समय का दौर - 3 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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समय का दौर - 3

काव्य संकलन -

समय का दौर

वेदराम प्रजापति मनमस्त

सम्पर्क सूत्र. गायत्री शक्ति

पीठ रोड़ गुप्ता पुरा डबरा

भवभूति नगर जिला ग्वालियर 475110

मो0. 99812 84867

समय का दौर

वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त जी’ ने समय का जो दौर चल रहा है, उसी के माध्यम से अपनी इन सभी रचनाओं में अपने हृदय में उमड़ी वेदना को मूर्त रूप देने का प्रयास किया है। लोग कहते हैं देश में चहुमुखी विकाश हो रहा है किन्तु हमारा कवि व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है जिसके परिणाम स्वरूप इन रचनाओं का प्रस्फुटन हुआ है। उसे आशा है मेरे विचारों पर लोगों की दृष्टि पड़ेगी और उचित परिवर्तन हो सकेगा। इसी विश्वास के साथ।

रामगोपाल भावुक

समय का दौर

काव्य संकलन

7 हवा से दोस्ती करलो !

हवा की कई कहानी हैं, हवा में भी तो पानी है।

हवा को देख कर चलना, हवा में भी जवानी है।

हवा से बात होती है, हवा की जाति होती है।

हवा के साथ चलने से, सुखद बरसात होती है।

हवा को समझ कर चलना, व्यर्थ में जेल नहीं गलना।

हवा से न्याय होता है, हवा के साए में पलना।।

हवा थी बहुत अंदर की, छुपी, गहरे समंदर की।

फैसला हो गया देखा, हवा थी राम मंदर की।।

हवा की बात सुन भाई, हवा कश्मीर घहराई।

मिट गया तीन सौ सत्तर, हवा से जीत को पाई।।

हवा विपरीत जो चाले, न पाए उन्होंने पाले।

डूब गए बीच में, यौं ही, भारी तैरने वाले।।

हवा को जिन नहीं देखा, करोगे क्या ? उनका लेखा।

अभी तक उवर नहीं पाए, हालत क्या भई ? देखा।।

हवा का दौर जब आया, कोई रोक नहीं पाया।

हो गए नोट के कागज, हवा का बड़ा है साया।।

हवा से काम होते हैं, हवा से नाम होते हैं।

चले जो, हवा बिन देखे, वे ही बदनाम होते हैं।।

हवा जनगण की थाथी है, हवा समरसता लाती है।

हवा रूख पाँव तो धरलो, हवा सब कुछ बनाती है।

हवा संग चल नहीं पाऐ !, नहीं समरसता ला पाए।

हवा को आज भी समझो, रही आबाम समझाए ।।

हवा जब बाम होती है, कश्ती वे-नाम होती है।

भलाँ हो, कुशल भी नाविक, वहाँ आबाम रोती है।।

हवा से मेल अब करलो, हवा को शीश पर धरलो।

नहीं, पछताओगे-प्यारे, तिपारी, हवा रूख धरलो।।

इसलिए हवा को जानो, हवा की बात को मानो।

हवा से दोस्ती करलो, हवा मनमस्त पहिचानो।।

8 यह कैसा दरबार

आज कहा, कल ही जो पल्टा, यह कैसा दरबार।

नहीं बायदों पर स्थिर है, यह कैसी सरकार।।

वे-बूझी-सी बातें लगतीं, दिल का दर्द हिला।

नम्बर बन के जो नुमाइंदे, उनमें भेद मिला।

गृहमंत्री ने कहा, ऐन.आर.सी. लागू होगी-

रूक सकती है नहीं, टलै नहीं मेरी अचल शिला।

कान खोलकर सुनो ! कहा यह मैंने ही हर बार।।1।।

‘‘रक्षा मंत्री इसी नीति को, कई बार दोहराते।‘‘

‘मंत्रीमण्डल लिया फैसला, संविधान के नाते।‘

पी.एम. कहा, मंत्री मण्डल में, चर्चा कोई नहीं-

कितनी-कितनी दोहरी बातें, मंचों से भी गाते।

उल्टी क्यों वह रही आज तक यह त्रिवेणी की धरा।।2।।

दो हजार तीन का उपनियम , पाँच का यही जुनून।

नागरिकता पर खुल्लम-खुल्ला, उन्नीस सौ पचपन कानून।

तथा चार उप नियम कह रहा, सतयापन की बात-

नियम बद्ध सब जाँच होऐगी, राय यही कानून।

अब कह रहे, एन.पी.आर. बनेगा, इससे तय सब कार्य।।3।।

भ्रम फैला रहे सबरे मिलकर जनता ने यह जाना।

भारी विरोध हो रहा अब तो, हाय-हाय का गाना।

दोष और पर मढ रए, सुनकर जनता का नाकारा-

खून खराबा, मर्डर हो रहे, छात्र बिगड़ गए, जाना।

संभल जाओ मनमस्त अभै-भी, नहीं पाओगे हार।।4।।

9 आहटें

सुनशान से, कई आहटें सीं आ रहीं।

ब्योम में, परिछाइयाँ, मडरा रहीं।।

बीहड़ों से चल, यहाँ तक आ गए।

बहुत-सी, पगडंड़ियों भटका गए।

समय के ही संग, यह मानव चला-

नियम-नैतिक, भव्य भाषा पा गए।

मगर-क्या, बापिस की बारी रही।।1।।

कई अघोषित युद्ध के रंग छा रहे।

एकता के, क्या जनाजे जा रहे ।।

हर गली, चौराहे पर चर्चा यही-

व्यवस्था को, कौन-कैसे ? ढहा रहे।

सभ्यता परिभाषा-बदली जा रही।।2।।

अहं, इतना, अहंकारी क्यों हुआ।

खोदता, बरबादियों को जो कुआ।

क्या विकासी मंत्र, इसको ही कहैं-

हो गए बरबाद, जिनने यह छुआ।

विपल्व कहानी, क्या यहाँ दुहरा रही।।3।।

सिर्फ, घटनाएं इन्हें, तूँ मत समझ।

सुर्खियों की बात को भी, कुछ समझ।

ईरान, पाकिस्तान या गुजरात हो-

क्या कहानीं बोलतीं उनको समझ।

सुनीं सीं, अनसुनी-सीं, कुछ गा रहीं।।4।।

‘‘कौन के हक में, ये जिम्मेदारियाँ।

सूख रहीं, इंसानियत की क्यारियाँ।।

व्यक्ति या शासन से, हैं ये हादसे-

कौन से, नव लोक कीं हैं तैयारियाँ।

क्या ? अराजकता की बदली छा रही।। 4।।

‘‘आदमी के पेट, भूँखे दह रहे।

‘अर्थ-शिक्षा-स्वास्थ्य, क्या-क्या कह रहे।

कश्मीर, मंदिर, बस यहाँ सब कुछ हुआ-

खून की होली के दंगे, कह रहे।

कब्र की बस्ती, धरा नियरा रही।। 5।।

युद्ध कब, समाधान होता है कहीं।

स्लो- पॉयजन दर्द का, साया यही।

और कब तक होऐंगे ये हादसे-

दूर गामी-सोच की, वार्ता कहीं ?

क्या यही, नई साल, लेकर आ रही।। 6।।

होयेगा क्या हस्र मेरे वतन का,

दर्द होता, सोच मानव पतन का।

युद्ध से डरने की कोई बात ना,

कौन गाऐ गीत, इतने कफन का।

इस धरा की धम्र, घटती जा रही।। 7।।

खिल रहीं, खूँ होलियाँ, कितनी कहाँ।

इस मकड़जाले में उलझे सब यहाँ।

अच्छे दिना कब आऐंगे-सपने भए-

बह रहा दरिया सवालों का यहाँ।

ढूँढना मनमस्त हल है, सब यहीं।। 8।।