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दिलरस - 1

दिलरस

प्रियंवद

(1)

पतझर आ गया था।

उस पेड़ पर एक भी पत्ता नहीं बचा था। बाजरे की कलगी के एक-एक दाने को जैसे तोता निकाल लेता है, उसी तरह पतझर ने हर पत्ते को अलग कर दिया था। पेड़ की पूरी कत्थई शाखाएं बिलकुल नंगी थीं। ओस की बूंदों में भीगने के बाद उसकी खुरदुरी, गड्ढेदार पुरानी छाल धूप में बहुत साफ दिखती थी।

लड़का सुबह छत पर गमले के पौधो को पानी देने आया। उसकी निगाह पेड़ पर पड़ी। उसने पहली बार पेड़ को इस तरह नंगा देखा था। हालांकि पतझर हर साल आता था, हर साल बाजरे की कलगी की तरह उसका हर पत्ता अलग कर देता था, हर साल उसकी शाखाएं इसी तरह नंगी हो जाती थीं, पर लड़के की निगाह नहीं पड़ी थी। इस साल पड़ी थी। उसने इतना बड़ा, ऊंचा और ऐसा बिना पत्तों वाला पेड़ भी पहले कभी नहीं देखा था। इस साल देखा था। उसकी भूरी, कत्थई शाखाएं उसे मेलों में आने वाले तपस्वी की जटाओं की तरह लगीं। पौधें को पानी देना भूलकर वह उन जटाओं को देखने लगा।

पेड़ को देखते हुए, उसकी नजर शाखाओं के बीच की खाली जगह पर गई। खाली जगह से उसे कुछ दूर पर एक आंगन का चौकोर हिस्सा दिखा। उस चौकोर हिस्से पर एक लड़की खड़ी थी। वह भी हैरानी से पेड़ को उधर से देख रही थी। नंगी शाखाओं की खाली जगह से उसे भी देख रही थी। दो लोग एक साथ एक ही समय उन कत्थई भूरी शाखाओं को देख रहे थे जिन्हें उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। उन शाखाओं के बीच से वे एक दूसरे को भी देख रहे थे, एक-दूसरे को उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था।

लड़की रस्सी पर सूखते कपड़े उठाने आई थी। कपड़े उठाकर वह चली गई। उसके जाने के बाद आंगन की चौकोर जगह खाली हो गई। लड़के ने अब पूरे आंगन को देखा। एक ओर किनारे पर नीची छत थी। उस पर बड़ा-सा धुआंरा बना था। वह जरूर रसोई होगी लड़के ने सोचा। दूसरी ओर उतनी ही नीची छत वाली कोठरियां बनी थीं। वह जरूर अनाज और दूसरे सामान रखने की जगह होगी, लड़के ने सोचा। तीसरी ओर कम ऊंचाई वाला नल लगा था। इस पर कपड़े धोए जाते होंगे, लड़के ने सोचा। चौथी ओर रस्सी बंधी थी। उस पर कपड़े सूखते थे। लड़के ने देखा था। पेड़ के टूटे मटमैले पत्ते रसोई और कोठरियों की छतों पर पड़े थे। वे बहुत ज्यादा थे। इतने ज्यादा कि उन्होंने छत को ढक लिया था। इतने ज्यादा लड़के ने सिर्फ तारे देखे थे। वे भी कभी-कभी आसमान को ढक लेते थे। पत्ते एक दूसरे के ऊपर लदे हुए थे। तारे एक दूसरे के ऊपर नहीं लदते होंगे लड़के ने सोचा। लड़की के जाने के बाद आंगन का वह चौकोर हिस्सा बहुत खाली लग रहा था। लड़के ने लड़की को ठीक से नहीं देखा था। वह सोच रहा था। पौधें के पानी देने से पहले लड़की एक बार और आ जाए तो उसे ठीक से देख ले। लड़की अचानक आंगन में आ गई। उसी जगह खड़ी होकर गीले कपड़े सुखाने लगी। ऐसा करते हुए वह शाखाओं के पार लड़के को देख रही थी। इस बार लड़के ने उसे ठीक से देखा। वह उसकी उम्र की ही थी। कसी देह वाली। भरे बादल जैसी सांवली। उसके खुले बाल कंधों पर गिरे हुए थे। लड़की ने अभी रात को सोने वाले कपड़े ही पहने हुए थे। पीले फूलों वाला एक ढीला पायजामा और उन्हीं फूलों वाली एक ऊंची कमीज। दोनों एक ही कपड़े से बने थे। कमीज कुछ ज्यादा ऊंची थी। वह कमर के नीचे के भारीपन को ढक नहीं पा रही थी।

लड़की सोकर उठी थी। उसके कपड़ों पर अभी रात की सलवटें थीं। उसकी चाल में आलस्य था। तीसरा कपड़ा सुखाते हुए उसने दो बार जमुहाई ली। जमुहाई लेते समय दोनों बार उसका मुंह थोड़ा ही खुला। लड़के को उसके दांत नहीं दिखे। अनार के दानों की तरह होंगे लड़के ने यूं ही सोच लिया। लड़की जब रस्सी पर कपड़े टांगती तो उसकी बांहें उठ जातीं। उठी बांहों के नीचे लड़के ने होली के पानी भरे दो छोटे गुब्बारे देखे। गोल कलाइयों पर दो डोरे बंधे देखे।

जब तक लड़की कपड़े सुखाती रही, शाखाओं के बीच से लड़के को देखती रही। लड़का भी शाखाओं के बीच से लड़की को देख रहा था। उसने पहले कभी कपड़े सुखाती लड़की नहीं देखी थी। लड़के को लगा कि वह रस्सी पर कपड़े कुछ जल्दी डाल सकती थी। लड़की देर कर रही थी। कुछ देर में लड़की ने सब कपड़े रस्सी पर फैला दिए। तभी पेड़ की शाख से रसोई की छत पर एक मोटा बंदर धम्म से कूदा। लड़की डर कर अंदर भाग गई। लड़के ने बंदर को एक गाली दी, फिर गमले के पौधो में पानी डालने लगा।

लड़का दसवें पौधे को पानी दे रहा था, उसने ‘हट... हट...’ की आवाज सुनी। उसने घूमकर देखा। आंगन के कोने में लड़की एक छोटी लकड़ी लिए बंदर को भगा रही थी। लड़की डर रही थी कि बंदर कहीं कपड़े न उठा ले। लकड़ी पतली और छोटी थी। बंदर मोटा और जिद्दी था। बंदर पर उसकी ‘हट... हट...’ का कोई असर नहीं पड़ा। सूखे पत्तों के बीच उसे एक रोटी मिल गई थी। रोटी मुंह में दबाकर उसने लकड़ी हिलाती हुई लड़की को एक घुड़की दी। चीखकर लड़की अंदर भाग गई। बंदर हंसता हुआ रोटी चबाने लगा। लड़का हंसता हुआ ग्याहरवें पौधे में पानी देने लगा।

जब तक बंदर बैठा था, लड़की आने वाली नहीं थी। आखिरी पौधे में पानी देने के बाद लड़के के पास खाली समय था। इस खाली समय में लड़के ने मुंडेर पर कोहनियां टिकाईं और पेड़ और उसके चारों ओर देखने लगा। पेड़ बहुत ऊंचा था। उसके नीचे कई छोटे-छोटे घरों की छतें थीं। इन घरों के बाहर बड़ी खुली जगह थी। इसमें लकडि़यों की एक टाल थी। घरों की छतों पर भी पेड़ के टूटे पत्ते पड़े थे। पेड़ कहां से निकला था, यह लड़के की छत से समझ में नहीं आता था। लड़के की छत से लकड़ी का टाल का खुला मैदान दिख रहा था। उसके एक कोने पर कटी हुई लकडि़यों के छोटे-छोटे अलग ढेर लगे थे। एक ओर पेड़ों की पतली, बिखरी हुई टहनियां पड़ी थीं। उनके पास लकडि़यां तौलने का बड़े पलड़े वाला तराजू लटक रहा था। उसके पीछे छोटी कोठरी बनी थी। उस पेड़ की शाखाएं लकड़ी के टाल के कुछ हिस्से तक फैल गई थीं। आंगन इन्हीं के पीछे था। पेड़ के दूसरी ओर एक दीवार के पीछे छोटी-सी खुली जगह दिख रही थी। वहां एक गाय बंधी थी। उसके सामने खाने के लिए मिट्टी का बड़ा नांद रखा था। उसके अंदर चारा पड़ा था। गाय का बछड़ा उससे सटा खड़ा था। चारखाने वाला अंगोछा पहने एक आदमी गाय का दूध निकालने की तैयारी कर रहा था। वहीं से उठता हुआ काला धुआं पेड़ तक आ रहा था।

लड़के को पेड़ का तना उस खुली जगह तक जाता दिख रहा था। फिर दीवार थी। तने के चारों ओर और भी छोटी छतें और दीवारें थीं। पेड़ कहां से निकला था, यह छत से पता नहीं लगता था। बंदर अभी रोटी खा रहा था। आंगन अभी खाली था। लड़के ने नजर घुमाकर आंगन की तरफ देखा। रसोई की छत पर दो बंदर और आ गए थे। पत्तों में रोटी तलाशते हुए वे आंगन की तरफ बढ़ रहे थे। लड़की अब और ज्यादा डर गई होगी, लड़के ने सोचा। बंदरों के जाने के बाद भी अब देर तक वह आंगन में नहीं आएगी। धूप तेज होने लगी थी। लड़का उदास हो गया। उदास होकर वह छत से नीचे आ गया।

*

दोपहर को लड़का फिर छत पर आया। वह पहले कभी दोपहर को नहीं आया था। उसे छत पर जाते देखकर मां ने टोका। ‘सुबह पौधें को पानी कम दिया था’, लड़का बोला।

‘धूप में पानी देने से पौधे जल जाते हैं’, मां बोली।

लड़के ने मां की बात नहीं मानी। वह छत पर आ गया। उसने आंगन की तरफ देखा। आंगन खाली था। कुछ देर धूप में खड़ा वह आंगन देखता रहा। अचानक उसे लड़की दिखी। सिर झुकाए रसोई से निकली और आंगन से होती हुई दूसरी ओर चली गई। उसके हाथों में ट्रे थी। ट्रे पर खाने के बर्तन रखे थे। कुछ क्षण बाद वह रसोई में लौटी। उसके हाथ अब खाली थे। उसे पता नहीं था कि लड़का छत पर है। लड़के की परछाईं इतनी बड़ी नहीं थी कि उसके आंगन तक पहुंच जाती। लड़के की गंध इतनी तेज नहीं थी कि वह सूंघ लेती। लड़के की धड़कनें इतनी तेज नहीं थी कि वह सुन लेती। लड़का इतना पास नहीं था कि वह देख लेती। पहले की तरह ही सिर झुकाए वह फिर रसोई से निकली। इस बार उसके हाथ में प्लेट थी। प्लेट पर रोटी थी। आंगन के दूसरी ओर वह गई। फिर लौटी। अब उसकी प्लेट खाली थी। लड़का समझ गया रसोई में कोई रोटी सेंक रहा है। लड़की आंगन के पार कमरे में किसी को खाना खिला रही है।

लड़का मुंडेर पर कोहनियां टिकाकर खड़ा हो गया। लड़की ने तीन चक्कर लगाए। आखिरी चक्कर में वह ट्रे पर सब बर्तन लेकर वापस लौटी। ट्रे रसोई में रखकर फिर लौटी। आंगन के तल पर उसने हाथ धोए। पांव भी धोए। पांव धोने के लिए उसने पायजामा थोड़ा ऊपर उठाया। लड़के ने उसकी गुदाज पिंडलियां देखीं। पंजों में दो सांवले मुलायम खरगोश देखे। लड़की अंदर चली गई। धूप बहुत तेज हो गई। छत के फर्श पर लड़के के तलुए जलने लगे। मां ने नीचे से आवाज दी। पौधों को जलाने के लिए कोसा। उनकी बद्दुआओं से डराया। लड़का डर गया। डरकर नीचे आ गया।

शाम को लड़का फिर छत पर आया। आंगन खाली था। उसने देर तक आसमान में उड़ती पंतगें देखीं, खेतों से लौटते तोते देखे, चिमनियों से निकलता धुआं देखा, चर्च की मीनार के गले में

लाॅकेट-सा लटका पीला चांद देखा, घरों में जलते चूल्हों की लपट देखी, उन पर सिंकती रोटियां देखीं, खूब सारे तारे देखे... फिर नीचे आ गया।

*

सुबह के इंतजार में लड़का ठीक से सो नहीं पाया। जनाजे में गैसबत्ती किराए पर देने वाले के मुर्गे की बांग से वह उठ गया। खिड़की का पर्दा हटाकर उसने देखा। अभी अंध्ेरा था। उसने घड़ी देखी। सुबह के तीन बजे थे। उसने सुना था मुर्गा सुबह होने पर बांग देता है। इस मुर्गे ने ऐसा नहीं किया। गैसबत्ती किराए पर देने वाला बेईमान था। उसे मातम में मुफ्त देने के लिए कहा गया था, लेकिन वह किराया लेता था। मुर्गा उसका था। मुर्गा भी बेईमान हो गया था। लड़के ने मुर्गे को एक गाली दी। उसने तय किया कि अब मुर्गे की बांग से नहीं उठेगा। मिल के हूटर, कोतवाली के घंटे, अजान या चिडि़यों की आवाज से उठेगा। ये बेईमान नहीं थे।

उस सुबह सबसे पहले चिडि़यां बोलीं। वह उठ गया। खिड़की का पर्दा हटाकर उसने देखा। थोड़ी रोशनी हो गई थी। वह छत पर आ गया। उसने आंगन की ओर देखा। लड़की आंगन में टहल रही थी। सुबह की ताजी हवा फेफड़ों में भर रही थी। हल्का व्यायाम कर रही थी। तीसरे चक्कर में उसने छत की तरफ देखा। लड़के को देखकर वह रुकी। रस्सी की तरपफ आई। उसने रस्सी पर सूखते कपड़ों को ठीक किया। कपड़ों को ठीक करने तक वह लड़के को देखती रही। लड़का भी उसको अब अच्छी तरह से देख पा रहा था। पता नहीं था कि लड़की लड़के को देख रही है या उसे खुद को देखने दे रही है। लड़की आंगन में चक्कर लगाने लगी। कभी हाथ ऊपर उठाती, कभी कंधें से घुमाती। अंदर देखने वालों को वह सुबह का व्यायाम करने का भ्रम दे रही थी।

आंगन के एक ओर से दूसरी ओर घूमते हुए जाने में उसका एक चक्कर हो रहा था। एक चक्कर में वह उतनी ही देर दिखती जितनी देर खुले हिस्से से गुजरती। बाकी समय दीवार या कोठरियों की आड़ में चली जाती। लड़के ने गिनती गिनकर देखा कि उसका एक चक्कर तीन मिनट का है। हर तीन मिनट बाद लड़की खुली जगह से गुजर रही थी। हर तीन मिनट बाद लड़का उसे देख रहा था। खुली जगह से गुजरते हुए छत की तरपफ देख लेती। हर तीन मिनट बाद लड़की लड़के को देख रही थी।

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