इक समंदर मेरे अंदर - 16 Madhu Arora द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इक समंदर मेरे अंदर - 16

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(16)

अब उसे अच्‍छी नौकरी की बहुत जरूरत थी। वह समाचारपत्रों में नौकरियों के विज्ञापन देखती रहती थी। उसका कॉलेज ग्रांट रोड के प्राइम इलाके में था। पास ही में मुंबई का सबसे पुराना और एशिया का दूसरा सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया कमाठीपुरा था।

कामना की क्‍लास में पढ़नेवाली एक लड़की उसी इलाके में रहती थी। उसका कहना था कि शाम के साढ़े पांच बजे के बाद के बाद वह घर से नहीं निकलती थी। कॉलेज के सामने हैंगिंग गार्डन की दीवार थी, वहां की सीढ़ियों से चढ़कर कामना और उसकी सहेलियां कभी कभी हैंगिंग गार्डन चली जाती थीं

कॉलेज से पांच मिनट की दूरी पर भवंस कॉलेज, और सामने लहराता समुद्र। वह दोपहर का समय होता था और वहां अक्‍सर जोड़े बैठे मिलते थे। उस चौपाटी पर उन दिनों घने पेड़ हुआ करते थे।

दोपहर दो बजे के आसपास वहां सजी सजाई लड़कियों व महिलाओं को अपने ग्राहकों का इंतज़ार करते देखा जा सकता था। थोड़ी दूर जाने पर शर्मा भेलपूरी हाउस और अन्‍य दुकानें थीं। वहां कामना और उसकी सहेली मीना पानी पूरी खाया करते थे।

मीना उसे पानी पूरी खिलाती थी...इसमें उसका अपना स्वार्थ था। वह अपनी बहन के देवर को बहुत चाहती थी। वे लोग दिल्‍ली में रहते थे। उन दिनों मोबाइल फोन तो थे नहीं। एकमात्र लैंडलाइन फोन का चलन था। प्रिंसिपल के केबिन के फोन की चाभी कामना के पास रहती थी।

कॉलेज की प्रतिनिधि होने के नाते उसे फोन करने पड़ते थे। यह बात मीना को मालूम थी। वह अपने प्रेमी से बात करने के लिये कामना के सामने गिड़गिड़ाती थी। इस पर कामना कहती.....’देख मीना, मैं रिस्‍क ले रही हूं। फोन का बिल आने पर उनको पता चल जायेगा। पूछेंगी तो मुझे बताना पड़ेगा।‘

बड़ी मुश्‍किल से उसने फोन करना बंद किया था। बाद में पता चला था कि उसकी बहन को अपनी बहन का प्रेम प्रकरण पता चल गया था और उसने साफ कह दिया था कि दो बहनें एक परिवार में नहीं रह सकतीं। बेचारी मीना.......उसका प्रेम प्रसंग परवान चढ़ने के पहले ही खत्‍म हो गया था।

एक दिन शाम को जब घर पहुंची तो पिताजी ने एक लिफाफा उसके हाथ में पकड़ा दिया। उसने खोलकर देखा तो यह तो अपॉइंटमेंट लैटर था। उसे एक लाइसेंस कंपनी में टाइपिस्ट की नौकरी मिल गई थी।

वह बहुत खुश थी....उसे इस समय इस नौकरी की बहुत ज़रूरत थी। वह उस पत्र को लेकर कंपनी के सर्वेसर्वा मिस्‍टर असरानी से मिलने नरीमन पॉइंट स्थित डालामल टावर गई थी। उन्‍होंने चंद सवाल पूछे और टाइपिंग का टेस्‍ट लिया।

फिर बोले – ‘ठीक है, हमेरा काम चल जायेगा। जास्‍ती स्‍पीड नहीं है, पर कोई प्रॉब्लम नहीं है। हां, आपको एक्‍सपीरियन्‍स नहीं है, इसलिये पगार 250 रुपया हर महीने मिलेगा। ट्रेन के सेकेण्ड क्‍लास के पास का पैसा और सुबह का नाश्‍ता ऑफिस की ओर से...चॉइस आपका...वडा सांभर, इडली सांभर, सैंडविच या मसाला डोसा और चाय।‘

....लेकिन हां, आपको सुबह दस बजे यहां आना होगा। मैं दोपहर को दो बजे आऊंगा। तब तक जो फोन आते हैं, उनको अटैंड करना और उनके नाम तथा फोन नंबर इस डायरी में नोट करने होंगे। शाम को छ: बजे तक रुकना होगा।‘

यह कहकर उन्‍होंने अपनी टेबल पर रखी एक डायरी की ओर इशारा किया था। कामना के लिये ढाई सौ रुपये बहुत मायने रखते थे। उसने सारी बातों को ध्‍यान से सुना और सोचा कि इवनिंग कॉलेज से एमए करने के लिये यह नौकरी सही थी।

दोपहर दो बजे तक फ्री रहेगी तो अपने नोट्स बना सकेगी। घर की भी कुछ मदद हो जायेगी। सब सोचने-विचारने के बाद वह बोली थी – ‘ठीक है असरानी जी, मुझे यह नौकरी मंज़ूर है, लेकिन यदि आप मेरी छोटी सी बात मानें तो कहूं।‘

इस पर असरानी ने चश्‍मे के पीछे से झांका था और वह बिना विचलित हुए अपनी बात कहती रही – ‘ऐसा है कि मुझे एमए करना है। आपके ऑफिस का टाइम सूट कर रहा है.....एक छोटा सा कन्‍सेशन दे दें...

एमए की क्‍लासेस शाम को छ: बजे से शुरू होती हैं। यदि आप मुझे साढ़े पांच बजे जाने की अनुमति दे दें तो कॉलेज अटैंड कर सकूंगी।‘ इस पर वे बोले – ‘भले...लेकिन मेरा भी एक शरत है.....जब काम होगा तो आपको रात के आठ बजे तक रुकना होगा। ऐसा दर रोज़ नहीं होएंगा, पर जब होएंगा

....तब आप मना मत करना। आपको अपना क्‍लास बंक करना पड़ेगा। लाइसेंस का काम है..एक साथ रेडी करना होता है, तभी काम मिलता है।‘ वह पक्‍का सिंधी था। उसे पता था कि ढाई सौ रुपये में कोई अनुभवी टाइपिस्ट तो मिलेगा नहीं।

कामना खूबसूरत लड़की है तो वह रिसेप्शनिस्ट का काम भी संभाल लेगी। सो दोनों ओर से हामी भर ली गई थी और दूसरे दिन से नौकरी पर आने का वादा करके वह वापिस अपने घर की ओर चल दी थी। दोपहर का समय था, उस समय विरार ट्रेन में ज्‍य़ादा भीड़ नहीं थी।

बैठते ही और चलती ट्रेन से आने वाली हवा से उसकी आंखें मुंदने लगीं। पता नहीं वह कब गहरी नींद में समा गई थी और जब भायंदर की खाड़ी आई, तब जाकर उसकी नींद खुली। उसने हड़बड़ा कर जल्‍दी से बैग संभाला और बाल संवारे।

वसई आने ही वाला था और वह ट्रेन के दरवाज़े पर खड़ी हो गई थी। उसे बहुत अच्‍छा लगता था दरवाज़े पर खड़ा होना। वसई पर जब ट्रेन धीमी होने लगती थी तो वह चलती ट्रेन से ही उतर जाती थी। उसे बहुत अच्‍छा लगता था, चलती ट्रेन से उतरना।

अभ्यास की बात है। नौकरी मिलने की खुशी ने उसकी चाल में तेज़ी ला दी थी और वह जब अपने घर पहुंची तो अम्‍मां चाय बनाये बैठी थीं। चाय पीते पीते उसने अम्‍मां और पिताजी को खुश खबरी सुनाई। अब पिताजी के पास मना करने का कोई कारण नहीं था।

केवल इतना ही बोले – ‘अब तुम बड़ी हो गई हो। जैसा ठीक समझो, करो।‘ इस प्रकार कामना की ज़िंदगी का वह पहला टर्निंग पॉइंट था जब उसने अपने लिये निर्णय लिया था और नौकरी शुरू की थी। उसे पता था देर सबेर मुंबई की भागदौड़ की ज़िंदगी उसके हिस्‍से में भी आने वाली थी।

अब उसे चर्चगेट से नरीमन पॉइंट पर स्थित डालामल टावर तक पैदल जाना था। सुबह की आठ बजकर चालीस मिनट की बड़ा फास्‍ट ट्रेन पकड़ना अनिवार्य हो गया था। वह नौ बजकर चालीस मिनट पर चर्चगेट पहुंचती और फिर वहां से भीड़ के बीच अपना रास्‍ता बनाती हुई दस बजे तक डालामल टावर पहुंचती थी।

उस समय ऑफिस का चपरासी सफाई का काम कर रहा होता था। उसे देखकर वह नीचे नाश्‍ता लेने चला जाता था। अब तक कामना अपने पिताजी का संघर्ष देखते देखते बड़ी हुई थी और अब उसे इस शहर में अपने लिये और अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करना था।

उसके केबिन के बगल में एक एक्‍सपोर्ट कंपनी का ऑफिस था। वहां एक लड़की थी, जिसका नाम वीना मजूमदार था। वह वहां सेक्रेटरी के रूप में काम करती थी। कामना ने वीना के बॉस को कभी देखा ही नहीं था।

वह आती थी और फोन करने में व्‍यस्‍त हो जाती थी। हां, उसकी एक सहेली आया करती थी। दोपहर के बारह बजे के करीब और थोड़ी देर बाद उस लड़की का बॉय फ्रैंड आता था। वे दोनों बात करते रहते थे और वीना अपना काम करती रहती थी।

बात करते करते वह लड़की रोने लगती थी। टप टप आंसू बहाती। वह लड़का अपनी जेब से रूमाल निकालता और उसके आंसू पोंछता रहता था। इन सबसे निर्लिप्त वीना यूं बैठी रहती थी मानो कुछ हुआ ही न हो। कोई किसी के बीच में क्‍या बोले, जब तक सामने वाला न चाहे।

विनोद सबका कॉमन चपरासी था। वीना उसे बुलाती और वह कामना की ओर देखता। कामना कहती – ‘जब तक असरानी साहब नहीं आते, वीना का काम कर दो।‘ और वह वहां चला जाता था।

वे उसे खाने की कुछ चीज़ों के नाम लिखकर देते और वह नीचे उतर जाता था। जब उनका लंच आ जाता तो वीना अपना टिफिन निकालती थी और तीनों मिल-बांटकर खा लेते थे।

उन दोनों मित्रों का रोना-धोना एक दिन का होता तो कामना को अजीब न लगता, पर यह तो रोज़ का गोरखधंधा हो गया था। इससे उसको काम करने में परेशानी होती थी। उसने सोचा कि वह मिस्‍टर असरानी से कहकर दो केबिन के बीच कांच के डिवाइडर पर छोटा सा पर्दा डलवा लेगी।

उधर वीना अपनी रोती हुई सहेली से कहती – ‘देखो, यहां तो रोना धोना मत करो। मेरा ऑफिस है। अगर तुम रिश्‍ते को नहीं संभाल पा रही तो छोड़ दो ना। और बेहतर रिश्‍ते बनेंगे।‘ मिस्‍टर असरानी ठीक दो बजे अपने केबिन में प्रवेश कर जाते थे।

साथ में मिल्‍टन का टिफिन लेकर आते थे। उनके आने के बाद विनोद उनकी टेबल पर उनकी प्‍लेट सजा देता। सारे केबिन ऊपर से खुले होते थे और उन खुली जगहों से सब्जी की खुशबू आती थी और पता चल जाता था कि असरानी के टिफिन में क्‍या था। वे एक मांसाहारी डिश ज़रूर लाते थे।

वे सवा तीन बजे तक फ्री होते थे और फिर कामना को बुलाते थे....साथ ही कुछ पेज टाइप करने के लिये दे देते थे और कहते – ‘कामना, ये काम आज पूरा करके जाना। आज ही टेलेक्‍स भी करना होगा।‘

कामना वे पेपर जल्‍दी से टाइप करके दे देती थी, जो उसी दिन जाने होते थे। साढ़े पांच बजते ही वह अपना बैग उठा लेती और असरानी से कहती,

‘सर, आज का अर्जेन्‍ट काम कर दिया। मुझे दूर जाना होता है और फिर यूनिवर्सिटी भी जाना है। बाकी काम कल कर दूंगी, पक्‍का। मई में उसने यह ऑफिस जॉइन किया था। जून में एमए प्रथम वर्ष में एडमिशन लेना था।

एक जून को जब वह ऑफिस पहुंची तो देखा तो देखा कि असरानी सुबह से ही आ गये थे। वह जैसे ही पहुंची, वे बोले – ‘आज टाइपिंग का बहुत काम है। इसके वास्ते जल्‍दी आया हूं।‘ वह दिन भर व्‍यस्त रही थी और जब शाम को पांच बजकर चालीस मिनट हुए तो वह कॉलेज की ओर चलने के लिये तैयार हो गई थी।

उसी समय असरानी ने उसे बुलाया और उसे एक लिफाफा पकड़ा दिया। उसने वहीं लिफाफा खोलकर देखा तो उसकी आंखों में आई खुशी की चमक को सहज ही देखा जा सकता था। सौ-सौ के दो करारे नोट और एक पचास का नोट।

साथ ही एक सौ का नोट देते हुए बोले – ‘यह है तुम्‍हारे तीन महीने के सीजन टिकट का पैसा।‘ कामना को बहुत अच्‍छा लगा था और उसे लगा था कि वह अचानक ही मैच्‍योर हो गई थी। अब वह अपने पापा को अपनी वजह से परेशान नहीं देखेगी।

वेतन मिलते ही उसने दूसरे दिन सुबह जाकर एमए प्रथम वर्ष का फार्म ले लिया था। साल भर की फीस तीन सौ पचास रुपये हुआ करती थी। उसने हिसाब लगाया कि उसे एक जुलाई को फिर से सेलरी मिलेगी। चलो...फीस का तो इंतज़ाम हो गया था। उल्टे कुछ रुपये बचने ही थे।

पचास-पचास रुपये वह अपने अम्मां और पिताजी जेब खर्ची देगी.....यह सोचते ही उसका मन भर आया था। जिस आदमी ने लाखों रुपये देखे हों, खर्च किये हों, उसे पचास रुपये देने में और उन्‍हें लेने में कैसा लगेगा।

पर यह उसकी पहली कमाई के पैसे थे। पचास रुपये उसने अपने लिये रख लिये थे। वापिस घर जाते समय वह चर्चगेट से थोड़ी सी मिठाई लेकर गई थी। इसके जरिये वह ईश्‍वर का धन्यवाद करेगी। समय मिलने पर वह जीवदानी माता के मंदिर भी जायेगी। उसकी मन्नत पूरी जो हो गई थी।

उन पचास रुपयों में से उसने मुंबई की फैशन स्ट्रीट से दस रुपये के दो पतले पतले कुर्ते लिये थे जो दस बारह बार पहनकर फेंके जा सकते थे। साथ में उसने स्‍ट्रेचलॉन के दो बैलबॉटम सिलवाये थे...काला और गहरा ब्राउन, जिन पर सभी हल्के रंग के टॉप चलते थे।

नफ़ीसा ने कामना को हल्के रंग के सलवार कुरते का कपड़ा विरार ट्रेन में जूली से लेकर दिया था और हर महीने पचास पचास रुपयों के रूप में भुगतान किया था। जूली होलसेल मार्केट से कटपीस कपड़े लेकर आती थी और ट्रेन में बेचती थी। उस समय वह कपड़ा साढ़े चार सौ रुपये का मिलता था।

हल्के जामुनी रंग पर सिंगल रेशमी तार थे। उसने खूब पहना था। हां, वह नफ़ीसा को कुछ गिफ्ट नहीं दे पाई थी और उसने कभी नहीं जताया था कि वह कामना के लिये कुछ कर रही थी। यही स्‍वभाव कामना का बनता गया था।

वैसे तो विरार से चर्चगेट की ट्रेनों में हमेशा भीड़ रहती थी। वसई स्‍टेशन पर तो मेला सा लगा रहता था। इतनी भीड़! और फिर जिस तरह से लोग चढ़ते थे, वह देखकर उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती थी। महिलाएं इस प्रकार चढ़ती थीं मानो भेड़ बकरियां चढ़ रही हों।

वह इस तरह चढ़ ही नहीं सकती थी। इसलिये उसने तय कर लिया था कि वह वसई से विरारवाली ट्रेन में बैठकर पहले दूसरी दिशा में विरार जाया करेगी। कम से कम बैठने की सीट तो मिलेगी। कई औरतें तो भायंदर से बैठकर आती थीं।

  • अब उसकी व्यस्तता और बढ़ गई थी। दिन भर नौकरी और शाम को कॉलेज जाने का सिलसिला शुरू हो गया था। एमए की कक्षाएं मुंबई युनिवर्सिटी से पास ही एलफिन्‍स्‍टन कॉलेज में लगती थीं।

    कॉलेज रात को सात बजकर चालीस मिनट पर छूटता था। वह अपनी सहेली आशा और प्रतिभा के साथ रात की आठ बजकर दस मिनट की विरार ट्रेन पकड़ती थी। उस ट्रेन को पकड़ने के लिये उनको भागना पड़ता था।

    वह ट्रेन ग्रांट रोड आते आते भर जाती थी। वह पहली बार देख रही थी कि विरार से मुंबई नौकरी करने इतनी बड़ी तादाद में महिलाएं आती थीं और इसमें लड़कियों की ख़ासी संख्‍या होती थी। कामना वह रात कभी नहीं भूल सकती, जब वह चर्चगेट से ही विरार वाली ट्रेन में सो गई थी।

    रात को क़रीब बारह बजे नींद खुली तो ट्रेन भायंदर की खाड़ी पर खड़ी थी। महिला डिब्‍बा बाकी ट्रेन से अलग हो गया था और बाकी ट्रेन अलग होकर चली गई थी। जब तक यार्ड से इमरजेंसी इंजन नहीं आयेगा, तब तक उस डिब्‍बे को वहीं खड़े रहना था।

    कंपार्टमेंट में ज्‍य़ादा महिलाएं नहीं थीं। शायद छ: सात थीं और दो तीन लड़के थे। कामना ने फिर आंखें बंद कर ली थीं। थोड़ी देर बाद कंपार्टमेंट को धक्का लगा था और एक लड़का बोला था - इंजिन लागला। आत्‍ता ट्रेन चालणार। सच में ट्रेन चल पड़ी थी। वे नवरात्रि के दिन थे।

    चारों ओर गरबा-डांडिया की रौनक छाई हुई थी। घर पहुंचते पहुंचते रात के डेढ़ बज गये थे। जब वह घर पहुंची तो पिताजी ने कहा था - आय गई बिटिया? हम स्‍टेशन जाकर पतौ कर आये थे।‘

    यह कहकर वे करवट बदलकर सो गये थे। वे जानते थे मुंबई में महिलाएं और लड़कियां हमेशा सुरक्षित रही हैं.....पहले भी और आज भी। उसे लिंडा याद आती है!.... वह क्रिश्‍चियन थी। मिनी स्कर्ट पहनती थी। वह बहुत खूबसूरत थी और ताज होटल में एक सैलून में ब्यूटीशियन थी।

    उसके पति जोसेफ प्राइवेट फर्म में थे। रात को वे कामना वाली ट्रेन में ही आते थे। एक बार रात को कुछ आवारा लड़के उनके कंपार्टमेंट में आ गये थे। उन्‍होंने लिंडा को छेड़ने की कोशिश की थी। ट्रेन नायगांव और वसई के बीच में थी, तब उसने जोसेफ से कहा –