बाबुल मोरा नैहर छुटियो जाए... Dr.Ranjana Jaiswal द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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बाबुल मोरा नैहर छुटियो जाए...



बेटे के बोर्ड के पेपर चल रहे थे...महीनों से घर से बाहर भी नहीं निकली थी ।सोचा था..इस बार इम्तिहान खत्म होने के बाद ही पीहर चली जायेगी...पर ये नाशपीटी बीमारी कोरोना के चक्कर में सारा कार्यक्रम रद्द करना पड़ा।कितना छटपटाई थी वो और वहाँ दूर बैठे माँ-पापा।उनकी आवाज में उस दर्द को उसने भी महसूस किया था।

एक साल ....हाँ एक साल हो गए थे उसे पीहर गए हुए।मन न जाने किन यादों में खोता चला गया।दस दिन...हाँ दस दिन पहले की ही तो बात है।सोचते-सोचते सुगन्धा का मन मयूर पंख लगाए न जाने किस दुनिया मे उड़ गया।सुगन्धा सुबह से चक्करघिन्नी की तरह दौड़ रही थी।अकेली जान क्या-क्या करती ।पापा जी की दूध वाली चाय ,आकाश की ग्रीन टी तो... बच्चो को बॉर्नविटा वाला दूध चाहिए था। बिट्टू टिफ़िन बॉक्स देखकर मुँह फुला कर बैठे थे। 'मैं टिफ़िन नहीं ले जाऊंगा... क्या माँ फिर से वही पूरी और भिंडी की सब्जी।मेरी फ्रेंड की मम्मी कितना टेस्टी-टेस्टी टिफिन देती है।कभी पास्ता कभी चाउमीन तो कभी फ्रेन्च फ्राइज और आप तो हमेशा वही गन्दी सी सब्जी दे देती हो।बिट्टू ने अजीब सा मुँह बनाया।उसके टेढ़े-मेढे मुँह को देखकर सुगन्धा मुस्कुराने लगी।"ओके बाबा माँ तो बहुत गन्दी है।मैं तो सोच रही थी कि आज खाने में बिट्टू की पसन्द के छोले भटूरे बना लूँ।...पर बिट्टू को तो अपनी माँ के हाथ का खाना ही नहीं पसन्द है। क्या फायदा... जाने दो।'छोले भटूरे"...ये$$$$ बिट्टू खुशी से उछल पड़ा।... और फिर क्या सुगन्धा के चेहरे पर बिट्टू के मासूम प्यार की न जाने कितनी छाप पड़ गई।अब मुँह फुलाने की बारी चीकू बिटिया की थी...पास बैठी चीकू माँ और बिट्टू के अप्रत्याशित प्यार दुलार को देख रही।उसे हमेशा लगता था कि माँ उससे ज्यादा भईया को प्यार करती है।

"माँ मेरी चोटी तो बना दो... स्कूल बस आ जायेगी। सुगंधा चीकू की नाराजगी को अच्छी तरह से समझ रही थी। दिन-भर यही तो देखती रहती थी वह...। कभी वह खुश तो कभी वह नाराज दिन-भर उनके झगड़ों को सुलझाते-सुलझाते समय कब बीत जाता....उसे पता भी नहीं चलता था ।चीकू तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है... मेरे लिए ..हाँ तुम्हारे लिए... फ्रिज में रखा है । क्या है माँ बताओ ना.. तुम खुद ही जाकर देख लो। माँ-माँ... प्लीज बताओ ना मेरी छोटी सी प्यारी सी चीकू के लिए उसके फेवरेट कस्टर्ड बनाया है। माँ... ओ... माँ तुम कितनी प्यारी हो... तुम कितनी अच्छी हो... लव यू माँ। बच्चों के चेहरे पर इसी खुशी को देखने के लिए ही तो तरसती थी... यही तो उसकी जिंदगी थी। सुगन्धा को अपनी जिंदगी से कभी कोई शिकायत नहीं रही। सुगन्धा न जाने किस दुनिया में खो गई ...तभी उसे याद आया ।अरे माँ जी की दवा का टाइम हो गया है ।पापा को समय से नाश्ता भी तो देना है ।आकाश भी नहा कर आते होंगे .... फटाफट नाश्ते की तैयारी कर लूँ। "सुगंधा-सुगंधा अरे यह बिजली का बिल अभी तक यहीं पड़ा है... तुमसे कहा था ना जमा करवा देना... लास्ट डेट निकल गई। एक काम ठीक से नहीं होता तुमसे ..।पता नहीं दिन भर करती क्या हो।" सुगंधा के हाथ काम करते-करते रुक जाए। क्या आकाश नहीं जानते थे कि वो दिन भर करती क्या है ।दिन भर उन लोगों के पीछे भागते-भागते 20 साल बिता दिए उसने... फिर भी उससे यह प्रश्न पूछा जाता है कि वह दिन भर करती क्या है ।सुगंधा ने आकाश की बात का कोई जवाब नहीं दिया। हड़बड़ाहट में उसने गर्म खौलते दूध का भगोना उठा लिया दर्द से उसकी आँखे भर आईं।उंगलियों पर छाले पड़ गए। "कहां ध्यान रहता है तुम्हारा...क्या सोचती रहती हो ।आकाश ने नाराज हो कर कहा... देखो उंगलियों पर छाले पड़ गए है ।तुरंत पानी मे डुबो ...जलन हो रही होगी न।आकाश की प्रश्नभरी निगाहें उसके चेहरे को देख रही थी। आकाश काफी देर तक उसकी ऊँगलयो को फूक कर उसकी जलन को शान्त करने का प्रयास करते रहें ।आकाश ने उंगलियों पर पड़ आए छाले को तो महसूस कर लिया पर उसकी बातों के तीर से दिल पर निकल आए छालों को आज तक किसने देखा था। कहने को तो वो उस घर की मालकिन थी पर क्या यह घर उसका था... न जाने कितने सवाल उसके दिलो-दिमाग में घूम रहे थे।मन पूरी तरह से खिन्न हो चुका था ...20 साल दिए थे उसने अपने जीवन के ...और फिर भी कितनी आसानी से आकाश ने कहा दिया कि तुम दिन भर करती क्या हो। वो सब कुछ छोड़कर कही दूर... बहुत दूर चली जाना चाहती थी।

एक आवाज से सुगन्धा की मानो नींद टूटी गई। माँ की चूड़ियों की आवाज दूसरे कमरे तक आ रही थी। हमेशा शांत रहने वाली माँ जब बहुत बेचैन होती थी ,तब उसकी चूड़ियाँ कुछ ऐसे ही चुगली कर देती थी । सुगन्धा के हाथ सामान समेटते -समेटते रुक गए।कुछ ऐसा ही हाल तो उसका भी था।गरमी की छुट्टियां मतलब मायका,नानी का घर। बच्चे कितने उत्साहित थे।उत्साह तो उसके मन मे भी बहुत था...पर संस्कारों की बेड़ियाँ ...वह बच्चों की तरह खुश भी नहीं हो सकती थी। घर से निकलते वक्त आकाश ने मुस्कुराते हुए कहा था ..."क्यो मैडम चल दी मायके। सुगन्धा ने हँसते हुए कहा," मायके नहीं जनाब फ्यूल लेने जा रही । जिससे साल भर आप की गृहस्थी ठीक से चल सकूँ।बीती बाते याद कर उसका मन कैसा-कैसा हो गया।10 दिन ....हाँ दस दिन।कितनी सारी बातें दिल में घुमड़ रही थी।माँ के हाथों का ये खाना है, पापा की गोदी में सर रख कर सुकून से लेटूंगी।भैया-भाभी के साथ पिक्चर और न जाने क्या-क्या।
...पर ये दस दिन न जाने कहाँ कपूर की तरह उड़ गए। समान पैक करने का बिल्कुल मन नहीं कर रहा था । सुगन्धा सोचते-सोचते न जाने किस दुनिया मे खो गई। आकाश ने फोन करके अभी - अभी बताया था कि 16 तारीख का रिजर्वेशन हो गया और 26 कि वापसी।सुगन्धा के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।उसने तुरंत माँ को फोन घुमा दिया,"माँ- मेरा रिजर्वेशन हो गया,16 को आ रही हूँ ।" अरे सुनते हो सुगन्धा के पापा ,सुगन्धा का रिजर्वेशन हो गया। माँ फोन लेकर पापा की तरफ दौड़ी,माँ की चूडियों की खनखनाहट सुगन्धा ने अपने कानों में महसूस किया। उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट आ गई।ये वो घर था जहाँ उसके आने की खबर से कुछ लोग के चेहरे आज भी खिल उठते थे।"कब आ रही हो बेटा, पापा की गम्भीर सी आवाज से उसकी तन्द्रा टूटी। "नमस्ते पापा! खुश रहो बेटा ।सुन रहा हूँ तुम आ रही हो।"पापा ने अपनी आवाज को और भी गम्भीर बना कर कहा, सुगन्धा और पापा की ये छेड़छाड़ हमेशा चलती रहती थीं.....। आप कहिये तो न आऊँ, सुगन्धा ने हवा में तीर छोड़ा।तीर सीधा निशाने पर लगा।पापा बेचैन हो गए। "कैसी बात करती हो बेटा,जब तक तुम्हारा मम्मी-पापा जिंदा है.... तुम बेझिझक आ सकती हो...।तुम 16 को आ रही हो न ?" हाँ पापा... सुबह वाली ट्रेन से रिजर्वेशन हुआ है... और 26 को वापसी...। इतनी जल्दी ... अभी आई भी नहीं ...और जाने की तैयारी पहले से..। सुगन्धा ने पापा की आवाज में एक अजीब सी बेचैनी और उदासी महसूस की। "अरे सोनू की मम्मी आकाश से कहकर आटा पिसवा लो ...और हाँ दस -दस किलो आलू और प्याज भी खरीद लो...तुम्हारी लाडली आ रही है न...।"सुगन्धा खिलखिला कर हँस पड़ी..."और हाँ पापा अपने बिटिया के स्वागत के लिए गेट भी बनवा लीजिएगा और सड़क पर चूना भी छिड़कवा दीजिएगा।कोई मामूली बात थोड़ी है... आपकी बिटिया आ रही।" सुगन्धा और पापा इस बात पर काफी देर तक हँसते रहे। कितना निश्छल था दोनो का प्रेम....दुनियादारी और स्वार्थ से परे...।

याद है उसे आज भी वो दिन... शायद रविवार का दिन था ।जाड़े की सर्द धूप में वो पापा के बालों में तेल लगाने बैठी थी...ये वो समय होता था जब वो दोनों हफ्ते भर की घटनाओं का विश्लेषण करते थे।माँ सामने बैठी बाप - बेटी के वार्तालाप को सुनकर मुस्कुराती रहती।वो दोनों बात करने में इतने मशगूल हो जाते...कि ये भी याद नहीं रहता वहाँ पर कोई और भी बैठा है। "सोनू के पापा...पराई अमानत से इतना मोह न बढ़ाओ...विदा करते वक्त बहुत तकलीफ होगी...आखिर इसे अपने घर भी तो जाना है।"हुँह... मुझे कहीं नहीं जाना ...मैं हमेशा यहीं रहूँगी अपने पापा के पास ...है न पापा... ये घर मेरा भी है न।"सुगन्धा की आँखों में प्रश्न आँसू बनकर झिलमिलाने लगें। पापा उसकी हिरनी सी चंचल आँखों मे आँसू देखकर बेचैन हो गए..। अरे तुम भी न कैसी बातें लेकर बैठ गई ।ये घर तुम्हारा भी उतना ही है ...जितना तुम्हारे भाईयो का। जब तक तुम्हारे मम्मी पापा जिंदा है तुम कभी भी आ सकती हो।...और आप के बाद सुगन्धा ने उदास स्वर में कहा।"पापा...क्या लड़की की जिंदगी में शादी इतनी जरूरी चीज है ...क्या मैं यहाँ हमेशा नहीं रह सकती ।" पापा ने बड़े प्यार से उसके गालों को थपथपा कर कहा..." बेटा दुनिया की यही रीत है कोई भी आदमी अपनी बेटी को जीवन भर अपने साथ नहीं रख सका है।' देख लेना एक दिन तुम अपनी नई दुनिया में इतनी मशगूल हो जाओगी अपने पापा को भी भूल जाओगी ।सुगंधा ने झूठी नाराजगी दिखाते हुए कहा 'आप एक बार आवाज देकर तो देखियेगा... मैं यूँ दौड़ी चली आऊंगी।... पर क्या ऐसा हो सका ससुराल की इतनी सारी जिम्मेदारियाँ...कभी पापा जी की तबीयत तो कभी सासू माँ के घुटनों का दर्द ... वह चाह कर भी मैंके नहीं आ पाती थी । जून और दिसंबर का महीना जीवन में बसन्त की तरह आते थे। जून के महीने की शरीर जला देने वाली सूरज की तपिश और दिसम्बर की हाड़ कपा देने वाली ठंड भी मायके जाने के उत्साह को हिला नहीं पाती। मायके का मोह ही ऐसा होता है जो जीवन भर नहीं छूटता।
"सुगन्धा जरा इधर आ बेटा...क्या हुआ माँ। बेटा..इस बार अपने लोहे वाली अलमारी खाली कर देना ।निशांत का बेटा भी बड़ा हो गया है उसको भी कपड़े रखने के लिए जगह चाहिए होती है। अगर तू अपनी अलमारी खाली कर दें तो उसको भी अपना सामान रखने के लिए जगह मिल जाएगी।" बस... एक वही तो रह गई तो उसकी जमा पूंजी इस घर में... कमरे पर भाई के बेटे ने कब का कब्जा कर लिया था। जब वो आती तो माँ-पापा के बगल में उसका भी बिस्तर लगा दिया जाता। सच कहते है लोग लड़कियों का कोई घर नहीं होता।
वो लोहे की अलमारी...सिर्फ एक अलमारी नहीं थी।मेरे खट्टी -मीठी बातों की...न जाने कितनी यादों की...जिसमें मैंने अपनी दुनिया समेट रखी थी... उसकी निशानी थी। स्कॉलरशिप और रक्षाबंधन से बचाये हुए पैसों से खरीदी थी ... ये अलमारी। सुगंधा ने एक साफ कपड़े से अलमारी को बड़े प्यार से पोछा ।न जाने कितनी यादें... कितनी बातें उसके जेहन में घूमने लगी। सुगन्धा को देख कर ऐसा लग रहा था मानो कोई माँ गली से खेल कर आये अपने बच्चे का मुँह धुला रही हो। अलमारी एक तेज आवाज के साथ खुल गई ।कितने सालों से बंद थी अलमारी...कितना कुछ दफन था। धूल से सनी एक पुरानी सी डायरी... सुगन्धा के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई।सुगंधा ने एक फूंक मारकर धूल को हटाने की कोशिश की।कालेज के दिनों में इस डायरी पर उसने न जाने कितने पुराने गाने लिखे थे और हाँ...कॉलेज का वो आखिरी दिन सभी दोस्तों ने एक -दूसरे के बारे में कितना कुछ लिखा।उस समय कितना चलन था डायरी लिखने का।आज के समय की तरह की कहा बस ...जब चाहा उंगलियां चलाई और मन की बात दूसरे तक पहुँच गई।पन्ने पलटते- पलटते एक सुर्ख गुलाब उंगलियों से टकरा गया। चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई।उन दिनों न जानी कितनी प्रेम कहानियाँ कुछ ऐसे ही पन्नों के बीच दब कर अपना दम तोड़ देती थी।
उसके बगल में ही एक बदरंग सी गुड़िया जिसके एक आँख गायब थी ...और बाल...याद है उसे.. छोटे भाई ने एक बार गुस्से में उसके बाल काट डाले थे।कितना कुछ पीछे छूट गया था....बगल में ही मिट्टी के चूल्हा ,चौका और बर्तन जिसे सुगन्धा ने पापा के साथ नागपंचमी के मेले से खरीदा था...उसे मुँह चिढ़ा रहे थे।क्या पता था उसे यही खेल उसका जीवन बन जायेगा।कैसमेन्ट का गुलाबी रंग का एक टुकड़ा जो वक़्त की धूल में धूमिल हो चुका था...वक्त की कमी के कारण पूरा नहीं कढ़ पाया था ..आज अपनी आधी-अधूरी कड़ाही को काढ़ने वाले हाथों को बड़ी उम्मीद से देख रहा था। काँच की रंगीन गोलियां और माँ की नजरो से छुपाकर सिकड़ी खेलने के लिए कितनी सारी आड़ी -तिरछे पत्थर...माँ के सोने बाद दिन-दिन भर तो खेलती थी वो।...और वो काँच की बोतल जिसमे उसने रंगीन मछलियाँ पाली थी...कितना कुछ तो था उस अलमारी में। अलमारी के दरवाजे के पीछे सुगन्धा अपनी कितनी यादे, कितने सपने और न जाने कितने शौक छोड़ कर चली आई थी। सुगन्धा सोच नहीं पा रही थी क्या करे इन सब चीजों का।...छोड़ जाए ...पर कैसे ...क्या इतना आसान इन यादों से पीछा छुड़ा पाना। सुगन्धा ने एक -एक कर सारी यादों को बैग में भर लिया।...आज अपना घर होने का वो अहसास भी छूटता जा रहा था।

छ: महीने का वनवास फिर से मुँह बाए खड़ा था।आखिर पापा की देहरी छोड़ने का समय भी आ गया। माँ सुगन्धा को पूजाघर में लेकर गई।सूप में रखे चावलों को जब उन्होंने सुगन्धा के आँचल में डालना शुरू किया... जैसे-जैसे चावल के दाने मेरे आँचल में गिरते वैसे-वैसे हम दोनों की आँखों से आँसू गिरने लगे। बच्चे समझ नहीं पाते कि जब भी हमारे जाने का वक्त आता तो नानी और माँ क्यो रोने लगती है? क्या नाना-नानी को हमारा आना अच्छा नहीं लगता या फिर उनकी माँ हमसे ज्यादा नाना -नानी को प्यार करती हैं। बच्चे सुगन्धा के आँसू देखकर सहम कर सुगन्धा के पास आकर खड़े हो गए।माँ सुगन्धा के आँचल में खोयचा भर रही थी और उन चावल के दानों के साथ सुगन्धा का गुस्सा ...सुगन्धा का दम्भ आँसू बन कर बह रहा था।
आज सुबह से आकाश का दो बार फोन आ चुका था..."अरे यार जल्दी से आओ न।तुम्हारे और बच्चों के बिना घर ...घर नहीं लगता। " "...क्यों भाई आपका परिवार तो है ही न वहाँ... मेरी क्या जरूरत।सुगन्धा ने बड़ी तल्खी से बोला...।वैसे भी...वैसे भी मैं दिन-भर करती ही क्या हूँ।"तीर एकदम निशाने पर लगा।आकाश सुगन्धा की बेरुखी को समझ चुका था... ।आ जाओ यार तुम भी क्या बातें लेकर बैठ गई।ये पुरूष भी न... हहहह... कितनी बड़ी भी गलती हो जाये...कहा मानते है।इन 10 दिनों में आकाश ने न जाने कितनी बार फोन किया होगा। जब भी फोन की घण्टी बजती तो भैय्या भी हँसने लगते ..."क्यो सुगन्धा तुम्हारे नवाबसाहब का अब कौन सा सामान नहीं मिल रहा।" कभी-कभी अपने आप पर हँसी भी आती ...... तो कभी गुस्से से झुंझला भी जाती।मैं दो नहीं तीन -तीन बच्चों को पाल रही हूँ ।एक काम नहीं कर सकते...हर समय सुगन्धा-सुगन्धा की रट लगाए रहते हैं।कभी ये नहीं मिलता तो कभी वो...।इसकी जिम्मेदार भी तो वो खुद ही थी...रिश्तों और घर को समेटते-समेटते वो कब आकाश की आदत बन गई उसे खुद भी पता न चला।सच कहते हैं लोग औरत है तो घर ...घर है..वरना तो ईंट गारे से बना सिर्फ एक मकान।जो प्रेम,त्याग और समर्पण से .. जीवन भर अपनी बगिया को सींचती है।

अपने आँचल को मजबूती से थामे... जब सुगन्धा ने पाँच चुटकी चावल वापस सूप में रखे तो ऐसा लग मानों शादी के बाद भी सुगन्धा मायके से अलग नहीं हुई थी।कुछ अंश...हाँ कुछ अंश अभी भी उसका यहाँ पर बाकी है। कौन कहता है कि लड़कियों का अपना कोई घर नहीं होता ...सच कहूँ तो लड़कियाँ है तो घर ...घर है ...वरना तो बस ईंट, गारे और सीमेंट से बना हुआ सिर्फ एक मकान ।सुगन्धा का मन ये बार-बार दुआएँ दे रहा था कि मेरी ये बगिया यूँ ही बनी रहे...भले ही मैं किसी की के घर की शोभा रहूँ... पर मेरे वजूद की खुशबू इस घर मे भी बनी रहे।

लेखिका-

डॉ.रंजना जायसवाल

स्वतंत्र लेखन(वाराणसी आकाशवाणी, मुंबई आकाशवाणी, दिल्ली आकाशवाणी, ब्लॉग, पत्रिकाएं और समाचार पत्र)