जिंदगी मेरे घर आना - 16 Rashmi Ravija द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जिंदगी मेरे घर आना - 16

जिंदगी मेरे घर आना

भाग – १६

उसकी ये हालत देख, शरद भी घबड़ा उठा। बड़ी आजीजी से गीली आवाज में बोला- ‘नेही... नेही.. प्लीज ऐसे मत रो पगली... बोल कैसे जा पाऊँगा मैं?...तुझे ऐसी हालत में छोड़कर कदम उठेंगे, मेरे?... बोलो... नेहा प्लीज... मेरे सर की कसम जो और... जरा भी रोई...‘

बड़ी मुश्किल से काबू कर पाई, खुद पर। उसका चेहरा हथेलियों में भर शिकायती स्वर में बोला -

‘यों कमजोर न बनाओ मुझे‘; आवाज की कम्पन ने ही उसे आँखें उठाकर देखने पर मजबूर कर दिया। बिना आँसुओं के ही वे आँखें, इस कदर लाल थीं कि... उनका दर्द देख अंदर से हिल गई। और दिल चीर कर रख देने वाली आवाज में फूट पड़ी - ‘शऽरऽद‘ और उन्हीं हथेलियों में सर छुपा सिसक पड़ी।

‘नेहा... तू इस कदर परेशान क्यों है? क्या लगता है, तुझे... और शरद ने हथेली खींच, उसके सामने फैला दी - ‘ये... ये... देख... कितनी लम्बी आयु रेखा है मेरी... कुछ नहीं होगा, मुझे... नेहा, सच... तेरी आस्था... तेरा विश्वास और तेरा प्यार मेरे साथ है... क्यों है न?‘ और फिर मुस्करा कर जोड़ा - ‘कहीं, ऐसा तो नहीं कि ये बस एकतरफा प्यार ही है, तुमने कभी कुछ कहा ही नहीं।‘

बच्चों की तरह हथेलियों से आँखें पोछते... बिना सोचे-समझे वह बोल पड़ी -‘तुमने ऐंगेज्मेंट-’सेरेमनी‘ क्यों नहीं होने दी?‘

‘ओफ्फोह!! तो इसीलिए सारा पागलपन है, तुम्हारा‘ - हँस पड़ा था शरद (इस स्थिति में भी संभालना जानता है, खुद को... आखिर मिलीट्री मैन है) -‘सच्ची... बेवकूफ की बेवकूफ रही तू... इसमें क्या मुश्किल है, लो अभी हुआ जाता है... ये तो मन के रिश्ते है न... लोगों की भीड़ की क्या जरूरत? - और शरद ने अपनी अंगुली में पहनी अंगूठी डाल दी थी उसकी ऊँगली में, फिर बोला -‘अब तुम्हारी अंगूठी तो मुझे आएगी नहीं‘ - पास से ही एक लम्बी सी घास तोड़, उसे गोल-गोल घुमा एक छल्ले सा बना दे दिया, उसे - ‘लो अब जरा अपनी अँगुलियों को भी कष्ट दो।‘

नेहा ने काँपते हाथों से पहना दी तो बड़े आग्रह से बोला -

‘अब एक बार तो मुस्करा दो‘ - और उसकी मुस्कराहट देख दर्द से आँखें फेर लीं, उसने -‘तुम्हारे मुस्कराने से तो तुम्हारा रोना लाख दर्जे बेहतर था।‘

जाने कितनी देर तक एक दूसरे का हाथ थामे, चुपचाप बैठे रहे दोनों। गहन चिंता में डूबा चेहरा लग रहा था, उसका। जब थोड़ा अंधियारा घिरने लगा तो, वह उठ खड़ी हुई। लेकिन शरद ने फिर खींचकर बिठा दिया, उसे और थरथराती आवाज में बोला -‘नेहा, पहले एक वादा करो, अब और नहीं रोओगी, तुम।‘ तुम इस कदर भावुक हो, ऐसा तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता था। तुम्हें तो एक चंचल, शरारती लड़की ही समझता था और वही रूप पसंद है, मुझे। जानती हो, कितना अशांत कर दिया तुम्हारे इस रूप ने? वहाँ मन लगेगा मेरा... बार-बार तुम्हारे इसी रूप का खयाल आता रहेगा। और बोलो... चाहती हो कि कुछ का कुछ कर बैठूं - नहीं नेहा, यहाँ सिर्फ मेरा-तुम्हारा नहीं... पूरे देश का सवाल है। बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, मुझपर। जिस निभाने के लिए शांत-निरूद्वेग दिमाग चाहिए। और इसके लिए मुझे तुम्हारा सहयोग चाहिए - बोलो करती हो वादा‘ - उसके हँसते-खिलखिलाते चेहरे के बीच, उसका यह रूप, शरद का मन स्वीकार नहीं कर पा रहा था।

आँसू पीती बोली थी वह - ‘वादा करती हूँ, शरद।‘

‘ना, ऐसे नहीं... खाओ मेरी कसम‘ और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। हाथ थाम वह फिर सिसक उठी थी... पर तुरंत संभाल लिया खुद को।

‘तुम्हारी, कसम, शरद... शिकायत का कोई मौका नहीं मिलेगा, तुम्हें।‘

‘कब्भी नहीं‘’- शरद ने शरारत से मुस्करा कर पूछा था (ये शरद भी सचमुच एक पहेली है)

‘कभी-नहीं‘’ - आँसू पोंछ दृढ़ स्वर में बोली थी वह।

‘अरे, नहीं यार! मेरी मौत की खबर सुन तो दो-चार अश्रु-बूँद टपका ही देना, वरना आत्मा भटकती रहेगी...‘ -- हँस कर बोला तो नेहा ने‘-

‘तुम बहुत बुरे हो, बहुत बुरे... सच्ची बहुत बुरे हो...‘ कहती मुट्ठियों की बौछार सी कर दी उस पर।

उसके हमले से खुद को बचाता, शरद बोला -‘अरे! तुम दोनों भाई-बहन किस जनम की दुश्मनी निकाल रहे हो‘ - और एकदम से उसे खींच कर बाहों में भर लिया।

एक पल को लगा, जैसे सृष्टि थम सी गई है। अभी उसके सीने की धधकती आंच ठीक से महसूस भी न कर पाई थी कि झटके से अलग करता हुआ बोला -‘चलो, चलो सब ढूँढ़ रहे होंगे, हमें... बहुत देर हो गई है।‘(स्टुपिड! डर है, कहीं कमजोर न पड़ जाए, मन ही मन हँस पड़ी वह)

वापसी का रास्ता बहुत ही आसान लगा। शरद ने एक बांह से घेर, उसे कंधे से लगा लिया था... और मन का सारा बोझ, सारा गम जाने कहाँ विलीन हो गया।

जाने कैसी शक्ति सी आ गई थी... एक विश्वास सा जम गया था... अब कुछ अघटित नहीं होगा... बिल्कुल शांत हो आया था उसका मन। अब ये बदलाव शरद के दो पल के साथ ने दिया था या... अँगुली में पड़ी इस अँगूठी ने... कहना मुश्किल था।

***

और शरद के प्रयासों ने घर का माहौल बदलने में पूरा सहयोग दिया। उदासी के बादल थोड़े ही सही, मगर छँटे जरूर थे। एक-दूसरे को संभालने के लिए जबरदस्ती ही हँसने-बोलने की कोशिश बोझिलता कम करने में बड़ी सहायक सिद्ध हुई थी। शरद तो उसी रात सीमा पर चला गया था पर वहाँ से भी उसने घर का वातावरण हल्का बनाए रखने की कोशिश जारी रखी थी। फोन तो कभी-कभार आते और इतनी डिस्टर्बेंस की कुशल-क्षेम भी ठीक से नहीं पूछ पाते एक-दूसरे का। पर उसके छोटे-छोटे खत बड़े मजेदार होते... बड़े ही मनोरंजकपूर्ण ढंग से वह युद्ध का वर्णन करता। घर में जीवंतता की लहर दौड़ जाती। उसके नाम अलग से कभी कोई खत नहीं होता... हाँ दो-चार लाइनें जरूर रहती उसके लिए। कभी तो बस इतना ही होता... ‘मैंने तुम्हें कुछ लिखने ही वाला था... पर ध्यान आया... तुमने तो रिप्लाय दिया ही नहीं... फिर क्यों लिखूँ मैं?‘