समय का दौर - 6 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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समय का दौर - 6

काव्य संकलन -

समय का दौर

वेदराम प्रजापति मनमस्त

सम्पर्क सूत्र. गायत्री शक्ति

पीठ रोड़ गुप्ता पुरा डबरा

भवभूति नगर जिला ग्वालियर 475110

मो0. 99812 84867

समय का दौर

वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त जी’ ने समय का जो दौर चल रहा है, उसी के माध्यम से अपनी इन सभी रचनाओं में अपने हृदय में उमड़ी वेदना को मूर्त रूप देने का प्रयास किया है। लोग कहते हैं देश में चहुमुखी विकाश हो रहा है किन्तु हमारा कवि व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है जिसके परिणाम स्वरूप इन रचनाओं का प्रस्फुटन हुआ है। उसे आशा है मेरे विचारों पर लोगों की दृष्टि पड़ेगी और उचित परिवर्तन हो सकेगा। इसी विश्वास के साथ।

रामगोपाल भावुक

समय का दौर

काव्य संकलन

26 को-रोना

पंजे का दर्द, लग रहा, कोरोना बायरस।

जन-गण ने ज्वाब दे दिया, सच में ही, जस का तस।।

मिलीं थीं, बहुत सी आहट मगर समझी नहीं गईं।

दिल में थी, हठ धर्मिता, अन-बूझता गई।

जानीं नहीं थी-नियति की इस टेढ़ी चाल को-

लोगों की सोच, इस तरह होती न, छुई-मुई।

फटता न दूध-सोच का, न बढती कशमकश।।1।।

अच्छा भला परिवार था, न कोई भेद था।

हिल मिल के, साथ-साथ थे न कोई खेद था।

ना जाने, किसकी सोच ने, बंटाढार कर दिया-

अर्रा गया वह महल जो सच में अभेद था।

कोई तो घाव है गहरे , जिसमें पड़ी हैं पश।।2।।

समझा नहीं वह दर्द, जो नाशूर बन गया।

कोई विनाशी जीव था, जो जड़ को चुन गया।

शाखें भईं-वे शाख अब, पत्ते भी झड़ रहे -

चाणक्य कोई, आज की, चुनरी को, बुन गया।

मनमस्त, वे बस बात है, गलसीं गईं नश-नश।।3।।

अब भी समय है, सोच कर, उपचार कुछ करो।

पाओगे विजय अवश्य ही, शल्यक्रिया तो करो।

जहाँ से रिसाव हो रहा, उस नस को काट दो-

नासूर नष्ट हो गया, बिल्कुल भी ना डरो।

मनमस्त पुनः पाओगे, काया को जस की तस।।4।।

27 ‘‘मिल लो गले-फिर हँस-हँस।‘‘

मैट लो ! दिल की कशमकश।।

किसी की चाल में फँसकर अनूठा, यार खो बैठे।

जिगरी यार थे, फिर भी, हाथ से हाथ धो बैठे।

कैसे यार थे ? यारी की सच्ची-परिभाषा नहीं जानी-

जरा कहीं बैठ तो लेते, इतनी ऐंठ क्यों ऐंठे।

इस तरह क्यों यौं विखरा, तुम्हारा याराना रस-रस।।1।।

अहं के पालने दोनों, दिशाऐं अलग कर झूले।

न समझे, यारी का मतलब, अपने-आप में फूले।

अकड़ को छोड़कर, प्यारे, कुछ तो झुक गए होते-

समय के अब बाराती हो, होते नहीं, तो दूल्हे।

बरसते सुमन ही हरक्षण, मिलते आज फिर हँस-हँस।।2।।

निभाओ दोस्ती आपकी, समय के साथ आजाओ।

अपने तान तूरे पर, न ऐसे गीत अब गाओ।

समय को जीतते वे ही, जिन्होंने भूल को साधा-

तजो हठखेलियाँ अब भी, अपनी राह पर आओ।

भटकते वे सदाँ ही हैं, बने जो, आज हैं परबस।।3।।

चलना साथ अपनों के, सच्ची जिंदगी जानो।

मस्त मनमस्त जीवन वह, खुद को, आज पहिचानो-

हीरे खानदानी हो! अलग पहचान है प्यारे-

न पहनो ताज औरों के, अपने ताज पहिचानों।

अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, मिल-लो गले, फिर हँस-हँस।।4।।

28 समय ने होली जो खेली-

हँस कर, कोई नहीं झेली।

नहीं बलबान है मानव, समय बलवान होता है।

समय को जिन नहीं साधा, समय से हाथ होता है।

चले जब समय की राहों, समय बदलाव ही लाया-

समय से - दोषी- निर्दोषी समय से सभी होता है।

समय के साथ चलकर के, समय की होली, ये खेली।।1।।

अनुनय-विनय-खत लिखकर नीति की राह दरसाई।

बादे जो किए जन हित, उन्हें तो, अब करो भाई।

मगर जब नहीं सुनीं बोले सड़क पर उतरना होगा ?

तुम्हारी जो हो मन मर्जी, भलाँ उतरो सड़क, जाईं।

उतर जाओ ! जहाँ जाना, ठेस-दर्दीली यह झेली।।3।।

कमल की राह अपना कर, सिंधिया निजी गृह आए।

चले जिस राह पर पूर्वज, उन्हीं को याद कर धाए।

अथवा लोकहित कारण, किया अपने में परिवर्तन-

दोनों भाव ही भारी, यही सब सोच अपनाए।।

जो हो कमल अपनाया, कमल की माल गर मेली।।4।।

29 नव वर्ष-2020

जा रहा उन्नीस, कन्दर ओढ़ साया।

लोग कहने यौं लगे, दो हजार बीस आया।।

विगत यादों में है, भीषण दर्द झेले।

लोग बह गए, फसल उजड़ी, बाढ़ के गहरे झमेले।

क्या कहै ? कई जिंदगी, जो आग लपटों में ही झुलसीं-

मृत शरीर पर लगे थे, चींटियों के कई मेले।

देखते पथराब, कर्फ्यू, मानवी ने अश्रु पाया।।1।।

कई भबन-जमीं दोह हो गए, अस्मतें होटल में लुटती।

बन गऐ चौराहे खूनीं, दर्द साऐ-हाट उठतीं।

क्या कहै! कितने यहाँ पर, मजहबी झगड़े बढ़े हैं-

आस्थाऐं मिट रही हैं, जिंदगी सरेआम कुटतीं।

देश की बिगड़ी है हालत, सूर्य छिपता मेघ पाया।।2।।

खिंचगई रेखा विभाजन, अति उदासी मानवों में।

लगा रहा यौं, घिर गए हैं, आज के इन दानबों में।

छात्र उत्पीड़न बढ़ा है, साम्प्रदायिकता की लपटों-

वेरोजगारी रो रही है, हर किसी की ही लबों में।

अर्थ व्यवस्था की कहै क्या ? दर्द दायी गीत गाया।।3।।

बहुत भारी विघटनों संग, कुछ नया यहाँ भी हुआ है।

देश के हर दौर को ही, माइनस ने यहाँ छुआ है।

आस है, नव वर्ष से अब, फेर दे खुशियाँ हमारीं-

क्षमा-शीला मातृ-भू से, माँगते ये ही दुवा हैं।

हो पुनः मनमस्त भारत, भारती ले नया साया।।4।।

.30 .........वे दिलों का देश

बीच धारा में फंसे हैं यहाँ प्रवासी।

इधर खाई तो उधर में कुआ है।

वे दिलों का, देश पर कब्जा हुआ है।।

यह बताना भी कठिन है, मेरे साथी,

के प्रवासी है ?, नहीं ? कहानी जटिल है।

खोजते सब ही रहे, उत्तर मिला ना,

मिल सके शायद कभी ? यह भी अटल है।।

देखता है कौन ? जो लौटे घरोंको,

क्या हुई हैं हालतें, सोचा किसी ने।

भूँख के मारे, अभावों गाँव लौटे।

मर गए मग में, कोरोना के ही गम में।।

काल तक जो थे, व्यवस्था के पुरोधा,

देश के निर्माण में, जी जान देते।

आज में, उनका यहाँ कोई नहीं है।

सजा ते जिनको रहे, वे ही जान लते।।

मर रहे हैं भीड़ में, कहीं ट्रेन नीचे,

पुलिस की लाठी, कई जानें गवाऐं।

संक्रमण का दौर, उतना नहीं भयानक,

भूँख से लड़ते हुए, निज गाँव आऐ।।

देश की इंसानियत मिटती दिखी है।

अहं की हैवानियत का, चला खंजर।।

बैठकर सुरक्षा कवच, आदेश दे रहे।

देखने आते नहीं, क्या यहाँ मंजर।।

हमीं हैं जो मदद में शामिल खड़े हैं।

डॉक्टर या स्वास्थ्य कर्मी कहा जिनको।

कई दिनों से आज तक घर भी न देखा,

जिंदगी है दाब पर, जाना क्या इनको।।

देखता है कौन ? किन मजबूरियों में,

पेट की खातिर, खपा रहे जान अपनी।

तुम भलाँ कहते रहो ! कोरोना बीरो।

यह व्यवस्था मात्रबत है सिर्फ सपनी।।

सच मदद करते यहाँ, बो बहुत कम हैं।

वेईमानों के यहाँ, अखबार छपते।

चोरियों का माल ही बाँटा औ खा गऐ।

जान साजे, जालसाजी-जाल रचते।।

तार तारी हो गई गरिमा हमारी,

भूँख चिल्ला चौंट में, जीवन भरा है।

अस्पतालों में मरीजों, की व्यथा पर,

रो रहा वो काल भी, भारी डरा है।।

पलंग के ऊपर और नीचे, मरीज लेटे,

बिस्तरों की बात तो, पूँछो न कोई।

प्लास्टिक कवरों में-कोरोना शबों की,

बगल में ही, क्या कहै। ? बस्ती है सोई।।

होऐगा क्या ? देश का मेरे प्रभू लख,

हालतें ऐसीं, यहाँ जीना है दुस्तर।

गाँव, शहरों पर हुआ कब्जा बड़ों का,

बज रहा रीता यहाँ, गरीबी कनस्तर।।

मृत्यु पर भी, अब नहीं सम्मान यहाँ पर,

कफन का पर्दा, उड़ा है, आज देखा।

बंशजों को नहीं मिले शब, और अस्थी।

फूँक देते, दाह घर में, करो लेखे।।

डर गए मानव, व्यवस्था देख शासन,

भागकर के छिप रहे, वे घर घरों में।

होऐगा क्या ? यदि हुए बीमार यहाँ पर,

भय भरा है, आज के जीते नरों में।।

योजनाऐं हैं बड़ीं, जातीं बड़ों तक,

हम गरीबों को, गरीबी में ही जीना।

कागजों में नाम, बस होंगे हमारे,

जिंदगी गूदड़ी को, समझ लो यौं ही सीना।।

एक रूपया भी नहीं आऐगा हम तक,

बीस लाखों करोड़ों की बात सपना।

हम अकेले हैं अकेले ही रहेंगे,

(हम प्रवासी हैं प्रवासी ही रहेंगे।)

इस जहाँ में, कोई भी तो नहीं अपना।।

पसीना खून का करके, चलाऐ कारखाने जिन,

रेलें वायुयानों में, रात-दिन एक कर डाला।

उन्हीं को निर्दयी बनकर, किया मजबूर इतना क्यों ?

जिंदगी, राह में हारी, लॉकडाउन कर डाला।।

याद रखना पड़ेगी, इनकी (प्रवासी)कथा को,

बंदरगाहे, हाई-वे, फैक्ट्र खुलें जब।

या लिखे कहानी विकासी, सेटेलाइट अन्तरिक्षी।

देश नक्शा किस तरह का होऐगा, तब।।

अनाथआलय, वृद्धाश्रम, होऐगे कितने यहाँ पर,

क्वारेंटाइन, सेंटरों की गिनती क्या होगी।।

क्षेत्र कितना बड़ा होगा, अस्पताली,

कहाँ पर, कितनी, यहाँ महामारी रोगी।।

सोच-समुझे ही बढ़ाना कदम अपने,

गरीबी आबाम, अब माने न माने।

देख कर हांकतें, तुम्हारी, बाज आयी।

तुम करोगे, तुम भरोगे, तुम्हीं जानें।।

आम जन की, यह विडम्बना आज देखी,

आँसुओं के आँसुओं ने आँसू डारे।

क्या पसीजेंगे कभी, ये पत्थरी दिल,

और कितना, क्या कहें, मनमस्त प्यारे।।

31 पैरों के आँसू.............?

आँसू पैरों के, खून आँख का कभी किसी ने देख न पाया।

वे, वेचारे चले, चले गए, ध्यान किसी का उधर न आया।।

जिन्हें समर्पित मई महीना, मगर किसी का दहला शीना।

रूह काँपती उन्हें देखकर डिस्टेंशिंग ने खलबल कीना।

बड़े बड़ों को वायुयान हैं, मगर इन्हें सबने बिसराया।।1।।

गाँव, डगर और पटरी-पटरी, बाल- लाल को गले बाँधकर।

भूँखे, प्यासे चलते- चलते , साक-पात तक खाए रांधकर।।

कोई सोया, सोते रह गया, कोई गिर कर उठ नहिं पाया।।2।।

संकट के इस महा दौर में, सब को अपना वतन दिखाया था।

भूल चले, सारी दुनियाँ को अपनी माँ को याद किया था।

सरकारें किसकी होती हैं ? वोटर बना, उन्हें भरमाया।।3।।

उनकी अपनी एकई धुनि थी, अपने घर जा वहीं रहेंगे।

रूखी-सूखी जैसी, खा-पी जहाँ जन्मे थे, वहीं मरेंगे।

कोई नहीं, आज अपना यहाँ, कोरोना कह, हमें डराया।।4।।

मतलब की खातिर, उन सबने, अपना साथी हमें कहा था।

क्या दे पाए अपना पन वे ? समझ गए मन भेद रहा था।

नहीं मनमस्त हमारी दुनियाँ, पाखण्डी सब खेल रचाया।।5।।

32 प्रकृति से जंग............?

मानवी के जन्म का इतिहास कहता,

इस धरा को आज क्यों बद रंग करते।

चार सौ पचास करोड़ वर्शों से हारी नहीं जो,

उस प्रकृति से आज, तुम यौं जंग करते।।

प्रकृति क्या ? भौतिक, रसायन, जीव-मिश्रण,

त्रिविधिता से हो रहा, संचार इसका।

आज करना है हमें अनुकूलन इससे,

प्रकृति से कर दोस्ती, यह मंत्र जिसका।

विजय होता है वही, अनुकूल जो है,

वहाँ अमीरी, और गरीबी, मतलब नहीं है।

तुम करो सम्मान उसका, नियम के संग,

जो चला इस राह सच -जीता वही है।।

जो चला प्रतिकूल, वह जोखिम उठाता।

प्रकृति के जो भी नियम, टलते नहीं हैं।

वायु, अग्नी, शीत का जो तत्व होता,

क्या बता सकते, कभी बदला कहीं है।।

इसलिए ही, प्रकृति को प्रवृत्ति बनालो,

और उसके नियम के अनुकूल आओ।

वह तुम्हारा साथ देगी, हर तरह से।

जानकर भी, नहीं अधिक, मनमस्त सोओ।।

33 ब्योंम में................।

हाथ की अँगुलियां हैं अनमनी।

प्यार के इजहार में आई कमी।

तिलक, अक्षत, मालिका नहीं ले सकीं-

हाथ से, नहीं हाथ की भी यहाँ बनी।

दूरियाँ रख, निजी गीता गा रहीं।।1।।

हृदय से भी, हृदय अब तो नहीं मिले।

घाव गहरे हो गए, ज्यौं हो छिले।

वे पुराने भाव, हो गए दूर अब -

कह रहे हों आपसी शिकवे-गिले ।

दर्द की अनुभूतियाँ ही गा रही।।2।।

नाँक-मुँह अब माँस्क के कब्जों हुए।

छींकना और खाँसना दुर्लभ किए।

मुँह सभी के काले, नीले हो गए-

पहिचान गायब हो गई, ऐसे -जिए।

हर कहीं कोविड से दूरी आ रही।।3।।

लग रहा, ये दूरियों का दौर है।

संतान उत्पत्ति का नहिं अब ठौर है।

शादियाँ भईं पति-पत्नी नहीं मिले।

मुँह सभी के, अब यहाँ वे-कौर हैं।

जिंदगी, तप्ती किरण में नहा रही।।4।।

टूट गई कई शादियाँ ही द्वार पर।

अनबनी -सी हो गई, गलहार पर।

भामरों में ,एक दूजे हाथ भी तो नहीं मिले।

क्या कहैं ? यौं कई जगह बारात लौंटी द्वार पर।।

आपसी संबंध शर्तें ढाहा रहीं।।5।।

सोच डिस्टेन्स इतना बढ़ गया।

आदमी के सर, दिमागों, चढ़ गया।

बाप यदि बीमार, तो वेटा दूर है-

पास भी आता नहीं, क्या हो गया।

लग रहा, कोई किसी का नहीं कहीं।।6।।

शासन व्यवस्था, संक्रमण के संग रही।

उन मजूरों ने, कहानी क्या कहीं ?

रोड़ पर मर गए, न दौड़े कोई-भी-

अब बताओ ? पाषण दिल, पिघले कहीं।

काँच घर बैठी व्यवस्था, गा रही।।7।।

अर्थ विगड़ा, व्यापार धंधे ठप्प हैं।

सच कहैं तो, इनका कहना गप्प है।

लग रहा, यह मीडिया भटका हुआ-

कितना कहैं ? सबकी मिली गप्प सप्प है।

रेल उल्टे पाँव, लगता जा रही ।।8।।

इस दौर में, जो मर गए, शब नहीं मिले।

और ने बारे, जले, कुछ अध जले।

राख (भस्म) अस्थीं कहाँ गईं, हैं नहीं पता-

कौन बतलाऐ ? मिले या नहीं मिले।

अंधड़ों में यौं ही दुनियाँ जा रही।।

जन्मदर भी लग रही कम हो गई,

दूरियों से, दूरियाँ ही, बढ़ गई।

तन वतन अछूत होता ही गया।

आपसी मन मेल पाया नहीं कहीं।

यौं व्यवस्था चाल, घटती ही गई।।

भगवान के भी दर्श, अब होते नहीं।

बंद तालों में हुए, रोते कहीं।

आगे कहो, क्या होयेगा, को जानता-

नाब नदिया में या नदियां नाव में कैसे बहीं।

किस तरह का सोच, दुनियाँ ला रही।।

दौर, कुठा भरा, सबको सोचना।

सोच के डस सोच को भी सोचना।

मनमस्त, यौं ही जिंदगी मत काटना-

सोच को बदलो, यही तो सोचना।

दुनियाँ की कश्ती, यौं किधर कों जा रही।।

बहुत कुछ कहना था, बांकी रह गया।

माँनना सबको पड़ेगा जो कह गया।

सावधान रहना साथियो, इस दौर में-

वह गया जो आज, तो वह बह गया।

स्वयं को साधो, व्यवस्था गा रही।।

34 अनुभवों की छान..........।

यह व्यवस्था, आज सिर पर चढ़ रही।

अनुभवों की छान, छानी पड़ रही।।

नीतियाँ बनतीं औ होता खर्चा भी, मगर फॉलोअप विना सब ढेर है।

ढाक के हैं तीन पत्ते हर कहीं, जिधर देखो तिधर ही अंधेरे हैं।

हैं दलालों की यहाँ पर बस्तियाँ जो खुलेंगे इल्म अपना पढ़ रही।।

बहुत सारे प्रश्न हैं ? पर मजदूर पर, कुछ निगाहैं डाल के देख ले।

पेट भर भोजन नहीं, वादे अधिक, कौशल विकास योजनाऐं देखले।

हो युवक या युवतियाँ भटके यहाँ, शोषणों की बाढ़, यहाँ से कढ़ रही।।

यदि नहीं सरकार आगे को बढ़ी तो योजनाएँ हश्र से पीछे गईं।

दूर होता जा रहा है भरोसा, हर कहीं पर उदासीनी छा गई।

शोषणों का दौर गहरा होऐगा, यह कहानी, हर कहीं पर आ रही।।

इन सभी पर सोचना सरकार को, ये विकासी दौर, कैसा बह रहा।

कहीं पर हम भूल तो नहीं कर रहे, क्या कहानी, उसी की ये कट रहा।

आँख खोलो ! होश में मनमस्त हो, किस विधा की अर्थियाँ यहाँ कढ़ रहीं।।

35 सोच होता ?

सोच होता सोच यहाँ, कैसा जगा।।

अदला-बदला, नाम भी होने लगा।।

इंडिया के नाम बहसें चल रहीं, मूर्तियों को कोशते हैं कहीं-कही।ं

न्याय के अड्डे खड़े बहश में, राष्ट्रभक्ति भावना है हर कहीं।

अंग्रेजियत से नफरतों के सिलसिले, अपने पने का भाव माना है सगा ।।

क्या सनातन है? खड़े हैं, प्रश्न कई, कह रहे हैं मेक इन भारत कई।

मेड इन भारत, की चर्चा जोर पर, वैश्वीकरण का सपन होता खत्म।

क्या सही है ? क्या गलत, का शोर है, क्या कहैं ? में भूत कैसा यहाँ जगा।।

महान लोगों की कहानी मिट रहीं, मूर्तियाँ भी कई यहाँ पर पिट रहीं।

मूर्तियों का दौर आया यहाँ बड़ा, सच्चाइयों की दास्तानें मिट रही।

पूर्व के कदमों में, लगता-आज भी चलने लगा।।

काम की पूजा नहीं, यहां पर, नाम का चलता दिख यहां खेल है।

दीर्थ संस्कृति की फिकर नहीं किसी को, लग रहा-सब यहाँ पै धालम धेल है।

इन पथों से महाशक्ति क्या बनोगे ? आम जन से, लग रहा यह है दगा।।

नाम है आर्यावर्त इसका और कुछ, इंडिया के चक्करों में, मत भटक।

नहीं रखा अंग्रेज-इंडस नदी से अति पुराना नाम है यहाँ मत अटक।

युग विकासी काम की बातें करो ? मनमस्त कैसे सोच में इतना दगा।।