समय का दौर - 1 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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समय का दौर - 1

काव्य संकलन -

समय का दौर

वेदराम प्रजापति मनमस्त

सम्पर्क सूत्र. गायत्री शक्ति

पीठ रोड़ गुप्ता पुरा डबरा

भवभूति नगर जिला ग्वालियर 475110

मो0. 99812 84867

समय का दौर

वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त जी’ ने समय का जो दौर चल रहा है, उसी के माध्यम से अपनी इन सभी रचनाओं में अपने हृदय में उमड़ी वेदना को मूर्त रूप देने का प्रयास किया है। लोग कहते हैं देश में चहुमुखी विकाश हो रहा है किन्तु हमारा कवि व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है जिसके परिणाम स्वरूप इन रचनाओं का प्रस्फुटन हुआ है। उसे आशा है मेरे विचारों पर लोगों की दृष्टि पड़ेगी और उचित परिवर्तन हो सकेगा। इसी विश्वास के साथ।

रामगोपाल भावुक

समय का दौर

काव्य संकलन

1 समय का दौर

सदाँ विस्फोट ही होता, अधिक दाबन ही किए प्यारे।

धरा की धारिता जलती, न मिलते बुझाने बारे।।

अधिक जहाँ दाव देओगे, अवश्य विस्फोट होऐगा।

उसे कोई रोक नहीं सकता, सदाँ इतिहास रोऐगा।

समय के साथ ही चललो, समय विपरीत मत होना-

काटनाही वही पड़ता, जो जैसे बीज बोऐगा।

अरे! तुम तो रहे मानव, न काँटे राह में बोओ,

बदलता है समय सबका, समय से, सभी हैं हारे।।1।।

उठाओ मुँह नहीं इतना, बातें बैठ कर करलो।

उतावले मत बनो इतने, कदम कुछ सोच कर धरलो।

तुम तो, जैट में रक्षित, जरा आवाम की सोचो-

धरा का धैर्य डिगता है, विपल्वी दौर को हरलो।

मिशायलें क्या उगलती हैं ? कभी कुरूक्षेत्र को देखा-

न ऊगी घास भी अबतक, असुँअन नहाते तारे।।2।।

स्वर्ग कश्मीर है, जिस पर, कहर के मेघ छाए हैं।

खबरियाँ बन्द हैं सारी, विकट धारा लगाए हैं।

अमन है, वे भलाँ कहते, हकीकत और कुछ ही है-

अगर ऐसा है ? तो बोलो, ऐ फौजें क्यों लगाऐ हैं।

तुम्हारी नियत में लगता-कहीं गड़बड़ घुटाला कुछ

नहीं मनमस्त है कोई तुम्हारे ढोल हैं न्यारे।।3।।

2 खण्डहर

खण्डहर आज भी कहते, जिनने बीज जो बोऐ।

लिखो इतिहास कुछ ऐसा, कोई गाँधी नहीं रोऐ।।

विरासत में, मिली तुमको, फली-फूली अमानत है।

रखाओ-सोचे समुझे ही, जमाना सभी जानत है।

तुम्हारी जिदद ने सारा, अमन और चैन ही छीना-

कोई चूँ नहीं करता, सभी आबाम जानत है।

रखे हैं कदम जितने भी, धरा की धीरता डोली,

आधी रात से लेकर, सुबह ने अश्रु ही बोए।।1।।

तुम्हारा सोच तो अच्छा, ओछी चाल लगती है।

कहते कुछ कहीं रहते, सचाई कहीं डिगती है।

तुम्हारे वायदे झूँठे, तुम्हारे कायदे झूँठे-

राग कुछ और ही होता, ढपली और बजती है।

आदतों में रहा यह क्यों ? ततइयों का छता छूना,

खुद भी चैन नहीं सोते, और भी, चैन नहीं सोऐ।।2।।

जनता भोग रही सब कुछ, कदम बदले नहीं तुमने।

अभी-भी, क्या ये कर डाला, तमाशा लखा है जगने।

भलाँ कोई कहे कुछ भी, मगर परिणाम की चिंता-

निगाहों में, रहे तुम हो, दुश्मनी लगीं हैं जगने।

अभी-भी, सोच कुछ बदलो, किनारे पर लगे-ठाड़े,

दुनियाँ हँसेगी तुम पर, कहीं इतिहास नहीं रोए।।3।।

3 कितने स्वप्न...................

कभी आवाम को देखा, कि अपनी धुनि रहे खोऐ।

जरा कुछ, जाग कर देखो ! कितने स्वप्न तुम बोए।।

इसलिए नहीं चुना तुमको, ययाबर वन, उधर घूमो।

इधर दर्दों की बरसातें, उधर में, गले लग, चूमो।

जुदाई इधर गहरातीं, उधर भैटें मिलाईं नित-

समय की जरूरत देखो, इतने अधिक मत झूमो।

कहानी इस तरह लिख रही, मिट रहा मेल आपस का,

कहीं भू-चाल ना आऐ ? रसातल भू नहीं सोऐ।।1।।

विश्व की कर रहे चिंता, अपना घर जरा देखो।

जमाने की कहानी क्या ? गरीबों की व्यथा देखो।

उधर व्यौपार की चिंता, इधर व्यापार सब ठप है-

यहाँ मजदूरों की अर्थी, कैसे जल रहीं देखो।

कहीं पानी को रोते हैं, कहीं पानी से रोए हैं,

जागरण, जी रहा जीवन, कई रातों, नहीं सोऐ।।2।।

अभी भी समय कुछ सोचो ? यही आबाम की मिन्नत।

भारत-भू, स्वर्ग रहने दो, जहन्नुम मत करो जन्नत।

नम्बर बदल लो अपना, ये चश्मा तो पुराना है-

कहीं कुछ दर्द दिल के हैं, जबाँ से उभरतीं खिन्नत।

तुम्हारा सोच बदलेगा, यही विश्वास ले चलते,

नहीं फिर, नाम तेरे पै, कहीं आबाम ना रोऐ।।3।।