अंतिम इच्छा Dr.Ranjana Jaiswal द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अंतिम इच्छा


सुबह से यह चौथा फोन था। फोन उठाने का बिल्कुल मन नहीं था ।...पर माँ... माँ समझने को तैयार ही नहीं थी। फोन की घंटियां उसके मन-मस्तिष्क पर हथौड़े की तरह पड़ रही थी।

अंततः नेहा ने फोन उठा ही लिया।

" हेलो... हाँ माँ बोलो..."

"बोलना क्या है... घर में सभी तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहे हैं... तुम किसी की बात का जवाब क्यों नहीं देती।"

"माँ... माँ इतना आसान नहीं है यह सब... मुझे सोचने का मौका तो दो....।

नेहा ने बुझे स्वर में कहा...

"सोचना क्या है इसमें... तुम्हारी बहन की अंतिम इच्छा थी... क्या बिल्कुल भी दया नहीं आती तुम्हें... उन बच्चों के मासूम चेहरे को तो देखो।"

"माँ... माँ मैं समझती हूँ पर...।"

"पर क्या... वह सिर्फ तुम्हारी बहन नहीं थी... माँ की तरह पाला था उसने तुम्हें... आज जब उसके बच्चों को माँ की जरूरत है तो तुम्हें सोचने का समय चाहिए।"

" माँ... इतनी जल्दबाजी में इस तरह के फैसले नहीं लिए जाते।"

" हमने भी दुनिया देखी है...ठीक है... अगर तुम्हें उन बच्चों की छीछालेदर मंजूर है तो फिर क्या कहा जा सकता है।"

" माँ!!... ये क्या बात हुई तुम इस तरह की बातें क्यों कर रही हो?"

माँ का गला भर आया...

" तुम अभी माँ नहीं हो बनी हो न... जब माँ बनोगी तब औलाद का दर्द समझोगी। फूल से बच्चे माँ के बिना कलप रहे हैं और तुम हो कि सब दरवाजे बंद करके बैठी हो ।"

नेहा का मन खराब हो चुका था... क्या इतना आसान था यह सब।चार भाई-बहनों में सबसे छोटी थी वो.... सबसे छोटी.. सबसे लाडली।

...पर जिंदगी उसे इतने कड़वे और कठिन मोड़ पर आकर खड़ा कर देगी उसने कभी नहीं सोचा था।

दीदी की शादी के वक्त महज 17 साल की नाजुक उम्र थी उसकी।पहली बार साड़ी पहनी थी... कितना उत्साह था... जीजा जी का जूते चुराऊंगी ...दस हजार से एक रुपये कम न लूंगी... उन्हें खूब तंग करूँगी। जीजाजी उसकी हर शरारत पर मुस्कुरा कर रह जाते...

वह सिर्फ उसकी बहन के पति ही नहीं...नेहा की हर बात के हमराज़, समझदार और सुलझे हुए व्यक्ति थे ।बहुत सारी ऐसी बातें... जो दीदी को भी पता नहीं चल पाती थी और वह जीजा जी से डिस्कस करती थी।

जीजा जी के उत्साहित करने पर ही उसने सिविल सर्विसेज की तैयारी करना शुरू की थी।... नहीं तो माँ... के आगे तो वह भी दीदी की तरह मजबूर हो जाती और आज वो भी दीदी की तरह और किसी की घर -गृहस्थी देख रही होती।

दीदी पढ़ने में बहुत अच्छी थी... पर बाबा की अंतिम इच्छा का मान रखने के लिए... दीदी बलि का बकरा बन कर रह गई और अचार मुरब्बे और नये-नये पकवानों के अलावा... आगे कुछ भी ना सोच सकी।

याद है... उसे आज भी वह दिन...दीदी की कैंसर की रिपोर्ट आई थी... कैंसर थर्ड स्टेज पर था घर में कोहराम मच गया था।

माँ...माँ का रो-रो कर बुरा हाल था और दीदी दीवार का कोना पकड़े बुत पड़ी थी। नेहा को समझ में नहीं आ रहा था किस-किस को संभाले और क्या समझाएं।

समझते सभी थे... पर झूठी दिलासा एक-दूसरे को देते रहे। प्रवीण जीजा जी का सुदर्शन चेहरा अचानक से बूढ़ा लगने लगा था। अपने जीवन संगिनी की दुर्दशा उन से बर्दाश्त नहीं हो रही थी ।

कितने सुखी थे वे... राम सीता जैसी जोड़ी।न जाने किसकी नजर लग गई थी उस खुशहाल परिवार पर...। जीजा जी ने दीदी को बचाने के लिए हर संभव कोशिश की मुंबई... मद्रास कहाँ-कहाँ नहीं दौड़े... किस-किस के आगे हाथ नहीं जोड़ें ... पर पत्थर का भगवान भी पत्थर हो चुका था।

जीजा जी की आलीशान कोठी ,रुपया-पैसा सब धरा रह गया और दीदी हमें रोता-बिलखता छोड़ कर चली गई।

इन दिन में उसने क्या-क्या देखा और महसूस किया था...वही जानती थी।

घर मेहमानों और रिश्तेदारों से भरा हुआ था। नन्ही परी माँ के लिए बिलखते-बिलखते नेहा की गोदी में ही सो गई थी।

दीदी की चचिया सास कनखियों से नेहा को बार-बार घूर रही थीं।

" बेटा तुम कौन हो ...बहुत-बहुत देखा -देखा चेहरा लग रहा है।"

नेहा ने परी की तरफ इशारा करके कहा ...

"मैं इसकी मासी हूँ।"

चाची जी के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान आ गई। उन्होंने सोती हुई परी के सर पर हाथ फेरते हुए बड़े व्यंग्यात्मक ढंग से कहा...

"हाँ भाई ....परी के लिए तुम मा$$$सी हो...अब तो तुम ही इसकी... ??"

नेहा गुस्से से तिलमिला गई ...चाची के शब्द गले मे अटक कर रह गए।वो परी को लेकर कमरें में चली गई।

ये पहली बार नहीं था...इन तेरह दिनों में हर आने-जाने वालों की निग़ाहों में उसने यही सवाल तैरते देखा था।

कितना रोई थी वो उस दिन ....माँ दीदी को गए चार दिन नहीं हुए और लोग जीजा जी की दूसरी शादी के बारे में भी सोचने लगे... वो माँ के गोद में सर कर रख कर सिसकने लगी।

"ये दुनिया ऐसी ही है... जानती हो आज एक महिला आई थी...शायद तुम्हारे जीजा जी के जानने वालों में थी...मुझ से ही तुम्हारे जीजा जी के लिए अपनी तलाकशुदा बेटी के रिश्ते की बात कर रही थी।"

नेहा आश्चर्य से माँ को देखती रह गई।

"नेहा दुनिया ऐसी ही है ... एक अच्छा जीवन जीने के लिए आलीशान मकान, नौकर-चाकर और रुपया-पैसा किसको नहीं चाहिए।"

नेहा का मन खिन्न हो गया।दीदी के सपनों का महल यूँ आहिस्ता-आहिस्ता ढह रह था।

धीरे-धीरे सारे मेहमान चले गए... नेहा सामान पैक कर रही थी...तभी परी और गोलू ने आकर चौका दिया...

"मासी आप जा रही हैं।"

दीदी के जाने के बाद दोनों बहुत अकेले पड़ गए थे।

"हाँ ...बेटा !मेरी छुट्टियाँ खत्म हो गई है ऑफिस भी जाना है न।तुम उदास क्यों हो।हम रोज वीडियो कॉल से बात करेंगे। अपना होमवर्क रोज करना ...परी कल से तुम अपनी कत्थक की क्लास जॉइन करोगी और गोलू तुम भी अपनी कराटे की क्लास जाना शुरू करोगे।"

बच्चे चुपचाप सुनते रहे...दीदी के बच्चे बहुत समझदार और आत्मनिर्भर थे...पर फिर भी... बच्चे ही थे।

बच्चे नेहा को छोड़कर चले गए।तभी माँ कमरे में आ गई...

"नेहा ...सामान पैक हो गया ।"

"हाँ... माँ ऑफिस से बार-बार फोन आ रहा...आप लोग कब निकल रहे..."

"तुम्हारे पापा और भइया कल सुबह निकलेंगे।मैं... मैं अभी कुछ दिन यही रहूँगी...।बच्चे एकदम अकेले पड़ गए हैं।"

" हम्म... "

नेहा सर झुकाए माँ की बात सुनती रही।

" नेहा तुझसे एक बात कहनी थी..."

"हाँ माँ बोलो...सुन रही हूँ।"

माँ झुंझला गई...

"यहाँ मेरे पास बैठो..."

"क्या हुआ माँ... ऐसी भी क्या बात है?"

नेहा के दिमाग मे हजारों सवाल उठ रहे थे। माँ ने नेहा का हाथ अपने हाथों में ले लिया...

"नेहा... तुमसे कुछ भी नहीं छुपा...तुम्हारी दीदी के जाने के बाद हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है... तुम्हारी दीदी ने मरने से पहले मुझ से एक वायदा लिया था...वो चाहती थी कि उसके मरने के बाद तुम उसके बच्चों की जिम्मेदारी संभालों... तुम ...तुम प्रवीण जी से शादी कर लो।"

नेहा छटपटा कर रह गई...

"माँ तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो...जीजा जी के साथ मेरी...छि... माँ तुम भी न।"

गुस्से और वितृष्णा से नेहा का चेहरा लाल हो गया।

"नेहा समझने की कोशिश करो...आखिर तुम्हारी भी शादी करनी ही है... देखा-भाला परिवार है। बच्चों को माँ मिल जाएगी ...वैसे भी एक लड़की को क्या चाहिए आलीशान घर,नौकर-चाकर ,रुपया-पैसा... तुम्हारे पापा की भी यही इच्छा है।"

नेहा आश्चर्य से माँ को देखती रह गई।

"तुमने जीजा से भी एक बार पूछा है.... पूछना क्या है उनके माता-पिता तो है नहीं चाचा-चाची से बात हो गई है... उन्हें भी ये रिश्ता मंजूर है।"

रिश्ता...नेहा को सारा घटनाक्रम समझ में आ गया।

"माँ.... मैं तुमसे इस बात की उम्मीद नहीं कर रही थी ...तुम भी...छि... दीदी की चिता की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई और तुम... ?"

माँ का चेहरा गम्भीर हो गया...

"हो सकता है आज तुम्हें मेरी बातें अच्छी न लगे...पर तुम्हारी दीदी के जाने के बाद प्रवीण जी और उनके बच्चों की जिम्मेदारी भी मुझ पर है।तुम सोच-विचार कर जल्द मुझे जवाब दे दो...कहते हैं मरने वाले कि अंतिम इच्छा न पूरी की जाए तो उसकी आत्मा को कभी शांति नहीं मिलती..."

अंतिम वाक्य कहते वक्त माँ ने मुझे अजीब सी निग़ाहों से देखा।पता नहीं ...उन निगाहों में ऐसा क्या था...मैं उन आँखों मे तैर रहे हजारों सवाल के तीर झेल नहीं पाई और मुँह घुमा लिया।

एक हफ्ते में माँ ने पचासों बार फोन कर दिया था... हर बार एक ही सवाल और नेहा एक ही जवाब देती...

"माँ मुझे सोचने का वक्त दो।"

नेहा ने हर बार एक ही बात पर आकर अटक जाती ...सबको मरी हुई दीदी की अंतिम इच्छा की पड़ी है.... पर किसी ने एक बार... हाँ सिर्फ एक बार उससे पूछा कि उसकी इच्छा क्या है।मरने वाला तो मरकर चला गया... पर लोग उसे जिंदा लाश बनाने पर क्यों तुले है।

शनिवार की रात थी...इन दिनों वो बहुत व्यस्त रही शारिरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी ।

सप्ताह भर की दौड़-भाग से शरीर थक कर चूर हो गया था। हाथ में कॉफी का मग लिए वो छत पर आ गई। कितने दिनों बाद....हाँ कितने दिनों बाद वो छत पर सुकून के चंद पलों की तलाश में आकर बैठी थी।

आसमान में चाँद... बादलों से लुका- छिपी कर रहा था। वो सोचने लगी बादलों और तारों के बीच रहकर भी चाँद कितना अकेला है... वो भी तो आज कितनी अकेली थी...कोई उसे समझने को तैयार नहीं।

किसी ने एक बार भी मेरे बारे में नहीं सोचा...सब अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते हैं और मैं... मैं आखिर क्या चाहती हूँ।

नेहा सोचती रही ...उसकी आँखों के सामने जीजा जी का थका हुआ चेहरा ....परी और गोलू का मासूम चेहरा... तो कभी माँ का गम्भीर चेहरा उभर कर आ जाता।

नेहा ने आँखे मूद ली। आखिर एक लड़की को क्या चाहिए अपनी जिंदगी से ...एक खुशहाल परिवार, रुपया-पैसा, घर बस।बस...बस क्या यही चाहिए था उसे।आज अगर वो माँ की बात मानकर शादी कर लें...इस रिश्ते में उसे क्या मिलेगा

दीदी की परछाई होने का दर्जा ...दूसरी पत्नी ...दूसरी माँ...नेहा मन ही मन मुस्कुराने लगी ...दूसरी माँ नहीं... सौतेली माँ।

लोगों के ताने ...समाज का हर कदम पर तुलनात्मक अध्ययन बड़ी बहन ज्यादा सुंदर थी...दूसरी तो ऐसी ही आएगी।बच्चे पैदा करने की क्या जरूरत है पहली से दो पहले ही है.... जिंदगी गुजर जाएगी एक अच्छी माँ बनने और सिद्ध करने में...उसके बाद भी इसकी कोई गारण्टी नहीं कि वो ये सिद्ध कर भी पाएगी या नहीं।

प्रवीण की निगाहें हर चीज़ में...हर रंग में..हर त्योहार में... हर स्वाद में दीदी को ढूढेंगी। तिनका-तिनका जोड़कर अरमानों से सजाया हुए दीदी के उस घर में एक फूलदान सजाने में भी मेरे हाथ काँपेगें।

हर पार्टी... हर उत्सव में लोगों की सवालिया निगाहें मुझे तार-तार करेंगी ...देखने मे तो ठीक लगती है फिर ऐसी क्या गरज पड़ी थी दो बच्चे के बाप से शादी करने की...अकेली आई है या बच्चे भी।

नेहा ने घबरा कर आँखे खोल दी और आसमान में तारों के बीच दीदी को ढूढने लगी....दीदी मुझे माफ़ कर देना ...मैं इतनी मजबूत नहीं कि जीवनभर लोगों के सवालों का जवाब दे सकूँ... पर मैं आज तुमसे ये वायदा करती हूँ कि एक मासी के तौर पर हमेशा तुम्हारे बच्चों के साथ खड़ी हूँ...हफ़्तों से घुमड़ते सवालों का मानो उसे जवाब मिल गया था...नेहा माँ को फोन करने के लिए छत से नीचे उतर गई।