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तृतीय अध्याय
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गतांक से आगे….
रमेश जी एवं अभय जी एक कमरे में रहते हैं, वे अभिन्न मित्र होने के साथ साथ समधी भी हैं।उनकी प्रथम मुलाकात हुई थी जब उन्होंने स्नातक में प्रवेश लिया था, रमेश जी मैथ से थे एवं अभय जी बायो के विद्यार्थी, परन्तु फिजिक्स दोनों का कॉमन सब्जेक्ट था।मित्रता होने के लिए पूरे दिन के साथ की आवश्यकता होती भी नहीं है।
जहां रमेश शांत प्रकृति के व्यक्ति थे वहीं अभय वाकपटु, किंतु दोनों में एक बात जो समान थी पढ़ाई के प्रति गम्भीरता।खैर, धीरे धीरे मित्रता प्रगाढ़ होती गई।पीजी में दोनों के विषय अलग जरूर हो गए परन्तु एक बार जो दोस्ती हुई वह अबतक कायम है,भले ही जीवन में बहुत कुछ पीछे छूट गया।
पीएचडी करने के बाद दोनों अलग अलग कॉलेज में लेक्चरर हो गए।रमेश जी का विवाह पहले सम्पन्न हुआ। वहीं विवाह समारोह में ही रमेश की पत्नी सरोज की सहेली सरिता से प्रथम मुलाकात में ही अभय जी को प्यार हो गया, जो सहर्ष एवं शीघ्र ही विवाह सम्बन्ध में परिणत हो गया। दोनों परिवारों ने शीघ्र ही एक ही कॉलोनी में मकान ले लिया, जो मात्र एक गली के अंतर पर था।
सर्वप्रथम रमेश जी के यहां बेटे ने जन्म लिया एवं दो साल बाद अभय जी के यहां बेटी ने।दोनों परिवार हर सुख-दुःख, तीज-त्यौहार एक दूसरे के साथ व्यतीत करते थे।बचपन से ही साथ साथ रहते उनके बच्चों संदीप एवं ऋचा में भी अच्छी मित्रता थी।वे आपस में लड़ते-झगड़ते-हंसते-बातें करते बड़े हो रहे थे।दोनों आपस में झगड़ते भी खूब थे,किंतु एक दूसरे से अधिक देर तक रूठे भी नहीं रह सकते थे।
एक दिन रमेश जी ने कहा कि यार अभय,युवा होने पर इनका विवाह करके हम समधी बन जाते हैं।
अभय जी ने हंसते हुए कहा कि इतनी दूर की सोचने से क्या फायदा।पता नहीं बड़े होने पर इनके सम्बन्ध किस ओर जाएं।
संदीप इंजीनियरिंग करके एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब करने लगा,जबकि ऋचा एमए,बीएड करने के बाद शहर में ही अध्यापन कार्य करने लगी।
सरोज भी ऋचा को बहू बनाने के सपने देखने लगीं थीं, क्योंकि आँखों के सामने पली बढ़ी,सर्वगुण संपन्न लड़की को बहू बनाना अच्छा था किसी अजनबी कन्या की जगह।संदीप एवं ऋचा के सम्बंध सिर्फ अच्छे दोस्तों की तरह प्रतीत होने के कारण वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे, अतः चारों लोगों ने निश्चय किया कि इस संदर्भ में दोनों बच्चों से स्पष्ट वार्तालाप किया जाय।अतः एक दिन जब सभी साथ बैठे थे तो उपयुक्त समय जानकर बिना भूमिका बांधे बच्चों से स्पष्ट पूछ लिया कि तुम लोग कहीं किसी और से प्रेम तो नहीं करते।उनके मना करने पर उन्होंने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हम सभी तुम दोनों को विवाह बन्धन में बांधना चाहते हैं, यदि कोई आपत्ति हो तो स्पष्ट मना कर देना, कोई बाध्यता नहीं है।बच्चों ने मुस्कराते हुए उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।वो तो बाद में पता चला कि वे तो जबसे समझदार हुए तभी से एक दूसरे से प्यार करते हैं।
खूबसूरत सी जिंदगी बड़े आराम से गुजर रही थी, परन्तु वक़्त को कहां चैन कि किसी की जिंदगी इतने सुकून से क्यों बीत जाए।
दो-तीन साल बीतने के बाद जब कोई खुशखबरी नहीं मिली तो चेकअप कराने पर ज्ञात हुआ कि ऋचा का गर्भाशय अल्पविकसित है, जिससे वह कभी मां नहीं बन सकती, यह जानकर वह बेहद दुखी रहने लगी।
अभय एवं सरिता तो माता-पिता थे,किंतु रमेश एवं सरोज ने ऋचा को अवसाद से निकालने में दिन-रात एक कर दिया।
संदीप एवं सबके असीम प्यार एवं देखभाल से ऋचा सामान्य तो हो गई लेकिन कहीं न कहीं मन में एक अपराधबोध घर कर गया था कि उसकी वजह से सभी सबसे अनमोल खुशी से वंचित रह जा रहे हैं।एक दिन साहस जुटा कर संदीप तथा सास-ससुर के समक्ष सेरोगेसी से सन्तान प्राप्ति का सुझाव रखा जिसे सबने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि कुछ समय बाद एक अनाथ बच्ची को गोद ले लेंगे।
देखते-देखते 6-7वर्ष व्यतीत हो गए,अब बदकिस्मती ने एक के बाद एक दुःख देना प्रारंभ कर दिया।
सबसे पहले तो अभय की पत्नी सरिता की मृत्यु हो गई।रमेश, संदीप उन्हें अपने ही घर ले आए जिससे उन्हें अकेलापन महसूस न हो ।अभी एक वर्ष ही बीता था कि सरोज का भी देहांत हो गया।ऐसा प्रतीत हो रहा था कि दुखों ने उनके घर के दरवाजे पर धरना ही दे दिया है।
एक तो सन्तानहीनता से ऋचा वैसे ही दुखी रहती थी, उसपर दोनों माओं का जाना वह शायद बर्दाश्त नहीं कर सकी।एक रात्रि वह जो सोई तो सुबह उठी ही नहीं।देखते देखते एक भरा-पूरा घर श्मशान की तरह वीरान हो गया।तीनों ही गमों से चूर,कौन किसको संभाले, क्या सांत्वना दे।
खैर, समय ही दुःख देता है और वही उनकी पीड़ा भी कम करता है।अभी संदीप की उम्र ही क्या थी,अतः रमेश-अभय ने धीरे धीरे समझा बुझाकर उसे दूसरे विवाह के लिए तैयार कर लिया एवं शीघ्र ही उसका विवाह कर दिया,तथा उसकी पत्नी को साथ ही भेज दिया।हालांकि संदीप उन्हें भी साथ चलने की जिद कर रहा था लेकिन वे यहीं रहना चाहते थे अपनी यादों के साथ, फिर वे एक दूसरे के साथ थे अतः अकेले भी नहीं थे।
एक वर्ष बाद जुड़वाँ खुशियों ने दस्तक दिया।संदीप एक साथ एक बेटे एवं बेटी का पिता बन गया। रमेश एवं अभय की ख़ुशी का पारावार न रहा।वे तुरंत बच्चों को देखने पहुंच गए।अब वे बच्चों के मोह में साथ साथ रहने लगे।कुछ माह तो सहज ही व्यतीत हो गए।पोते-पोती की किलकारियों से निहाल करता समय पँख लगाकर उड़ रहा था।हालांकि दो सहायकों के होने से संदीप की पत्नी को कार्यभार तो नहीं था,परन्तु रमेश-अभय महसूस कर रहे थे कि वह दो वृद्धों की उपस्थिति स्वीकार नहीं कर पा रही थी,विशेषतः अभय जी की,हालांकि स्पष्ट तो कभी कुछ नहीं कहा था।
रमेश जी अभय जी को छोड़ने की कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकते थे, अतः बेटे को समझा बुझाकर वे वापस आ गए।एक दिन उन्हें लता सांध्य-गृह के बारे में ज्ञात हुआ तो प्रायोगिक तौर पर कुछ महीनों के लिए वहां शिफ्ट हो गए,परन्तु अपने हमउम्र लोगों के बीच वे जल्दी ही ऐसे रमे कि वापसी उनकी कल्पना से बाहर ही हो गई।
जब संदीप और उसकी पत्नी को उनके शिफ्टिंग का पता चला तो वे दौड़े-भागे आए कारण जानने के लिए।उन्होंने उन्हें आश्वासन दिया कि तुम लोगों के पास हम आते -जाते रहेंगे।यहां हम बस हमउम्र लोगों के साथ के लिए आए हैं,इसलिए तुम लोग परेशान एवं व्यथित न रहो।उन्हें प्रसन्न देखकर संदीप चला गया, लेकिन समय निकालकर अक्सर मिलने आता रहता है।
क्रमशः …….
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