बात बस इतनी सी थी - 19 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बात बस इतनी सी थी - 19

बात बस इतनी सी थी

19.

रात काफी हो चुकी थी और सड़क सुनसान थी । उस समय स्ट्रीट लाइट भी नहीं चल रही थी, इसलिए सुनसान-अंधेरी रात थोड़ी डरावनी हो चली थी । फिर भी, मैं बेफिक्र-सा होकर मंजरी के बारे में सोचता हुआ गाड़ी चलाता जा रहा था । तभी अचानक मेरी गाड़ी के आगे एक युवक को आता हुआ देखकर मैंने जल्दी से ब्रेक मारा और गाड़ी एक झटके के साथ रुक गयी । मैंने भगवान का धन्यवाद किया कि मंजरी को छोड़कर मेरा ध्यान सही समय पर सड़क पर लौट आया था । समय पर ब्रेक मारने की वजह से ही वह युवक बाल-बाल बच गया था, वरना एक सेकंड के सौवें हिस्से के बराबर भी देर हो जाती तो, वह मेरी गाड़ी से टकरा जाता । यह भी हो सकता था कि मेरी गाड़ी से कुचलकर उसकी जान चली जाती । मेरी गाड़ी से टकराकर उसको कुछ हो जाता, तो मैं भी तब सकुशल नहीं रह सकता था । मेरे लिए भी तब एक नयी मुसीबत खड़ी हो जाती । उसकी जान बच गई, तो मैं भी न जाने कितनी मुसीबतों से बच गया था ।

मेरी गाड़ी रुकते ही वह युवक मेरी गाड़ी की खिड़की की ओर दौड़ा । उसकी तत्परता को देखकर एक क्षण के लिए मुझे घबराहट हुई । लेकिन, अगले ही क्षण मैंने बड़ी हिम्मत के साथ कड़क आवाज उसको डाँटते हुए चिल्लाकर कहा -

'जिंदगी से मन भर गया है, तो कहीं बिजली का तार पकड़ लिए होते ! मेरी गाड़ी से टकराकर मुझे क्यों पाप का भागीदार बनाना चाहते हो ?"

'भाई साहब, मेरी गाड़ी में कुछ टेक्निकल प्रॉब्लम आ गई है, इसलिए बहुत देर से यहाँ खड़ा हुआ किसी गाड़ी का इंतजार कर रहा था, जिसमें मुझे थोड़ी दूर के लिए लिफ्ट मिल सके !"

युवक ने सड़क के एक किनारे खड़ी गाड़ी की ओर संकेत करके कहा । मैंने अपनी नजर उठाकर देखा, एक आई ट्वेंटी गाड़ी खड़ी थी । लेकिन सचमुच गाड़ी में कुछ खराबी आई है और उस युवक को मेरी सहायता की वास्तव में जरूरत है ? या वह लूटपाट करने के इरादे से अपनी गाड़ी खराब होने का बहाना कर रहा है ? यह निश्चय कर पाना कठिन था । इसलिए मेरे शंकालु और सावधान मस्तिष्क से मेरी शंका के समर्थन में तुरंत एक आवाज आई -

"यूँ किसी अनजान आदमी पर भरोसा करके उसको लिफ्ट देना आज के समय में समझदारी नहीं है ! कौन जाने इसके दो-चार साथी भी इधर-उधर यहीं-कहीं पर छिपे हों ?"

तभी दूसरों की सहायता करने के मेरे स्वभाव और मेरे संस्कारों ने मुझे उस युवक की सहायता करने और उसको लिफ्ट देने के लिए प्रेरित किया -

"यह भी तो हो सकता है, इस युवक की गाड़ी में सचमुच खराबी आ गई हो ! हमेशा किसी को भी शक की नजर से देखना ठीक नहीं है ! कभी तुम्हारी गाड़ी में सड़क पर चलते-चलते कोई टेक्निकल खराबी आ जाए और तुम्हें इसी तरह कोई संदेह की नजर से देखे तो ... ?"

संदेह और सहायता के बीच उलझा हुआ मैं अभी उसको लिफ्ट देने या नहीं देने के बारे में किसी निर्णायक मोड़ पर पहुँचा भी नहीं था, उसने दोबारा कहा -

"आपकी गाड़ी मुझे लिफ्ट मिल सकती है ? प्लीज !!! आप मेरी थोडी-सी सहायता कर देंगे, तो मैं भी अपने घर पहुँच जाऊँगा ! वरना मुझे सारी रात इस वीरान सड़क पर पैदल चलकर ही गुजारनी पड़ेगी ! अब यहाँ कोई साधन मिलने की उम्मीद नहीं है । इसी सड़क पर सात-आठ किलोमीटर आगे चल कर उतार दीजिएगा ! सड़क से कुछ दूर पर मेरा घर है, वहाँ से मैं पैदल निकल सकता हूँ !"

"हाँ, जरूर ! लेकिन अपनी इस गाड़ी का क्या करोगे ? इसे यूँ ही यहीं पर छोड़ दोगे क्या ?"

"हाँ जी ! वैसे मैंने इंश्योरेंस वालों को फोन कर दिया है । वे लोग खुद टो करके ले जाएँगे !"

कहते हुए व्यक्ति गाड़ी की खिड़की खोलकर मेरी बगल वाली सीट पर बैठ गया । वह मेरी बगल में आकर बैठा, तो मुझे उसकी शक्ल-सूरत जानी पहचानी-सी लगी । मैंने उसे पूछा -

"कहाँ रहते हैं आप ?"

"यहाँ से सात-आठ किलोमीटर आगे एक कॉलोनी में रहता हूँ !"

"आपका शुभ नाम ?"

"कमल ! कमल नाम है मेरा !"

उसने चिन्ता के बोझ से दबे हुए बहुत ही कमजोर आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया । उसके मुँह से कमल नाम सुनते ही मेरा पैर गाड़ी के ब्रेक पर पड़ा और गाड़ी एक झटके के साथ रुक गई । उस डरावनी अंधेरी रात में किसी से लिफ्ट मिलने की आशा में इंतजार करते-करते उसका आत्मविश्वास पहले ही हाँफ रहा था । अब लिफ्ट मिलने के बाद जब अचानक एक झटके के साथ गाड़ी रुकी, तो किसी अनहोनी की आशंका और घबराहट में उसका आत्मविश्वास पूरी तरह दम तोड़ चुका था । शरीर की थकान और रात में ट्रैफिक की असुविधा के चलते उसकी हिम्मत जवाब दे रही थी । कुछ मीटर चलने के बाद अचानक गाड़ी रुकने से उसके मन में यह शंका भी हो रही थी कि उसने किसी गलत आदमी से लिफ्ट लेकर खुद को किसी मुसीबत में तो नहीं डाल लिया है ? अपनी इसी शंका और उससे उत्पन्न घबराहट को छिपाते हुए चिन्तित और बहुत दयनीय स्वर में उसने मुझसे कहा -

"क्या हुआ भाई साहब ?"

"पता नहीं ? कुछ टेक्निकल प्रॉब्लम हो सकती है !"

"उफ ! आज सुबह से मेरा टाइम ही खराब चल रहा है ! रोज मैं आठ बजे घर पहुँच जाता था, आज ग्यारह बजे भी सड़क पर हूँ ! पता नहीं आज घर पहुँच पाऊँगा ? या नहीं ? उधर माता जी चिन्ता कर-करके अलग से परेशान हैं कि मैं मैंने घर लौटने में इतनी देर क्यों हो रही है ?" वह धीमी आवाज में बड़बड़ाने लगा ।

कमल अपनी परेशानी में इतना गहरे तक डूबा हुआ था कि न तो उसने मुझे अभी तक ध्यान से देखा था और न ही मेरी कोई बात ध्यान से सुनी थी । उसको इतना परेशान और मेरी ओर से इतना बेखबर देखकर मुझे अनायास ही शरारत करने की सूझी । मैंने कड़ककर रोबदार आवाज में पूछा -

"तुम मुजफ्फरपुर वाले कमल हो ना ?" मुजफ्फरपुर का नाम सुनते ही उसने घबराकर मेरी ओर देखा ! मेरा चेहरा हल्की छोटी दाढ़ी से ढका हुआ था और दाढ़ी से बाहर सिर्फ आँखें दिखायी दे रही थी, इसलिए वह मुझे अब भी नहीं पहचान सका था । डर और घबराहट से उस समय उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया था । अब से एक पल पहले तक उसको जिस बात की केवल शंका थी, अब उसको उस बात का पूरा भरोसा हो गया था कि अनजाने ही वह गलती से किसी गलत आदमी की गाड़ी में लिफ्ट लेकर कहीं गलत जगह फँस गया है । उसकी घबराई हुई सूरत देखकर मुझे हँसी आ गई । मैंने हँसते हुए उसके कंधे पर जोर से हाथ मारकर कहा -

"अरे कमल ! यार तू इतना डरपोक कब से हो गया ? पहले तो तू बड़ी हिम्मत वाला हुआ करता था !"

अपने कंधे पर मेरा हाथ पड़ते ही उसने मुझे घूरकर देखा और मेरे शब्दों को ध्यान से सुनते हुए मुझे पहचानने की कोशिश करने लगा । उसकी सहायता करते हुए मैंने हँसते हुए कहा -

"यार कमल ! तेरी नजर और याददाश्त चालीस की उम्र आते-आते इतनी बूढ़ी हो गयी है कि दोस्तों को भी नहीं पहचान सकता ? मैं हूँ, चंदन ! तेरा बचपन का लंगोटिया यार ! भूल गया ? राज नारायण सिंह इंटर कॉलेज, मुजफ्फरपुर में हम साथ-साथ पढ़ाई करते हुए एक-दूसरे के साथ खेल-कूदकर बड़े हुए हैं !" मेरे मुँह से मेरा नाम सुनते ही कमल खुशी से उछल पड़ा -

"चंदन ! अरे यार ! तूने इस दाढ़ी में अपनी असली शक्ल छिपाकर यह डाकुओं वाली सूरत क्यों बना ली है ? और फिर तेरी शरारत ! एक पल के लिए तो मैं घबरा ही गया था !"

"भई, यह तो आजकल का फैशन और आजाद खयाली लोगों का शौक है ! तुझे घबराना नहीं था ! चेहरे से न सही, कम-से-कम मेरी आवाज से ही पहचान सकता था !"

"क्या बताऊँ यार ! मैं तो घर-गृहस्थी में ऐसा उलझ गया कि दोस्तों की दुनिया से नाता ही टूट गया ! तू बता ? कैसा है तू ?"

"ठीक नहीं भी होता, तो तुझ जैसे दोस्त से मिलकर कोई खराब रह सकता है क्या ?"

"यह बता, तू किसी पिंजरे में कैद हो गया है ? या अभी भी छुट्टा घूम रहा है ? तुझे देखकर तो ऐसा लग रहा है कि अभी तक आजाद पंछी की तरह सारा आकाश तेरा ही है !"

मैंने कमल के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया, उल्टा उसी पर प्रश्न दाग दिया -

"तू बता ! इतना परेशान क्यों रहने लगा है ? तू तो बड़ा मस्त मिजाज हुआ करता था !"

"अरे यार, चंदन ! क्या बताऊँ ! मैं अगर कभी टाइम पर घर नहीं पहुँचता हूँ, तो पहले मम्मी खुद परेशान होती हैं और फिर मेरी चिन्ता करके वे पापा को भी परेशान करती हैं ! बस इसीलिए ... !"

"अब तू इतनी टेंशन क्यों ले रहा है ? मुझ पर भरोसा रख, मैं तुझे तेरे घर पहुँचा दूँगा ! भले ही तुझे अपने कंधे पर बिठाकर क्यों ना ले जाना पड़े !"

"अब तू मेरे साथ है, तो टेंशन नहीं है ! बस मम्मी की थोड़ी चिन्ता है !" कहकर कमल हल्के से मुस्कुरा दिया । इसके बाद हम दोनों पुराने दिनों की यादें ताजा करने लगे ।

मैं और कमल आज बाईस साल बाद मिल रहे थे । बाइस साल पहले चौबीस घंटे में से चौदह घंटे पढ़ते हुए या खेलते और मस्ती करते हुए एक-दूसरे के साथ बिताते थे । बारहवीं पास करने के बाद मैं अपनी आगे की पढ़ाई करने के लिए पापा के साथ बंगलुरु चला गया था । वहाँ जाकर मैंने पहले पढ़ाई की और फिर कैरियर बनाने की टेंशन में इतना व्यस्त रहा कि पुराने दोस्तों को लगभग भूल ही गया था । आज जब अनायास अचानक कमल मिला, तो पुरानी यादें ताजा हो गई और कुछ समय के लिए मंजरी और उससे जुड़ा तनाव कहीं उड़न छू हो गया था ।

मैं बातें करते-करते गाड़ी ड्राइव कर रहा था । हम दोनों बातें करते-करते अपने पुराने दिनों की यादों में इतना खो गये थे कि कमल का घर कब पीछे छूट गया ? और हम उसके घर से कितने आगे निकल आए ? यह ध्यान में ही नहीं रहा । सच तो यह था कि कमल से बातें करते हुए मैं यह भी भूल गया था कि मुझे अपने घर जाने से पहले कमल को उसके घर छोड़ना है ! जब हम कमल के घर से बहुत आगे निकल आये, तब अचानक कमल ने कहा -

"अरे यार, चंदन ! हम बहुत आगे आ गए हैं ! मेरा घर तो बहुत पीछे छूट गया है !"

कमल की बात सुनकर मैं ठहाका मारकर हँस पड़ा । मैंने हँसते-हँसते गाड़ी वापस मोड़कर रोक दी और पुरानी बातों को याद करके कि किस तरह हम अपने बचपन में भी कभी-कभी घर से मिली हुई छोटी-मोटी जिम्मेदारी को भूल जाते थे और जब हम पूरा समय आपस में मस्ती करते हुए बिता देते थे, तब घर लौटने पर हमें पापा की खूब डाँट पड़ती थी । कभी-कभी तो हमें हमारी लापरवाही के लिए पापा की मार भी खानी पड़ जाती थी । हम दोनों हमारे बचपन की हमारी मस्ती भरी बेवकूफियों और लापरवाही को याद करके वहीं खड़े-खड़े लगभग पाँच मिनट तक हँसते रहे ।

लगभग पाँच मिनट के बाद हम कमल के घर की ओर वापस चल पड़े । साढ़े ग्यारह बजे हम कमल के घर पहुँचे, तो कमल ने मुझसे उसके घर पर चलने और रात में वहीं रुकने के लिए आग्रह किया । मेरे बहुत मना करने के बावजूद कमल ने मुझ पर अपना अधिकार जताते हुए कहा -

"चंदन ! एक कप चाय तो तुम्हें पीनी ही पड़ेगी ! यहाँ तक आकर तुम मम्मी-पापा से मिले बिना ऐसे ही कैसे जा सकते हो ?"

यह कहकर उसने मुझे मुझे गाड़ी से बाहर खींचकर उतार लिया और अपने साथ अपने घर के अंदर ले गया । इतना ही नहीं, घर पहुँचते ही वह मुझे अपने मम्मी-पापा के पास छोड़कर अपने साथ-साथ मेरे लिए भी खाने की प्लेट की प्लेट लगाकर ले आया । हालांकि मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं थी, लेकिन मैं कमल का बचपन के प्यार और अपनेपन से भरा आग्रह टाल नहीं सका । खाना खाने के बाद उसने रात में मुझे वहीं रुकने के लिए भी सहमत कर लिया ।

रात में हम दोनों काफी देर तक इधर-उधर की बातें करते रहे । ऐसा लग रहा था कि हमारे वही दिन वापिस लौट आये हैं, जो बाईस साल पीछे छूट गये थे । सोने से पहले हम दोनों ने अगले दिन की भी योजना बना डाली कि हम दोनों छुट्टी करके पूरा दिन एक-साथ मौज मस्ती गुजारेंगे ।

क्रमश..