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गुजराती-हिन्दी की भाषाई नोंक झोंक  - 2

गुजराती -हिन्दी की भाषाई नोंक झोंक
संस्मरण-2
हमारे भारत की भाषाओं की यह बड़ी विशेषता है कि वे अलग अलग होते हुए भी मूल से जुड़ी रहतीं हैं. एक वृक्ष की अनेक शाखाओं की भांति. अस्तित्व अलग होते हुए भी आत्मा सभी में एक है. गुजराती भाषा भी कुछ ऐसी ही है. इसकी लिपि भी बहुत कुछ हिंदी से ही मिलती जुलती है. इसे हम हिंदी की बड़ी बहिन कह सकते हैं. यह एक प्राचीन भाषा है, जिसमें अद्भुत साहित्य रचा गया है जो कालांतर में हिंदी में अनुदित होता रहा है.
शायद कुछ पूर्व जन्म का ही दाना पानी रहा होगा कि हमारा सब कुछ छोड़ इस धरती पर आना हुआ और इसी से चिपक कर रहे गए.
बात अहमदाबाद गुजरात की ही है. गुजराती और हिंदी भाषा की रस्साकशी करीब करीब रोज ही चला करती थी.
गर्मियों के दिन चल रहे थे. एक दिन दोपहर की रसोई निबटा कर ए. सी. चलाकर मै अपनी पलकें झपका ही रही थी कि दरवाजे की घंटी 🔔 बजी. ऐसे समय में इसका स्वर बड़ा ही कर्कश लगता है.
ना चाहते हुए भी उठी. अनुमान लगाते हुए कि भला इस वक्त किसको मेरा ख्याल आया होगा और मेहरबान हुआ होगा.
दरवाजा खोला तो देखा, सामने वाले फ्लैट की पडोसन खडी़ है, मैंने एक नकली सी मुसकान बिखेरते हुए कहा, 'आइए'
अंदर आते ही बोली, ' तमे ऊंघता था? '
मैं चकित थी, इन्हें कैसे मालूम कि मैं सो नही रही थी, ऐसे ही ऊंघ रही थी!! मैं मुस्कुरा दी 'हाँ, ऐसे ही, बैठो कुछ काम था? ' मैने पूछा.
' हाँ, क्या हे ना, तमारा पाटला चाहिए'
'ओह! मैं लाती हूँ, लकड़ी का या प्लास्टिक का? '
'तमारे पास प्लास्टिक का भी है? उसने आश्चर्य से पूछा
'हाँ' मैंने सहज भाव से कहा
'ना, लाकड़ा को चालशे '
मैं गई और रूम से चौकोर पट्टा उठा लाई. वह चकित सी मुझे देखने लगी, ' यो सूं छै? '
'पाटला ' यही चाहिए ना.. '
सिर ठोकते हुई बोली, ' ना भई, अरे, तमे रोटी बणाओ ना, वो पाटलो. '
'हे भगवान!! वो? ' कहकर मैं रसोई में झटपट गई और चकला लेकर आई पूछा, 'यह?'
खुशी से उछलते हुए बोली, 'हां.. यही'
मैं हंँसते हुए बोली, 'आप इसे पाटला कहते हो? हमारे तो पाटला, पट्टा पूजा के काम आता है, जो मैं पहले लेकर आई थी '
'तो तमे इसको क्या कहते हो? ' वह मुझसे तालमेल बिठाते हुए बोली.
मैंने बड़ी शान से कहा, ' चकला'
'अई हो.. चकला!!!! ' कहकर जोर से हंँसी.. हमारे पता है चकला किसे कहते हैं? चकली का नर..
अब मेरी आँखें फटीं, ' चकली का नर? मतलब? '
लंबी साँस लेती हुई बोली, ' अरे! वो पंखी होती है ना, 'बर्ड ' उसका नर, चकला- चकली.
'ओह!! अच्छा चिडा़ और चिड़िया' एक नया पाठ समझते हुए मैंने कहा.
'चलो अब तमे ऊंघी जाओ, आवजो' उसने चलते हुए कहा.
मैंने उन्हें रोकते हुए पूछा, 'एक बात और बताती जाओ, यह ऊंघी जाओ का क्या मतलब? '
वह हँसते हुए बोली, ' सो जाओ'
ओह!! वह तो कहकर चली गई, ऊँघी जाओ, पर मैं तो कमरे में आकर न ऊँघ सकी और ना ही सो सकी. 😃😃. मैं हँसते हँसते अपना नया पाठ दोहराने लगी, शायद वह भी यही कर रही होगी.. हँसते हँसते..
© मंजु महिमा

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