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समय का दौर - 7 - अंत

काव्य संकलन -

समय का दौर

वेदराम प्रजापति मनमस्त

सम्पर्क सूत्र. गायत्री शक्ति

पीठ रोड़ गुप्ता पुरा डबरा

भवभूति नगर जिला ग्वालियर 475110

मो0. 99812 84867

समय का दौर

वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त जी’ ने समय का जो दौर चल रहा है, उसी के माध्यम से अपनी इन सभी रचनाओं में अपने हृदय में उमड़ी वेदना को मूर्त रूप देने का प्रयास किया है। लोग कहते हैं देश में चहुमुखी विकाश हो रहा है किन्तु हमारा कवि व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है जिसके परिणाम स्वरूप इन रचनाओं का प्रस्फुटन हुआ है। उसे आशा है मेरे विचारों पर लोगों की दृष्टि पड़ेगी और उचित परिवर्तन हो सकेगा। इसी विश्वास के साथ।

रामगोपाल भावुक

समय का दौर

काव्य संकलन

36 लॉकडाउन

सोच समझ गर पग रखते, मसीहा कहलाते।

निभ जाते सही सही लॉकडाउन नाते।।

अच्छा है डिस्टेंश मास्क लॉकडाउन।

क्रियान्विन करना तुमको तो सही न आया।

अतिबुद्धिमता, यहाँ तुम्हारी काम न आई।

कोरोना का कहर, अधिक कहीं, तुम बरसाया।

अगर मंत्रणाओं के द्वारा, यह सब करते,

हो सकता, तुम कोरोना को सही भगाते।।

चीन और इटली की हालत तुमने देखी,

आगे वाला गिरे, संभलता पिछले वाला।

यही काम, यदि कहीं योजनावत ही करते,

इतना सब कुछ देख, नहीं पछताते लाला।

कोरोना इतिहास समझ कर, समझाते तो,

यह भगदड़ का दौर, कहीं भी तुम नहीं पाते।।

पहले करना था तुमको, जो पीछे कीना,

निपट प्रवासी, मजदूरा इस तरह न मरते।

उनकी स्वेच्छा से उनको निजगृह भेजते,

इतना सब कुछ ही करके, लॉकडाउन करते।

सही में बजते, घंटी, थाली, शंख तुम्हारे,

दीवाली त्यौहार ही होता, दीप जलाते।।

यही रहा-करनी-कथनी में अन्तर प्यारे,

जिसके परिणामों को झेला, भारत सारा।

वित व्यवस्था, जन, गण मन की भई फजीहत,

चतुराई पर, यहाँ हंसा संसार है न्यारा।।

तुम तो बैठे काँच महल में, भुगत रहे हम,

धरती के क्रंदन को तुम तो सुन नहीं पाते।।

समझाते हैं, कदम संभाले, अब भी रखना,

यह आबाम नहीं बख्शेगी, अगर भूल की।

दर्दीले छालों के छाले, तुम्हें, ताकते,

भूल नहीं पाते हैं यादें, विषम शूल की।

ज्यादा तो मनमस्त न बनना, मेरे भाई,

अपना मानत, समुझाते हैं, अपने नाते।।

37 कितना नमन करैं ?

अरमाँ पूरे नहीं कर पाऐ, सवरे रहे धरे।

प्रश्न चिन्ह ? उभरे चैहरों में, कितना नमन करैं।

इतनी जल्दी और इस तरह माँ को याद किया।

लिए अधूरी अभिलाषाऐं, माँ को अर्ध्य दिया।

पूरीं करने की खातिर में, सीमा रहे खड़े-

गहरे जज्बातों के संग में, खुद को सौंप दिया।

जीवन कर्तव्य पूरा करते मन में नहीं डरे।।

जितना दूध पिया था माँ का, उतना नहीं लड़पाए।

जो अरमान किए थे उर में, पूरे नहीं कर पाऐ।

टंगी रही बंदूकें कंधों, दाग न पायीं गोली-

सीनों रह गई भवक अधूरी, को उसको समुझाऐ।

दो-दो हाथ नहीं कर पाए, हाथन हाथ धरे ।।

करै प्रार्थना भारत माँ से, जन्म यहीं पर देना।

पुनः करैगे रक्षा तेरी, हमने यह प्रण लीना।।

अरमाँ पूरे नहीं कर पाऐ, सवरे रहे धरे।

प्रश्न चिन्ह ? उभरे चैहरों में, कितना नमन करैं।

38 हलचल

मची है देश में, हलचल, आँखें मींच मत सोना।

हो रहा कौन का गौना, हो रहा कौन कोरोना।।

बड़ी बीमारी आई है, कई ने मात खाई है।

न बरती सावधानी जिन, वहाँ आफत ही आई है।

बने जो सिंह बैठे थे, हो गए स्यार के छौना।।

समय को समझ ही लेते, समय पर साध ही लेते।

अब क्यों इस तरह रो रहे, नईया आप ही खेते।

समय पर जो नहीं संभले, कौरे हाथ ही धोना।।

कैसे आई महामारी, भूल थी स्वयं की भारी।

जरा कुछ ही समझ लेते, न होती को-रोना त्यारी।,

बंटा ढार भ सब कुछ, बीज-ऐसे नहीं बोना।।

पुरानी दवा दे डाली, ऊसर भूमि कर डाली।

तुम्हारा सोच भी बूढ़ा, गया यौं, दाव ही खाली।

सहारा गर जबाँ लेते, न होता आज को-रोना।।

फिजूली क्यौं यौं अंगडाए, माँस्क क्यों लगा नहीं पाए।

बीमारी फैल गई ज्याँदा, दवाई भी बना नहीं पाऐ।

रहा मनमस्त क्या जीवन ? तुम्हारा कद हुआ बोना।।

39 संकल्प लें..........।

सावधान हो, संकल्प लैं, मिट जाऐ कोरोना।

चौदह दिवस जीता यही, नहीं रहे कोरोना।

हम तो चलै इकतीस तक, कर लॉकडाउन भी-

डिस्टेंश भी है साथ में, कर देंयेंगे बोना।।

उपचार नहिं है कोई भी, फिलहाल, हम मानें,

दूरी बना, एक मंत्र है, इतना अवश्य जानें।

इकतीस दिन की साधना, जीवन बचाना तो-

दुर्गा की करलो अर्चना विजयीं हो प्रण ठानें।।

हारेगा चीन, ईरान भी, इंग्लैंड के संग पाक।

हम भारती विजयी बनैं, अपनी रखेंगे शाख।

अंगद कदमों, को हम धरते, प्रण साथ ही करते।

निश्चय विजयी हम होऐंगे, मनमस्त यह जानें।।

40 गीत.......

आया है बहुत घातक कोरोना रोग है।

डिस्टेंश रखो साथी, उत्तम प्रयोग है।

मुँह-नाँक को छुपाओ, मास्क पहन कर।

हाथों को साफ करना है, सेनेटाइजर।

घर में ही रहो, बाहर बिल्कुल न निकलना-

जीवन की करो रक्षा, स्वच्छतजा, नियोग है।

डॉक्टर के पास भेजो, बाहर से आँऐ जो।

होना है जाँच सबकी, वायरस न पाऐ को।

रहना है पाँच हफ्ते ही, लॉकडाउन हो-

सबसे अलग रहे जो, पाए न रोग है।

खुद को खुद ही संभालो दुनियाँ को देखकर।

कोई दबा नहीं, इसके अभिलेख पर।

खुद भी बचो। और साथी ! औरों को बचाओ-

होगा मनमस्त जीवन, सँभलो ! सुयोग है।।

41 समझ से कुछ परे..........?

समझ से कुछ परे लगता।

कभी यौं कोरोना ना भागता ?

समय को यौं ही क्यों टालत, लखी क्या देख की हालत ?

व्यवस्था अर्थ की बिगड़ीं, दे रहे सभी तो, नालत।

कुहा जब रात में बोले, नोट-कागज हुए लगता।।

कैसी रच दई कहानी, जनता माँग गई पानी।

तरस गए, पाई-पाई को, छिपीं नहीं सबकी हैं जानी।

न चाहा किसी ने जिसको, नहीं आगे खड़ा, लगता।।

सभी मन की रही बातें, किसी ने, जानी नहिं घातें।

कभी तो आठ पर आयीं, कभी नौं पर भई बातें।

कभी कर्फ्यू की हलचल तो कभी भयभूत ही जगता।।

कभी घंटी, बजीं, थालीं, कभी राहे करी खाली।

कभी है-एक सौ चवालिस, कभी दीपों की उजियाली।

कितनी अटपटी बातें, जिनका अर्थ, नहीं लगता।।

किया छज्जों से लाईटेंशन अबूझे रोज संशोधन।।

गरीबी रो गई भारी, जिधर देखो, तिधर क्रंदन।

लगा-सठिया गई बुद्धि, कौन-सा तंत्र यह, जगता।।

पता नहिं और क्या होना, कितना कौन कोरोना।।

डूबता लग रहा चिंतन हाथ, कब तलक धोना।

सोच मनमस्त नित करता, बंद सीमा रहे कब तक।।

42 प्रश्न ?

सोच में हलकापन क्यों कर, आ रहा ?

प्रश्न ? क्यों इतिहास बदला जा रहा ?

आधार में, गुण-दोष कोई नहीं लिऐ।

समय के परिवेश को भी नहीं छुऐ।

सिर्फ और है सिर्फ, पिछला दर्द कुछ-

एक उत्तर ही दिया उन, क्यों किऐ।

सोच का इतिहास ही घबरा रहा।।

भारत गुलामी गीत अब नहीं गाऐगा।

सेक्युलर ढाँचे को छेड़ा जाऐगा।

वे गुलामी चिन्ह अब नहीं रहेंगे-

नए सिरे से, उन्हें बदला जाऐगा।।

पूर्व के लोगों से, यह क्रम आ रहा।।

हटी थी ब्रिटिश मूर्ति इंडिया गेट से।

पार्क, गार्डन सड़क हट, गईं नेट से।

इरविन हॉस्पीटल, प्रकाश नारायण हो गया-

कोलकता, बुम्बई, चैन्नई, ठेट से।

आज कुछ बदला, तो अपराध हो रहा।।

गलत क्यों है ? बदलना इतिहास का ?

समय का शतरंज हो गया ताश का।

इलाहाबाद को प्रयाग कहना कहाँ बुरा-

समय के पन्ने-बता रहे राशुका।

इसलिए पुर्न इतिहास पुनर्लेख रहा।।

जब हमारे हाथ में शासन, क्यों सुनैं।

और की परिपाटियों को क्यों गिने।

काल क्या हो जाय, इसका क्या पता-

समय की आहट को, निर्भय हम चुनैं।

हम रहे मनमस्त, समय यह गा रहा।।

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