....और जिंदगी चलती रही Dr.Ranjana Jaiswal द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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....और जिंदगी चलती रही




तीन दिन हो गए थे चलते-चलते...पाँव में छाले निकल आये थे। शरीर धूल और पसीने से तर-बतर हो चला था। गाँव इतना दूर पहले कभी नहीं लगा था।...लगता भी कैसे ...कभी यूँ पैदल ,परिवार के साथ... गृहस्थी को सर पर लादकर भी तो नहीं चले थे। सच मानो तो वो अपने साथ अपना अतीत,वर्तमान और भविष्य...सब साथ ले आये थे।रास्ता ....खत्म होने का नाम भी नहीं ले रहा था। अजगर के मुँह की तरह बढ़ता हुआ रास्ता उनके हौसलों को तोड़ रहा था...पर करते भी तो क्या।डॉक्टर ने 20 दिन बाद की तारीख दी थी।कितना हाथ-पैर जोड़े थे उसने मालिक के "बाबू साब...समझने को कोशिश कीजिए ...ऐसी हालत में कहाँ जायेगे।रोजी-रोटी भी छीन गई...सालों से पड़े हैं आपकी देहरी पर...नौ महीने के पेट से है जोरू ...थोड़ा मोहलत दे दीजिए।भगवान आपका भला करेगा...पर ।न मालिक को दया आई और न ही भगवान को।

दो दिनों से अन्न का एक दाना भी नहीं गया। जचगी से शरीर टूट सा गया था।एक दिन पहले ही सड़क पर सुशीला ने बिटिया को जन्म दिया था ...दर्द और तकलीफ की लकीरें उसके चेहरे पर साफ देखी जा सकती थी... पर सुशीला ...उम्मीद का दामन थामे आगे बढ़ती रही। "अजी सुनते हो...कलुआ के पापा।"रामलाल एक कंधे पर समान की बोरी और दूसरे पर कलुआ को लादे आगे निकल गया था। नन्हा कलुआ बार-बार अपनी माँ को पलट कर देखता...वो मासूम ये समझ नहीं पा रहा था।जब शहर छोड़ा था तब तो घर से तीन लोग ही चले थे ...पर रातों-रात माई ये किसके बच्चे को ले आई थी। " बाऊ- बाऊ....माई बुला रही।"रामलाल ठिठक कर खड़ा हो गया....का हुआ सुशीला...तबियत ठीक नहीं क्या...थोड़ा सुस्ता लो।" "कलुआ के पापा चला नहीं जाता... क्या सोचकर आये थे शहर कमाने ....पर देखो न क्या हो गया।" "बस दो दिन और हम अपने गाँव पहुँच जायेगे।" रामलाल के पैरों के छाले को देखकर सुशीला की आँखे छलछला गई। "देखो जी हमारी बिटिया भी न जाने कैसा भाग्य लेकर पैदा हुई है। बेचारी को पेट भर दूध भी नहीं मिल रहा।" क्या हुआ...तुम्हे दूध नहीं उतरा"...सुशीला गुस्से से फुफकार उठी।"दो दिन से शरीर मे अन्न का एक दाना नहीं गया...दूध कहाँ से उतरेगा जितना भी पिला रही वो मेरा जी ही जानता है।" सुशीला हताशा और निराशा से रो पड़ी।

कलुआ वही दुनिया के दर्द को भूल कर सड़क किनारे पड़े पत्थरो के साथ खिलवाड़ करने लगा। वो समझ नहीं पा रहा था कि उसकी माई बार-बार उसकी बहन को आँचल में छुपा कर सीने से चिपका कर क्या करती है।"माई...तुम अपनी साड़ी में छिपाकर बार-बार क्या करती हो।" सुशीला हड़बड़ा सी गई..."कुछ नहीं बेटवा तुम्हारी छुटकी को धूप लग रही थी न बस उसी से बचा रही थी। ये देखो तुम्हें देखो देखकर मुस्कुरा रही है ।" सुशीला ने कलुआ का ध्यान भटकाने की असफल कोशिश की।छोटी सी बच्ची अपनी माँ के सूखे शरीर में दूध ढूढने की असफल कोशिश कर थक कर सो गई। दूध की चंद बूंदे उसके चेहरे पर चमक रही थी।कलुआ दूध की बूंदो को देख बिलबिला उठा।"माई... मुझे भी दूध चाहिए...कितने दिन हो गई दूध पिये।तुमने छुटकी को चोरी से दूध पिला दिया।"

मासूम कलुआ के चेहरे पर अपनी छोटी बहन के लिए क्षोभ औऱ गुस्से का भाव उभर आया।सुशीला छटपटा कर रह गई। उसने कभी नहीं सोचा था जिंदगी कभी उसे ऐसा दिन भी दिखाएगी।उसने बड़ी उम्मीद से रामलाल की तरफ देखा....रामलाल ने वितृष्णा से मुँह फेर लिया...जीवन ने उसे कभी उसे इतना मजबूर नहीं किया था। सुशीला ने मुस्कुराते हुए कलुआ की तरफ देखा..."ऐसा कभी हो सकता है क्या कि अपने राजा बेटा को उसकी माई भूल जाये।"
सुशीला ने बोरी से आटा निकाला.... पानी और थोड़ी सी चीनी मिलाई।"ले बेटा....तुम्हारी अम्मा ने अपने राजा के लिए दूध पहले से ही छिपाकर रखा था।" कलुआ के चेहरा खुशी से चमक उठा। एक माँ इतनी मजबूर कभी न थी।पेट भर दूध पीने के बाद कलुआ के चेहरे पर तृप्ति का भाव उभर आया। "माई...मेरा जन्मदिन आने वाला है ना...इस बार तो बहुत मजा आएगा।सब लोग रहेंगे मेरे जन्मदिन पर।अबकी दादी से साइकिल लूँगा और चाचा से रिमोट कंट्रोल वाली कार।" कलुआ की बातों से रामलाल का दिल भर आया...उसने बड़ी उम्मीद से आसमान की तरफ देखा।"बेटा हम सब सही सलामत घर पहुँच जाए और इस बीमारी से जिंदा बच जाए तो उस दिन सिर्फ तुम्हारा नहीं... हम सबका जन्मदिन होगा।"

डॉ. रंजना जायसवाल