बात बस इतनी सी थी - 18 Dr kavita Tyagi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बात बस इतनी सी थी - 18

बात बस इतनी सी थी

18.

मंजरी को गये हुए जब लगभग आठ महीने बीत चुके थे, एक दिन मेरे मोबाइल पर मंजरी के मौसेरे भाई अंकुर की कॉल आई । मुझे लगा, शायद मंजरी का भाई होने के नाते उसने मंजरी के बारे में बात करने के लिए कॉल की है । लेकिन मैं गलत सोच रहा था । दरअसल अंकुर ने मुझे अपने बेटे के जन्मदिन की पार्टी में डिनर पर आमंत्रित करने के लिए कॉल किया था ।

अंकुर के निमंत्रण को मैंने मंजरी से मेरी मुलाकात होने के एक अच्छे अवसर के रूप में देखा । उस दिन मेरे दिल को थोड़ा सुकून भी मिला था । शायद यह सुकून इस बात का प्रमाण था कि अंकुर के आमंत्रण में मेरे अचेतन मन को निराशा के घोर अंधेरे से निकालने के लिए अपने मीत-मिलन की आशा की कोई किरण चमक रही थी ।

लेकिन मेरा चेतन पुरुष-मन उस दिन भी अपने धर्प की दलदल में ऐसा धंसा हुआ था कि मीत-मिलन की आशा के सुकून भरे इन पलों में भी वह सच को स्वीकार करने में संकोच कर रहा था । ऐसा लग रहा था कि मेरे चेतन-मन का अहंकार समय की सच्चाई से डरकर उससे दूर भागने की कोशिश कर रहा है ।

बहुत ही जल्दी वह समय भी आ गया, जब मैं अपने चेतन मन के अहंकार और अचेतन मन के सुकून के साथ निराशा के अंधेरे और आशा के उजाले में डूबता-तैरता हुआ अंकुर के बेटे के जन्मदिन के उत्सव में शामिल होने के लिए कार्यक्रम स्थल पर पहुँच गया ।

वहाँ पहुँचते ही मेरी नजरें मंजरी पर जा टिकी, जो मेरे पहुँचने से पहले ही वहांँ उपस्थित थी । उस समय एक पल के लिए मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मंजरी मेरे वहाँ पहुँचने का बेसब्री से इंतजार कर रही थी । उसकी नजरें वहाँ पर आने वाले हर आगन्तुक और हर दृश्य को पीछे छोड़कर मुझको ही तलाश रही थी । शायद इसीलिए मेरे वहाँ पहुँचते ही मंजरी की आँखों में संतोष का भाव झलकने लगा था ।

अंकुर के पूरे परिवार ने मेरा स्वागत और सम्मान उसी तरह किया, जैसे उन्होंने अब से पहले मेरे पहली बार अपने घर पहुँचने पर किया था । मेरे साथ उनके व्यवहार, उनकी बातों से मैंने अनुमान लगा लिया था कि मंजरी ने उन्हें हम दोनों के बीच चल रहे तनाव और कोर्ट में चल रहे केस के बारे में अभी कुछ नहीं बताया था । शायद वह चाहती भी नहीं थी कि उन्हें इस बारे में कुछ पता चले । मेरा यह अनुमान तब विश्वास में बदल गया, जब मंजरी ने सबके सामने मेरे साथ दस मिनट तक कुछ औपचारिक बातें की और मेरे मना करने के बावजूद एक ही डिनर टेबल पर मेरे साथ बैठकर डिनर किया ।

मैं भी नहीं चाहता था कि मेरे आस-पास रहने वाले मेरे किसी भी मित्र-रिश्तेदार या पड़ोसी को मेरे और मंजरी के संबंधों में चल रहे तनाव के बारे में कुछ पता चले ! इसलिए मैंने मंजरी द्वारा किए जा रहे झूठे और नाटकीय व्यवहारों में उसका पूरा साथ दिया था । इसके साथ ही एक वास्तविकता यह भी थी कि हम दोनों में काफी देर तक बातें होते रहने के बाद भी हम दोनों की अकड़ और अहंकार के चलते हम दोनों में किसी तरह का आत्मीय संवाद नहीं हो सका था । फिर भी मैं यह सोचकर संतुष्ट था, या कहूँ कि खुश था कि झूठा, बनावटी और नाटकीय ढंग से ही सही, पर हम दोनों में उस दिन मधुर संभाषण तो हुआ था और साथ ही खुशी की दूसरी वजह यह थी कि मेरे परिवार के सिवा मेरे किसी दोस्तों और परिचितों में से किसी को को भी अभी तक मेरे और मंजरी के रिश्ते में चल रहे तनाव का पता नहीं चला था ।

डिनर करने के बाद मैंने अंकुर से घर वापस लौटने के लिए विदा माँगी, तो उसने मुझे रात में वहीं उनके साथ उनके घर पर रुकने का आग्रह किया । मैंने सुबह जल्दी ऑफिस जाने का बहाना किया, तो उसकी मम्मी और मंजरी की मौसी ने सुबह जल्दी उठकर वहीं से ऑफिस जाने का प्रस्ताव देते हुए कहा -

"तुम्हें सुबह जल्दी ऑफिस जाना है, तो इसमें परेशानी क्या है ? अंकुर भी अपने ऑफिस जल्दी ही जाता है । जब इसके लिए नाश्ता और लंच बनेगा, तभी तुम्हारे लिए भी बन जाएगा ! रोज बाहर का खाना खाते हो, एक दिन सलझ के हाथ का बना हुआ घर का खाना खा लेना !"

अंकुर और उसकी मम्मी का प्रस्ताव मुझे अच्छा लगा था । मैं उनके प्रस्ताव को स्वीकार करना चाहता था और रात में उनके घर पर ठहरकर सुबह वहीं से ऑफिस के लिए निकल जाना चाहता था । लेकिन, न जाने कैसे ? और क्यों ? न चाहते हुए भी 'हाँ' कहते-कहते मेरे मुँह से 'नहीं' निकल गया -

"नहीं, मौसी जी ! बस इस बार क्षमा चाहता हूँ ! अभी एक जरूरी काम के लिए जाना है ! इसलिए आज आप लोगों के साथ यहाँ रुकना संभव नहीं हो सकेगा ! मैं वादा करता हूँ कि अगली बार जब आऊँगा, तो जरूर रात में यहीं पर रुकूँगा !"

उस समय मैं यह सोच रहा था कि मंजरी के मौसेरे भाई अंकुर और उसकी मौसी का प्रस्ताव अस्वीकार करने के पीछे शायद मंजरी की ओर से मुझे वहाँ रुकने के लिए कोई सकारात्मक संकेत का न मिलना था । यदि मंजरी मुझे एक बार भी वहाँ रुकने के लिए कहती या ऐसा कोई संकेत भी कर देती, जिससे मुझे रात में वहाँ रुकने का उसका आग्रह नजर आता, तो मैं उस रात वहाँ जरूर रुक जाता । लेकिन मंजरी की किसी भाव-भंगिमा में या उसकी आँखों में मुझे ऐसा कोई आग्रह नहीं दिखायी पड़ रहा था । शायद उस रात वह चाहती ही नहीं थी कि मैं वहाँ रुकूँ !

मैंने कई बार यह भी सोचा था कि मंजरी ने रात में मुझसे अपनी मौसी के घर में रुकने का आग्रह नहीं किया, तो कोई बात नहीं ! मैं उसको मेरे साथ हमारे घर चलने का आग्रह तो कर ही सकता हूँ ! जब मुझे अंकुर के बेटे के जन्मदिन की पार्टी का निमंत्रण मिला था, तभी से मेरे मन में यह इच्छा थी कि मंजरी और मैं एक-दूसरे के साथ थोड़ा-सा कुछ समय अनौपचारिक ढंग से बिताएँगे ! मुझे लगता था कि शायद ऐसा करने से हमारे बीच बढ़ती दूरी कुछ कम हो जाएगी !

लेकिन भगवान ने मुझे मेरे इस विचार और इच्छा को आकार देने का जो यह एक अच्छा अवसर दिया था, वह भी मेरे हाथों से निकल गया । मेरे पुरुषोचित अहंकारी स्वभाव और दिखावटी-खोखली अकड़ के चलते मैं मंजरी को न तो अपने दिल-दिमाग की स्थिति बता सका और न ही उसको मेरे साथ चलने का प्रस्ताव ही दे सका । इसका परिणाम यह हुआ कि मेरा विचार, विचार ही रह गया । न मेरा विचार कार्य-रूप में साकार हो सका और न ही मेरी इच्छा फलीभूत हो सकी ।

यह भी नहीं था कि अकेले मैंने हीं ऐसा सोचा था । या केवल मेरी ही इच्छा ऐसी थी कि थोड़ा-सा समय हम दोनों एक- दूसरे के साथ बिताएँ ! मंजरी की आँखों में भी मैंने वही तड़प देखी थी, जो मैं मेरे अंदर महसूस कर रहा था । इसीलिए तो मैंने अंकुर और मौसी का आग्रह अस्वीकार करने के बाद भी वहाँ से निकलने से पहले कुछ देर तक इस बात का इंतजार किया था कि मंजरी खूद ही मेरे साथ हमारे घर चलने के लिए कहेगी ।

लेकिन मंजरी ने भी अपने दिल की बात होंठों तक नहीं आने दी । कौन जाने ईश्वर को क्या मंजूर है ? यह सोचकर मैं आगे बढ़ा और मौसी जी के चरण स्पर्श करके एक बार फिर मंजरी की तरफ देखा । मंजरी के चेहरे पर या उसकी आँखों में मुझे अब भी कोई ऐसा संकेत नहीं दिखायी पड़ा, जिसमें मेरे वहाँ रुकने के लिए या उसकी मेरे साथ चलने के लिए कोई भावना हो । अतः मैं उसको "बाय" कहकर वहाँ से निकल गया ।

वहाँ से निकलते-निकलते भी मैं यही सोच रहा था कि शायद हम दोनों के भाग्य में एक-दूसरे के साथ रहना लिखा ही नहीं है । तभी तो आठ महीने बाद भी जब हमें एक ऐसा अवसर मिला था कि हम दोनों एक-दूसरे के गिले शिकवों को दूर कर सके और अपनी जिंदगी की फिर से एक नई शुरुआत कर सकें, तब भी हम दोनों एक-दूसरे से दूर जाने में ही अपनी ताकत , अपना समय और अपना दिमाग खराब करते रहे । उसका दसवां हिस्सा भी अगर हम एक-दूसरे की तरफ आने में और मतभेदों की खाई को भरने में खर्च करते, तो शायद आज रात हम साथ-साथ होते ! हमारे जीवन का जो खालीपन है, उसे हम भर चुके होते ! जो कुछ हमारे जीवन में छूट गया था, आज हमने उसकी पूर्ति कर ली होती ! लेकिन हमने ऐसा नहीं किया ! क्यों ? यह प्रश्न अनुत्तरित था, पर गहराई से सोचने के लिए था ।

मंजरी क्या चाहती है ? मैं उसका केवल अनुमान ही लगा सकता था । लेकिन अपनी चाहत को पूरा करने के लिए वह कौन-सा कदम उठाती है ? या वह कौन-सा कदम नहीं उठाती है, जो उसे उठाना चाहिए ! यह उसका निर्णय था और उसीके हाथ में था । मैं उसके निर्णय को बदलने की कोशिश कर सकता था, पर उसमें सफलता मिलना या न में मिलना मेरे हाथ में नहीं था ।

मैं क्या चाहता हूँ, इसका मैं खुद साक्षी था । अंकुर के घर जाने से पहले उसके निमंत्रण को मैं मैरे और मंजरी के बीच बढ़े हुए तनाव को कम करने के एक अवसर के रूप में देख रहा था । लेकिन वहाँ पहुँचकर मंजरी को सामने देखते ही मेरे उस खोखले अहंकार ने, जिसे मैं स्वाभिमान का नाम देकर खुद को गुमराह करने की कोशिश करता हूँ, मेरी सकारात्मक सोच को पराजित कर दिया ।

मैं अपने दंभ का सहारा लेकर इस आशा के साथ आगे बढ़ता रहा कि अब मंजरी खुद आगे आएगी और अपनी उस गलती के लिए माफी माँगेगी, जो उसने तब की थी, जब मैं उसके निकट से भी निकट आने के लिए समर्पित था, और वह खुद मुझसे दूर चली गयी थी। मैं इंतजार करता रहा कि वह अपनी गलती कुबूल करके हमारे बीच की दूरी को खत्म करने के लिए मेरी खुशामद करेगी !

लेकिन हम दोनों पूरे दिन एक-दूसरे के आस-पास रहते हुए भी, अपने-अपने मन में एक-दूसरे के नज़दीक आने की इच्छा रखते हुए भी, एक-दूसरे के इतने नज़दीक नहीं आ सके, जितना नज़दीक आने का भगवान ने हमें यह अवसर दिया था ! न मंजरी हम दोनों के बीच की दूरी कम करने के लिए झुकने को तैयार हुई और न मैं आपस के तनाव को कम करने के लिए उसकी ओर एक कदम बढ़ा सका । ईश्वर के दिये हुए इस अवसर को हाथ से गँवाकर खाली हाथ मैं अंकुर के घर से काली अंधेरी रात में लौट गया ।

क्रमश..