लता सांध्य-गृह - 2 Rama Sharma Manavi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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लता सांध्य-गृह - 2

पूर्व कथा जानने के लिए प्रथम अध्याय अवश्य पढ़ें ।

द्वितीय अध्याय
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गतांक से आगे ……
समय धीरे धीरे व्यतीत हो रहा है, अब मेरे सांध्य-गृह में 10 सदस्य हो चुके हैं, इनमें सभी शिक्षित एवं अच्छे परिवारों से सम्बंधित हैं।सबकी अपनी कहानियां हैं, अपने दुःख हैं, मजबूरी है।मैं दान नहीं लेता अपने आश्रम अर्थात घर के संचालन के लिए, बल्कि सभी अपना ख़र्च वहन करते हैं, क्योंकि सभी आर्थिक रूप से पूर्ण सक्षम हैं।मेरा मूल सिद्धांत है कि उम्र के इस काल में हमउम्र हम सब मिलकर एक दूसरे का अकेलापन बांट सके।
आज मैं बात कर रहा हूं श्रीमान रामशंकर गुप्ता एवं उनकी धर्मपत्नी भगवती देवी की।
गुप्ता जी का साड़ियों का एक बड़ा शोरूम था।गुप्ता जी जितने शांत प्रकृति के थे,भगवती देवी उतनी ही तेज-तर्रार।उनकी एक ही सन्तान थी उनकी पुत्री रेवती, वो भी काफी दुआ-दवा के उपरांत प्राप्त हुई थी।भगवती देवी ने विवाहोपरांत अतिशीघ्र घर की कमान अपने हाथों में ले लिया था।उनके किसी भी बात या निर्णय का विरोध करने का साहस सास,नन्द,पति किसी में नहीं था ।गृहस्थी को चलाने के लिए पति-पत्नी में से किसी न किसी को तो समझौते का रुख अख्तियार करना ही पड़ता है।ग़नीमत यह थी कि बेटी पिता की ही तरह शांत एवं समझदार थी।गुप्ता जी घर के मामलों में दखल देते ही नहीं थे, अतः देवर-नन्द के विवाहोपरांत घर में भगवती देवी का एकछत्र राज्य था।
गुप्ता जी की गिनती शहर के धनाड्य लोगों में होती थी, इसलिए उनकी इकलौती एवं सुंदर, शिक्षित बेटी के लिए लड़कों की कमी नहीं थी।परंतु उन्हें एक ऐसे होनहार एवं समझदार युवक की तलाश थी जो उनके व्यापार को भी सम्भाल ले।खैर, काफी खोजबीन कर,अच्छी तरह से देखभाल कर रेवती का विवाह उन्होंने आशीष के साथ सम्पन्न कर दिया।उसका बड़ा भाई अपने पिता का व्यवसाय सम्भाल रहा था।शिक्षा समाप्ति के बाद वह भी उन्हीं के साथ कार्य करने वाला था, अतः उन्होंने सहर्ष इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया क्योंकि एक जमा-जमाया व्यापार उन्हें प्राप्त हो गया था।आशीष ने गुप्ता जी के संरक्षण में कुछ ही समय में शोरूम का कार्यभार अच्छी तरह संभाल लिया।आशीष-रेवती एक दूसरे के साथ बेहद प्रसन्न एवं सन्तुष्ट थे।
जबतक रेवती केवल पुत्री थी, मां के हर जायज-नाजायज़ बात को चुपचाप स्वीकार कर लेती थी।परन्तु भगवती देवी अपनी आदत से मजबूर आशीष के हर क्रियाकलापों में त्रुटि खोजकर कुछ न कुछ कहती रहती थीं।तीज-त्योहार पर जब आशीष रेवती के साथ अपने परिवार वालों से मिलने जाना चाहता तो अक्सर वे क्लेश उत्पन्न कर देतीं, जिससे बेटी-दामाद तनावग्रस्त हो जाते।
इसी तरह समय व्यतीत होता रहा।रेवती एक बेटे एवं बेटी की मां बन गई।बढ़ती उम्र के साथ भगवती जी की आक्रामकता बढ़ती ही जा रही थी।बच्चों पर भी अनावश्यक नाराज होती रहतीं।गुप्ता जी एकांत में समझाने का प्रयास करते कि तुम्हारी इन हरकतों से बच्चे सहम जाते हैं एवं बेटी-दामाद के रिश्तों में दरार आ सकती है, परन्तु उन्होंने गुप्ता जी की बातों को कभी नहीं समझा था तो अब मानने का प्रश्न ही कहाँ उठता था।वो तो बेटी-दामाद अत्यधिक समझदार एवं सहनशील थे,इसलिए बात ज्यादा बिगड़ती नहीं थी।
एक दिन तो हद ही कर दी भगवती जी ने।घर में कुछ रिश्तेदार आए हुए थे।किसी बात पर वे उखड़ गईं और सबके सामने ही आशीष पर चिल्ला पड़ीं कि तुम और तुम्हारे बच्चे सब बेवकूफ हैं एवं हमारे भरोसे रह रहे हैं।यह बात आशीष-रेवती के साथ साथ गुप्ता जी को भी बेहद नागवार गुजरी।उसके बाद उन्होंने अपने जीवन का दूसरा एवं प्रमुख फैसला लिया, अलग रहने का।वे दूसरे बंगले में पत्नी के साथ शीघ्र शिफ्ट हो गए।बेटी-दामाद ने समझाने का काफी प्रयास किया किंतु वे टस से मस नहीं हुए।दिनभर तो वे शोरूम पर रहते, परन्तु शाम को घर आते ही भगवती जी की चिक -चिक शुरू हो जाती थी।अकेले उन्हें झेलना भारी पड़ रहा था, इसलिए कुछ माह पश्चात ही वृद्धाश्रम में शिफ्ट होने का निश्चय कर लिया कि शायद अपने हमउम्र लोगों के मध्य रहकर उनका ध्यान बंटे।पहले तो वे एक कमरे में रहने के नाम से ही क्रोधित हो गईं थीं लेकिन गुप्ता जी ने स्पष्ट कह दिया कि वे तो आश्रम जाएंगे,आपको नहीं जाना तो आप यहां रह सकती हैं।अकेले रहने का साहस तो भगवती जी में था नहीं इस उम्र में, अतः मन मारकर वे यहां आ गईं।दो-तीन महीने तो सबसे कटी-कटी रहीं, फिर धीरे धीरे घुल-मिल गईं।अब तो वे स्वयं ही स्वीकार करती हैं कि हमउम्र लोगों के साथ मन भी लगता है और उनमें अत्यधिक परिवर्तन आ गया है।बच्चे नियमित उनसे मिलने आते हैं, वापस चलने को कहते हैं, पर दोनों लोगों का मन यहां खूब लगता है।फिर भी वे खुशकिस्मत हैं कि बच्चे उन्हें इतना प्यार व सम्मान देते हैं।
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क्रमशः …….
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