज्ञान प्राप्त हो सकेगा "

" कॉस्मॉस !मैं धरती के निवासियों के लिए कुछ संदेश छोड़कर जाना चाहता हूँ । मुझे अच्छा लग रहा है कि तुम मेरे इस चिंतन से जुड़ना चाहते हो परन्तु मैं सशंकित हूँ कि यह चिंतन तुम्हारे लिए उपयोगी होगा अथवा नहीं ?"कार चलाते हुए प्रोफेसर बोले।

"जब आप आवागमन के सत्य से परिचित हैं, स्वीकारते हैं तब भी आप इस सूचना से इतने अधिक बैचैन हो उठे फिर इस स्थिति में एक साधारण मनुष्य की क्या स्थिति होगी ?"

" मैंने तुम्हें बताया था न यह संवेदनाओं की बात है, इनसे मनुष्य बिलकुल अछूता तो नहीं रह पाता । यह श्मशान वैराग्य तो होता ही है । समय बीतते शनैःशनैः पुन: मनुष्य अपनी सामान्य स्थिति पर आ जाता है। "

क्रमश..