इक समंदर मेरे अंदर - 17 Madhu Arora द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इक समंदर मेरे अंदर - 17

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(17)

‘यू गो एंड सिट देयर। नाउ आइ विल हैव टू शो माय टेलेंट।‘ अब ट्रेन का पैसेज खाली था। वे लड़के ट्रेन के ऊपर के हैंडल पकड़कर झूल रहे थे। लिंडा ने मौका देखकर एक लड़के का पैर खींचकर नीचे उतार लिया था और कराटे के विभिन्न एक्‍शनों से उन लड़कों को गिरा लिया था।

फिर हंसते हुए बोली थी – ‘तुम लोग लेटे रहो, थोड़ा सा काम बाकी है।‘ यह कहकर उन लड़कों के गुप्तांगों पर कसकर एक एक लात लगाई थी। वे उठ नहीं पाये थे। इतने में ट्रेन में आरसीएफ के जवान आ गये थे।

उन जवानों को माजरा समझते देर नहीं लगी थी। लिंडा ने कहा था – ‘यानां घेऊन जा। मुझसे सवाल नहीं करने का। इन सब मवालियों को ले जाओ।‘ और वह जोसेफ के साथ वसई पर उतरकर चली गई थी। पूरी ट्रेन हैरान थी लिंडा के साहस पर।

हर ट्रेन में खाने का सामान बेचने वाली जरूर होतीं। समोसे वाली, भेलवाली, ईयरिंग वाली और मौसमी फलवाली। सभी को भूख़ तो लगती ही थी। सब अपनी अपनी पसंद का कुछ न कुछ खरीद लेते थे। कामना को सूखी भेल बहुत पसंद थी और वही लेकर खाती थी।

जो लड़की ईयरिंग बेचती था, वह गाती बहुत अच्‍छा थी। नाला सोपारा स्‍टेशन जाने के बाद वह खूब पुराने गाने सुनाती थी। इस तरह ट्रेन में बैठी महिलाओं का मन बहल जाता था। जब कामना घर पहुंचती, पूरी तरह थक चुकी होती थी। अम्मां खाना बनाकर रखती थीं। वह हाथ-पैर धोती और कपड़े बदलकर खाने के लिये बैठ जाती थी। वे दोनों साथ ही खाते थे।

  • कामना के भाई अपने हिसाब से मेहनत कर ही रहे थे। वे चुप ही रहते थे। काम की बात करते और अपने काम से काम रखते थे। सभी को रविवार का इंतज़ार रहता था, जब अम्मां मूंग की दाल के पकौड़े और बेसन का हलवा बनायेंगी।

    रविवार आते कितना समय लगना था? जब रविवार को सब नाश्‍ता कर रहे थे, ....तब कामना ने अपने पर्स से पचास पचास रुपये के दो नोट निकाले और अम्मां और पापा के हाथ पर रख दिये थे। यह देखकर अचानक उनका मन भर आया था।

    उन्‍होंने वे रुपये रमेश और नरेश को देने चाहे तो वे बोले – ‘पापा, हम भी तो कमा रहे हैं। हम खुद आपको देने वाले थे।‘ यह कहकर उन दोनों ने भी पचास पचास रुपये निकाले और उन दोनों के हाथ में रख दिये थे। उस दिन भी पापा रोये थे, पर वे खुशी के आंसू थे।

    रमेश घर में अचानक छोटे छोटे शो पीस लाने लगा था और उस छोटे से घर को सजाने लगा था। पता चला कि वह जिस कॉलेज में पढ़ता था, वहां का एक छात्र सिंगापुर से सामान मंगवाता था।

    उसने रमेश को इस बात के लिये तैयार कर लिया था कि वह सिंगापुर की घड़ियां कॉलेज में ही बेचा करे और उसको हर आइटम के पीछे कमीशन देगा। रमेश को यह सौदा बुरा नहीं लगा था। उस साल रमेश ने कामना को राखी पर एक लेडीज़ घड़ी दी थी, जिसका डायल फिरोजी रंग का था। बहुत खूबसूरत घड़ी थी।

    नरेश ने भी नौकरी बदल ली थी। एक बार गाड़ी फिर पटरी पर आ गई थी। सबके चेहरों पर सहजता आ गई थी। गायत्री भी खुश थी कि अम्मां ठीक चल रही थीं। कामना को असरानी के यहां काम करते हुए एक साल पूरा होने को था कि एक दिन वे बोले –

    ‘कामना, अपना चार्टर्ड अकाउंटेंट है न, अरे वही जो हमेरा खाता देखता है, उसने तुमको संडे को आने को बोला है। कुछ टाइपिंग का काम है। तुम संडे को साढ़े नौ बजे आ जाना।‘ वह यह सुनकर परेशान तो हुई थी, पर खुद को संभालते हुए कहा –

    ‘सर, रविवार को तो लाइब्रेरी जाती हूं। आपको तो पता है न कि मैं एमए कर रही हूं। असाइनमेंट तैयार करना होता है ...परीक्षाएं नज़दीक आ रही हैं, नोट्स बनाने होते हैं। और फिर, वसई रहती हूं। आई एम सौरी, रविवार को तो आना नहीं हो पायेगा। वे चाहें तो शनिवार को सुबह आ जायें, वैसे भी उनका ऑफिस बंद रहता है उस दिन।‘

    इस पर वे हंस कर बोले – ‘मेरे को कुछ इंट्रेस्ट नहीं है वो तो अपना आदमी है...बिजिनेस देखता है, उसको सब मालूम है बिजिनेस का। इसके लिये बोला। एक रविवार को ही तो आने का है ...दर रविवार थोड़े ही बोला है।

    ....वैसे तुम्‍हारी मर्जी। तुम आतीं तो मैं अगले महीने से तुम्‍हारा पगार चार सौ रुपये करने वाला था। खर्चा होता है न पढ़ाई पर...मैं जास्‍ती नहीं पढ़ा, पर मेरे को मालूम है...मेरा बच्‍चा लोग पढ़ता है न...बाबा रे, कितना खर्चा होता है।

    कामना सब समझते हुए भी अनजान बन रही थी। उसने उस समय तो कुछ नहीं कहा लेकिन दूसरे दिन शुक्रवार था और अगस्‍त का महीना था। उसे पगार मिलने वाली थी। वह चुपचाप ऑफिस से निकल गई थी। पूरे रास्‍ते सोचती रही कि क्‍या निर्णय लिया जाये।

    अंततः उसने सोच ही लिया था कि उसे क्‍या करना है। बस, निर्णय फाइनल होते ही उसके चेहरे से चिंता की लकीरें मिट गई थीं और तेज़ी से कॉलेज की ओर बढ़ने लगी थी। शुक्रवार को वह ऑफिस आई थी।

    हमेशा की तरह छोटा मोटा काम निपटाया और कोर्स की पुस्‍तक पढ़ने बैठ गई, साथ ही पेंसिल से निशान भी लगाने लगी थी। हमेशा की तरह दोपहर को असरानी आये लेकिन कामना को नहीं बुलाया।

    विनोद के हाथों पेपर भेज दिये थे। उसने भी पेपर टाइप किये और वापिस भिजवा दिये। आज मिस्‍टर असरानी बात करने से बच रहे थे। शाम को साढ़े पांच बजे वह असरानी के केबिन में गयी।

    कामना से उन्‍होंने बैठने के लिये कहा और साथ ही उसे वेतन का लिफाफा पकड़ा दिया और अनजाने में ही दोनों के हाथ एक दूसरे से छू गये। कामना ने अपने बैग में वह लिफाफा रखकर दूसरा लिफाफा निकाला और असरानी जी को पकड़ा दिया था।

    असरानी ने लिफाफा खोलकर अंदर का पेपर पढ़ा और बोले - यह क्‍या? इस्तीफा दे दिया? आगे नहीं पढ़ोगी?’ इस पर उसने कहा – ‘यह आपकी चिंता का विषय नहीं है सर, मैं मैनेज कर लूंगी।‘ यह कह कर वह असरानी को हतप्रभ अवस्था में छोड़कर केबिन से निकल आई थी।

  • इसी बीच उसे पता चला था असरानी के ऑफिस के सामने पासपोर्ट एजेंट का ऑफिस था, जहां के इंचार्ज मिस्‍टर अरोड़ा थे। उन्‍होंने रिसेप्शन पर तीन लड़कियों को नियुक्त किया था। उस ऑफिस में काफी भीड़ रहती थी। बाहर गल्‍फ जाने को लालायित मज़दूरनुमा लोग बैठे रहते थे।

    पता नहीं, कहां कहां से और कैसे कैसे इंतज़ाम करके वे पैसा जमा करते होंगे। कामना असरानी के आने से पहले अरोड़ा के ऑफिस का चक्‍कर लगा लेती थी। उसे बहुत अच्‍छा लगता था वहां का काम और सब हंसते-बोलते थे।

    क़रीब साढ़े बारह बजे कामना एक लड़की को काउंटर से उठाकर लंच के लिये भेज देती थी और वह खुद उस लड़की का काम करती थी। मिस्‍टर अरोड़ा बहुत खुश होते थे। एक दिन बोले – ‘मैडम, अग़र दिल करे तो हमारा ऑफिस जॉइन कर लो।‘ उसने हंसकर कहा था – ‘देखूंगी’।

    बाद में पता चला था कि मिस्‍टर अरोड़ा ने एक दिन देर शाम तक एक लड़की को रोका था और शाम के धुंधलके में उसके साथ घृणित कार्य किया था। यह सुनकर वह हैरान रह गई थी और सोच लिया था कि वह किसी भी अकेले मर्द के केबिन में और अकेले मर्द के कमरे में नहीं जायेगी।

    मर्द...आखिर मर्द होता है और उसे पता होता है कि दिन में या किसी भी समय स्त्री अकेले क्‍यों आई है और समय किसने बताया होगा? निश्चित रूप से मर्द ने...और समय तय किया होगा स्त्री ने। तो ताली दोनों हाथ से बजती है।

    असरानी के ऑफिस से बाहर आकर उसने चैन की सांस ली थी और उसके चेहरे के सामने अकाउंटेंट का चेहरा चलचित्र की तरह आकर निकल गया था। ऐसे लोग न जाने ज़िंदगी में कितने और कई बार आयेंगे। उन सबको निकाल फेंकना होगा।

    शनिवार से वह फिर खाली थी। उसने घर में किसी को कुछ नहीं बताया था। हमेशा की तरह सारे काम करके और तैयार होकर घर से निकल गई थी और लाइब्रेरी चली गई थी। क्‍यों व्यर्थ में पिताजी और अम्मां को परेशान करे।

    उसे याद आया कि साबिया एक टॉबैको कंपनी में काम करती थी। उसने कुछ दिन पहले ही बताया था कि वहां टेलीफोन आपरेटर-कम-रिसेप्‍शनिस्‍ट की जगह खाली थी। उससे बात करने में कोई हर्ज़ नहीं था। घर के पास ही तो रहती थी वह।

    शाम को कामना उसके घर गई थी। नसीब कि वह घर पर मिल गई थी। सारी बात सुन कर वह बोली – ‘वहां अर्जेंट चाहिये। तेरा नसीब अच्‍छा है। अभी तक वह वेकेन्‍सी भरी नहीं गई है। तू सोमवार से आ सकती है क्‍या?’ हां, तुझे बोर्ड ऑपरेट करना आता है क्‍या?’

    इस पर कामना ने कहा – ‘नहीं, मुझे खाली टाइपिंग आती है। इस पर उसने कहा था - कोई बात नहीं। बोर्ड ऑपरेट करना एकदम इज्‍ज़ी है। मैं बता दूंगी।‘ कामना ने साबिया का शुक्रिया अदा किया और अपने घर की ओर चल पड़ी थी।

    नये ऑफिस का समय सुबह साढ़े आठ बजे से शाम के साढ़े पांच बजे तक था और आफिस महालक्ष्‍मी में स्‍टेशन के पास ही था। हिसाब लगाया कि अब उसे सुबह साढ़े सात बजे की ट्रेन पकड़नी ही होगी। एक नये तरीके का संघर्ष....अब वह सुबह चार बजे उठने लगी थी।

    थोड़ी देर पढ़ती थी और फिर तब तक रमेश जाग जाता और वह अपनी तैयारी करने लगता था...उसे कॉलेज जो जाना होता था। अंततः: सोमवार आ ही गया और वह घर के सारे काम करके निकलने को ही थी कि पिताजी बोले - बेटा, आज तुम जल्‍दी जाय रईऔं। का बात है?

    इस पर उसने इतना ही कहा – ‘पापा, हमने नौकरी बदल ली है। नई नौकरी महालक्ष्‍मी में स्‍टेशन के पास ही है। बाकी बात बाद में करेंगे। देर है रई है। साढ़े सात बजे की ट्रेन पकड़नौ ज़रूरी है’ और यह कहकर वह सर्र से निकल गई थी। इस समय उसे काम की सख्त ज़रूरत थी।

    एमए की शाम की कक्षाओं में अधिकतर नौकरी करने वाले ही आते थे। सबका रास्‍ता मुंबई यूनिवर्सिटी के लॉन से ही होकर जाता था। आसपास के ऑफिसों के वे लोग, जो इस शहर में अकेले थे, वे लोग, जो अविवाहित थे

    और वे विवाहित, जो जल्‍दी घर नहीं जाना चाहते थे, वे सब उस लॉन में गप्‍पबाजी के लिए बैठा करते थे। वहां से कॉलेज जाने वाली लड़कियों को देखते रहते थे। यहीं कामना की सोम से मुलाक़ात हुई थी। वे एक प्रतिष्ठित संस्थान में अधिकारी थे और दूसरे शहर से यहां पोस्टिंग हुई थी। शाम को वे भी अकेले होते थे।

    उनके दो मित्र कामना के साथ ही एमए कर रहे थे और वे निमित्त बने उन दोनों की दोस्‍ती के लिये। वैसे तो शाम को सब अक्‍सर साथ ही बैठते थे। एक वही थी जो नौकरी से भागते भागते आती थी और सबसे हैलो करके निकल जाती थी।

    एक बार जब वह रात को कॉलेज अटैंड करके निकल रही थी तो बाहर सोम को खड़े देखा। वह बरबस ही पूछ बैठी थी - आज घर नहीं गये क्‍या?’ - घर हो तो जाऊं न...सोच रहा था कि आज आपके साथ ही कुछ खाकर स्‍टेशन तक बात करते हुए जाया जाये। फिर आप अपनी राह और मैं अपनी राह।

    वह एक पल चुप रही...फिर बोली – ‘ओके। पर मेरा घर बहुत दूर है। मुझे देर हो जायेगी। एक ट्रेन छूटी तो दूसरी ट्रेन बीस मिनट बाद है। ख़ैर...आपने पहली बार कहा है तो इनकार नहीं कर पाऊंगी।‘

    इस तरह उन दोनों की दोस्‍ती की शुरूआत हुई थी। वे यूनिवर्सिटी से चर्चगेट की ओर पैदल चलते रहे। बस, यूं ही कुछ छिटपुट बातें हुई थीं। पहली बार में क्‍या बातें की जायें। स्‍टेशन से पहले एक रेस्‍तरां दिखाई दिया और वे दोनों उसी में चले गये थे।

    अच्‍छा रेस्‍तरां था। गुजरती तो रोज़ थी वहां से...लेकिन ट्रेन पकड़ने की आपाधापी में इस ओर कभी ध्‍यान ही नहीं गया था। जिस तरह से सोम ऑर्डर कर रहे थे, लग रहा था कि वह जगह उनके लिये नयी नहीं थी।

    उन्‍होंने पूरे खाने का ऑर्डर दे दिया। वह चुपचाप उस रेस्‍तरां को देखती रही थी। दोनों ओर से ही संभल-संभलकर बातें की जा रही थीं। खाना खाया। कामना ने घड़ी देखी तो रात के नौ बज चुके थे। सोम के चेहरे पर कोई हड़बड़ी नहीं थी और न जल्‍दी उठने की तमन्ना दिख रही थी।

    उसने कहा था – ‘बाप रे...रात के नौ बज गये, पता ही नहीं चला। आज तो घर पहुंचने में काफी देर हो जायेगी। पिताजी तो चिंता में आधे हो जायेंगे।‘ वह जल्‍दी से उठ खड़ी हुई थी।

    -…ओके आप एक काम कीजिये, आप आराम से डिनर कीजिये। मैं निकलती हूं। नौ बजकर दस मिनट की ट्रेन को पकड़ना बहुत ज़रूरी है। कल मिलते हैं।‘

    वह रेस्‍तरां से निकलने को ही थी कि सोम भी उठ खड़े हुए और बोले – ‘ओह...समय का पता ही नहीं चला। मैं घड़ी नहीं पहनता तो ध्‍यान भी नहीं गया। एक मिनट तो रुकिये’ और यह कहकर उन्‍होंने काउंटर पर बिल चुकाया। वेटर को टिप भी नहीं दी।

    दोनों जल्‍दी जल्‍दी स्‍टेशन की ओर चले और देखा कि रात के नौ बजकर दस मिनट की विरार ट्रेन लग चुकी थी और गार्ड हाथ दिखा रहा था। यानी ट्रेन चलने ही वाली थी। वह भागकर ट्रेन में चढ़ गई थी।

    उसने पलटकर भी नहीं देखा कि सोम खड़े थे या नहीं। जब ट्रेन चल पड़ी तब उसे याद आया और भागकर दरवाज़े पर आई तो देखा कि सोम खड़े थे। उसने हाथ हिलाकर बाय किया और सोम ने भी हाथ हिलाकर बाय कर दिया था।

    उस दिन वह रात को ग्‍यारह बजे घर पहुंची थी। पिताजी चिंता में लेटे थे। उसने उनके कुछ कहने से पहले ही सफाई दे डाली – ‘आज कुछ दोस्‍त मिलकर खाने चले गये थे। इसलिये देर हो गई। आप चिंता मत किया करो। दूर का मामला है।

    ....देर-सबेर हो जाती है। अब तुम सो जाओ पापा’ और वे करवट बदलकर खर्राटे लेने लगे थे। वह भी कपड़े बदलकर सोने चली गई थी। सुबह जल्‍दी जो उठना था। अम्मां आकर उसे चादर ओढ़ा गयी। अम्मां जो थीं।

    सुबह वह हमेशा की तरह उठी और काम निपटाकर स्‍टेशन की ओर चल दी थी। ठीक सवा आठ बजे वह महालक्ष्‍मी स्‍टेशन पर उतरी। वहां से पुल से नीचे उतरकर अपने नये ऑफिस टोबेको कंपनी पहुंची थी। वहां के मैनेजिंग डाइरेक्‍टर मिस्‍टर गोयल थे। वे आ चुके थे।

    साबिया ने कामना का परिचय कराया। वे बोले – ‘ठीक है। आप आज से हमारे यहां काम करेंगी। वेतन होगा 600 रुपये प्रति माह।‘ कहां रुपये दो सौ पचास और कहां रुपये छ: सौ...सीधा डबल...लेकिन हां, यहां से रेल के पास का पैसा नहीं मिलने वाला था और न नाश्‍ता

    ....नौकरी पूरे आठ घंटे की। वैसे कामना का गणित कमजोर था, पर इतना तो हिसाब लगा ही सकती थी। असरानी की कंपनी को भी इतना ही खर्च आता होगा। पेमेंट का तरीका अलग अलग था। कामना ने हामी भर ली थी।

    इस समय उसे नाश्‍ते से ज्‍य़ादा नक़द की ज़रूरत थी। साथ ही उसने अपनी बात कही – ‘सर, मैं साढ़े पांच बजे ऑफिस छोड़ना चाहूंगी। शाम को एलफिन्‍स्‍टन कॉलेज में मेरी एमए की कक्षाएं होती हैं।‘

    इस पर वे बोले - 7ठीक है। आप सवा पांच बजे निकल जाया करना। साबिया है, वह देख लेगी’। यह सुनते ही साबिया के चेहरे का रंग बदल गया था। पहला दिन उसने सीखने में लगाया और दूसरे दिन से विधिवत काम करना शुरू कर दिया था।