बात बस इतनी सी थी - 21 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बात बस इतनी सी थी - 21

बात बस इतनी सी थी

21.

बातों ही बातों में कमल ने दिन में कई बार मुझसे मेरी शादीशुदा जिंदगी के बारे में पूछा था और मैं हर बार उसके प्रश्न को टालता रहा था । एक रात और एक दिन कमल के परिवार के साथ गुजारने के बाद जब मैंने अपने घर वापिस लौटने के बारे में सोचकर उनसे विदा माँगी, तो चाचा जी ने यानि कमल के पापा जी ने मुझसे कहा -

"चंदन, बेटा ! जाने से पहले तो यह बता, तू यहाँ अकेला क्यों आया ? तुझे बच्चों को साथ लेकर आना चाहिए था ! अकेले आ भी गया, तो बैचलर की तरह तू इतना बेफिक्र कैसे रह सकता है ? यह गलत बात है, बेटा !"

मैं मंजरी के साथ मेरे रिश्ते की वास्तविक स्थिति किसी को भी नहीं बताना चाहता था । मैं चाहता था कि मेरे और मंजरी के रिश्ते में तनाव का जो सच सिर्फ हम दोनों के बीच रहना चाहिए, हम दोनों ही उस सच को किसी तीसरे व्यक्ति तक न पहुँचने दें ! फिर मैं खुद कमल के पापा के सामने हमारे उस खोखले सच की ढोल की पोल कैसे खोल सकता था ? जिस सच को छिपाये रखने के लिए मंजरी को लेकर ही मेरे मन में अभी तक भी इस बात का बहुत गुस्सा था कि उसने हमारे रिश्ते की सच्चाई को अपनी मित्र-मंडली में सार्वजनिक करके हमारे रिश्ते को तमाशा बना कर रख दिया था ।

लेकिन मेरे लिए चाचा जी के प्रश्न की अवहेलना करना या उनकी किसी भी बात को टालना न तो उचित था और न ही संभव था । अजीब दुविधा में फँस गया था मैं । कुछ क्षण चुप रहकर मैंने चाचा जी को संतुष्ट करने के उद्देश्य से उनकी बात का जवाब देते हुए कहा -

"चाचा जी ! कल मंजरी की मौसी के पोते के जन्मदिन की पार्टी थी । मैं और मंजरी भी कल उनके यहाँ उसी पार्टी में थे । अपने ऑफिस के किसी काम के लिए मेरा कल ही वहाँ से लौटना जरूरी था । मंजरी की मौसी जी ने उसको कल भेजने से मना कर दिया और खुद मंजरी भी एक-दो दिन वहाँ रुकना चाहती थी । इसलिए कल मैं वहाँ से अकेला ही चला आया था और इसीलिए यहाँ आकर आपके और कमल के साथ बैचलर्स की तरह बेफिक्र होकर लाइफ को एंजॉय कर रहा हूँ !"

मेरे जवाब में आधा सच और आधा झूठ परोसकर मैं उस समय चाचा जी को संतुष्ट करने में सफल रहा था और इसे मैंने अपनी जीत समझ लिया था । मंजरी की मौसी के घर पार्टी होने का आधा सच बता कर मैंने उस पूरे सच को छुपा लिया था, जिसकी वजह से मैं शादीशुदा होने के बावजूद बयालीस की उम्र पार करके भी बैचलर्स जैसी जिंदगी जी रहा था । लेकिन वहाँ से निकलने के बाद मेरी आत्मा मुझे धिक्कारने लगी -

"चाचा जी के साथ कमल के पूरे परिवार को तो तुमने धोखा दे दिया है, क्या खुद से भी तुम सच्चाई को छुपा सकते हो ? इस समाज को और खुद को तुम कब तक धोखा देते रह सकते हो ? एक न एक दिन तो सच्चाई सबके सामने आ ही जाएगी ?"

समय अपनी रफ्तार से बीतता रहा । डेढ साल तक हम हमारे रिश्ते में पड़ चुकी खटास को अपने-अपने समाज के लोगों से छिपाने की कोशिश करते रहे । लेकिन इन डेढ़ सालों में हम दोनों में से किसी ने भी हमारे रिश्ते में आयी दरार को भरने की कोशिश नहीं की ।

डेढ़ साल बीतने के बाद मेरे और मंजरी के केस में आखिरी बहस होनी थी । पिछले कुछ दिनों से हमारे केस में जल्दी-जल्दी कई तारीखें लगी थी और हर तारीख पर लगातार बहस चल रही थी, जो अब तक लगभग पूरी हो चुकी थी । अब कोर्ट का फैसला आना बाकी था । कोर्ट के फैसले का ऊँट किस करवट बैठेगा ? यह तो हममें से किसी को नहीं पता था । लेकिन मेरे और मंजरी के तनावपूर्ण रिश्ते का सच सबसे छिपाए रखने का अब बस एक ही उपाय था कि हमारे बीच की दूरी को खत्म करके हम दोनों फिर से एक हो जाएँ ! जोकि बहुत मुश्किल था ।

हम दोनों का स्वभाव एक-दूसरे से इतना भिन्न था कि हमारा एक साथ रहना एकदम नामुमकिन-सा लगता था । ऐसा लगता था कि ऊपर वाले ने हमें एक-दूसरे के लिए बनाया ही नहीं था । मैं ऐसी विषम परिस्थिति में फँस गया था, जहाँ मेरे एक ओर बदनामी की खाई थी, जिसमें मंजरी से दूर रहने पर मेरा गिरना तय था, तो मेरे दूसरी ओर गहरा कुआँ था, जिसमें गिरकर मंजरी के साथ रहने पर भी मेरी बची हुई जिंदगी नर्क से भी बदतर गुजरने की संभावना थी । इस विषम परिस्थिति में मैं यह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि अपनी बेहतर जिंदगी के लिए क्या करूँ ? क्या ना करूँ ?

लगातार जल्दी-जल्दी कई तारीखों में बहस होने के बाद डेढ़ साल बाद जब कोर्ट में मेरे और मंजरी के केस की आखिरी बहस हुई, तब कोर्ट का निर्णय मेरे पक्ष में आया कि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के सेक्शन 9 के तहत पति-पत्नी दोनों को ही 'ना' कहने का अधिकार है । साथ ही मेरी 'ना' को कोर्ट ने अत्याचार मानने से इनकार कर दिया और हमारी शादीशुदा जिन्दगी को पटरी पर फिर से लौटा लाने की कोशिश करने के लिए हम दोनों को छः महीने तक एक-दूसरे के साथ रहकर एक-दूसरे को समझने का सुझाव भी दिया । कोर्ट के सुझाव पर मंजरी ने दलील दी -

"चंदन का एक अन्य लड़की के साथ संबंध है ! यह अभी भी उसी लड़की के साथ रहता है । ऐसे में मैं तब तक चंदन के साथ नहीं रह सकती, जब तक कि यह उस लड़की से अपना रिश्ता खत्म ना कर दे !"

मंजरी की इस दलील को तभी सही माना जा सकता था, जब वह यह सिद्ध कर देती कि वास्तव में मंजरी के अलावा मेरा किसी दूसरी लड़की के साथ कोई आपत्तिजनक-अनैतिक संबंध है । इसलिए मंजरी की इसी दलील को महत्व देते हुए जज साहब ने पूछा -

"क्या आप कोर्ट में ऐसा कोई सबूत पेश कर सकती हैं, जिससे आप यह सिद्ध कर सकें कि उस लड़की के साथ आपके पति के नाजायज शारीरिक संबंध है ?

"नहीं ! लेकिन मैंने चंदन के मोबाइल और लैपटॉप में उसका फोटो देखा है और एक बहुत जाने-माने साधु-महात्मा ने मुझे बताया था कि यह मुझसे इसलिए दूर भागते हैं और मुझसे संबंध नहीं बनाते हैं, क्योंकि अपनी शादी के पहले से ही इनका किसी दूसरी लड़की के साथ नाजायज रिश्ता था । हमारी शादी के समय कुछ दिन के लिए इनका उस लड़की से ब्रेकअप हुआ था, लेकिन अब दुबारा यह उसी के साथ रह रहे हैं !"

"क्या आपके कथित साधु के पास ऐसा कोई प्रमाण है, जिससे आप अपने पति पर अपने आरोप को सिद्ध कर सके ?" जज ने मंजरी से एक और प्रश्न किया ।

"नहीं ! ऐसा तो कोई प्रमाण उनके पास नहीं है !"

"फिर वह कैसे कह सकते हैं कि आपके पति का किसी अन्य लड़की के साथ नाजायज रिश्ता है ?"

"उन्होंने चंदन का फोटो देखकर उस लड़की के साथ इनके संबंध होने के बारे में मुझे बताया था !"

"मात्र फोटो देखकर कोई कैसे बता सकता है कि अमुक व्यक्ति का किसी के साथ जायज या नाजायज रिश्ता है ?"

जज ने हँसकर कहा । मंजरी ने जज साहब की हँसी को अपना उपहास मानकर अपमान महसूस किया और बोली -

"आप नहीं जानते, वे एक सिद्ध पुरुष हैं और आध्यात्मिक गुरु हैं ! अपने ध्यान और चिंतन-मनन से वे सब-कुछ बता सकते हैं !"

"यह सही है कि हम आपके कथित सिद्ध-पुरुष और आध्यात्मिक गुरु के बारे में कुछ नहीं जानते हैं ! लेकिन, कानून के बारे में हम बहुत-कुछ जानते हैं ! विशेष रूप से यह कि कोर्ट सबूतों और गवाहों से चलती है, हवा में लगाये गये निराधार आरोपों से नहीं ! आपके इस आरोप को सिद्ध करने के लिए कोर्ट आपसे सबूत माँगती है ! अगली तारीख में आप उससे संबंधित सबूत कोर्ट को दे सकते हैं !"

उस दिन की बहस यहीं खत्म हो गई । मैं अपने अपने वकील के साथ कोर्ट से बाहर निकला, तो मंजरी ने घायल शेरनी की तरह खूँखार नजरों से मेरी ओर देखा । जैसे कह रही हो, इस बार तो बच गए हो ! अगली बार देखती हूँ, कैसे बचोगे ! मैंने उसकी खूँखार नजर का जवाब अपनी सदाबहार मुस्कुराहट से दिया और आगे निकल गया ।

आज उसकी आँखों में जीत का दंभ नहीं था, गुस्से की आग थी । उसके गुस्से को देखकर उस दिन फिर एक बार मेरा पुराना निश्चय दृढ़ से दृढ़तर हुआ और अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया -

"मेरे लिए मंजरी के साथ अपनी शादी को बनाये रखना नर्क के कुएँ से कम नहीं है । मुझे इस नर्क के कुएँ से निकलकर बदनामी की खाई में गिरना बेहतर है ! बदनामी की खाई से निकलने के लिए कम-से-कम अपने पक्ष में सफाई देने का मौका तो होगा !"

अगली बहस का दिन आया, तो मंजरी कोर्ट में नहीं आई । मेरे किसी और लड़की के साथ नाजायज रिश्ते का सबूत तो वह नहीं ला सकी, परन्तु 'खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे' की तर्ज पर उसने मेरे खिलाफ आईपीसी की धारा 376 (क) के तहत गुजारे भत्ते का केस डाल दिया था । मैंने उसको मोबाइल पर कॉल करके कहा -

"मंजरी ! तुम्हें खर्च के लिए रुपयों की जरूरत थी, तो मुझसे यूँ ही कह दिया होता ! इसके लिए कोर्ट में केस डालने की क्या जरूरत थी ? बेकार में तुम भी परेशान हो रही हो और मुझे भी परेशान कर रही हो ! केस लड़ने के लिए वकील की फीस वगैरह का खर्च होगा सो अलग !"

"केस में जो खर्च होगा, वह तुम्हें ही देना होगा ! वकील की फीस हो या कोई और खर्च !"

"इसीलिए तो मैं तुम्हें कॉल करके यह समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि मुझसे खर्च लेने के लिए तुम्हें कोर्ट में केस करने की जरूरत नहीं है ! मैं तुम्हारा खर्च कोर्ट केस के बिना भी वहन करने के लिए तैयार हूँ !"

"आज तुम कोर्ट में केस किए बिना मेरा खर्च देने की बात कर रहे हो, तो आज तक दिया क्यों नहीं था ? तुमने तो कभी झूठ-मूठ को भी नहीं पूछा कि मंजरी, तुम्हें अपने किसी खर्च के लिए रुपयों की जरूरत है क्या ? क्या तुमने मुझसे कभी कहा ? कि मंजरी, लो ये कुछ रुपए तुम्हारे लिए है, इन्हें तुम अपने लिए खर्च कर लेना ! नहीं कहा न कभी !"

"हाँ मंजरी ! मैं मानता हूँ कि मैंने कभी ऐसा कुछ नहीं कहा ! पर इसकी कई वजहे हैं ! पहली वजह तो यह थी कि तुमने तुम्हारे खर्च के लिए कभी मुझसे कुछ माँग की ही नहीं ! आज पहली बार तुमने यह माँग की है, तो कोर्ट में केस करके की है !

दूसरी वजह यह थी कि तुम खुद नौकरी करती हो और तुम्हारी सैलरी मुझसे दो-चार हजार रुपये ज्यादा ही है ! यह तुम भी जानती हो और मैं भी !

तीसरी वजह यह रही थी कि आज तक कोई ऐसा अवसर नहीं आया है, जब हम दोनों के बीच आमने-सामने या मोबाइल पर बातचीत हुई और तुमने अपने मम्मी-पापा की धन-संपन्नता का रोब मुझ पर न झाड़ा हो ! फिर भी अगर तुम चाहती हो कि तुम्हारे खर्च के लिए मैं रुपए दूँ, तो मैं देने के लिए तैयार हूँ !"

"चंदन ! तुम्हारे साथ मेरी शादी हुई है ! तुमसे खर्च लेना मेरा हक है और तुम्हारी जिम्मेदारी है ! भीख नहीं चाहिए मुझे तुमसे ! हमारी शादी को दो साल पूरे हो चुके हैं ! क्या आज तक एक भी रुपया तुमने मुझे खर्च करने के लिए दिया है ? तुम्हें अपनी जिम्मेदारी का जरा-सा भी एहसास होता, तो क्या तुम नहीं देते !"

"मंजरी, मैंने अभी तुम्हें इसकी कई वजहें बताइ हैं न !"

"हाँ, तुमने कई वजहें बताई है और मैंने भी तुम्हें बता दिया है कि मैं तुमसे अपने खर्च के लिए भीख नहीं माँग रही हूँ ! मुझे अपना हक चाहिए और हक माँगकर नहीं, लड़कर लिया जाता है !"

"मंजरी ने अपने अंतिम वाक्य से स्पष्ट कर दिया था कि उसका उद्देश्य मुझसे खर्च लेना नहीं, अपने हक के नाम पर लड़ना था । उसकी शुरू की गई लड़ाई में उसके ही हारने की संभावना का संकेत करते हुए मैंने उसे समझाया -

"मंजरी ! मैं कोर्ट में यह सिद्ध कर दूँगा कि तुम नौकरी कर रही हो और मुझसे ज्यादा पगार पा रही हो, तो तुम कोर्ट में अपना केस हार जाओगी और फिर पछताओगी !"

"मैं यह केस कभी नहीं हारूँगी, चंदन ! भले ही इस केस को जीतने के लिए मुझे अपनी नौकरी छोड़नी पड़े !"

मंजरी का जवाब सुनकर मुझे हँसी आ गयी । मैंने हँसते हुए ही कहा -

"मेरी नौकरी तो पहले ही छूट चुकी है ! मैं दस दिन पहले ही अपनी नौकरी से रिज़ाइन कर चुका हूँ !"

"तुम्हें जो कुछ भी कहना है, अब कोर्ट में ही कहना !"

"मैं तुम्हें यह समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि तुम्हें गुजारा भत्ता मिलने का चांस तभी बन सकता है, जब मैं दुबारा कहीं जॉइन करूँ और मेरी नौकरी परमानेन्ट हो ! ऐसा न हो कि गुजारा भत्ता लेने के लिए तुम अपनी नौकरी भी छोड़ दो और गुजारा भत्ता भी न मिले ! न तुम इधर की रहो और न उधर की ! मतलब धोबी का कुत्ता न घर का रहे और न घाट का !"

दूसरी ओर से किसी तरह की 'हूँ-हाँ-ना' की आवाज नहीं आने पर मैंने मोबाइल को देखा, तो मंजरी ने मेरी पूरी बात सुनने से पहले ही कॉल काट दी थी । शायद मेरी बात ने उसका गुस्सा बढ़ा दिया था ।

क्रमश..