अध्याय - 1
स्वर्णभूमि सोसायटी,
रमा तीसरी मंजिल पर फ्लैट की बालकनी में बैठकर ऑफिस का कुछ काम निपटा रही थी।
अभी-अभी सूर्योदय हुआ था। हल्की बौछार के बाद अचानक धूप के खिलने से मिट्टी की सौंधी खूशबू उसको आल्हादित कर रहीं थी कि अचानक पीछे से आवाज आई।
दीदी चाय लाऊँ ?
आँ !!! उसने शायद सुना नहीं ।
चाय लाऊँ क्या दीदी ? ये उसकी कुक थी जो रोज सुबह सात बजे आ जाती थी और उसका नाश्ता खाना टिफिन बनाकर आठ बजे तक चली जाती थी।
ओ, हाँ रेवती ले आओ ? कितने बज गये हैं ? मुझे काम में ध्यान ही नहीं रहा।
आठ बज गए हैं दीदी ! मेरा काम खत्म हो गया है और कुछ करवाना है तो बताईये नहीं तो मैं जाऊँगी।
हाँ वो बाथरूम में गीजर चालू कर दे। मेरा गरम पानी से नहाने का मन कर रहा है। गरम पानी से नहाऊँगी तो अच्छा लगेगा।
ठीक है दीदी मैं चालू करके जा रही हूँ कल आऊँगी।
अच्छा ठीक है जा। अखबार पड़ा है क्या बाहर, देख और अंदर करती जा।
ये इधर टेबल के ऊपर रख दी हूँ। दरवाजा अंदर से लॉक कर दीजिए मैं जा रही हूँ। कहकर वो निकल गयी।
रमा ने घड़ी की ओर देखा 8.30 बज रहे थे। उसे 10.30 तक ऑफिस पहुँचना था। इसलिए वो उठी और नहाने के लिए बाथरूम में घुस गयी।
रमा एक आत्मनिर्भर लड़की थी। दिखने में बहुत ही सुंदर और आकर्षक थी। सधा हुआ सा चेहरा, बड़ी,बड़ी आँखे गोरा रंग और लंबे बाल। ईश्वर ने सचमुच उसे बहुत संदर सुंदर बनाया था परंतु थी वो थोड़ा शांत स्वभाव की थी। उसे ज्यादा लड़ना झगड़ना आता नहीं था। अपने माता-पिता की वो एकलौती संतान थी और पढ़ाई में हमेशा अव्वल आती थी, इसीलिए आसानी से उसने पिछले ही वर्ष नेट क्वालीफाई कर लिया था। यहाँ शहर के एक प्रतिष्ठित निजी महाविद्यालय में उसने सहायक प्राध्यापक के तौर पर नौकरी ज्वाइन कर ली थी। तनख्वा ठीक-ठाक थी इसलिए स्वर्णभूमि सोसाइटी में एक फ्लैट किराए पर ले रखा था। और पिछले करीब दो वर्षों से रह रही थी।
दूध !! तभी बाहर से आवाज आई।
वहीं बाहर गेट पर रख दो भैया मैं आकर ले लूँगी।
रमा ने बाथरूम से बाहर निकलते हुए कहा।
दूधवाला दूध रखकर चला गया था। रमा गाऊन पहने हुए ही गेट से दूध उठा लाई। उसे गैस पर धीमी आँच में रखकर तैयार होने के लिए बेडरूम में आ गई।
आलमारी खोला तो सामने कपड़ो का अंबार पड़ा था। क्या पहनु, क्या पहनु सोचकर ही उसके दस मिनट व्यर्थ चले गए। फिर अचानक उसकी नज़र एक पुरानी फ्लावर प्रिंट वाली पिंक साड़ी पर गई।
चलो आज यहीं पहन लेती हूँ। मन हीं मन उसने बुदबुदाया और उसे आलमारी से बाहर निकाल लिया।
जब वो आईने के सामने आई तो इस साड़ी में खुद को देखकर वो आश्चर्यचकित थी। उसे लगा जैसे उसके जीवन में ताजगी आ गई है। उस साड़ी में वो बहुत ही खूबसूरत लग रही थी।
किसी की पसंद इतनी सटीक भी हो सकती है ऐसा सोचकर उसका मन धुंधली यादों में खो गया। कुछ समय तक वो यादों के भंवर में चली गई। तभी घर का डोरबेल बजा।
अचानक आई आवाज से वो हड़बड़ा गई। यादों के भंवर से वो बाहर आ गई।
आती हूँ थोड़ा रूक जाओ।
दुबारा घंटी बजी।
अरे रूको भई। कौन है जो बार-बार घंटी बजा रहा है वो तेजी से जाकर दरवाजा खोली।
ओह ! माला तुम,थोड़ा रूक नहीं सकती थीं। मैं साड़ी पहन रही थी।
यार मुझसे खड़ा नहीं रहा जाता और तू मुझे पांच मिनट से बाहर खड़े रखी थी। माला बोली
पांच मिनट ही तो खड़ी थी। क्या हो गया । तू तो हमेशा जल्दी में रहती है माला।
दिखा कौन सी साड़ी पहन रहीं थी। अरे वाह ये साड़ी तो तुझ पर जंच रही है। किसने दी है। माला उसको छेड़ते हुए बोली।
अरे कोई नहीं यार। बहुत पुरानी साड़ी है सोचा कभी पहनी नहीं तो आज पहन लेती हूँ, चल निकलते हैं कॉलेज के लिए।
नीचे उतरकर उन्होंनेमेन रोड से कॉलेज के लिए ऑटो ले लिया। धीमी गति से ऑटो कॉलेज की ओर निकल गया। रमा और माला की बातचीत का क्रम जारी था परंतु रह-रहकर रमा ऑटो के उस छोटे से आईने में अपने को साड़ी सहित देखने की कोशिश करती रही।
क्या हुआ रमा ? मैं देख रहीं हूँ कि तू बार-बार आईने की ओर देख रही है। कुछ तो चक्कर है जो तू मुझसे छिपा रहीं है। अरे कुछ नहीं यार बस यूँ ही, तेरे चक्कर में बाल नहीं बना पाई थी ना इसलिए देख रही थी। बातों को बिगाड़ना तो कोई तुझसे सीखे। रमा बोली
नहीं, नहीं कोई तो बात है बच्चू नहीं तो बार-बार तू साड़ी की ओर नहीं देखती ? माला छेड़ी
चुप कर तू ! ऐसी कोई बात नहीं है, ये देख सामने कॉलेज भी आ ही गया। चल उधर से ही उतर, रमा बोली
अच्छा आजा, पर तू मेरे से बचने वाली नहीं है रमा ये राज तो मैं जान कर रहूँगी। माला चहकी।
अच्छा ठीक है अभी तो चलें। टाईम हो गया है अटेंडेंस तो लगाना पड़ेगा ना ?
जैसे ही दोनो ऑफिस के अंदर गए तो देखा, कॉलेज का सारा स्टाफ वहाँ मौजूद था।
क्या बात है मालती आज यहाँ सब लोग डटे हुए हैं, कोई माँग लेकर आए हैं क्या स्टाफ वाले रमा ने काऊँटर पर बैठी मालती से पूछा।
अरे नहीं मैडम। आपको नहीं पता क्या। आज हमारे चेयरमेन हट रहें हैं नये बोर्ड ऑफ डायरेक्टर आ गए हैं। दो लोगों ने पार्टनरशीप में कॉलेज को टेकओवर कर लिया है।
ओह ! ये तो हमको पता ही नहीं था। कौन है, तुमको कुछ पता है क्या ? रमा ने पूछा
अच्छे से तो पता नहीं पर चेयरमेन शायद कोई यंग लड़का जैसा है और उसका नाम, नाम शायद अनुज कुमार है।
रमा ये नाम सुनकर सन्न रह गयी। ये नाम उसके मन मस्तिष्क में गूंज गया। दो मिनट के लिए के एकदम चुप हो गई। फिर उसने सोचा एक जैसे नाम वाले दुनिया में तो कई लोग होते हैं। जरूरी थोड़ी है कि मेरा हो।
मेरा अनुज ? उसने मन में सोचा और मेरा को चेंज करके फिर से दोहरा दिया वही अनुज।
मेरा शब्द को वो बार-बार भूलने और छोड़ने की कोशिश करने लगी पर ऐसा हो ही नहीं पा रहा था। तभी उसके अंदर जाने की बारी आ गई। उसकी धड़कने तेज हो गयी। वो सोचने लगी कि काश ये वो अनुज ना हो। पर जैसे ही वो अंदर घुसी तो सामने वही अनुज था। वो एकदम स्तब्ध हो गई। तब तक अनुज ने उसे नहीं देखा था। फिर अचानक अनुज ने उसकी ओर देखा, रमा की धड़कने और तेज हो गई और वो इधर-उधर देखने की कोशिश करने लगी। तभी उसने देखा कि अनुज उसकी साड़ी की ओर एकटक देख रहा है।
ओ गॉड !!! ये क्या हो गया मैंने दो साल में पहली बार उसकी दी हुई साड़ी पहनी और उसी के सामने आ गई। मुझे बाहर ही ख्याल क्यों नहीं आया। हे ईश्वर इसका क्या असर होगा भगवान जाने। वो अपने आप को ही मन में कोस रही थी।
हेलो सर मेरा नाम माला है मैं रसायन विभाग में सहायक प्राध्यापक हूँ। माला ने कहा।
और ये ? अनुज ने जानबूझकर पूछा।
रमा सिर नीचे किए एकदम चुप खड़ी थी उसने शायद सुना नहीं।
सर ये रमा मैडम है बॉटनी विभाग में सहायक प्राध्यापक है। माला ने ही उत्तर दिया।
ठीक है आप लोग जा सकते हैं। कहकर अनुज वापस मोबाईल पर व्यस्त हो गया।
रमा तुझे क्या हो गया। चल ना बाहर। माला धीरे से बोली।
कुछ बोली क्या माला ? रमा चेतना में लौटी।
हाँ बाबा। चल ना बाहर। यहीं खड़ी रहेगी क्या ?
हाँ चल। रमा बोली।
दोनो बाहर आ गए और स्टाफ रूम में चले गए। माला क्लास लेने चली गई परंतु रमा वहीं स्टाफ रूम में ही बैठी रही। वो यादों के झँझावात में खो गई।
क्रमशः
मेरी अन्य तीन किताबें उड़ान, नमकीन चाय और मीता भी मातृभारती पर उपलब्ध है। कृपया पढ़कर समीक्षा अवश्य दें - भूपेंद्र कुलदीप