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गुजराती हिन्दी की भाषाई नोंक झोंक - 3

गुजराती हिन्दी की भाषाई नोंक झोंक
संस्मरण-4 ढाबा
गुजरात में रहकर गुजराती के नए शब्दों को जानने में बडा़ मज़ा आ रहा था. विशेष कर ऐसे चिर परिचित शब्दों के गुजराती में अर्थ. गुजराती भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता था, लेकिन वह भी गुदगुदा जाता और बहुत देर तक हँसी के फव्वारे छूटते रहते. आज भी वही अनुभूति हो रही है लिखते समय.
अक्सर घर के कामकाज मैं भूल ही जाती थी कि मैं कि अहमदाबाद में रह रही हूँ. एक संध्या की बात है, मैं थोड़ा निश्चिंत होकर चाय पी रही थी. बच्चे सामने वाली बिल्डिंग में मित्र के यहाँ उसका जन्मदिन मनाने गए हुए थे. पतिदेव अपने होटल की ड्यूटी पर थे. सोच ही रही थी कि इस समय का सदुपयोग कैसे किया जाए? तभी मेरी पडोसन आईं, मुझे खाली बैठा देख कहने लगी हम लोग ढाबे पर जा रहे हैं, आपको चलना है?
'ढाबा? अभी कैसे? '
'यूँ ही थोड़ा घूम लेंगे. '
मैंने सोचा यूँ ही फालतू बैठी हूँ, अच्छा टाइम पास ह़ो जाएगा, सो सोचते हुए कहा, 'अच्छा चलती हूँ, 5 मिनट दो, तैयार होकर आती हूँ.'
'अरे! वहाँ के लिए क्या तैयार होना, जल्दी चलो नहीं तो अंधेरा हो जाएगा.'
'बस आई.. ' कहकर मैं अंदर भागी, सोच रही थी, उसने ऐसा क्यों कहा? हाई वे तक जाएंगे तो अंधेरा तो वैसे ही हो जाएगा.. जल्दी से बाल ठीक किए, पर्स उठाया और जल्दी से ताला लगाया. वे लोग बाहर ही खड़े थे. वह मुझे ऊपर से नीचे देख मुस्काई, फिर हाथ में पर्स देख बोली - अरे! इसकी क्या जरूरत है? मैंने मुस्काते हुए जवाब दिया, यह तो ऐसे ही'
खैर हम लोग लिफ्ट की ओर बढ़ गए. लिफ्ट में उन्होंने 11 वें फ्लोर का बटन दबाया, मैं चौंकी, फिर सोचा शायद और भी किसी को लेना होगा. जैसे ही लिफ्ट का दरवाजा खुला सब बाहर निकले, वहाँ तो कोई नहीं था.
सीढियाँ चढकर गए तो देखा हम लोग छत पर आगए थे. ठंडी हवा के झोंके ने बहुत प्यार से स्वागत किया.. सभी को बडा़ सकून मिला.
हमारी बिल्डिंग के पिछवाड़े से साबरमती नदी नज़र आती थी. उसी साइड में सूर्यास्त होता था. देख मन खुश हो गया. हम लोग जब पहले फ्लोर पर रहते थे, सो यह दृश्य देखने को ही नहीं मिलता था. मैं मंत्रमुग्ध हो सूर्यास्त देखने लगी, सूरज धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा था, अद्भुत दृश्य था. तभी मुझे ढाबे का ध्यान आया.
मैंने पूछा, ' अरे! हम तो ढाबे पर जाने वाले थे ना!! '
मेरी पडोसन ने अचरज भरी नज़रों से मुझे देखा और कहा, ' 'यह क्या है, जहाँ तुम खडी़ हो.'
'क्या!! इसे तुम ढाबा कहते हो? मै तो समझी...' मेरी तो अपनी बेवकूफी पर हँसी ही नहीं रुक रही थी.OMG
'और नहीं तो क्या❓ तुम किसे कहते हो? '
मैंने हँसते हुए कहा, ' वह हाई वे पर जो खाने की खुली जगह होती है ना, जहाँ खाटें लगी होती हैं, उन्हें ढाबा कहते हैं.'
'ओ हो, तो तुम वह समझकर तैयार होकर, पर्स लेकर आए.'
अपनी अपनी भाषा की समझ पर हम हँसते हँसते लौट कर बुद्धू घर को आए.
बोलो हिंदी गुजराती जिंदाबाद.. 😄😄😃😃

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