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अंतिम पूँजी

अंतिम पूँजी

पवित्रा अग्रवाल

अनूप बहुत गुस्से में था, वह आँगन से ही बोलता हुआ आया -- 'माँ सुना आपने अभी वह क्या कहा रहा था ?'

बिना पूछे ही मैं समझ गई कि वह किसके विषय में कह रहा है। जब से चाची जी मरी हैं तब से इस घर के सब सदस्यों का मन संतू के प्रति आक्रोश से भरा है। रिश्ते में तो वह अनूप के चाचा यानि मेरा देवर लगता है। संतुष्टि के लिए कहूँ तो सौतेला देवर किन्तु अर्थहीन रिश्तों के मध्य संबोधन रह ही कहाँ जाता है।

मैं ने अनूप को टोका - अब क्या हुआ ?तुझे इतना गुस्सा क्यों आ रहा है ?'

अभी उसने मुझे दूर से आते देख लिया था। मुझे सुनाने के लिए किसी से तेज आवाज में बोला -'चाची के मरने पर सबसे ज्यादा प्रकाश भैया के घर वाले रोये थे। ..अब माल देने वाली चली गई, इसी बात का उन्हें दुःख होगा।'

माँ मन तो करता है उसे आँगन से खींच कर बाहर ले आऊँ और मार मार कर 85 वर्षीय चाची के अपमान का बदला ले डालूं। ..परजीवी कहीं का, जैसे अपाहिज हो। बूढी चाची से भी बस पाते रहने की उम्मीद करता रहा। चाची की टाँग तोड़ेगा, '

उसकी आँखों से चिंगारियां निकल रही थीं। इतने गुस्से में मैं ने उसे कभी नहीं देखा था। युवा खून है जवानी का जोश है, मैं तो डर रही थी कि न जाने क्या कर बैठे। मैं ने उसे प्यार से पास बैठाया -'तू तो पागल है, वो जो कह रहा है उसे कहने दे। उसकी असलीयत सब जानते हैं। चाची की पवित्र आत्मा जिसने आज तक अपने दुश्मन के लिए भी कभी बुरा नहीं सोचा, वह अंतिम समय में उसे कोसती हुई मरी हैं। भगवान फल देगा, तू फालतू की बातें मत सोचा कर। चाची को तो एक दिन जाना ही था पर कारण संतू द्वारा पहुँचाया गया मानसिक दुःख बन गया।बेटा ज्यादा क्रोध करना अच्छा नहीं होता, क्रोध विवेक का हरण कर लेता है और यही संतू का सब से बड़ा अवगुण है। तुझे भी बहुत क्रोध आने लगा है। '

समझा बुझा कर मैंने अनूप को शांत करा दिया किन्तु क्या मैं शांत हूँ ? शायद इस घर का कोई भी सदस्य शांत नहीं है। यों बाहर से सभी सहज दिखने का प्रयास कर रहे हैं। चाची सब की चेतना पर सामान रूप से छाई हुई हैं। चाची जी यानि अनूप की परदादी, मेरी दादिया सास। उन्हें मेरे ससुर जी से लेकर बच्चे तक चाची ही कहते आये हैं। हर चार पांच महीने बाद वो मथुरा से यहाँ पेंशन लेने आती थीं और लगभग हर बार संतू की उपेक्षा से आहत होती थीं। पहले चाची संतू के यहाँ रुकती थीं पर बाद में उन्होंने वहां रुकना बंद कर दिया था। वह अक्सर हमारे पास आकर दुखी होती थीं -संतू ने आज यह कहा, वह कहा '

तो मैं खीज कर उनसे कहती थी -' क्या करे चाची आपको भी वहां गए बिना चैन नहीं पड़ता। जब वह आप से लड़ता है तो आप वहां क्यों जाती हैं ?'

तब वह भावुक हो उठती थीं - 'सुन मैं वहां क्यों जाती हूँ। संतू का पिता यानि तेरा ससुर हरी मरते समय तेरी सास ( सौतेली, संतू की माँ) को लेकर बहुत उदास था और मुझ से कहा था कि चाची मेरे पीछे संतू की माँ का ख्याल रखना। जब भी तुम मथुरा से आओ तो उसी के पास रुकना और वहीँ खाना पीना। उस की बात रखने के लिए मैं वहां जाती हूँ.लगता है अपने उस बेटे से वह भी डरती है। उससे कभी कुछ नहीं कहती।'

फिर भी चाची जी ने वहां जाना नहीं छोड़ा बल्कि संतू को खुश करने के लिए विशेष कोशिश करती रहती थीं। एक दिन चाची जी ने उसे टोक दिया 'लाल मैं चार पाँच महीने में दो चार दिन को आती हूँ, देख कर पैर छूना तो दूर रहा तू तो नमस्ते भी नहीं करता। '

'नहीं करता नमस्ते, क्यों करुँ ?...तेरा सगा लाल प्रकाश और उनके बच्चे हैं तो तेरी पूजा करने को...मेरे लिए क्या करके भूल गई हो ?'

चाची ने कहा था -'लाल गुस्सा क्यों होते हो ?मैं तो सब को बराबर मानती हूँ .प्रकाश के लिए भी मैं क्या कर देती हूँ ? मुझ बुढ़िया के पास है ही क्या जो किसी को दूँगी। पेंशन कुल पचहत्तर रुपये मिलती

है जिसे मैं ने आज तक अपने ऊपर खर्च नहीं किया। गरीबों, ब्राह्मणो की बेटियों को शादी में देकर कुछ पुण्य कमा लेती हूँ। ...अपने लिए तो आस पास के बच्चों को घेर बटोर कर पढ़ाती हूँ और उस से अपना

खर्च चलाती हूँ। मेरे पास बचता ही क्या है जो तुझे या किसी और को दूँगी। बेटा मैं तो तुम सब की शुभचिंतक हूँ। देने के लिए तो मेरे पास सिर्फ आशीर्वाद है। '

'हमें नहीं चाहिए तुम्हारा आशीर्वाद। कहती हो सब को बराबर मानती हूँ। प्रकाश भैया की शादी में दस तोले का हार चढ़ाया था तुमने, हमें क्या दिया ? '

'चाची जी अगर आप सब को बराबर मानती हैं तो उस हार के हिस्से कर दो.' -संतू की पत्नी ने पति की बात को आगे बढ़ाया।

चाची जी भड़क उठीं थीं - "बहु तुम कौन होती हो उस हार के हिस्से कराने वाली ?वह मेरी अपनी चीज थी। वह न तुम्हारे बाप की थी न तुम्हारे ससुर की। आज तो कह दिया, अब न कहना उस बारे में कुछ। उसकी शादी तुम से पच्चीस साल पहले हुई थी। ..अब मेरे पास देने को कुछ नहीं है।हाथ में यह दो चूड़ी और उँगली में एक अंगूठी है, बस ।'

संतू की पत्नी ने कहा -' तुम्हारे पास चार पांच तोले की जंजीर भी तो थी, वो कहाँ गई ? '

'कहीं भी गई हों तुम्हे क्या करना है ? लेकिन अब वो मेरे पास नहीं है। '

'तो यह चूड़ी ही हमें दे दो.'

'यह चूड़ी तेरी देवरानी मांग रही थी। मैं ने कहा मेरे मरने के बाद ले लेना। अब तू भी माँग रही है तो क्या कहूँ, दोनों एक एक ले लेना। ' 'हमें नहीं चाहिए, अपने सगे लाल प्रकाश को ही दे देना और उन्ही के घर रुका भी कर। 'संतू दहाड़ा था

तब से चाची जी ने वहां ठहरना बंद कर दिया था, बस उसकी माँ से मिलने चली जाती थीं। उस बार भी पेंशन के रुपयों से सौ रुपये उसे दे आई थीं। जब भी वह आतीं उसे खुश करने की कोशिश करती थीं ताकि उस से भी आदर पा सकें।

एक बार वह अपने लिए कम्बल खरीद कर लाई थीं। संतू ने देखा तो कहा 'चाची नीले रंग का यह कम्बल तो बहुत अच्छा है। ..काफी गरम भी होगा, कितने का लिया ? एक मुझे भी खरीदना है '

'तुझे चाहिए तो इसे तू ले ले ' -- चाची जी को जैसे संतू को खुश करने का बहाना मिल गया था। वह संतू के मना करने पर भी उसे देकर संतुष्ट नजर आई थीं।

उसके बाद वह फिर एक धारियों वाला कम्बल लाई थीं, देख कर संतू ने कहा --'चाची रंगीन धारियों वाला यह कंबल तो पहले वाले से भी अच्छा है, मुझ से बदल लो। '

'हाँ, हाँ क्यों नहीं , बदल ले लाल। मुझ बुढ़िया को तो सर्दी से हाड़ बचाने को चाहिए, रंग कैसा भी मुझे क्या करना है ' एक बार पुनः हर्षित होते हुए चाची ने कंबल बदल लिया था और कुछ अधिक ही खुश नजर आई थीं। वह जानती थीं क़ि बूढ़ा शरीर है, भगवान के यहाँ से कभी भी बुलावा आ सकता है अतः अपने अंतिम समय में किसी को भी नाराज नहीं करना चाहतीं थीं।

इतनी उम्र होने पर भी उन्होंने कभी लाठी का सहारा नहीं लिया था। घर से बाहर जाते समय वह हमेशा साफ सुथरे सफ़ेद कपड़े पहनती थीं पर घर में अक्सर मटमैली पीली सी पड़ गई धोती पहने रहती थीं। बच्चे टोक देते- 'चाची आपकी धोती कितनी मैली हो रही है, कभी कभी धोबी से धुलवा लिया करो, अच्छी नहीं लगती। '

'हाँ लल्ला हमें देख कर तुम्हे शर्म आती है ? रोज धुली हुई ही तो पहनती हूँ. इनका रंग ही अब ऐसा हो गया है। धोबी से धुलवाने को पैसे कहाँ से लाऊँ ? यहाँ से जो तेरी माँ धोबी से धुलवा कर देती है, वहां मैं उन्हें बाहर पहनने के काम मैं लाती हूँ।'

कहने को मन होता कि आप इतना दान करती हो पर अपने लिए इतनी कंजूसी क्यों ? धोबी से धुलवाने में भी कितने पैसे लगते हैं ?पर कहना व्यर्थ था उन्हें अपने पर खर्च करना फिजूल ख़र्ची ही लगता था।

उनकी आवाज में अभी भी वही ठसक थी जो उनके अध्यापिका काल में रही होगी। पैर छुआने का उन्हें विशेष शौक था। कोई बच्चा पैर छूना भूल जाता था तो वह आदेश देकर चरणस्पर्श कराती थीं।

वैसे वह सभी को बहुत प्यार करती थीं। किसी के दुःख दर्द में हमेशा साथ देती थीं फिर भी यह सही था कि अनूप के पिता से उन्हे विशेष प्यार था। इतना जितना किसी सगी स्नेही माँ को अपने बेटे से होता है। मेरी सगी सास तो अनूप के पिता को पांच- छह साल का छोड़ कर चल बसी थीं। तब घर में चाची के अतिरिक्त कोई और महिला नहीं थी। वह भी नार्मल स्कूल में अध्यापिका थीं अतः बाहर ही रहती थीं .तब ससुर जी कम उम्र की नाजुक सी लड़की को पुनः ब्याह का लाये थे। छोटी सी दिखने वाली वह नई माँ पहली के बच्चों को सम्हाल पाती, उस से पहले ही वह स्वयं माँ बन गई और यह सिलसिला चलता ही रहा। अनूप के पिता को तब चाची जी ने ही पा ला था। उन्हें पालते समय मातृत्व के सुख से वंचित, बाल विधवा चाची जी मातृ- स्नेह से भर उठी थीं।

बच्चों की बढ़ती संख्या, उनकी बीमारी, घर के बढ़ते खर्चों की वजह से ससुर जी ने अनूप के पिता को दस क्लास से आगे पढ़ाने से मना कर दिया था.तब चाची जी ने अपने खर्चे से उन्हें पढ़ने बनारस भेज दिया था। वहीँ पढ़ते हुए वह स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गए और विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ जेल चले गए थे। कई महीनों तक घर में उनकी कुशलता की कोई सूचना नहीं मिली थी कि वह जीवित भी हैं या नहीं ? फिर चाची जी अनूप के पिता पर गुस्सा होती थीं, जाड़ों की ठंडी रातों में अपने ऊपर से रजाई उठा कर फेंक देती थीं -- 'मैं यहाँ रजाई ओढ़ूँ और मेरा लाल जाने कहाँ, किस हाल में होगा। ...जाकर पता तो कर कि वह कहाँ है ? खाली चिट्ठियां लिखते रहने से कुछ नहीं होगा। मैं औरत की जात अकेली जा कर कहाँ भटकूँ ?'

बुढ़ापे में इनसान के पास अतीत की स्मृतियाँ ही शेष रह जाती हैं, चाचा जी अक्सर उन्हें ही दोहराती रहती थीं । सुन सुन कर वह घटनाएं हमें ऐसे याद हो गयी थीं जैसे हमने उन्हें सुना नहीं बल्कि वहाँ उपस्थित रह कर स्वयं देखा है ।ऐसे ही किन्ही क्षणों में अपने अतीत को स्मृतियों में जीने के प्रयास में चाची जी ने बताया था -'तेरे दादिया ससुर (प्रकाश के बाबा जी )से हमारी कोई रिश्तेदारी नहीं थी, जाति भी अलग थी। पड़ौस के नाते हमारे ससुर जी उन्हें बेटे की तरह चाहते थे। मैं तो तेरह वर्ष की उम्र में विधवा हो गई थी। मेरे पति अपने पिता की एक मात्र संतान थे.उन दिनों प्लेग फैला था.इस महामारी में घर के घर खाली होते जा रहे थे। बचे हुए लोग घर- गॉँव छोड़ कर दूसरी जगहों पर भाग रहे थे। यही प्लेग मुझ से मेरे पति को छीन कर लगया। ... और मैं बैठी रह गई, मुझे मौत नहीं आई। मेरे ससुर जी का बुढ़ापे का शरीर था। वह अक्सर मुझे लेकर दुखी होते थे कि मेरे बाद इसका क्या होगा। मरने से पहले उन्होंने सब जमीन जायदाद, मकान आदि बेच कर पैसा, गहना सब मेरे लिए प्रकाश के बाबा जी के पास जमा करवा दिया था, वो मास्टर थे.उनसे मैं जेठ का रिश्ता मानती थी और उन्हें जेठ जी कहती थी। वह बहुत अच्छे इंसान थे, उन्होंने मुझे पढ़ाना प्रारम्भ किया। पढ़ते पढ़ते मैं ने मिडिल पास किया फिर मैं ने अध्यापिका बनने की ट्रेनिंग ली। कुछ दिन बाद स्कूल में मेरी नौकरी लग गई.

बाद में जेठ जी ने बैक में खाता खुलवा कर मेरा सब पैसा उस में जमा करवा दिया और मेरे गहने मुझे सोंप दिए। प्रकाश के पिता हरी की शादी मेरे सामने ही हुई थी। जब प्रकाश पैदा होने को था तो सपने में मुझे मेरे पति दिखाई दिए, उन्होंने कहा मैं हरी के बेटे के रूप में जन्म लेकर तेरे पास आ रहा हूँ. मैं छुट्टी लेकर तेरी सास के पास आ गई .तभी प्रकाश पैदा हुआ था, उसे छह सात वर्ष का छोड़ कर तेरी सास की मौत हो गई थी '

चाची जी को इन्ही स्मृतियों को समेटने और जीने के प्रयास में मैं ने वह सूत्र पा लिया था कि वह अनूप के पापा को विशेष प्यार क्यों करती है और तभी मैं ने जाना था की रिश्ते सिर्फ खून के ही नहीं होते रिश्ते विश्वास के भी होते हैं, जिसकी जड़े मन में कहीं गहरी फ़ैल चुकी होती हैं और उन्हें उखाड़ा नहीं जा सकता।अनूप के पिता का भी चाची जी से विशेष लगाव रहा है। वह हमेशा कहते रहे हैं कि '

वह मेरी दादी नहीं माँ हैं, आज मैं जो कुछ हूँ उन्ही की वजह से हूँ ' वे चाची से हमेशा कहते रहे कि अब तुम्हे आराम की जरूरत है, घर आकर बच्चों के पास रहो, तुम्हें कुछ कमी नहीं होने दूँगा।'

किन्तु चाची जी ने कभी कुछ नहीं लिया। कहतीं --'नहीं लाल अभी तो मेरे हाथ पैर चल रहे हैं, जब काम नहीं कर पाऊंगी तो तेरे पास ही आऊँगी लेकिन अभी नहीं। तुझ पर बड़ा भारी गृहस्थी का खर्चा है, उसे सम्हाल। पैसों के लिए ही तो बीबी, बच्चो से दूर परदेश में अकेला एक जगह से दूसरी जगह भटकता फिरता है। पैसे बचाने के लिए ही अपने हाथ से कच्ची पक्की रोटी या खिचड़ी बना कर खाता है.मरी सरकार भी नहीं सोचती। जब चाहे, जहाँ चाहे वहाँ तबादला कर देती है, बच्चों की पढ़ाई बरबाद करो या फिर परिवार से दूर रहो। तू मेरी चिंता मत किया कर, अभी मुझ से जितना होता ही दान पुण्य का काम कर लेती हूँ।अंत में.यही तो साथ जायेगा फिर जहाँ मैं रहती हूँ वह भी कहाँ छोड़ते हैं ?थोड़े दिन को भी मुश्किल से आने देते हैं। '

इस तरह चाची जी स्थाई रूप से रहने कभी नहीं आयीं, मथुरा में अपने पास पड़ौस में उनका बहुत सम्मान था। बड़ी बूढी औरतें उनके पैर छूती थीं। वहां पर चाची जी सिद्धों की तरह पुजती थीं। कोई पुत्र की कामना से आशीर्वाद लेने आ रहा है तो कोई पऱीक्षा में पास होने या मुकदमा जीतने के लिए और जिसकी मनोकामना पूरी हो जाती एक तरह से वह उनका भक्त हो जाता था. इच्छा पूरी होने पर कोई उन्हें धोती दे जाता, कोई रुपये, मिठाई व फल। वास्तव में ट्यूशन का तो सिर्फ नाम था वरना अधिकांश बच्चों से तो वह फीस भी नहीं लेती थीं। उनमे से कोई रोज उन्हें अपनी भैस का दूध दे जाता था। तो कोई उन्हें रोज कुँए से पानी भर कर दे देता था। कोई उनके कपड़े धो जाता था, कोई बाजार से सामान लादेता था. किसी ने उन्हें अपनी छोटी सी कोठरी बिना किराये के रहने को दे रखी थी.वह जिन लोगों के बीच रहती थीं वह रोज खाने कमाने वाले साधारण वर्ग के लोग थे.वहां सबके दुःख दर्द बांटने का जिम्मा जैसे उन्होंने ही ले रखा था। उन लोगों के छोटे मोटे झगड़े वह चुटकियों में निबटा देती थीं। आये हुए फल मिठाई अपने लिए रख कर वहीं बच्चों में बाँट देती थीं, चाची जी जब भी यहाँ आती थीं तो बच्चों को साफ सुथरे कपड़ो में देख कर कहती थीं -'तुम लोग कितने अच्छे अच्छे कपड़े पहनते हो। ..क्या जरूरत है इतना खर्चा करने की ? मेरा लाल वहाँ बड़ी मेहनत से कमाता है, उसे कुछ जोड़ने भी दो। '

यद्यपि वह जो कहती थीं वह हमारे प्रति उनका स्नेह और चिन्ता ही थी, फिर भी कभी कभी मैं खीज जाती थी। सोचती थी बच्चों को कुछ जोड़ी कपड़ो में भी साफ सुथरा रखती हूँ तो चाची जी समझती हैं कि मैं पैसा बरबाद करती हूँ। सब कपड़े खुद घर पर सिलती हूँ। चौका बरतन के लिए कोई काम वाली भी नहीं रखी हुई है फिर भी फिजूलखर्ची के आरोप से मन दुखी होता था।

अनूप के पिता जी ने किसी दोस्त की सलाह पर सरकारी कोटे से स्कूटर के लिए एप्लाइ किया था, उसके लिए ऑफिस से लोन भी मिल रहा था। सब ने सलाह दी कि ले लो, जब चाहे बेच लेना, अच्छे दाम मिल जाएंगे। स्कूटर लेकर उन्होंने हमारे पास भेज दिया था। स्कूटर देखते ही चाची जी बोलीं इसे तो लल्ली के ब्याह में देने के लिए रख लो '

एक बार अनूप वही स्कूटर लेकर चाची जी को मंदिर से वापस लाने को चला गया तो उन्होंने वहीँ पर शोर मचा दिया- 'मैं इस स्कूटर पर नहीं बैठूँगी। कोई भी चीज नई मत छोड़ना, तू इसे लाया क्यों ? '

अनूप घर आकर बहुत झुंझलाया था

मुझे कहतीं 'बहू तूने दो दो चटाई क्यों निकाल रखी हैं, चादर फट गई है तो पैबंद लगा कर स्तेमाल कर लो। नई मत निकालो, छोरी के ब्याह के लिए रहने दो।'

शरारती अनूप एक बार तेज धूप में नंगे पैर बाहर चला गया तो चाची चिल्लाई 'अरे तपती जमीन है, पैर जल जाएंगे।चप्पल क्यों नहीं पहनता ?'

'चाची पुरानी चप्पल टूट गई हैं। ..नई छोरी के ब्याह में काम आएँगी, '

'अच्छा लाल तो तुम हमारा मजाक उड़ा रहे हो ?'

अक्सर अनूप के पिता उन तारीखों में ही छुट्टी पर आते थे जिन में चाची जी भी आ सकें और पेंशन भी ले सकें। और जब कभी वह नहीं आ पाती थीं तो वह स्वयं मथुरा जा कर उन से मिल आते थे। अनूप के पिता पिछ्ले महीने ही आये थे और चाची जी से भी वहाँ जाकर मिल आये थे।

अभी दस दिन पहले ही चाची यहाँ पेन्शन लेने आई थीं। पेंशन उन्हें चार -पाँच दिन बाद मिलनी थी.तभी एक दिन वह रोती हुई लौटी थीं और माथे पर हाथ रख कर धम्म से चारपाई पर बैठ गयीं .

हम सब अवाक थे कि क्या हुआ। वह सिसक रही थीं -- 'आज तक किसी ने हम से ऐसे शब्द नहीं बोले, जेठ जी तक ने नहीं। मैंने सन्तु को गोद में खिलाया है, आज बड़ा हो कर वह मेरी टाँगें तोड़ेगा ? लाल को आने दो, मैं उससे शिकायत करूँगी .उस घर में मेरा एक बक्सा पिछले 25 -30 वर्ष से रखा है। ..किसी बच्चे को भेज कर उठवा ले बहू वरना उसमे वो आग लगा देगा। '

मैं ने कहा कोई आग नहीं लगाएगा, रखा रहने दो। ...उसके कहने का क्या है, वह बोलता बहुत ज्यादा है। '

'नहीं बहु तू नहीं जानती, वो ऐसा ही है, तू जल्दी से बक्सा उठवा ले। वह हम से इतना बोल गया पर उसकी माँ और पत्नी ने एक बार भी नहीं टोका कि तू चाची से ऐसे क्यों बोल रहा है ? हम उस घर में अब अभी पैर भी नहीं रखेंगे, हमारी लाश को उसे हाथ भी नहीं लगाने देना। दस साल बाद देखना उसकी क्या गत होगी, हमें सताने का फल भगवान उसे जरूर देगा। '

मैं सिर्फ सुनती रही, समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूँ ?35 -36 साल की उम्र हो गई, दो बच्चों का बाप है फिर भी समझदारी नहीं आई। मैंने चाची से पूँछा -'क्या बात हो गई थी, वह आप से इतना क्यों लड़ा ?'

'पिछले जाड़ों में मैं जो धारियों वाला नया कंबल लाई थी वह सन्तु ने लेकर पहला वाला मुझे लौटा दिया था। मथुरा लौटते समय सर्दी कम हो गई थी तो मैं अपना कंबल भी उसी के पास छोड़ गई थी कि अगली सर्दियों में आकर ले जाऊँगी। ..अब सर्दी शुरू हो गई हैं तो मैं उस से अपना कंबल लेने गई थी तो उसने मुझे नया धारियों वाला कंबल ही लौटा दिया। मैंने कहा सन्तु यह तो तुझे पसंद आया था और तू ने बदल कर इसे ले लिया था, मुझे तो पुराना वाला ही दे दे। '

वह बोला ' इसे तो कीड़ों ने खा लिया है, इसका अब मैं क्या करूंगा ? इसे तुम ही ले जाओ ' मैं ने खोल कर देखा तो पूरा कंबल कटा पड़ा था, मैं ने कहा -'लाल मैं ने तो तुम्हे दोनों कम्बल नए ही दिए थे, कीड़ों ने काट दिया तो मुझे दे रहे हो.परदेश में रहती हूँ फटे हाल रहूँ तो लोग क्या कहेंगे, इसे भी तू ही रखले , मैं दूसरा ले लूँगी '

संतू ने दोनों कम्बल उठा कर मुझ पर फेंक दिए और कहा -'उठा दोनों कंबल और निकल मेरे घर से बाहर '...मैंने कहा मैं तेरे घर नहीं तेरी माँ के पास आती हूँ। '

'अम्मा से मिलना है तो घर से बाहर बुला कर मिला कर। ..इस घर में घुसी तो तेरी टांगे तोड़ दूँगा। तेरा जो सामान यहाँ पड़ा है उसे भी उठवा ले वरना मिट्टी का तेल डाल कर उसमे आग लगा दूँगा। '

संतू से झगड़े का कारण बता कर चाची फिर रोने लगीं। थोड़ी देर बाद चाची बिना ताले का एक बक्सा बच्चों को साथ ले जाकर उठवा लाई थीं।...साथ में देवरानियों के गुप्तचर बच्चे बक्से के खजाने की टोह लेने के लिए इकट्ठे हो गए थे। सब के बीच चाची जी ने वह बक्सा खोला। उस में रखी थी एक रजाई की खोली, एक गद्दे का कपड़ा, एक जनानी नई धोती, एक ब्लाउज और पेटीकोट का कपड़ा। मुझे दिखाती हुई बोलीं 'देख बहू यह हमने अपने लिए रख छोड़े हैं. मेरे मरने के बाद इन्हें ब्राह्मण को दान कर देना। ..मैंने धीरे धीरे चार सौ रुपये दुकान पर तेरे देवर राधे के पास जमा करा रखे हैं ताकि कोई यह न कहे कि बुढ़िया ने दिया तो कुछ नहीं पर मरते समय सब खर्चा हमारे सिर पर डाल गई। यों तो मौत का कोई भरोसा नहीं कि कहाँ मरती हूँ...यहाँ, मथुरा में या कहीं और ?... मैंने मथुरा में भी अपने लिए ऐसा इंतजाम कर रखा है '

उस बक्से में दो-तीन मर्दाने धोती - कुर्ते भी रखे थे जिन पर जंग लग गई थी और तह पर से कट गए थे। उन्हें देख कर मैं सोच रही थी कि इनको क्यों रखा हुआ है।

तभी उन पर धीरे धीरे हाथ फिराती और ठीक से तह करने का प्रयास करती वह कही दूर देखने लगी थीं। कुछ देर ठहर कर रुंधे कंठ से वह बोलीं 'ये कपडे मेरे पति के हैं और सब तो मैं ने बाँट दिए थे, पता नहीं ये एक -दो कैसे बचे रह गए.अब तो इनका कपड़ा भी गल चुका है, किसी को देने के मतलब के तो रहे नहीं। जब मरूँ तो इन्हे भी मेरे साथ जला देंना ' आँखें उनकी नम थीं

वह कुछ ठहर कर बोलीं -'रह गया अब ये बक्सा, अनूप जब अपनी पढ़ाई पूरी कर के कमाने लगे तो कहना अपने रुपये पैसे इसी बक्से में रखा करेगा। ..उसे यह बक्सा खूब फलेगा, यह मेरा आशीर्वाद है। कल अपनी पेन्शन ले आऊँ फिर जल्दी जल्दी आकर लिया करूँगी .. बीच में ही मर गई तो सब पैसा सरकार के पास ही रह जायेगा।'

दूसरे दिन सुबह से ही, पेन्शन लेने जाने की तैयारी ऐसे जोर शोर से शुरू करदी थी जैसे बहुत दूर जाना हो.अगले दिन सुबह ही उन्हें मथुरा वापस लौटना था।

पेन्शन लाने के बाद अपने बिखरे सामन को पुरानी पेन्टों से बने थैलों में समेट कर रख लिया था। अनूप उन्हें छोड़ने जाने वाला था। शाम को ही मैंने उनकीं पसंद के मलाई के लड्डू मंगा कर उनके थैले में रख दिए थे। देवर राधे ने सन्तरे लाकर दिए थे तो कहने लगीं 'इतना सब मैं कैसे खाऊँगी ? व्यर्थ में पैसे बर्बाद करते हो। '

उस दिन रात को वे राधे की तरफ सोयी थीं। रोज सुबह चार बजे उठ कर ठन्डे पानी से नहा कर पूजा पाठ करने वाली चाची जी जब छह बजे तक नहीं उठीं तो राधे की पत्नी ने राधे से कहा - आज चाची जी ने उठने में बहुत देर कर दी, देखना कहीं मर वर तो नहीं गईँ .'अरे सो रही होंगी, मैं ने रात को उन्हें बहुत देर तक करवट बदलते देखा था, देर से सोई हैं तो नींद नहीं खुली होगी, सोने दे। '

तब वह मेरे पास आई- ' भाभी जी चाची जी अभी तक सो रही हैं, मुझे तो डर लग रहा है, एक बार आप चल कर देखो न।' मैंने जा कर उन्हें हाथ पकड़ कर हिलाया फिर भी वह नहीं जागीं ।तब तक राधे भी उठ कर आ गये थे । डाक्टर को बुलाया गया।डाक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया था।उनके अनुसार हार्ट फेल हुआ था। मैंने और राधे ने मिल कर उनका शव जमीन पर उतारा था।

चाचा जी के जाने का उतना दुख नहींं था।उम्र भी काफी हो गयी थी, उन्हें तो एक दिन जाना ही था किन्तु जिस मानसिक स्थिति में घुटते, रोते, कलपते वह गई हैं उस से मन अस्थिर होगया था।निशब्द रुदन फूट पडा़ था।

चाचा जी की मौत का कारण संतू बना था और इसी लिए सब के आक्रोश का वह केन्द्र था।अनूप के पिता को टेेेली ग्राम भेज दिया गया था किन्तु वह बहुत दूर थे, तीन चार दिन से पहले नहीं आ सकते थे ।

संतू उस समय घर पर नहीं था, नौ बजे करीब वह लौटा था तब चाची जी को नहलाया जा रहा था।नहला कर कपड़े पहनाने का समय आया तो संतू की पत्नी बोली 'चाचाजी के बक्से मे एक धोती थी उसे ही पहना देते हैं।'

वह धोती तो चाची ने ब्राह्मण को देने को कहा था।

अरे ब्राह्मण को क्या देना, अभी तो वही पहना देते हैं वरना अभी बाजार से मँगानी पड़ेगी। '

मैं ने कहा --'मेरे पास एक कोरी धोती रखी है वह पहना दो ।धोती के साथ मैंने अन्य सभी कपड़े लाकर उन्हें दे दिए थे और बता दिया था कि इनका क्या करना है ।

कपडे़ पहना कर अर्थी तैयार की जा रही थी ।तभी संतू हड़बडा़ता हुआ वहाँ आया।उसकी पत्नी औरतों के बीच बैठी थी फिर वह राधे के पास गया -' भैया चाची की चूडियां व अंगूठी तो उतार ली न ?...ठीक किया।चाची की जंजीर का पता नहीं चल रहा, काफी भारी थी ।पता नहीं उसका क्या किया ?'

राधे को मौन पाकर पुनः बोला दे गई होंगी अपने सगे लाल को, और कहाँ जाएगी ?'

राधे ने कहा - 'उनको नहीं, चाची चेन मुझे दे गई हैं। '

वह खिसियाया सा बोला -'तब ठीक है। "

संतू के लिए राधे की पत्नी अक्सर ही कहती थी -उसको मुफ्त का खाने की आदत पड़ गई है। अपनी कमाई तो जेब में रखता है। घर का सारा खर्च दुकान से होता है। माँ को भी स्वार्थवश अपने साथ रख रहा है वरना धक्का मार कर उन्हें भी अलग कर दिया होता । चालक है, अम्मा के बहाने दुकान से उसका खर्चा भी चल रहा है.अम्मा के पास जो भी गढ़ा, दबा है वह भी उसे ही मिलेगा। ये (राधे) भी चुप रहते हैं। एक तो उसकी दबंगाई से डरते हैं दूसरी बात पुश्तैनी दुकान है, मना भी कैसे करें ?'

यह सब सुन कर मैं चुप ही रही, क्या कहती ? मन में तो आया था कह दूँ कि तुम एक माँ के हो अतः पुश्तैनी सम्पति पर तुम सब का ही हक़ है। फालतू तो हम ही थे जिन्हें दूध की मक्खी की तरह अलग करके सब कुछ समेट लिया।

किन्तु कहने से कोई फायदा नहीं, हमने संतोष कर लिया है। कहने को तो लोग कहते हैं कि अनूप के पिताजी सीधे हैं और सीधी उँगली से घी नहीं निकलता।पर अनूप के पिता का कहना है 'हम हैं तो एक ही पिता की संतान , माँ ही तो दो थीं। कोर्ट कचहरी करके मुझे खानदान की हंसी नहीं उड़वानी।हरेक के माँ-बाप बच्चों को कुछ देकर ही तो नहीं जाते। कम से कम ये मक़ान छोटा ही सही, हमें

दे गये हैं.इस से मुझे बहुत सहारा है। ' लोगों के समूह में चाची जी का कीर्ति गायन हो रहा था, संतू का चेहरा मुरझाया हुआ था।

अर्थी को कन्धा देते समय 'ॐ नाम सत्य है 'रूप में सबसे तेज आवाज उसी की सुनाई दे रही थी। जैसे अपने अंतर की खीज को वह इस शोर में दबा देना चाहता हो।

मन हुआ कोई उस से कह दे कि चाची जी की अर्थी को वह कन्धा नहीं दे, यह चाची की भी इच्छा थी पर कौन कहता ?

चाची जी के बिस्तर जिस पर वह मरी थीं लपेट कर मेहतर को देने के लिए एक तरफ रखते हुए उसमे से उनकी रामायण निकल कर नीचे गिर गई थी और जाप करने की माला बाहर लटक रही थी।

गिरते ही रामायण और माला मैंने उठा ली। सब की नजरें मुझ पर टिक गई थीं कि मैं ने क्या उठाया।

मै ने सब की जिज्ञासा शांत करते हुए कहा - 'रामायण और माला है, किसी को चाहिए ?'

वे सब झेंप गए 'नहीं हमें क्या करना है ?' फिर भी तिरछी नजरें इधर ही लगी थीं कि कहीं कोई रकम इसमें भी तो नहीं छिपी है .

मैं ने रामायण को उन्ही के सामने उलट- पलट डाला। उस में से अनूप के पिता का एक पुराना फोटो और उन्ही का लिखा एक पोस्टकार्ड निकल कर जमीन पर गिर पड़ा था। यह चाची जी की अंतिम और अमूल्य पूँजी थी जिसे वह सदा अपने साथ रामायण के पन्नों में दबा कर रखती थीं।

पवित्रा अग्रवाल

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