बात बस इतनी सी थी - 22 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बात बस इतनी सी थी - 22

बात बस इतनी सी थी

22.

घरेलू हिंसा के तहत चल रहा हमारा केस दोनों को साद-साथ रहकर एक-दूसरे को समझने की नसीहत देकर कुछ महीने के लिए फाइलों में दबकर बन्द हो गया था । सामने वाले की शर्तों पर उसके साथ सामंजस्य करके जीना हम दोनों में से किसी के भी स्वभाव में शामिल नहीं था । इसलिए हम दोनों के साथ-साथ रहने की संभावना तो बहुत पहले ही खत्म हो चुकी थी । फिर भी, कोर्ट की नसीहत को मानते हुए यदि हम दोनों साथ-साथ रहने की कोई गुंजाइश तलाशने की कोशिश भी करते, तो रही-सही वह कसर मंजरी की ओर से डाले गए गुजारे-भत्ते के केस ने पूरी कर दी थी ।

कहने का अर्थ यह है कि अगले छः महीने तक गुजारे-भत्ते के केस की तारीख-पर-तारीख लगती रही और हम दोनों इस अंतराल में एक दिन भी साथ-साथ नहीं रह सके । सच तो यह था कि हम दोनों के बीच में जितनी दूरी छः महीने पहले थी, अब वह दूरी बढ़कर और गहरी-चौड़ी खाई बन चुकी थी । फिर भी कहीं कोई ऐसी डोर अभी भी बाकी थी, जो उस गहरी चौड़ी खाई के दोनों किनारों - मुझे और मंजरी को आपस में बांधकर रखे हुई थी ।

घरेलू हिंसा के केस में मंजरी लगातार मुझ पर यही आरोप लगाती रही थी कि शादी के बाद मैंने अपना पति-धर्म नहीं निभाया और दोनों के बीच की दूरी को खत्म करने के लिए मैंने वह सब-कुछ नहीं किया, जो एक पति होने के नाते मुझे करना चाहिए था !

गुजारे भत्ते के केस में बहस करने के समय मेरे वकील की यही मजबूत दलील रहती थी कि उसके मुवक्किल ने वादी के साथ एक बार भी पति जैसे सुख-आनंद का भोग नहीं किया, उल्टे वह.मानसिक उत्पीडन का शिकार होता रहा, तो गुजारा-भत्ता क्यों दिया जाए ?

मेरे वकील ने यह भी कहा कि मेरे मुवक्किल को तो अपनी पत्नी के खिलाफ केस दर्ज कर देना चाहिए था कि वादी मंजरी जो मेरे मुवक्किल की ब्याहता पत्नी है, शादी होने के बाद लगातार दो सप्ताह तक मेरे मुवक्किल और अपने पति को एक कमरे में एक बिस्तर पर रात गुजारने के लिए मजबूर करती रही और फिर पति के साथ शारीरिक संबंध बनाने से इनकार करके उसका मानसिक उत्पीड़न किया । इतना होने के बाद भी मेरा मुवक्किल अपनी पत्नी के खिलाफ केस दर्ज करके उसको कोर्ट में घसीटना नहीं चाहता, क्योंकि वह अपनी पत्नी को आज भी बहुत प्यार करता है ।"

लेकिन गुजारे भत्ते के केस की बहस के समय मंजरी अपने उस पुराने बयान से पलट गई, जिसमें उसने कहा था कि मैंने उसके साथ शादी के बाद एक बार भी शारीरिक संबंध नहीं बनाया था । इस.बार मंजरी ने कोर्ट में यह स्वीकार किया था कि शादी होने के बाद हम दोनों के बीच दो बार शारीरिक संबंध बना था । इस विषय में जज साहब ने मेरे बयान लिये, तो मैंने भी मंजरी का विरोध नहीं किया । मैंने उसके द्वारा लगाए गए आरोप और उसके बयान का समर्थन करते हुए कहा -

"जज साहब, यह सच है कि शादी के बाद हमारा आपस में दो बार शारीरिक संबंध बना था ! लेकिन मैं मंजरी के साथ शारीरिक संबंध बनाने के लिए कतई इच्छुक नहीं था, इसके दबाव और जिद के चलते अपनी मर्जी के खिलाफ जाकर मुझे मजबूरी में मंजरी के साथ वह सब कुछ करना पड़ा, जिसके लिए मैं मानसिक रूप से तैयार नहीं था !"

मेरा बयान होते ही उस दिन की कोर्ट की कार्यवाही वही खत्म हो गई थी और हम कोर्ट से बाहर निकल आये । बाहर आते ही मंजरी मेरे ऊपर आरोप लगाते हुए बरस पड़ी -

"तुम्हें अपनी पत्नी पर ऐसे आरोप लगाते हुए शर्म नहीं आती ?"

मैंने उसको समझाते हुए कहा -

"मंजरी ! तुम पहले खुद के लिए निश्चित करो कि तुम क्या कहना चाहती हो ? क्या करना चाहती हो ? और इस समय तुम्हारा क्या स्टैंड है ? तुम कहाँ खड़ी हो ?"

"मिस्टर चंदन ! तुम मेरी छोड़ो, अपनी कहो ! एक तरफ तुम्हारा वकील कहता है कि तुम अपनी पत्नी को प्यार करते हो, इसलिए उसको कोर्ट में घसीटना नहीं चाहते हो ! दूसरी ओर तुम भरी कोर्ट में अपनी पत्नी की छवि को ऐसे खराब करते हो, जैसे वह कोई बदचलन औरत हो या कोठे पर देह व्यापार करने वाली कोई वेश्या हो ! शर्म आती है मुझे अपने उस फैसले पर, जब मैंने तुम जैसे स्वार्थी-निर्लज्ज आदमी को अपना जीवन-साथी बनाया था और अपना सब कुछ तुम्हें सौंप दिया था !"

"मंजरी, मैंने तो कोर्ट में वही सब-कुछ कहा, जो अब तक तुम कहती आ रही थी । जब कोर्ट में तुम कहती हो कि मैंने अपना पति होने का धर्म-कर्म नहीं निभाया, तो क्या तब उसका यही अर्थ नहीं होता कि तुम वह सब करना चाहती थी, जो मैंने नहीं किया । जिस बात को तुम पिछले दो साल से कहती आ रही हो, आज जब वही बात मैंने भी कोर्ट में कह दी, तो तुम्हें मिर्ची क्यों लग रही है ?"

मैंने मंजरी को आईना दिखाते हुए कहा, तो वह गुस्से से और ज्यादा लाल-पीली होकर बोली -

"अच्छा हुआ कि मैं तुम्हारे साथ ज्यादा दिन नहीं रही और मैंने कोर्ट में केस कर दिया ! कम-से-कम तुम्हारा असली चरित्र तो मेरे सामने आ गया ! वरना, मैं तुम-जैसे गंदे चरित्र वाले व्यक्ति के साथ और कुछ ज्यादा दिन रह जाती, तो मैं एक ऐसी दलदल में फँस जाती, जहाँ से मेरे लिए निकलना भी मुश्किल होता और जहाँ रहकर मेरा जीना भी मुश्किल हो जाता !"

यह कहकर मंजरी तेज कदमों से दौड़ती हुई-सी वहाँ से चली गई । उस समय मैंने देखा था, उसकी आँखों में आँसू छलक रहे थे, जिन्हें रोकने की वह भरपूर कोशिश कर रही थी । शायद उसको मुझसे यह आशा थी और उसको भरोसा भी रहा होगा कि उसके द्वारा कोर्ट में घसीटे जाने के बावजूद मैं उसकी छवि को किसी तरह का कोई नुकसान नहीं होने दूँगा और हर पल उसका रक्षा कवच बना रहूँगा !

वास्तव में मैं ऐसा ही कर भी रहा था । मैंने कोर्ट में जो कुछ कहा था, उसकी छवि खराब करने के लिए नहीं कहा था, उसका समर्थन करते हुए उसके उस आरोप को सत्य सिद्ध करने के लिए कहा था, जो उसने मुझ पर लगाया था । न जाने यह कैसा प्यार और विश्वास था ? कैसी लड़ाई थी ?

ढाई साल तक गुजारे-भत्ते का केस चलता रहा । कई तारीखों में चली बहस के बाद मंजरी गुजारे-भत्ते का केस हार गई । उसकी हार के कई मुख्य कारण थे । जैसे - उसका अपनी किसी बात पर दृढ़ता से नहीं टिकना और अपनी ही कही हुई पिछली बात से पलट जाना, बार-बार अपने बयान बदलते रहना और किसी बात या आरोप पर उसका खुद का दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं होना ।

केस को हारने के बाद मंजरी के पास तीस दिन के अंदर हाई कोर्ट में अपील करने का विकल्प था, लेकिन उसने हाई कोर्ट में अपील नहीं की । शायद वह ऐसा करना नहीं चाहती थी या उसको दोबारा हारने का डर रहा होगा, क्योंकि बिना सबूतों के उसकी कमजोर दलीलों के सहारे उसका केस जीतना नितांत नामुमकिन था ।

इतना होने पर भी वह चुप नहीं बैठी । उसने मेरे खिलाफ कोर्ट में एक और केस दायर कर दिया था । इस बार उसने हमारे रिश्ते को आगे बढ़ा पाने की गुजाइश पूरी तरह खत्म हो जाने की वजह बताकर, हमारी शादी में उसके पिता द्वारा दहेज में दिए गये अस्सी लाख रुपयों को लौटाने की माँग की थी ।

मैं अच्छी तरह से जानता था कि इस बार मैं यह केस हार जाऊँगा ! दूसरी ओर, मैं भी जानता था और मंजरी को भी पूरा भरोसा था कि इस बार वह जरूर जीत जाएगी, क्योंकि इस बार कोर्ट में अपना पक्ष मजबूती से रखने के लिए उसके पास पर्याप्त सबूत थे । उसके पास सबूत के रूप में एक ऐसा वीडियो था, जिससे वह यह सिद्ध कर सकती थी कि उसके पिता ने हमारी शादी में मेरी माता जी को दहेज में अस्सी लाख रुपए दिए थे । अपने उसी सबूत के बल पर मंजरी यह भी यह अच्छी तरह जानती थी कि तरह दहेज में एक फूटी कौड़ी भी नहीं देने के बावजूद वह कोर्ट के माध्यम से मुझसे अस्सी लाख रुपये लेने में सफल हो जाएगी ।

मंजरी जानती थी कि उसको देने के लिए मेरे पास अस्सी लाख रुपए नहीं है, शायद इसलिए मंजरी ने सोचा होगा कि अस्सी लाख रुपयों की व्यवस्था नहीं होने पर मैं उसकी जिद के आगे घुटने टेक दूँगा और मजबूरी में उसकी शर्तों पर उसके साथ रहने के लिए तैयार हो जाऊँगा ! लेकिन यहाँ मंजरी गलत थी । मैं उसको प्यार करता था, उसकी चिंता भी करता था, किंतु उसकी हर जिद के आगे घुटने टेकना और हर हालत में उसको संतुष्ट रखने की कोशिश करना अब मेरी सामर्थ्य और रुचि दोनों के बाहर का विषय बन चुका था ।

इस केस में हालात कुछ ऐसे बन गए थे कि मंजरी के दोनों हाथों में लड्डू थे । उसके एक हाथ मे अस्सी लाख रुपये थे और दूसरे ने जीत का सेहरा था । जबकि मेरे दोनों हाथ खाली थे । मुझे एक ओर अस्सी लाक रुपयों का दंड भुगतना था, तो दूसरी ओर मेरी हार ! अगर मैं समझौता करने की भी कोशिश करता, तो भी उसी की जीत थी और हार के रूप में मुझे मेरी सारी जिंदगी का बलिदान करना था । दोनों ही में मेरी हार थी, फिर भी दोनों में से कोई एक विकल्प चुनना मेरी मजबूरी थी और नियति भी ।

हालांकि जो रुपये दहेज के नाम पर मैंने या मेरी माता जी ने मंजरी के माता-पिता से कभी लिये ही नहीं थे, उन अस्सी लाख रुपयों को दंड के रूप में देने का निश्चय करना मेरे लिए आसान नहीं था । लेकिन मेरे लिए मेरी जिंदगी में मेरा सुख-चैन अस्सी लाख रुपए से ज्यादा मायने रखते था, इसलिए मैंने निश्चय किया कि कहीं से भी किसी भी तरह से व्यवस्था करके मैं कोर्ट के माध्यम से उसको अस्सी लाख रुपए लौटा दूँगा ! मेरे इस निश्चय के बाद भी मुझे एक प्रश्न विचलित किये जा रहा था -

"क्या मुझसे अस्सी लाख रुपए लेकर मंजरी संतुष्ट हो जाएगी ? क्या अस्सी लाख रुपए लेकर उसके जीवन में सुख के वे पल लौट आएँगे, जिनके लिए वह पल-पल तड़पती रही है और मुझे कोर्ट में घसीटती रही है ?"

इस प्रश्न का उत्तर तो मंजरी ही दे सकती थी । वैसे भी मेरे लिए इस प्रश्न का उत्तर जानना इतना महत्वपूर्ण नहीं था, जितना अस्सी लाख रुपयों की व्यवस्था करना था । मैं तो सिर्फ इतना समझता था कि यह केवल मुझे परेशान करने की मंजरी की एक कोशिश थी, क्योंकि वह जानती थी कि अस्सी लाख रुपयों की व्यवस्था करना मेरे लिए बिल्कुल भी आसान नहीं था ।

खैर, आसान या मुश्किल जो भी था, जैसा भी था ! मैंने लड़ने से पहले ही अपनी पराजय स्वीकार करके अस्सी लाख रुपयों की व्यवस्था करने की दिशा में अपनी कोशिश शुरू कर दी थी । यह बात दूसरी थी कि इस हार में ही मेरी जीत थी, क्योंकि मैं अब से पहले भी कई बार यह दृढ़ निश्चय कर चुका था कि मंजरी के साथ रहकर जीवन जीना अब मेरे लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा । भले ही मैं उसको अभी भी उतना ही प्यार करता था, जितना हमारी शादी होने से पहले करता था !

क्रमश..