आवारा अदाकार
विक्रम सिंह
(1)
’’मुश्किलें दिल के इरादे आजमाती हैं, स्वप्न के परदे निगाहों से हटाती हैं।
हौसला मत हार गिरकर ओ मुसाफिर,ठोकरें इन्सान को चलना सिखाती हैं।
(रामधारी सिंह ’दिनकर’)
आप लोगों ने अखबार में कई बार पढ़ा होगा कि फंला जी पहले बस कन्डक्टर हुआ करते थे। इत्तेंफाक से ऐसे ही एक बस में एक बार कोई फिल्म निर्देशक जा रहा था। बस कन्डक्टर के टिकट काटने के अंदाज से निर्देशक इतना प्रभावित हुआ कि उसे अपनी फिल्म में ले लिया........ या अपनी माँ के साथ वो पार्टी में गई थी। वहीं डायरेक्टर साहब ने उसे देखा और फिर अपनी फिल्म में हीरोइन ले लिया आदि... आदि। अभी-अभी मैंने अपने एक मित्र के बारे में पढ़ा कि वो किसी फाॅइव स्टार होटल में वेटर की नौकरी कर रहा था। वहीं खाना सर्व करते समय डारेक्टर से मुलाकात हुई और उसे फिल्मों में काम मिल गया। पढ़ कर ऐसा लग रहा था जैसे मुम्बई में हलवा बट रहा हों। मुझे मन ही मन हंसी आ रही थी। आप भी यही सोच रहे होगे कि सारे लोग इतना पढ़-लिख कर नौकरी के लिए जूते घसीटते रहते हैं, फिर भी कुछ नहीं होता। खैर,अचानक ही आज मुझे मेरे मित्र की याद आ गई। यह उन दिनों की बात है, जब मल्टीप्लेक्स सिनेमा नहीं होता था। आॅनलाइन टिकट की बूकिंग भी नहीं होती थीं। उल्टा टिकट का ब्लैक होता था। एक हाॅल में एक ही सिनेमा चलता था और टिकट के लिए क्या मारा-मारी होती थी। देखते ही बनता था। हाॅल के अंदर एक सिनेमा और बाहर एक और सिनेमा। उन दिनों मैं कोलियरी के कॉलोनी में रहा करता था। मेरा मित्र भी उसी कॉलोनी में रहता था। हम दोनो के पिता एक ही कोलियरी में काम करते थे। मित्र क्या था, समझिये एक कलाकार था। वह शौकिया तौर पर मंच पर नाटक किया करता था। वो भी साल में एक बार ही होता था जिसमें उसे अभिनय का मौका मिल जाता था। दरअसल हम प.बंगाल के छोटे से शहर रानीगंज में रहा करते थे। वहाँ हर साल माँ दूर्गा के विर्सजन के बाद नाटक प्रतियोगिता हुआ करती थीं। इस प्रतियोगिता में कॉलोनी के लड़के भी भाग लिया करते थे, जिसमें मैं भी होता था। हम सब शौकिया तौर पर महीने भर पहले ही नाटक की तैयारी करने लगते थे। शौकिया तौर पर ही सही, मगर मेरा मित्र गुरूवंश मंच पर अपनी छाप जरूर छोड़ जाता था। फिर उसने कई थियेटर ग्रुप के साथ भी काम किया। खैर मेरा मित्र हमेशा ही कॉलोनी में चर्चा का विषय हुआ करता था। मुम्बई में फिल्मों में काम तलाशने की वजह से। उसे मुम्बई में काम के सिलसिले में घूमते हुए करीब दो साल हो गये थे। फिर भी उसकी हालत वैसी ही थी जैसे दो साल पहले थी। इन दो सालों में उसके मुम्बई में कई जानने वाले भी हो गये थे ,मगर वो उसके किसी काम के नहीं थे। ऐसा मैं नहीं वह खुद कहा करता था। जब उसे मैं यह कहता,’’यार दो साल हो गये तुझे मुम्बई में घूमते हुए। बहुत सारे लोग तुझे जान भी गये होंगें। फिर भी काम नहीं मिल रहा।’’ वह कहता,’’क्योंकि वो भी वहीं खड़े है जहाँ मैं।’’ लेकिन उसने अभी तक हार नहीं मानी थी। अपने मुकाम तक पहुँचने के लिए उसने एक फाॅइव स्टार होटल में वेटर की नौकरी पकड़ ली थी। बस यही वजह थी कि कॉलोनी में उसकी चर्चा जोरो से शुरू हो गई थी कि चला था हीरो बनने और बन गया वेटर। वैसे मुम्बई जैसे शहर में यह कोई नई बात नहीं थी। कई लड़कियाँ भी यहाँ हीरोइन बनने आती हैं मगर बार डाॅन्सर बन कर रह जाती है। दरअसल लोगों का मानना है कि वह हीरो बनने की वजह से नहीं, प्यार की वजह से वेटर बन गया था। इसका मुख्य कारण यह था कि प्यार की वजह से उसकी पढ़ाई भी अधूरी रह गई थी। उसके अधूरे प्यार और अधूरी पढाई के पीछे एक लम्बी कहानी है। तो चलिए इस लम्बी कहानी को परत दर परत खोलतेे हैं।
जैसा कि मैंने पहले ही कह दिया था कि वह हमेशा कॉलोनी में चर्चा का विषय हुआ करता था, सही मायने में वह कॉलोनी में उसी दिन से चर्चा में आ गया था जब वह हैवी ड्राइविंग लाइसेन्स बनवाने गया था और उस दिन उसके दलाल ने उसे धोखा दिया और लाइसेन्स बनने के पहले उसे ट्रक पर चढ़ा दिया गया। दरअसल हुआ यूँ कि गाड़ी स्ट्रार्ट कर पिकअप ज्यादा दे दिया। गाड़ी सामने के एक पेड़ से टकरा गई। उस दिन खूब हो-हल्ला हुआ था। वह चर्चा का विषय बन गया। कॉलोनी में सब यह कहने लगे कि यह भी प्यार की वजह से हुआ है। मैं जानता हूँ आप उत्सुक हो रहे होेंगे कि आखिर मुम्बई, हैवीड्राइविंग लाइसेन्स और प्यार के बीच क्या कंक्शन है? चूंकि यह सब बताने के पहले थोड़ा मैं अपने मित्र का परिचय आप लोगों से करा दूँ। मित्र का जन्म एक सिख फैमिली में हुआ था।। मगर उसके सिर पर केश पगड़ी नहीं थी। शुरुवात में कुछ दिनों तक उसके सिर पर केश रहे। जब भी स्कूल जाने के वक्त माँ (जिसे वह मम्मी कह कर पुकारता था।) उसके केश संवारती थी वह मम्मी के पास ठीक से टिकता नहीं था। उसके बाल संवारने में मम्मी के पसीने छूट जाते थे। अर्थात जितना संवारने की कोशिश करती उतने ही उसके बाल और मम्मी दोनों ही उलझ जाते थे। यह तमाशा हम देखते ,सुनते रहते थे। जब हम सब तैयार होकर स्कूल के लिए रिक्शे में बैठ जाते तो हर दिन वह सबके बाद में लेट मुँह फुलााये आता और चुपचाप रिक्शे में बैठ जाता। सो मम्मी ने अपना पसीना सुखाने का उपाय यह निकाल लिया कि उन्होंने उसके बाल कटवा दिये। उन दिनों इस पर कोई सवाल खड़ा नहीं हुआ। मगर जब वह बड़ा हुआ और लोगो को पता चला कि वे सरदार है तो लोग उसके केश के बारे में कहते-पूछते अच्छा तो इंदिरागाँधी के मर्डर के समय तुमने भी केश कटवा लिया होगा।’’ उसके पास इस सवाल का कोई जबाव नहीं होता था। खैर वो मौना सरदार हो गया था। केश न रखने के पीछे जो कहानी उसने मुझे बताई थी उसका ही जिक्र मैंने ऊपर किया है। खैर पापा (जिन्हें वो डैडी कहकर पुकारता था) मैकेनिकल फिटर थे। कुल मिलाजुलाकर वो मात्र दसवीं तक ही पढ़े थे। अब यह भी बता दूँ कि इस कॉलोनी में सबके पिता नाॅन मैट्रिक ही थे । कोई-कोई तो अगूंठा छाप भी थे। खैर उन दिनों सरकार की तरफ से एक साक्षरता अभियान चलाया गया था। हर रात किसी ना किसी जगह लोगों को बैठा कर कम से कम इतना पढ़ाया जा रहा था कि वो अपना सिगनेचर करना सीख जांए। इस मुहिम के तहत वह कुछ हद तक क,ख,ग सीख भी गये। सही मायने में उसके पापा चाहते थे कि वो सभी खूब पढ़ें-लिखे। इसके लिए वो पैसे खर्च करने के लिए भी तैयार थे। वो तीन भाई थे। तीनों भाईयो में बस उम्र को छोड़ कर इतना फर्क था कि छोटा भाई दोनो भाईयों से तेज था। वो पढने-लिखने में कमजोर जरूर था पर मेहनती था। उसने दसवीं और बारहवीं में भी खूब मेहनत की। हाँ,उसने दो-दो ट्यूशन भी लगा रखा था। टयूशन तो वो सातवीं से ही पढ़ रहा था। उन दिनों कॉलोनी में राजनारायण नाम के एक टीचर थे। कॉलोनी के सारे बच्चे उनके पास टयूशन पढ़ने जाते थे। मैं भी उनके पास ही जाता था। हाँ राजनारायण सर के टयूशन पढ़ने के दौरान ही उसने पहली बार ’’बबनी कुमारी’’ को देखा था। इसी तरह उसने भी उसे देखा था। पहली बार देखने का नतीजा यह था कि दोनों एक दूसरे को बार-बार देखने लगे। वो एक दूसरे को क्यों देख रहे हैं? यह न उसे पता था न बबनी को । बात बस इतनी थी कि आँखें हैं तो देखेगे ही। मगर कुछ दिनों बाद मित्रों ने गुरूवंष से कहा, ,’’ अबे बबनी तो तुझे लाइन दे रही है।’’ इस लाइन मारने की अफवाह तब पुख्ता हुई जब वो आठवीं में था और राजनारयण से टयूशन पढ़ना छोड़ दिया था। उसे घर पर ही माधव पाल नाम के शिक्षक पढ़ाने आने लगे थे। वह बबनी के बारे में कुछ भी नहीं सोचता था। ऐसे ही वक्त में मेरी पड़ोस की एक लड़की जिसका नाम रीता था, उसके पास गई और कहा,’’सुनो तुमसे एक बात करनी है।’’
उसने कहा,’’हाँ बोलो।’’
’’सुनो’’
’’सुनाओ’’
’’बबनी के पीछे एक लड़का हाथ धोकर पड़ा है।’’
’’तेा’’
’’तेा का जवाब यह है कि बबनी ने उस लड़के से कहा है कि वह तुमसे प्यार करती है।’’
’’ वो मुझसे प्यार करती है ऐसा क्यों कहा?’’
’’उससे पीछा छुडाने के लिए’’
’’तो क्या वो इससे उसका पीछा छोड़ देगा?’’
’तुम बेवकूफ हो’’
’’क्या कहा?,’’
’’कुछ नहीं,जैसे शादीशुदा कह देने से कोई लड़का किसी लड़की के पीछे नहीं पड़ता, वैसे ही पहले से बाॅयफ्रैन्ड है बता देने से पीछा छूट जाता है।’’
’’ठीक है उससे कह दो कि हम उससे प्यार करते हैं।’’
फिर वह चली गई थी। दरअसल वह इस बात की टोह लेने आई थी कि मित्र सही में कही उससे प्यार तो नहीं करता।
उस दिन के बाद से दोनो एक दूसरे को कुछ ज्यादा ही देखने लगे थे। उसे देख कर वह ऐसा महसूस करता जैसे वह बबनी की मदद कर रहा है। इसी देखने-दिखाने के क्रम में वो उसकी आँखो में समा गई। फिर उसे बार-बार देखने की आदत हो गई। चूकि गुरूवंश की छत से उसके घर का बरामदा दिखता था इसलिए छत पर चढ-चढ कर वो उसे देखने लगा। इसी चक्कर में अब तो सुबह उठते ही वह ब्रश लेकर छत पर चला जाता। खूब देर तक दाँतों में ब्रश रगड़ता रहता। छत पर ही इधर-उधर थूकता भी जाता। बस इसी ध्यान में रहता कि कब वो बरामंदे में आये और वो उसे देखे।
……..