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पहला कदम

पहला कदम

पवित्रा अग्रवाल

आज बुआ फिर आई थीं. बुझा बुझा सा मन, शिथिल सा तन, भावहीन चेहरा देख कर मैं दुखी हो जाती हूँ. जब फूफाजी जीवित थे, एक स्निग्ध सी मुस्कराहट बुआ के व्यक्तित्व का हिस्सा थी. हर समय मैं ने उन्हें खुश देखा था. बीमारी में भी उन्हें कभी मुह लटकाये या हाय हाय करते नहीं देखा था. एक मेरी माँ हैं हर समय खीजती, झुंझलाती रहती हैं जैसे उनसा दुखी इन्सान कोई दूसरा नहीं. ज़माने भर के सारे गम भगवान ने जैसे उनकी झोली में ही डाल दिए हों. पर बुआ अपने जीवन में बड़ी संतुष्ट थीं. कम से कम देखने वाले को तो ऐसा ही महसूस होता था. एसा भी नहीं कि उनके जीवन में उलझनें नहीं थीं. बच्चों की पढाई की वजह से उन्हें फूफा जी से अलग रहना पड़ता था क्यों कि फूफा जी की तबादले वाली नौकरी थी. कहीं छह महीने, कही साल तो कहीं दो तीन साल भी उन्हें रहना पड़ जाता था. इस अनिश्चितता की वजह से बच्चों की पढाई में बाधा पड़ती थी, इसलिए बुआ इस कसबे में बच्चों के साथ रहती थीं. फूफा जी जब तब आते रहते थे. छुट्टियों में बुआ बच्चों के साथ उनके पास चली जाती थीं. मुझे याद है आसपास की महिलाएं अक्सर बुआ से मजाक करतीं व उन्हें छेड़ती रहती थीं – ‘अरे रेड्डी गारु पर नजर रखना. तुम यहाँ रहती हो वह बाहर अकेले रहते हैं... आंध्रा में तो दो बीबी रखने का रिवाज सा रहा है. किसी दूसरी के जाल में फंस गए तो सारी उम्र पछताओगी. ’

कभी बुआ हंस कर टाल देती थीं तो कभी कह भी देती थीं –‘इस तरह की बातें मैं नहीं सोचती, यह रिश्ता विश्वास का है और विश्वास पर दुनियां कायम है. बिना किसी आधार के मैं शक करूँ या भविष्य की कल्पना करके अपने सुखी वर्तमान को दुखी बनाऊं, यह मुझे पसंद नहीं. फिर भी यदि किस्मत में वैसा लिखा है तो जब होगा तब सोचेंगे कि क्या करना है ’.

बुआ का घर हमारे घर से बहुत दूर नहीं था. एक दिन अचानक हैदराबाद से फूफाजी के एक्सीडेंट का समाचार आया था कि ‘हालत गंभीर है, सर में बहुत चोट आई है’, सुन कर माँ, पापा बुआ तभी चले गए थे किन्तु मौत किसी छलिया सौत सी फूफा जी को बुआ से छीन कर लेजा चुकी थी. बुआ की जिंदगी रेगिस्तान बन गई थी और छोटे बड़े झंझावतों से निरंतर जूझते रहना उनकी नियति थी. फूफाजी पांच बच्चे छोड़ गए थे, तीन बेटियां, दो बेटे. सबसे बड़ी कात्यायनी सोलह साल की रही होगी. तब वह इंटर प्रथम वर्ष में पढ़ रही थी. उससे छोटा राघव हाई स्कूल में था. मुझे याद है सब रिश्तेदारों का सुझाव था की जल्दी से जल्दी कात्यायनी की शादी करदी जाये तो एक जिम्मेदारी ख़तम हो जायेगी. बाकी की दोनों तो अभी बहुत छोटी हैं. शादी के कई रिश्ते भी आये थे लेकिन बुआ ने मना कर दिया. उनका कहना था कि बिना बाप की बच्ची है पर माँ तो अभी जिन्दा है न. उसे मैं खूब पढाऊँगी ताकि भविष्य में जरुरत पड़ने पर वह आत्मनिर्भर बन सके. उसके पिता की इच्छा अपने बच्चों को खूब पढ़ाने की थी, रिश्तेदारों को बुरा भी लगा पर बुआ अपने फैसले पर अडिग थीं.

वह ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं थीं, हाई स्कूल पास थीं. उनकी योग्यता के हिसाब से उन्हें फूफाजी के दफ्तर में ही नौकरी मिल गई थी. छोटे बच्चों को घर में छोड़ कर कैसे ऑफिस जाऊँगी यह सोच कर वह परेशान थीं. हमारी दादी हमारी मम्मी से परेशान थीं और हमारी मम्मी को भी अपनी सास यानि हमारी दादी का साथ रहना अच्छा नहीं लगता था. दादी को राह मिल गई थी और वह बुआ के साथ रहने चली गई थीं. अपनी माँ का साथ पाकर बुआ की परेशानियाँ कम हो गई थीं.

हैदराबाद में मकान बनाने के लिए फूफा जी ने प्रोविडेंट फंड से लोन लिया हुआ था, अतः आफिस से तो ज्यादा पैसा नहीं मिला था. हाँ बीमा कंपनी से बुआ को करीब अस्सी हजार रुपये मिले थे जिन्हें वह बैंक में फिक्स करना चाह रही थीं पर हमारे पिता का कहना था कि बैंक में पैसा रखने से अच्छा है तुम वह रुपये मुझे देदो. मैं तुम्हारे नाम से कोई जमीन खरीद देता हूँ... प्रापर्टी पर बहुत तेजी से दाम बढ़ते हैं, कुछ वर्षों में ही तीन चार गुने हो जायेंगे, जब जरुरत हो बेच लेना. ’

बुआ ने बीस हजार अपने पास रख कर साठ हजार अपने भाई यानि हमारे पिता को देदिए थे. फूफा जी की म्रत्यु हुए करीब सात आठ वर्ष हो चुके हैं. बुआ उनकी मौत के दो वर्ष बाद ही हैदराबाद चली गई थीं क्यों कि बच्चो की पढाई की सुविधाएँ वहां अधिक थीं.

वही बुआ रात भर का सफ़र कर के हैदराबाद से आई हैं. करीब करीब हर महीने आती हैं, पापा से अपने पैसे वापस मांगने और यहाँ से हर बार कोई नया बहाना बना कर, नये आश्वासनों के साथ बैरंग लिफाफे की तरह लौटा दी जाती हैं. बुआ को ड्राइंग रूम में बैठा कर मैं माँ के स्नान घर से बाहर आने की प्रतीक्षा कर रही थी. उनके आते ही मैंने उन्हें बुआ के आने की सूचना दी थी तो माँ ने मुझे डांट दिया –‘अरे कह देती पापा बाहर गए हैं, चार पांच दिन में वापस आयेंगे... . जब देखो तब पठान की तरह तकाजा करने चली आती हैं... उनका पैसा खाना थोड़े ही है, जब होगा तब देदेंगे ’

‘अम्मा बुआ को तुम्हारे घर आने का कई शौक नहीं है. अकेली औरत के लिए नक्सलवादी इलाके में रात को बस का सफ़र करना खतरे से खाली भी नहीं है... किन्तु बेचारी मजबूर हैं. जब तक तुम उनका पैसा नहीं लौटाओगी इसी तरह उन्हें धक्के खाने पड़ेंगे... . पापा से कह कर उनके रुपये अब तो वापस करा दो माँ. अब तक तो बैंक में भी उनके पैसे डबल हो जाते, यहाँ तो उनका मूल धन भी फंस गया है ’

‘अच्छा ! तेरे को इतना पढाया लिखाया, अब तो तू हमें ही कानून पढाने लगी है और गैरों की तरफदारी करने लगी है ’

‘वो गैर नहीं हैं अम्मा. जो रिश्ता तुम्हारा मामा से है, वही रिश्ता बुआ का पापा से है. जब मामा गैर नहीं हैं तो बुआ गैर कैसे हो गई ? ’

‘श्रीलता, तेरी जवान आज कल बहुत चलने लगी है. तेरी ही वजह से उसका पैसा फंसा रखा है. उसका बेटा राघव डाक्टरी की पढाई कर रहा है. चिराग लेकर ढूंढने पर भी वैसा लड़का अपनी बिरादरी में नहीं मिलेगा और मिल भी गया तो लाखों रुपयों की मांग होगी. मैं तेरी शादी उससे करना चाहती हूँ. हमें उसका एक पैसा नहीं रखना है, ब्याज के साथ सब लौटा देंगे. मैं तो सोचती थी कात्यायनी की शादी भी हम ही करा दें. एक रिश्ता लेकर तेरे पापा हैदराबाद उनके पास गए भी थे. माँ बोले तो बोले उनकी बेटी कात्यायनी ने भी तेरे पापा की कैसी इज्जत उतारी थी. क्या नहीं कहा उनसे ?... कहा था मामा तुम्हारा नाम दया शंकर नहीं कंस मामा होना चाहिए था जो अपनी बहन और उसके बच्चों का दुश्मन बना है. एक बच्चे के बाप, जिसकी बीबी ने जल कर आत्महत्या करली थी, उस से मेरी शादी करना चाहते हो ?... कितनी दलाली मिली है तुम्हे ? बहुत अच्छा है तो उससे अपनी बेटी की शादी क्यों नहीं करा देते ?’

‘कात्यायनी अक्का ने कुछ गलत नहीं कहा अम्मा. मेरे लिए कोई ऐसा रिश्ता लाता तो मैं भी ऐसा ही कहती. अम्मा एसा कौन सा एब है जो उस आदमी में नहीं है... तंग आकर उसकी पत्नी ने आत्महत्या करली थी और पापा उससे कात्यायनी अक्का की शादी कराने की सोच रहे थे... ऐसा तो कोई दुश्मन ही कर सकता है, शुभचिन्तक नहीं ’ अम्मा बुआ के पास चली गई थीं.

बिना पढ़ी लिखी मेरी माँ इतनी षडयंत्रकारी और जालिम हो सकती हैं देख कर मुझे अचरज होता है. तभी ड्राइंगरूम से माँ ने मुझे पुकारा था ‘श्री लता बुआ के लिए चाय नाश्ता ले कर आ’... मैं समझ गई थी की बुआ को शादी के लिए पटाना है इसीलिए उनकी आवभगत की जा रही है.

अम्मा की आवाज मुझे रसोई घर में भी सुनाइ दे रही थी –‘राघव की शादी के बारे में क्या सोचा है तुमने ? मुझे वह बहुत पसंद है. मैं श्री लता की शादी राघव से करना चाहती हूँ... अपनी श्रीलता भी देखने में सुन्दर है बी ए पास है... पैसे की चिंता तुम मत करो. तुम्हारे भाई तुम्हारा पैसा लौटने के लिए परेशान हैं. एक जमीन बेचने को तैयार हैं... अच्छा ग्राहक मिलते ही सौदा कर देंगे और वह पैसे तुम्हें ही देंगे. ’

यह बात तो तुम पिछले छह साल से कह रहे हो पर जमीन का ग्राहक तुम्हें अभी तक नहीं मिला... जाने मिलेगा भी या नहीं ?... मेरे इन पैसों का श्रीलता की शादी से क्या सम्बन्ध है …शादी पैसे लौटाने की शर्त है क्या ?’

‘नहीं ऐसा कुछ नहीं है. तुम्हारा पैसा तो तुम को देना ही है पर मेरी दिली इच्छा है की राघव को ही अपना दामाद बनाऊ ’

‘राघव ने अभी एम. बी. बी. एस. पूरा नहीं किया है. उसके बाद वह एम. डी. करना चाहता है, उसके बाद शादी की सोचेंगे. उस से पहले तो कात्यायनी की शादी करनी है. हाथ में पैसा हो तो कहीं शादी की बात भी करूँ. बिना पैसे के तो मेरी बेटी ऐसे ही रह जाएगी, बिना शादी के. तभी तुम्हारे यहाँ चक्कर लगा रही हूँ. मेरे पैसे लौटा दो, मुझे ब्याज भी नहीं चाहिए ’

‘आज तक किसी की बेटी बिना शादी के रही है जो तुम्हारी रह जाएगी... हम लोग हैं न... सब मिल कर कोशिश करेंगे. तुम राघव से श्रीलता की शादी के लिए हाँ करदो बस, शादी की हमें कोई जल्दी नहीं है, बाद में कर लेंगे ’

‘राघव अब बड़ा हो गया है, मैं उससे जबरदस्ती नहीं कर सकती. एक बार मैं ने श्रीलता के बारे में उससे बात की थी तो उसने कहा – ‘मैं निकट रक्त सबंधों में शादी के खिलाफ हूँ, ऐसी शादियाँ करना मेडिकल पॉइंट आफ व्यू से ठीक नहीं हैं... बच्चे शारीरिक, मानसिक रूप से विकलांग पैदा हो सकते हैं और भी बहुत कुछ हो सकता है. ’

‘रहने दो यह बातें, हमेशा से हम लोगों में एसी शादी होती आ रही हैं. तुम्हारी और मेरी शादी भी सगी बुआ के बेटे से हुई थी. हमारा तुम्हारा कौन सा बच्चा ख़राब या विकलांग है ?’

‘अब उससे बहस तो मैं नहीं कर सकती. अपने ही पैसे वापस लेने के लिए श्रीलता से उसकी शादी जबर्दस्ती करा भी दूं तो क्या गारंटी है वह तुम्हारी बेटी को खुश रखेगा ?’

अम्मा ने बुआ से न जाने क्या कहा था कि वह पापा से बिना मिले ही वापस लौट गई थीं... शायद रोती हुई. वैसे हमेशा ही वह रोती हुई लौटती हैं. उनके जाते ही मैं अम्मा पर बरस पड़ी थी –‘तुम क्यों राघव के पीछे पड़ी हो, मुझे उससे शादी नहीं करनी. मेरे जीवन को, मेरी छोटी छोटी खुशियों को दाव पर मत लगाओ माँ. उनकी मजबूरी का फायदा उठा कर मुझे उनके गले में बांधने की कोशिश क्यों कर रही हो ?मुझे जान बूझ कर कुए में मत फेंको. तुम्हारे द्वारा इतना सताए जाने के बाद भी क्या वो तुम्हारी बेटी को प्यार या उचित सम्मान दे सकेंगे ? मैं उस घर में सर उठा कर चल सकूंगी ? तुम्हारे गुनाहों की वजह से, मैं तो वैसे ही शर्मिंदा हूँ... मुझे वहां शादी नहीं करनी है. बुआ चाहेंगी तब भी नहीं ’ कह कर मैं वहां से हट गई थी. तभी पडौस की राव आंटी आ गई थीं, वह माँ से कह रही थीं ‘तुम्हारी ननद आज रोती हुई लौटी हैं... कुछ कहा सुनी हो गई थी क्या ?’

‘अरे नहीं वह अपनी बेटी की शादी को लेकर परेशान हैं... उन्हें पचास साठ हजार रुपयों की जरुरत है... तुम तो जानती ही हो अपनी भी चार बेटियां हैं. इतनी बड़ी रकम कहाँ से देदें ?कहीं से इंतजाम करा भी दिया तो वह वापस कहाँ से करेगी ? इसी लिए दुखी है, हम भी क्या करें ?’

मैं माथा थाम के बैठ गई थी, ओ माँ तुम इतनी झूठी हो यह मुझे अब तक नहीं पता था. मुझे क्या होता जा रहा है, दिन पर दिन मैं माँ के खिलाफ होती जा रही हूँ. उनका व्यवहार असहय होता जा रहा है. मन करता है जाकर सब के सामने उनका असली रूप प्रकट करदूं. सब से कहूं वह बेईमान और धोखेबाज हैं. इस घर में अब एक मिनट भी दिल नहीं लगता, दम घुटता है मेरा यहाँ... कहीं दूर भाग जाने की इच्छा बलवती होने लगती है, पर कहाँ जाऊं ?

पहले मुझे यह सब बातें विस्तार से नहीं मालूम थीं. जब बुआ आती थीं तो मैं अक्सर स्कूल में होती थी. घर में होती भी थी तो अम्मा वहां बैठने नहीं देती थीं फिर कभी इतनी रूचि भी नहीं रही थी कि कुछ जानने की कोशिश करूँ. एक बार बुआ की बेटी कात्यायनी अक्का भी उनके साथ आई थी. तब उन्ही से सब कुछ जाना था. अक्का ने बड़े करुण स्वर में कहा था –‘श्रीलता मामा –मामी से कह कर हमारे रुपये वापस करा दे न, हम बहुत परेशानी मे हैं. जैसे अपनी संतान को सही राह दिखाना माता पिता का काम होता है वैसे ही माता पिता द्वारा जाने अनजाने में यदि कुछ गलत हो रहा है तो बच्चों में उसका विरोध करने का साहस होना चाहिए. ’

तभी कात्यायनी अक्का ने एक घटना सुनाई थी—‘जब हमारे पिता जीवित थे तब उन्होंने हैदराबाद में मकान बनवाते समय अपने एक दोस्त से पंद्रह-बीस हजार रुपये यह कह उधार लिए थे कि एक दो महीने में ऑफिस से मिलते ही लौटा दूंगा. जब ऑफिस से रुपये मिले तो मेरे छोटे भाई बहन पीछे पड़ गए कि फ्रिज और टी वी चाहिए. पापा भी लाने को तैयार हो गए थे. मैं ने पापा को याद दिलाया कि यह रुपये तो आप को अपने दोस्त को वापस देने हैं. पापा ने लापरवाही से कहा मकान का किराया आना शुरू हो गया है. थोड़े पैसे ऑफिस से अभी और आने हैं, तब लौटा दूंगा. बच्चे बहुत दिन से टी वी, फ्रिज की फरमाइश कर रहे हैं, पहले वही ला देता हूँ ’... पर मैं अड़ गई थी ‘हमें अभी कुछ नहीं चाहिए, पहले कर्जा वापस करिए. यह सामान बाद में भी आ सकता है. ’

पापा बहुत खुश हुए थे ‘थैंक यू कात्यायनी मैं बच्चों के मोह में भटक गया था, तुम ने बिलकुल ठीक कहा, पहले हमें कर्जा वापस करना चाहिए. ’

कात्यायनी अक्का के जाने के बाद भी उनकी बातें मेरे कानों में गूंजती रही थीं ‘हम मामा से कोई खैरात तो नहीं मांग रहे. पापा के बाद अब पैसा ही हमारी डूबती नाव को पार लगा सकता है. वो पैसा उनके मेहनत की गाढ़ी कमाई का था. पैसा न होने की वजह से सलेक्शन के बाद भी मैं मेडिकल में दाखिला नहीं ले पाई क्यों कि हम दोनों भाई बहनों की मेडीकल की पढाई का खर्चा अम्मा नहीं उठा सकती थीं. इसीलिए मैं ने राघव को एडमीशन लेने दिया, खुद पीछे हट गई. अब पैसे नहीं मिले तो उसको पढाई बीच में छोड़नी पड़ेगी. दूसरा भाई इंजीनियरिंग में नहीं जा पायेगा. दोनों छोटी बहने भी पढ़ रही हैं. भाई तो बहनों की मदद करते हैं. मम्मी के इन भाई ने तो हमारा ही पैसा न देकर हमारी तकलीफें और बढा दी हैं. ’

अपनी माँ से बात करना व्यर्थ था और पापा से बात करने की हिम्मत नहीं थी. पता नहीं आम परिवारों की तरह हम अपने पापा से क्यों नहीं घुल मिल पाए थे . शायद माँ व पिता दोनों को ही बेटा न होने का मलाल रहा है. वैसे हमारी सुख सुविधाओं का पूरा ध्यान रखा गया है. कभी कोई अभाव महसूस नहीं होने दिया लेकिन कभी व्यर्थ का लाड़ भी नहीं लड़ाया गया.

अम्मा जब बीमार नानी से मिलने दो तीन दिन के लिए गाँव गई थीं तब पापा और बहनों की देखभाल और खाने पीने की जिम्मेदारी मेरी हो गई थी. तभी एक दिन पापा को अच्छे मूड में देख कर मैं ने कहा था –‘पापा आप बुआ का पैसा लौटा दो, उन्हें बहुत जरुरत है ’

‘बेटा, पैसा हाथ में होता तो कब का लौटा चुका होता... सब इधर उधर फंसे हैं ‘

मैं कहना तो चाहती थी कि फंसे नहीं हैं, सब एक के दो और दो के चार हो रहे हैं लेकिन कह नहीं पाई. बस इतना ही कहा – ‘दस बीस हजार अभी भेज दें बाकी के कुछ दिन बाद भेज देना ‘

‘ठीक है. कुछ भेजने की कोशिश करता हूँ... अपनी माँ को नहीं बताना. ’

पूछने का मन हुआ था कि आप माँ से इतना डरते क्यों हैं ?बुआ आप की कमाई मे से उधार या उपहार नहीं मांग रही हैं, वे अपने पैसे मांग रही हैं, माँ बीच में कहाँ से आ गयीं ? उनसे पूछने या न पूछने या छिपाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है. पर चाह कर भी कुछ नहीं कह पाई.

पता नहीं पापा माँ से इतना क्यों दबते हैं या तो घर में कलह से कतराते हैं या माँ को हाई ब्लड प्रेशर है, उनको तनाव न हो इस लिए चुप हो जाते हैं या फिर समय समय पर माँ द्वारा जान देने की दी गई धमकी से डर जाते हैं कि कहीं सचमुच ही वह कुछ कर न बैठें. यदि पापा की नीयत साफ है तो अम्मा को बिना बताये, चाहे किश्तों में ही सही बुआ को पैसे लौटा सकते थे... लेकिन उन्हों ने ऐसा नहीं किया. इस से तो एसा लगता है कि पापा की नीयत भी ठीक नहीं है.

बुआ तो कहती हैं शादी से पहले तेरे पापा बहुत सरल, स्नेही, मददगार और साफ नीयत के इन्सान थे. पैसों से उन्हें जरा भी मोह नहीं था. घर में सभी उन पर बहुत विश्वास करते थे. शादी के बाद शुरू में उनकी तेरी माँ से जरा भी नहीं पटती थी. भाभी तुनक तुनक कर पीहर चली जाती थीं. तब भैया बहुत उदास हो जाते थे, कहते थे पता नहीं इसके साथ जीवन कैसे कटेगा ?... यह तो बहुत स्वार्थी व पैसे के मामले में बहुत ‘मीन’ है. मेरे विचार तो इस पर किसी बिंदु पर मेल नहीं खाते. उसके घर में उसकी मम्मी का शासन चलता है, यहाँ भी वह अपना शासन चाहती है. पता नहीं फिर क्या हुआ था, धीरे धीरे भैया बदलते गए और एक दिन ऐसा लगा की हमारे भाई अपने स्नेही व्यक्तित्व के साथ कहीं खो गए हैं... वह वही देखते थे जो भाभी दिखाती थीं, वही सोचते थे जो वह समझाती थीं. अपनी बुद्धि तो जैसे कहीं गिरवी रखदी थी. फिर भी न जाने कैसे मैं उनकी बातों में आगई. उन पर विश्वास करके सब रुपये उन्हें थमा दिए... मेरी ही बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी.

पिता का आज का रूप देख कर मुझे भी नहीं लगता कि कभी वह बहुत अच्छे इंसान रहे होंगे. माँ को अपने अनुरूप नहीं ढाल पाए तो शायद घर की सुख शांति के लिए खुद को ही अम्मा के रंग में रंग लिया था. औरत हो कर भी माँ बुआ का दुःख नहीं समझ पाईं. उनकी संवेदनाएं क्यों नहीं जागतीं. खुद को बुआ के हालात में रख कर कभी क्यों नहीं सोचा उन्हों ने. उनके साथ भी एसा ही हुआ होता, उनका भाई भी उनके रुपये हड़प कर जाता तो वे क्या करतीं ? यही बात एक बार मैं ने अम्मा से कह दी थी तो वह तड़प उठी थीं ‘तू हमारा खून है. गैरों के लिए तेरे मन मे इतना दर्द है कि अपनी अम्मा के विधवा होने की बात भी सोच गई... बाप तुम लोगों की चिंता में घुला जा रहा है. और ज्यादा कमाने के लिए रात दिन एक किये हुए है ताकि तुम लोगों को पार लगा सके. तेरे बुआ के तो दो बड़े बेटे हैं. फूफा के आफिस में नौकरी भी कर रही है. हैदराबाद जैसे बड़े शहर में अपना मकान है. तेरे पापा को कुछ हो गया तो हम तो बरबाद हो जायेंगे. ’

‘तुम्हारे बेटा नहीं है... अपना मकान नहीं है... हम चार बेटियां हैं तो इसमे बुआ का दोष कहाँ हैं ?बेटियां हैं इस का मतलब यह तो नहीं की दूसरे का पैसा दबा लो, बेईमान बन जाओ ?’

फिर मैं ने खुद को थोड़ा शांत कर, संयत स्वर में कहा था ‘तभी कहती हूँ अम्मा, किसी का दिल मत दुखाओ... किसी की बद्दूआयें मत लो. बुआ को पूरी रकम लौटा दो ’ पर माँ पर कोई असर नहीं हुआ था.

अम्मा की आवाज से मेरा ध्यान भंग हुआ था. वह पापा से कह रही थीं ‘तुम्हारी बहन आज फिर आई थी. श्रीलता की शादी के विषय में मैं ने बात की थी लेकिन वह तैयार नहीं है. कहती है राघव नजदीकी रिश्तों में शादी के खिलाफ है. अब वहां तो ना ही समझो. अपनी श्रीलता के लिए दूसरा लड़का तलाशना शुरू करो. अब पहले श्रीलता की शादी करनी है... उसका पैसा बाद में लौटाते रहेंगे ‘ पापा चुप थे.

पहले पापा अपनी आमदनी की चर्चा घर पर करते थे कि उस जमीन की कीमत पांच साल में इतनी बढ़ गई. जो मकान बुक कराया था उसका कब्ज़ा लेते ही इतने प्रॉफिट में खड़े खड़े बेच लो. लेकिन अम्मा ने इस चर्चा पर घर में पाबन्दी लगा दी थी – ‘सब के सामने आमदनी का लेखा जोखा ले कर क्यों बैठ जाते हो ?ज़माना रोने का है. खूब कमाओ तब भी रोते रहो की आमदनी ही नहीं है... इतने खर्चे कैसे पूरे करूँ... कर्जे में डूबा हूँ. ’

‘तुम कैसी बातें करती हो... घर में तुम्हारी सास नन्द बैठी हैं क्या, जो सुन लेंगी ?... अपनी बेटियां ही तो हैं. ’

‘उनके सामने भी यह सब बातें करने की क्या जरुरत है ?... तुम कुछ नहीं समझते. तुम्हारी बड़ी बेटी श्रीलता तो अपनी बुआ की पूरी चमची है. जब तब बुआ का पक्ष लेकर मुझे उल्टा सीधा सुनाती रहती है, उनके पैसे वापस करने को कहती है और हमें बेईमान समझती है. ’

‘ठीक ही कहती है, हमें उसके पैसे अब लौटा देने चाहिए. सब सगे रिश्तेदार मुझे कैसी नज़रों से देखते हैं, तुम को क्या मालूम ?’

‘तुम ने एसा किया तो अच्छा नहीं होगा... उसने हमारे साथ कौन सा अच्छा व्यवहार किया है. हमारे घर में बेटी बैठी है... फिर भी वह अपने बेटे के लिए बाहर की लड़की लाएगी... मैं भी उसे सबक सिखाऊँगी... तुम ने बिना मेरे पूछे एक पैसा भी दिया तो... जहर खाके मर जाऊंगी. फिर संभालना अपनी चारों बेटियों को’ कह कर अम्मा रोने लगी थीं.

‘अरे कौन दे रहा है... इस घर में तो हमेशा वही होता रहा है जो तुम ने चाहा है... बात बात पर मरने की धमकी देती रहती है. ’ पापा ने कहा था

मैं बहुत बेचैन रहने लगी हूँ. मन न जाने कहाँ कहाँ भटकता रहता है. अपने आप से ही तर्क वितर्क में उलझी रहती हूँ. हमारे देश में तो औरत ही औरत की दुश्मन है. यदि औरतें एक दूसरे का दुःख समझने लगें तो महिलाओं के पचास प्रतिशत दुःख मिट जायेंगे. हत्या आत्महत्याओं में भी कमी आजायेगी. कभी कभी तो मन करता है कि खाना पीना छोड़ कर अनशन चालू करदूं कि पहले बुआ का पैसा लौटाओ तब ही अन्न जल ग्रहण करूंगी. कभी मन करता है घर से रुपये चोरी करके बुआ को दे दूं, बाद में जो होगा देखा जायेगा. पर यह सब सोचती रह जाती हूँ, कर कुछ नहीं पाती किन्तु मुझे कुछ करना चाहिए... सब से पहले मुझे आत्म निर्भर बनना होगा, उसके बाद ही कोई ठोस कदम उठा पाऊंगी.

तभी एक दिन पापा को माँ से कहते सुना था – ‘रोज पीछे पड़ी रहती हो कि श्रीलता के लिए लड़का ढूंढो, लड़का ढूंढो. मैं ने एक लड़का देखा है... पढ़ा लिखा है, सुन्दर है, घर में खूब पैसा है... सब से बड़ी बात उनकी मांग कुछ नहीं है. बस उन्हें सुन्दर ग्रेजुएट लड़की चाहिए. परसों वह लोग आरहे हैं, लड़की पसंद आगइ तो एक महीने के अन्दर शादी भी करना चाहते हैं ‘

वह लोग आये थे. मधुकर मुझे भी अच्छा लगा था, एक महीने के बाद बारात भी आगई थी. शादी की रस्म से पहले अचानक मधुकर मेरे पिता को भीड़ से अलग एकांत में ले गये. उपस्थित लोगों को यह सब अप्रत्याशित सा लगा. उन में कानाफूसी होने लगी कि लगता है दहेज़ की कोई नई मांग करनी होगी. मैं, मम्मी, मधुकर के पापा, बुआ आदि कुछ निकटतम रिश्तेदार भी उनके पीछे पीछे वहां पहुँच गए कि आखिर बात क्या है. मधुकर पापा से कह रहा था ‘मुझे शादी से पहले एक लाख रुपये चाहिए ‘

यह मांग सुन कर मधुकर के पिता घबड़ा गए थे कि बेटे को अचानक यह क्या हो गया. वह बोले – ‘मधुकर यह क्या तमाशा है... शादी के बीच पैसा कहाँ से आगया ? मैं एक सच्चा समाज सुधारक हूँ, सच्चे मन से इस काम में लगा हूँ. मैं दहेज़ के सख्त खिलाफ हूँ. अखवारों में फोटो छपवाने या सरकारी, गैर सरकारी पुरस्कार पाने के लिए मैं ने समाज सेवा का ढोंग नहीं रचा है... तुझे जितना चाहिए मैं दूंगा. ’

मुझे ध्यान आया की सुबह राघव के हाथ मधुकर ने एक पत्र मुझे भेजा था, उसमें लिखा था – ‘ राघव से मुझे पता चला है कि तुम ने शादी के इस अवसर पर रिश्तेदारों के सामने बुआ को अपने रुपये वापस मांगने की सलाह दी है, इसका मतलब घर में इतने रुपये तो होंगे ही. बुआ की मदद के लिए मैं एक नाटक करना चाह रहा हूँ... मेरा विश्वास है कि तुम मेरे साथ हो ’

मैं ने अपनी स्वीकृति लिख कर भेज दी थी. मैं समझ गई कि अचानक यह मांग उसी नाटक का पहला भाग है अतः मैं शांत रही.

पापा के हाथ पांव फूल गए थे. घबराये हुये वह मेरे पास आये –‘पहले तो इन्होंने कुछ नहीं माँगा था... अब अचानक यह मांग रख दी. बेटी तेरी ख़ुशी के लिए मैं यह मांग पूरी कर भी दूं... पर क्या भरोसा है कि एसी मांग आगे भी बार बार नहीं की जायेगी ?... और पूरा न किये जाने पर वही अंत होगा... जल जाएगी... जला दी जाएगी या घर से निकाल दी जायेगी ‘ पापा अनिर्णय की स्थिति में थे

तभी मधुकर का स्वर गूंजा –‘ आप लोग मुझे गलत न समझें, भगवान की कृपा से हमारे पास सब कुछ है, मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए... पर आप के पास भी कोई कमी नहीं है फिर भी आपने अपनी बहन के साथ एसा क्यों किया ? आप ने बहुत वर्षों पहले अपनी बहन से साठ हजार रुपये लिए थे कि उनके नाम से कोई प्रोपर्टी खरीद देंगे और कीमत बढ़ जाने पर उसे बेच देंगे. इस बात को सात –आठ वर्ष हो गए. ना तो आपने प्रोपर्टी खरीद कर दी और और न ही मांगने पर भी रुपये वापस किये. आप की बहन रुखा सूखा खाकर गरीबी में दिन काट रही है फिर भी बच्चों को ऊंची शिक्षा दिलाने की कोशिश में लगी है. पैसे के अभाव में बेटी को डॉक्टरी नहीं पढ़ा पाई. अब उसकी शादी भी नहीं कर पा रही हैं. यह किस्सा बहुत दिन पहले मैं ने अपने दोस्त राघव से सुना था. तब मुझे नहीं मालूम था कि कभी राघव के उन्हीं मामा की बटी से मेरा विवाह होगा. आज राघव को यहाँ देख कर मैं चोंका था. फिर पता चला कि आप, राघव के वही मामा हैं जिन्हों ने अपनी बहन के पैसे वापस नहीं किये हैं. अब तक दस हजार ही दिए हैं. राघव की माँ भी यहाँ आई हुई हैं. सुबह से मैं उलझन में था कि कैसे उनकी मदद करूँ. और उनकी मदद के लिए ही मैं ने एक लाख की यह मांग की है. मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि एक लाख रुपये अभी राघव की माँ को लाकर दे दें. ’

अम्मा फिर बुआ को कोसने लगी थीं “मैं ने तो पहले ही कहा था कि अपनी बहन को शादी में मत बुलाओ. सबके सामने हमारी इज्जत का कचरा कर दिया ’ माँ रोने बैठ गई थीं.

सात आठ दिन पहले ही पापा ने कोई जमीन बेच कर डेढ़-दो लाख रुपये घर में लाकर रखे थे कि शादी के घर में न जाने कब क्या जरुरत पड़ जाए. पापा ने बिना माँ की तरफ देखे तत्काल एक लाख रुपये लाकर बुआ के हाथ में रख दिए -- ‘ले बहन तेरी अमानत, शर्मिंदा हूँ अभी तक नहीं दे पाया था. ये रुपये परसों ही तेरे लिए लाकर रखे थे. सोचा था शादी से लौटते समय तुझे सरप्राइज दूंगा लेकिन उससे पहले ही दामाद जी ने हमें सरप्राइज दे दिया. ’

मैं जानती हूँ बुआ को रुपये वापस करने का पापा का कोई इरादा नहीं था किन्तु इस समय उनके इस झूट से मुझे राहत मिली है. मजबूरी में ही सही बुआ का पैसा उनके हाथ से निकला तो. अब उन्हें रिश्तेदारों से नजर नहीं चुरानी पड़ेगी. मेरे पापा बेईमान हैं, सगी विधवा बहन का पैसा खा गए, मुझे इस अहसास के साथ नहीं जीना पड़ेगा.

बुआ ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इतने सारे रुपये उन्हें एक साथ मिल जायेंगे. उन के चहरे पर अजीब से भाव थे जैसे उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि यह सच है. कहीं एसा न हो कि वह यह ख़ुशी बर्दाश्त ही न कर पायें, राघव ने उन्हें बाँहों का सहारा दे दिया था... . सब ठीक हो गया था.

मेरी आँखों से अविरल अश्रु बह रहे थे. शादी के बाद मधुकर के साथ मिल कर मैं कुछ एसा ही कुछ हंगामा करना चाहती थी ताकि बुआ के पैसे वापस करा सकूं किन्तु मधुकर का मेरी तरफ बढ़ता पहला कदम सब समस्याएं सुलझा चुका था. मैं भूल गई थी कि मधुकर से मेरी शादी अभी हुई नहीं, होने वाली है. मुझे लग रहा था उससे तो मेरा जन्मों का नाता है. मैं लाज शर्म, लोगों की भीड़ सब भूल कर उस से लिपट गई थी – ‘मुझे तुम पर नाज है. जो काम मैं अब तक बेटी हो कर नहीं कर पाई, तुम ने कर दिखाया. ’

‘लेकिन तुम्हारे सहयोग व सहमति के बिना मैं यह नहीं कर सकता था. अपने विचारों के अनुरूप तुम्हें पा कर मैं बहुत खुश हूँ. ’

बुआ ने भाव विभोर हो कर हम दोनों को अपने सीने से लगा लिया था.

पवित्रा अग्रवाल

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