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दिलरस - 2

दिलरस

प्रियंवद

(2)

लड़के ने छह बार लड़की को देखा। पहली बार में उसने देखा कि लड़की ने रात के सोने वाले कपड़े बदले हुए थे। वह सफेद रंग के गाउन जैसा कुछ पहने थी। दूसरी बार में उसने देखा कि गाउन पहनने के कारण कल की तरह उसकी कमर के नीचे का भारी हिस्सा नहीं दिख रहा था। तीसरी बार उसने देखा कि कल की तरह उसके बाल खुले नहीं थे। उसने बालों की दो चोटियां बना ली थीं। दोनों चोटियां उसके कंधों से आगे की तरफ पड़ी थीं। चौथी बार में उसने देखा कि कल की तरह वह अलस कर नहीं चल रही थी। पांचवीं बार में उसने देखा कि तेज चलते हुए वह राजसी तरीके से एक ओर थोड़ा झुक जाती है। गर्दन हंसिनी की तरह सीधी रखती है। छठी बार में लड़की खुले हिस्से में रुक गई। वह फिर रस्सी के पास आई। उसने रस्सी से कपड़े उतारे। कपड़े लेकर अंदर चली गई। लड़का मुंडेर से हटकर पौधों को पानी देने लगा।

सोलहवें पौधों में पानी देते समय उसे आवाजें सुनाई दीं। उसने घूमकर देखा। लड़की गीले कपड़े सुखाने लाई थी। यह आवाज बाल्टी रखने और कपड़ों को बहुत तेजी से फटकारने की थी। लड़के ने पौधों को पानी देना छोड़ दिया। वह फिर मुंडेर पर कोहनी टिकाकर खड़ा हो गया।

अब दोनों फिर एक दूसरे को देख रहे थे। रस्सी की तरफ मुंह करके लड़की धीरे-धीरे कपड़ा फटकारती फिर रस्सी पर फैलाती। लड़के ने कपड़ों को देखा। कपड़ों में उसने लड़की के कल के पीले फूलों वाले कपड़े पहचान लिए। लड़की के पीछे आंगन के नल पर एक औरत आई। उसने हाथ धोए फिर अंदर चली गई। लड़की कपड़े फैला चुकी थी। वह बाल्टी लेकर अंदर जाने लगी। आंगन में एक आदमी आया। उसके साथ वही औरत थी। रसोई की तरफ इशारा करके उन्होंने लड़की से कुछ कहा। दोनों अंदर चले गए। लड़की बाल्टी रखकर रसोई में चली गई। कुछ देर बाद वह लौटी। उसने बाल्टी उठा ली। एक बार सतर्कता से चारों ओर देखा फिर लड़के की तरफ घूमी। यूं ही एक हाथ उठाया और हल्के से लहराकर चली गई। उसने बता दिया था कि अब नहीं आएगी। लड़का उदास हो गया। इतना उदास कि उसने बचे हुए पौधों को प्यासा छोड़ दिया। वह नीचे चला गया।

मां की गालियां सुनने के बाद भी वह दोपहर को फिर छत पर आया। लड़की उसी तरह सिर झुकाए आंगन से रोटियां लेकर जाती रही। उसे नहीं पता था कि लड़का दोपहर को भी छत पर आता है। लड़का दो बार खांसा, एक बार मुंडेर से फर्श पर धम्म से कूदा। लड़की ने नहीं सुना। लड़के को गुस्सा आ गया। गुस्से में वह शाम को छत पर नहीं आया। उस शाम वह नदी किनारे बालू पर पेट के बल लेटा हुआ बालू पर कपड़े सुखाती, रोटियां ले जाती, पांव धोती, बंदर से डरती हुई लड़की के चित्र बनाता रहा।

अगली सुबह लड़का मुर्गे की आवाज पर नहीं जागा। चिड़ियों की आवाज पर भी नहीं जागा। कोतवाली के घंटे बजने पर जागा। जागते ही वह छत पर आया। लड़की ने वही सब उसी तरह किया। उसी तरह वह आदमी और वही औरत आई। लड़की रसोई में गई। जाते समय उसने हवा में हाथ हिलाया। लड़के की हिम्मत बढ़ चुकी थी। उसने हाथ उठाकर लड़की से रुकने को कहा। लड़की रुक गई। रस्सी के पास आकर खड़ी हो गई, फिर नल पर मुंह, हाथ, पांव धोती रही, फिर डरी हुई-सी कभी कमरे, कभी रसोई की तरफ देखती खड़ी रही। यूं ही बेमतलब खड़ा होना उसे डरा रहा था। कुछ देर बाद उसने लड़के को देखे बगैर हाथ हिलाया और चली गई। उसे डर था कि उसे देखा तो लड़का फिर रोकेगा। वह फिर रुक जाएगी। लड़का उसके बारे में जानना चाहता था। उससे कहना चाहता था कि वह हमेशा आंगन में रहे। उसे कोई गुप्त संकेत बताना चाहता था जिसे सुनकर वह जब बुलाए लड़की आंगन में आ जाए। उसने कुछ गुप्त संकेत सोच भी लिए थे। उसने सोचा था कि इस मौसम में वह पपीहे की आवाज निकालेगा या फिर सूर्य का रथ खींचने वाले सुनहरी अयाल के घोड़ों की टापों की आवाज या फिर उस बुलबुल की आवाज जिसके गले का रंग सुर्ख लाल हो चुका हो। उसने बंद कमरे में इन आवाजों का अभ्यास भी किया था। इन आवाजों को सुनकर मां कमरे के आस-पास हैरानी से बुलबुल और घोड़ों को ढूंढ़ती रही थी। लड़के ने जब मां को इस तरह उन्हें ढूंढ़ते देखा, तो उसे लगा कि लड़की भी जब आवाज सुनेगी, तो बुलबुल या घोड़े की आवाज ही समझेगी। ये आवाजें उसे बुलाने के लिए वह निकाल रहा है, उसे पता ही नहीं चलेगा। लड़के ने कुछ और तरकीबें भी सोचीं।

मसलन, वह किसी का पालतू कबूतर उधर मांग ले जो उसका पत्र ले जा सके या उसकी अनाज रखने की कोठरी की दीवार पर उंगलियों की परछाइयों से जानवरों की शक्लें बनाकर उसे आने का इशारा करे या उसके आंगन तक कागज का जहाज उड़ा सके।

लड़का दोपहर को फिर उसी तरह छत पर आया। लड़की ने उसी तरह सिर झुकाए किसी को कमरे में खाना खिलाया। शाम को लड़का फिर आया। आंगन खाली था।

*

दस दिन हो गए। ग्याहरवें दिन सुबह लड़के ने शाखाओं पर कुछ नए पत्ते देखे। उसने गिने। अस्सी थे। ये पत्ते नवजात शिशु की तरह चमकदार थे। मुलायम थे। पवित्र थे। उम्मीदों से भरे थे। हवा में झूलते तो उन पर ठहरी चमक बूंदों की तरह नीचे गिरती। वे बड़े और चौड़े थे। उनकी नसें उठी हुईं और रस से भरी थीं। इन अस्सी पत्तों ने ही लड़की की रसोई के एक हिस्से को ढक लिया था। अभी उन्हें असंख्य होना था। इतना कि हवा भी उनके पार नहीं गुजर सकती थी। किसी की नजर का गुजरना और भी कठिन था।

लड़के ने चारों ओर नजर घुमाकर दूसरे पेड़ों को देखा। वे सब नए पत्तों से भर चुके थे। उनके हरे रंग अलग-अलग थे। उनकी आकृतियां अलग थीं। चमक अलग थी। पतझर से सूखी ठूंठ में कंपकंपाती जर्जर दिखती देहों वाले वे पेड़ अब आसमान की ओर तने हुए धरती को ढक रहे थे। यही एक पेड़ था जिसकी शाखाएं अभी नंगी थीं। यह सबसे अलग भी था। इस पर कत्थई रंग के बड़े फूल आते थे। बाद में उनसे कपास के रेशे उड़कर चारों ओर फैलते रहते थे। इसी पेड़ पर बैठकर कोयली कूकती थी। इसी पेड़ पर जब चांद रुकता, नीचे चांदनी का नगर बसा दिखाई देता था। यह सब शुरू होने वाला था। दो या तीन दिन में इन शाखाओं को पत्तों से भर जाना था। लड़के ने छत से आंगन वाले घर का रास्ता पहचानने की कोशिश की। आंगन के चारों ओर नीची छतों वाले छोटे-छोटे घर बने थे। उन घरों के बीच वह घर कहां है, समझ में नहीं आता था।

उसकी गली, दरवाजा कहां है, दिखाई नहीं देता था। शाखाओं के पत्तों से भर जाने के बाद आंगन दिखना बंद हो जाएगा। लड़की भी नहीं दिखेगी। यह सोचकर लड़का घबरा गया। मुंडेर से कोहनियां टिकाकर उसने एक बार फिर पेड़ देखा। लकड़ी की टाल को देखा जिसके ऊपर उसकी शाखाएं थीं। बंधी हुई गाय वाले हिस्से को देखा जहां उसका तना गया था। कुछ देर तक इसी तरह सब ओर घूरने के बाद वह नीचे उतर आया।

सुबह लड़की को देखने के बाद लड़का घर से निकलने लगा। मां ने बिना कुछ खाए बाहर जाने के लिए उसे टोका :

‘खाली पेट में आग लगेगी।’

लड़का झल्ला गया :

‘आग लगने के लिए आॅक्सीजन की जरूरत होती है। पेट के अंदर आॅक्सीजन नहीं होती।’

मां हैरानी से उसे देखती रही। पेट की आग के बारे में कुछ और बोलती, इसके पहले लड़का बाहर निकल गया।

*

लकड़ी की टाल एक छोटे से खुले मैदान में थी। पहले यहां हवेलियों की जरूरत की सब्जियां वगैरह बोई जाती होंगी या जानवर बंधते होंगे या उन हवेलियों में काम करने वाले झोंपड़ों में रहते होंगे। अब वह मैदान छोटी कोठरियों से भर गया था। इन कोठरियों में लोग रहते थे। इन कोठरियों की छत पर पेड़ के सूखे पत्ते गिरते रहते थे। कभी कोई पुराना साइकिल का टायर, टूटा पिंजरा, फटा जूता भी पड़ा रहता था। लड़के ने छत से इन्हें देखा था। कोठरियों की छतें मिली हुई थीं। ये गिलहरियों और बंदरों के दौड़ने, सोने और खेलने के काम आती थीं। यही छत लड़की के आंगन की रसोई और अनाज के कमरे तक चली गई थी।

गलियों में रास्ता पूछते हुए लड़का टाल तक आ गया। कई तरह की लकडि़यों के कई तरह के ढेर लगे थे। कुछ ढेर बहुत ऊंचे थे। कुछ छोटे थे। कुछ सूखी टहनियों के थे। लकडि़यां तौलने का तराजू लगा था। उसके पलड़े मोटी लकडि़यों से बने थे। दुकान के सामने के तख्त पर तीन आदमी बैठे थे। वे दुकानदार का इंतजार कर रहे थे। लड़का उनके पास खड़ा हो गया। उनकी बातों से लड़के को पता चला कि एक चिता की लकडि़यां बेचने वाला मरघट का दुकानदार था, दूसरा हवन की लकडि़यां बेचता था, तीसरा गुल्ली-डंडे बनाने के लिए लकड़ियां लेने आया था। वे लकड़ियों के ढेर की ओर इशारा करके जोर-जोर से बोल रहे थे। एक कोठरी से खांसता हुआ दुकानदार बाहर आया। वह दुबला-पतला था। उसकी उम्र साठ के आस-पास थी। छोटी-सी सफेद दाढ़ी थी। रंग साफ था। कंधे पर लंबा तौलिया पड़ा था। उसके पीछे लकड़ियां तौलने वाला छोटा लड़का आया। वे तीनों उसके पुराने ग्राहक थे। छोटा लड़का भी उनको पहचानता था। बिना कुछ पूछे वह ढेर से लकड़ियां उठाकर तराजू के पलड़े पर रखने लगा।

लड़का उनसे थोड़ी दूर खड़ा था। वह सोच रहा था कि ये तीनों चले जाएं तब वह अकेले में दुकानदार से बात करेगा।

दुकानदार ने एक बार उसे उड़ती निगाह से देखा। वह समझ नहीं पाया कि लड़का उसका ग्राहक है या अंदर घरों में किसी से मिलने आया है। उन तीनों से बातें करते हुए वह बीच-बीच में तराजू की लकड़ियों को भी देख रहा था। लड़के तक लकड़ियों की गंध आ रही थी, जैसे वे सांस छोड़ रही हों, जैसे कटने जाते बकरमंडी के बकरे छोड़ते थे। उनके ऊपर की नुची भूरी छाल चारों ओर पड़ी थी, जैसे उनकी खाल चाकू से खुरच दी गई हो।

लड़के ने सिर उठाकर देखा। पेड़ की शाखाएं दिख रही थीं। लकड़ियां तौलने के बाद, बाहर खड़े रिक्शों पर लकड़ियां लादकर वे तीनों चले गए। दुकानदार ने एक बार लड़के को देखा फिर तख्त पर बैठकर हिसाब लिखने लगा।

अब लड़का आगे आया। दुकानदार के कागज पर उसकी परछाईं पड़ी। उसने सिर उठाया।

‘क्या उस पेड़ की लकड़ियां मिलेंगी?’ लड़के ने उंगली उठाकर पेड़ की तरफ इशारा किया। उसने डाल को लकड़ी कहा था। उसे डर था कि ‘डाल’ बोला तो दुकानदार कह देगा कि वह लकड़ियां बेचता है, डाल नहीं। दुकानदार ने सिर उठाकर पेड़ को देखा। वह जब पैदा हुआ था। तब से उस पेड़ को देख रहा था।

‘वे किसी काम नहीं आतीं’ उसने लड़के को देखा, ‘और बहुत तरह की लकड़ियां हैं, वे ले लो।’

‘नहीं... यही चाहिए।’

‘क्यों?’

‘वैद्य जी ने इसी पेड़ के लिए कहा है। पत्ते आने से पहले इसकी पतली डालियों को घिसकर लेप बनाना है। अभी पत्ते नहीं आए हैं। अभी इनकी छाल बिलकुल सूखी है। यही सबसे ज्यादा फायदा करती हैं। पेड़ के उस तरफ पत्ते आने लगे हैं। मैंने गिने हैं। अस्सी हैं।’

‘तुमने पत्ते गिने?’ दुकानदार ने हैरत से लड़के को देखा। उसने सिर हिला दिया।

‘मैंने तारे गिने थे।’

‘कितने थे?’

‘पता नहीं।’

‘क्या वे एक दूसरे पर लदे थे?’

‘क्या तारे ऐसा करते हैं?’

‘पत्ते तो करते हैं।’

‘नहीं... लदे नहीं थे।’

दुकानदार ने सिर हिलाया। वह चुप हो गया। कुछ देर दोनों चुप रहे।

‘क्या आप पेड़ के इधर के हिस्से की डालियां कटवा कर दे सकते हैं?’ लड़का इस बार लकड़ियों की जगह डालियां बोला।

‘नहीं... वहां पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है। वैसे भी मैं इसे नहीं छुऊंगा। यह पेड़ पीछे वकील के घर से निकला है। जड़ें वहां हैं। उसका पेड़ है। वहीं से तने पर चढ़ा भी जा सकता है। तुम्हें अगर इसकी डालियां चाहिए तो उसके पास जाओ। वह चाहेगा तो तुम्हें तने पर चढ़कर यहां तक आने देगा। अगर दो चार टहनियां चाहिए तो अक्सर यहां गिर जाती हैं। कभी पतंग की डोर से, कभी बंदरों के कूदने से।’

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