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बाली सुग्रीव

बाली सुग्रीव

बाली अंगद के पिता थे!

यानी वनवासियों के राज्य किष्किन्धा के राजा- बाली।

बाली का राज्य था किष्किन्धा !

जामवंत जी अंगद के गुरू हैं, वे बताते हैं कि यह राज्य किष्किन्धा सैकड़ों साल पुराना है । वनवासियों के इस छोटे से राज्य की बहुत खुबसूरत सी राजधानी पम्पापुर है । लोग बताते हैं कि दुनिया के सबसे खुबसूरत मकान बनाने वाले होशियार कारीगर मय ने इस नगर की रचना की थी।

पम्पापुर ऊंचे पहाड़ों के बीच बसा एक खूबसूरत नगर था, जहां अधिकांश मकान लकड़ी के बने थे या फिर जिन पत्थर से बनाये गये थे उनमें बहुत कलाकारी की गई थी, हर पत्थर पर कोई न कोई मूर्ति, हर पत्थर पर ऐसी आकृति कि उसे घण्टों निहारते रहो । पत्थर भी किसम-किसम और देश-देश के। हरेक का रंग अलग, आकार अलग और चमक अलग। इन सबसे मिल कर बने थे यहां के मकान, बागीचे और रास्ते। जो भी एक बार इस जगह आता, उसका मन प्रसन्न हो जाता। बल्कि यूं कहें कि उसका मन यही रम जाता। मन ही मन यही चाहता कि हमेशा यहाँ रहे। जो राजा इसे देख लेता, उसकी नियत खराब हो जाती। इच्छा होती कि इस पर किसी तरह कब्जा मिल जाये, जिससे वह जब चाहे छुट्टियां मनाने इस खुबसूरत नगर में आता रहे।

जैसा नगर था वैसे ही यहां के नागरिक। बिलकुल भोले और सीधे। न ऊधो का लेना न माधो का देना। अपने काम से काम रखते सब लोग । यहां के लोग अत्यंत गरीब थे और प्राकृतिक वातावरण में रहने की उन्हे आदत थी । ग्रीश्म ऋतु में यहां गर्मी ज्यादा पड़ती, सो लोग बदन पर बहुत कम कपडे पहनते। ज्यादा अन्न नहीं मिल पाता था, सो केवल फल-फूल और मूल खाते। पहाड़ों और पेड़ों पर ऐसे खेलते थे कि लोग मजाक में उन्हे बंदर कहते थे। धीरे-धीरे यहां के निवासियों की बिरादरी वानर कहलाने लगी। यहीं के राजा थे महाराज बाली। कोई उन्हे वनवासियों के इस कबीले का सरदार और बानर योद्धा भी कहते थे।

अपने बेटे और पत्नी को खूब प्यार करने वाले एक अच्छे व्यक्ति थे अंगद के पिता बाली।

अंगद की जब सात साल की उम्र थी, तबसे पिता की कई बातें अच्छी तरह से याद हैं। जैसे उनका अपनी राजधानी से बेहद प्यार करना। जैसे उनका एक निश्चिंत आदमी होना। जैसे कि उनका दिन से खानाबदोशों की तरह से सैलानी होना। हर बरस ही साल में दो बार यानी कि एक बार तब जब गरमी का मौसम आता, और दूसरी बार तब जब बरसात का मौसम जाता, वे अपने परिवार के साथ अपनी राजधानी पम्पापुर छोड़कर दूर के हरे-भरे पहाड़ों, नदियों-तालाबों की तरफ घूमने चले जाते। कुछ दिन वहीं रहते। अपने पीछे सुरक्षा के लिए पम्पापुर राजधानी में अपने भाई सुग्रीव के साथ उनका परिवार और राजदरबार के कुछ खास-खास आदमी छोड़ जाते। साल भर तक रोज-रोज महल में घिरी रहने वाली महारानी तारा ऐसे सैर करने में बहुत खुश होती। बच्चे भी खुशी से फूले न समाते। खास तौर पर अंगद की खुशी का पारावार न रहता। ऐसी बाहरी यात्राओं में बाली से जुड़े दूसरे कुछ खास लोग भी उनके साथ निकलते। बाहर पहुंच कर वे भी बहुत खुश होते।

इस तरह पखवारे भर वे लोग नई जगहों पर टहलते। वहां रूकते। नयी तरह का भोजन चखते। नये तरह के कपड़े देखते। अच्छे लगते तो देश-विदेश में पहने जाने वाले कपड़े पहनते। ज्यादा अच्छे लगते तो घर आते वक्त ऐसे कपड़े खरीद कर ले आते। इस तरह अंगद ने बचपन में कई नई जगह घूम ली थीं और उनकी माँ ने जाने क्या-क्या बोलना, पहनना, पकाना, खाना और खिलाना सीख भी लिया था। अपने आस-पास की महिलाओं में वे बहुत जानकार महिला की तरह मानी जाती थीं। बाली अपने परिवार का खास ध्यान रखते थे।

जामवंत कहते हैं कि बाहर घूमने का शौक बाली को तबसे था जब उनका विवाह नहीं हुआ था। बाद में विवाह हुआ तो वे महारानी तारा के साथ घूमने जाने लगे। लम्बा समय बीता और तारा ने किसी बच्चे को जन्म नहीं दिया तो महाराज बाली को कोई चिन्ता नहीं हुई। ऐसी ही एक यात्रा से वे लौटे तो पम्पापुर के लोगों ने देखा कि महारानी तारा की गोदी में एक नन्हा सा शिशु है जिसे वे लोग अंगद कह रहे हैं। जामवंत जी बताते हैं कि हू ब हू बाली तरह गोरा, स्वस्थ्य और सुंदर बालक को देख कर पम्पापुर का कोई नागरिक कहता कि देवताओं के वरदान से तारा को यह बेटा प्राप्त हुआ है, तो कोई कहता कि अंगद धरती का बेटा है, कोई कहता कि अंगद दुनिया के सबसे बड़े कारीगर मय दानव की दूसरी बेटी मंदोदरी का बेटा है।

बचपन से तारा अंगद को बताया करती हैं कि महारानी मंदोदरी जो लंका के राजा रावण की पत्नी है, वह अंगद की मौसी है। मौसी यानी मां की बहन। मंदोदरी रिश्तें में हैं मां की बहन, लेकिन वे अंगद से इतना प्रेम करती हैं कि खुद तारा भी नहीं करतीं। इसलिए अंगद को मां हमेशा हिदायत देतीं कि अंगद अकेले कभी भी लंका न जायें, अगर जायें तो मंदोदरी के सामने न जायें, अन्यथा उनका अपनी मां के पास लौटना मुश्किल होगा। वैसे भी पम्पापुर के लोग मौसी को मासी भी कहते- यानी माँ सी, माँ जैसी। अंगद थोड़ा बड़े हुए तो बाली ने उन्हे एक ऐसी अनूठी कला सिखाई जो दुनिया में किसी के पास न थी। कला यह थी कि अंगद एक बार जिस चीज पर अपना पाँव जमा देते वह चीज उनके पाँव से चिपक कर रह जाती, कोई्र कितनी भी बड़ी ताकत लगा लेता अंगद के पाँव से वह चीज न छूट पाती । छूटती तब जब अंगद चाहते। अंगद जानते थे कि उनके पाँव के तलवे में नन्ही सी कटोरियों की तरह छोटे-छोटे कई छेद थे, जिनको वे जमीन पर पाँव रखते वक्त हवा से खाली कर लेते, फिर उनका पाँव का छुड़ाना किसी भी ताकतवर के लिए संभव न था। बाद में जब पाँव छुड़ाना होता, अंगद खुद धीमे-धीमे एक-एक छेद को खास तरकीब से छुटाते।

पिता के साथ अंगद ने पम्पापुर से लंका के पास तक का समुद्र घूम डाला था। हिमालय के पर्वत देख डाले थे। खांडव वन यानी घने जंगल का वह हिस्सा घूम लिया था जहां खर,दूशन और त्रिसिरा नाम के तीन भार्इ्र खुदको रावण के राज्य का प्रतिनिधि मान कर आसपास के इलाके में आतंक फैलाया करते थे।

बाली पक्के घुमक्कड़ थे। एक घुमक्कड़ और सैलानी राजा। जिन्हे हर वक्त बिना सेना के अकेले या गिनेचुने लोगों के साथ दुनिया की सैर करना अच्छा लगता।

आज जब अंगद बड़े हो गये हैं, तब उन्होंनेबुजुर्ग मंत्री जामवंत की बातों से जाना कि बाली की कई आदतें राजा की नजर से ठीक न थीं।

एक गृहस्थ आदमी के लिए महीना-पन्द्रह दिन के लिए राज्य से बाहर चले जाना अलग था, लेकिन राजा के लिहाज से अलग।

किसी राजा का इस तरह पन्द्रह दिन और महीने भर के लिए राजधानी छोड़ जाना राजनीति की नजर से गलत था। असुरक्षित राज्य पर सबकी नजर रहती हैं। सचमुच इस तरह की यात्राओं से लौटने पर हर साल कोई न कोई संकट झेलना पड़ता उन्हंे।

जामवंत जी के अनुसार बाली केवल पिता न थे। सिर्फ पति न थे। एक राजा भी थे। वे राजा बाली थे।

राजा बाली । पम्पापुर के राजा बाली । पम्पापुर के नागरिक यानी वनवासियों की बिरादरी के सबसे बहादुर आदमी । सबसे बलबान योद्धा । ऐसे बलबान योद्धा जो मनुश्य तो मनुश्य, अपनी ताकत के जोश में जानवरों तक से भिड़ने को तैयार घूमते रहते।

जामवंत जी बेहिचक कहते हैं कि बाली ऐसे राजा थे जो जनता की परवाह कम करते थे, अपनी ताकत का दिखावा ज्यादा करते । जबकि राजा का फर्ज होता है कि वह जनता की सुख-दुख की परवाह करे। अपनी सेना को ऐसी ताकतवर बनाये कि आसपास के राजा डरते रहें।

जामवंत जी एक निडर और हुनरमंद आदमी थे। राजा बाली को वे कैसी भी सलाह निर्भय हो कर सुना देते, लेकिन दूसरों की तरह उनकी बातें भी बाली एक कान से सुनते दूसरे से उड़ा देते।

जामवंत कई किस्से सुनाते हैं बाली महाराज के। उन्होंनेअपनी राजधानी पम्पापुर की सुरक्षा के लिए नगर के चारों ओर एक बड़ी चहार दिवारी बनबाई थी। जिसमें चार दरवाजे थे। चारों दरवाजे रात को दियाबाती के समय बंद कर दिया जाता और सुबह सूरज उदय होनेक के एक पहर बाद ही खोला जाता। भीतर आने वाले की पक्की जांच की जाती। हर दरवाजे पर सौ-सौ सैनिकों की टुकड़ी रखी जाती थी। इन सैनिकों को सेना में से बहुत चुन कर रखा जाता था, क्यांेकि यहां हरेक को अच्छा तीरंदाज, कुशल तलवारबाज और देश-विदेश के बारे में अच्छी जानकारी रखने वाला होना जरूरी थी।

इस के बाद भी बाली ने हर बार कोई न कोई धोखा खाया या कहें कि अपने सारे सुरक्षा बंदोबस्त ध्वस्त पाये। जैसे एक बार की बात है कि जब बाली गर्मियों की लम्बी यात्रा से लौट कर पम्पापुर आये, तो उन्होंनेराजधानी की चहारदिवारी के मुख्य प्रवेशद्वार पर अपने राज का निशान सूरज के गोले वाला पीला झण्डा लगा नहीं पाया बल्कि वहां कोई और झण्डा फहराता हुआ देखा । बाली ने मुख्यद्वार पर खडे अंजान सैनिकों से झण्डा बदल जाने का कारण पूछा तो पता लगा कि इस बीच बाणपुर के राजा बाणासुर ने पम्पापुर पर हमला करके राजधानी पर अपना कब्जा कर लिया है।

बाली ने यह सुना तो न उन्हे दुख हुआ, न कोई चिन्ता। उन्होंनेजामवंत जी को दूत बना कर पम्पापुर के राजमहल पर कब्जा जमाये बैठे बाणासुर के पास अपना संदेश भेजा। वे नहीं चाहते थे कि सेनाओं में रण भूमि में युद्ध हो और निरपराध सैनिक मारे जायें। इसलिए उचित होगा कि न्याय की रक्षा करते हुए किष्किन्धा राज्य उन्हे बिना खून बहाये वापस लौटा दिया जाय। यदि बाणासुर को अपनी ताकत का कुछ ज्यादा ही घमण्ड है तो वे खुद अकेले बाहर चले आयें और बाली से कुश्ती लड़ कर हरा कर दिखायें । बाली ने वचन दिया था कि अगर वे हार गये तो पम्पापुर छोड़ कर वापस लौट जायेंगे । पम्पापुर का राज्य बाणासुर संभालते रहें, बाली सबकुछ भुला देंगे।

जामवंत से बाली का समाचार सुना तो बाणासुर गुस्से और अभिमान में भरा हुआ पम्पापुर के बाहर चला आया । दोनों अपनी जांघ ठोंक कर एक दूसरे को कुश्ती के लिए ललकारने लगे थे। बाणासुर एक महाबली थे तो बाली भी बहुत ताकतवर थे । बाली के पास एक खास कला थी कि वे कुश्ती लड़ते हुए जब सामने वाले को पकड़ लेते, तो मानों सामने वाला व्यक्ति उनसे चिपक सा जाता था। लाख जतन करने पर दूसरा पहलवान उनसे छूट नही पाता था। इसी कला का लाभ उठा कर बाली हर बार अपने जोड़ीदार को हरा डालते। लोग कहते कि बाली को यह एक वरदान है कि जो उनसे कुश्ती लड़ने आयेगा उसका आधा बल खिंच कर बाली के बदन में चला आयगा, और इस तरह बाली अपने सामने वाले जोड़ी दार से डेढ़ गुने बल के साथा लड़ेंगे। जामवंत बताते हैं कि ऐसा कुछ न था बाली के पास कुश्ती की यही एक खास कला थी और इसी कला से उन्हेाने बाणासुर को हरा दिया था और जमीन पर पटक दिया ।

बाली की एक बड़ी कमी थी िक वे जिससे चिढ़ जाते उसससे बहुत कटु वचन बोलते थे । उन्होंनेबाणासुर को खूब खरी-खोटी सुनाईं। फिर उसे एक रस्सी से बांध कर अपने साथ लेकर पम्पापुर में प्रवेश किया। अपने राजा को बंधा हुआ देख कर बाणासुर की सेना सिर पर पाँव रखकर भाग निकली । पम्पापुर के महल में खास तौर पर बनायी गई जेल में बाणासुर लम्बे समय तक कैद रहा। लोग बताते हैं कि बाणासुर के बदन में दूसरों की तरह दो नहीं , नन्ही-नन्ही हजार भुजायें थीं, जो देखने में अजीब लगती थीं । ऐसे अजीब से जीव को देखने के लिए पम्पापुर के निवासी रोज ही राजमहल में चले आते थे।

दो से ज्यादा भुजायें तो लंका के राजा रावण की भी बताई जाती हैं, उसने भी ऐसी ही शरारत की थी। एक बार बाली पन्द्रह दिन के लिए पम्पापुर से बाहर निकले तो लौटकर उस बार उन्होंनेलंकाधिपति रावण को पम्पापुर में कब्जा जमाये देखा। फिर क्या था कुपित बाली ने रावण को अपने साथ कुश्ती के लिए ललकार दिया । अपनी ताकत का घमण्ड रावण को भी कुछ ज्यादा ही था सो वह बेहिचक ताल ठोंकता पम्पापुर के बाहर चला आया। बाली ने अपने खास दांव से लंकेश रावण को पकड़ा और दांये हाथ के नीचे कांख में दबा लिया। रावण ने बहुत ताकत लगाई लेकिन अपने आपको छुटा नहीं पाया बल्कि उसका दम घुटने लगा तो उसने अपनी हार मान ली। लेकिन बाली नहीं माने उन्होंनेकांख में रावण को दबाये हुये ही वहां से घसीटता हुए अपने महल की ओर ले चले थे। सड़क पर घिसटते रावण का ऐसा अपमान भरा नजारा देख कर पम्पापुर में मौजूद रावण के सारे सैनिक व सुभट डर गये थे, और पम्पापुर छोड़कर भाग निकले थे। रावण भी लम्बे समय तक बाली की कैद में रहा और पम्पापुर निवासियों के लिए हंसी का बिशय बना रहा था।

बाद में रावण के पिता के पिता पुलस्त्य मुनि जो संसार के बड़े विद्वान और सम्माननीय व्यक्ति थे उन्होंनेपम्पापुर आकर बाली से निवेदन कर रावण को उस कैद से छुटकारा दिलाया था। रावण को छोड़ तो दिया लेकिन बाली अपनी आदत से बाज नहीं आये। उन्होंनेपुलस्त्य मुनि को बड़ी कड़बी बातें सुनाना शुरू कर दीं उम्र से बहुत बूढ़े हो चुके रावण के दादाजी ने इस बात का बुरा नहीं माना । उन्होंनेहंसते हुए बाली से कहा था, ‘‘ बेटा बाली, तुमने कसरत करके अपना बदन खूब ताकतवर बनाया है, यह अच्छी बात है। ईश्वर तुम पर कृपा बनाये रखे। लेकिन तुम इस तरह कड़बे वचन मत बोला करो।’’

बाली पर ऐसे उपदेशों का कोई असर नही पड़ता था। उनके लिए संसार में अपने यश या अपयश का महत्व न था। वे अपने बदन का बड़ा ध्यान रखते थे। खूब डट कर खाते। खूब कसरत करते। यही सब करने के लिए वे सुग्रीव से कहते थे।

हां, चाहे बाणासुर की घटना हो या रावण की बाली ने ज्यादा परवाह नहीं की।

ऐसी घटनाओं के बाद बाली अपने छोटे भाई सुग्रीव को जरूर खूब डांटते थे, जिन्हे वे अपने पीछे पम्पापुर का किलादार बना कर जाते थे। लेकिन जो बाली के न रहने पर इतने भयभीत रहते थे कि अंजान दुश्मन को सामने देखते ही उससे डर के हर बार किला सोंप देते थे। बाली जीत कर लौटते तो सुग्रीव हर बार अपने बड़े भाई से गिड़गिड़ा कर क्षमा मांगते थे और बाली उन्हे माफ भी कर देते थे।

एक बार बड़ी अजीब घटना हुई।

दुंदभि नाम के एक योद्धा ने पम्पापुर में आकर चौराहे पर खड़े होकर जब बाली को कुश्ती लड़ने की चुनौती दी तो बाली एक लम्बी हुंकार के साथ उसके साथ भिढ़ बैठे थे । अपनी उसी खास कला या दांव के सहारे उन्होंनेदुंदभि को थोड़ी ही देर में हरा दिया। लेकिन दुंदभि ने पम्पापुर में बाली को चुनौती दी थी इस कारण नाराज बाली ने अपने हारे हुए प्रतिद्वंद्वी को यूं ही न छोड़कर अपने कंधे पर लादा और राजमहल के ऊपर चढ़ गये थे फिर वहां उन्होंनेदुंदभि को लादे-लादे ही तेजी से चकरी की तरह कई चक्कर काटे और एक हुंकार के साथ उसे दूर पहाड़ों की ओर उछाल दिया था।

उस पहाड़ पर सात ताड़ वृक्ष थे जिनसे टकरा के दुंदभि का शरीर नीचे गिरा तो चट्टानों से टकरा के उसके चिथड़े-चिथड़े उड़ गये थे और इन चिथड़ों से उछला खून आस पास के इलाके में फैल गया था।

लोग कहते हैं कि वहां कुछ मुनि लोग तपस्या कर रहे थे, जिनके ऊपर इस खून के छींटे पड़े तो वे गुस्सा हो बैठे थे और उन्होंनेशाप दी थी कि बाली कभी भी इस जगह पाँव नहीं रख सकेंगे, जिस दिन वे यहां पाँव रखेंगे उनक सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे। कोई कहता है कि ताड़ वृक्षों के नीचे बाली के इश्ट देवता सूर्य का एक मंदिर था जिस पर दुंदभि का खून बुरी तरह फैल गया था और बाली इस बात से इतने दुखी हुए थे कि उन्होंनेजिंदगी भर ताड़ वृक्षों वाले उस ऋष्यमूक पर्वत पर ना चढ़ने की कसम खाई थी। हालांकि कुछ लोग दबे स्वर में यह भी कहते हैं कि ऋष्यमूक पर्वत पर इस तरह खून से भरी लाश फेंकने के कारण वहां रहने वाली वनवासियों की एक दूसरी जाति के योद्धा बाली से नाराज हो गये थे और उन्होंनेबाली को चुनैाती दी थी कि जिस दिन वे पर्वत पर आ गये उसी दिन मार दिये जायेंगे। वनवासी लोग मिलजुल कर रहा करते थे, सो बाली उस पर्वत से हमेशा दूर रहा करते थे।

बीच में टोक कर जामवंत से अंगद ने पूछा कि ‘‘ बाबा , मेरे पिता और काका सुग्रीव के बीच आपस में झगड़े का क्या कारण था?’’

जामवंत ने वह किस्सा विस्तार से सुनाया था। ...संसार के सबसे बड़े कारीगर यानी मकान बनाने वालों के महागुरू मय का बहुत मोटा और ताकतवर बेटा मायावी एक बार जाने क्यों पम्पापुर आकर बाली को उल्टा सीधा बोलने लगा था। कोई कहता है कि वह अपनी बहन मंदोदरी के बेटे अंगद को मांग रहा था, जिसे उसकी दूसरी बहन तारा मांग लाई थी। तो कोई कहता है कि वह अपने पिता के बनाये नगर पम्पापुर पर अपने पिता का हक माँग रहा था यानी कि नगर पर कब्जा जमाना चाहता था। किसी का यह मत था कि मायावी ने लंका में रहकर प्रसिद्ध पहलवान कुंभकर्ण से अभी-अभी कुश्ती लड़ना सीखा था और वह अपने दांव आजमाने के लिए समान ताकत वाले किसी पहलवान की तलाश में पपापुर मे ंचला आया था।

इस बात को तो कोई राजा पसंद न करता कि कोई आकर इस तरह खुले आम उसे चुनौती देने लगे। उस पर बाली जैसे महाबली को भला कहां से सहन होता कि कोई चौराहे पर राजा के परिवार के बारे में कुछ गलत-सलत बोलता फिरे। वे अपने महल निकले और सीधे मायावी के सामने पहुंचे ओर उससे बहुत ऊंची आवाज में बोले ‘‘ सुनों मायावी, तुम्हे अगर ज्यादा घमण्ड हो गया है तो चलो हम और तुम नगर के बाहर जाकर कुश्ती लड़ते हैं, लेकिन तुम इस तरह मेरे नगर के चौराहे पर इस तरह बकबास मत करो।’’

मायावी ने बाली की हंसी उड़ाते हुआ कहा, ‘‘ तुममें हिम्मत है तो यहीं मुझसे कुश्ती क्यों नहीं लड़ते। बाहर क्यों जाना चाहते हो। अगर बाहर जाकर मेरे पैर छूकर मुझे लौटाना चाहते हो तो यह भूल जाओ । मैं यहां से बाहर नही जाने वाला। आज मेरा और तुम्हारा मुकाबला यहीं होगा। इसी जगह और खुले आम।’’

बाली ने एकाएक हुंकार भरी और वे छलांग लगा कर मायावी से जा भिढ़े। मायावी को ऐसी आशा न थी कि उसे तैयार होने का मौका ही न मिलेगा, और दुनिया का यह प्रसिद्ध पहलवान उसको अपना अनूठा ऐसा दांव लगा कर पकड़ लेगा कि लाख जतन करने पर भी मायावी छूट न सके। वह कुंभकरन के सिखाये सारे दांव भूल गया और बाली की पकड़ में छटपटाने लगा। बाली अपनी आदत के मुताबिक मुंह से गंदी गालियां बकते जा रहे थे, सो बिपत्ति में फंसे मायावी को अंतिम उपाय यही लगा कि इसी आदत के कारण वह बाली से छूट सकेगा। उसने भी बाली को गालियां बकना शुरू कर दी। अब क्या था, बाली का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। आज तक किसी ने उसे पलट कर गालियां न दी थी। एक झटके में उन्होंनेमायावी को छोड़ा और उसका मुंह निहारने लगे। वे आज दुंदभि से भी ज्यादा निर्मम तरीके से मायावी का मार देना चाहते थे।

बस यहीं आकर मायावी का मौका मिल गया। उसने झुककर एक छलांग लगाई और पम्पापुर से बाहर जाने वाले मार्ग पर दौड़ लगा दी।

बाली चौंके। अरे यह क्या हुआ? यह कहां भाग निकला?

वे उसके पीछे दौड़ने लगे।

मायावी हाथी जैसे बड़े बदन का तो था ही , वह बहुत अच्छा धावक भी था। लगता था कि वह लम्बी दौड़ का खूब अभ्यास करता था सो बाली तेज चाल से दौड़ने के बाद भी उसे पकड़ने में नाकाम साबित हो रहे थे।

उधर मायावी की हालत खराब थी। उसे साफ-साफ महसूस हो रहा था कि उसने गलत आदमी को ललकार दिया। उसे अपने पीछे साक्षात मौत आती हुई दिखाई दे रही थी। वह ऐसी जगह ढूढ़ रहा था जहां वह छिप सके। एकाएक उसे सामने के पहाड़ में बनी एक बहुत बड़ी गुफा दिखी तो उसने आव देखा न ताव, सीधा उसमें घुस गया और नाक की सीध में दौड़ता चला गया ।

बाली ने देख लिया था कि मायावी उस गुफा के भीतर चला गया है, सेा वे निश्चिंत थे। उन्होंनेरूक कर पीछे देखा। उनका अनुमान सही था, छोटा भाई सुग्रीव उनके पीछे भागता हुआ चला आ रहा था। बाली ने सुग्रीव का इंतजार किया और जब सुग्रीव आ गये तो बाली बोले, ‘‘ तुम यहीं गुफा के बाहर रहो, पता नही भीतर के कैसे हालात हैं। लेकिन चिन्ता मत करो, मैं सबसे निपट लूंगा। तुम गुफा के बाहर रूक कर मेरा इंतराज करो मैं उसे घसीटता हुआ बाहर आता हूं।’’

सुग्रीव ने सहमते हुए भैया से पूछा, ‘‘ मैं यहां कब तक आपका इंतजार करूं?’’

बाली हंसे, ‘‘ अरे पगले, कब तक क्या, मैं आज साझ तक उसे मार कर लौटता हूं। ’’ फिर वे रूके और बोले, ‘‘ हो सकता है यह गुफा पहाड़ के उस पार जाकर दूसरे राज्य में निकलती हो तो मुझे उस राज्य के राजा ने अनुमति लेकर अपना अपराधी ढूढ़ना होगा, इसलिए तुम ऐसा करो पन्द्रह दिन तक मेरा इंतजार करना।’’

‘‘ आप अगर पन्द्रह दिन में नही लौटे तो ?’’ पिछली घटनायें याद करके सुग्रीव का खून सूख रहा था, सो वे बाली से एक-एक बात पूछ लेना चाहते थे।

बाली फिर हंसे,‘‘यदि पन्द्रह दिन में नहीं लौटता तो तुम यह मान लेना कि मैं मर गया हूं । फिर तुम राजमहल लौट जाना।’’

बाली इतना कहकर गुफा में घुस गये और सुग्रीव अपने कुछ विश्वासपात्र दोस्तों के साथ गुफा के बाहर बैठ गये।

धीरे-धीरे सांझ हुई । वे चिंतित हुये। उन्होंनेआग जला ली ताकि जंगली जानवर दूर बने रहें। कुछ जागते कुछ सोते वे बैठे रहे। वो रात बहुत धीमे-धीमे बीत रही थी।

किसी तरह सुबह हुई। दोस्तों ने समझाया कि बाली पता नहीं कब तक लौटेेंगे,ऐसा करें कि सुरक्षा के लिए राजधानी से कुछ सैनिकों को बुला लेते हैं और यहां ठहरने के लिए कुछ खाने-पीने ठीक सा इंतजाम कर लेते हैं। सुग्रीव ने हामी भरी तो सारे प्रबंध हो गये।

अब सुग्रीव पूरे साजोसामान के साथ बाली का इंतजार कर रहे थे।

धीरे-धीरे पखवारा यानी पन्द्रह दिन बीत गये।

सोलहवें दिन पम्पापुर से राजदरबार के अनेक मंत्री गण गुफा तक चले आये । सब चिंतित थे लेकिन किसी का साहस न था कि अंदर जाकर पता लगाये।

मंत्रियों ने सुग्रीव से पम्पापुर लौटने की प्रार्थना की तो सुग्रीव टाल गये, उन्होंनेमंत्रियों से कहा ‘‘ आप लोग सिर्फ नगर की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखो। कहीं ऐसा न हो कि फिर कोइ्र दुश्मन हमला करके पम्पापुर पर कब्जा जमा ले। इसलिए आप लोग जाकर सुरक्षा का इंतजाम देखो। मैं भैया का बहुत समय तक इंतजार करूंगा।’’

सेनापति और मंत्रीगण पम्पापुर लौट गये तथा नगर की रखवाली का पुख्ता इंतजाम करने में जुट गये। सुग्रीव गुफा के बाहर अपने चुने हुए साथियों के साथ बैठे रहे।

गुफा के अंदर से न कोई आवाज आती थी , न भीतर के घुप्प अंधेरे में कुछ दीखता था, सो अंदाजा लगाना मुश्किल था कि भीतर क्या कुछ घट रहा है।

लगभग तीस दिन बीत गये थे। बाली का न तो कुछ समाचार आया था, न ही कहीं से कोई उम्मीद दिखती थी। सुग्रीव अब निराश हो चले थे। बाली जैसे अजेय भाई के गायब हो जाने और अपने असहाय हो जाने की कल्पना मात्र से उन्हे रोना आ गया। वे अपने पास बैठे बुजुर्ग मंत्री जामवंतजी से कुछ कहने ही वाले थे कि अचानक चौंक गये। गुफा के भीतर से खून की एक लकीर आती हुई दिखी जिसे देख कर सुग्रीव के हाथ-पैर ठण्डे हो गये। सबने देखा, बह कर आने वाला खून किसी मनुश्य का ताजा खून था ।

तुरन्त ही पम्पापुर से बाकी बचे मंत्रियों को बुलाया गया। सबका एक ही मत था कि मायावी छल से बाली को ऐसी गुफा में ले गया था जहां पहले से ही उसके साथी छिपे बैठे थे । वहां बाली पर कई लोगों ने एक साथ हमला कर दिया था, बाली बहुत ताकतवर थे वे एक महीने तक उन दुश्मनों से लड़ते रहे और आखिरकार उन्हे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

सुग्रीव को लगा कि अगर सचमुच महाराज बाली का देहावसान हो गया है तो उनका शत्रु उन्हे मार कर बाहर आयेगा। ऐसे खूंख्वार आदमी से सीधे और युद्ध में अंजान सुग्रीव कैसे लड़ पायेेंगे। मायावी निश्चित ही सुग्रीव को चींटी की तरह मसल डालेगा।

सब लोगों ने विचार करके निर्णय लिया कि इस गुफा का मुंह पत्थर की एक बड़ी चट्टान से बंद कर देना चाहिए और यहां से हट कर राजधानी पम्पापुर चल देना चाहिऐ।

ऐसा ही हुआ। गुफा का मुंह बंद करके सब लोग राजधानी लौट आये।

अगले दो-चार दिन और इंतजार किया गया।

मंत्रियों ने सलाह दी कि एक महीने से किष्किन्धा राज्य बिना राजा का है, ऐसे में राज्य बहुत असुरक्षित होता है। इसलिए उचित होगा कि सुग्रीव राजा बन जायें और अपने भाई द्वारा छोड़ा गया राज्य संभालें। सबके हित में यही काम उचित होगा।

सुग्रीव कई दिन इन्कार करते रहे। फिर एक दिन महारानी तारा ने भी यही संदेश दिया गया तो सुग्रीव मना नहीं कर पाये।

बिना किसी उत्सव और ढोल-ताशे बजाये सुग्रीव चुपचाप किष्किन्धा के राजसिंहासन पर बैठ गये। राज्य का झण्डा बदल कर केशरिया बनाया गया, जिसके बीचोंबीच इन्द्र के तीन सूंड़ वाले हाथी ऐरावत का चित्र बना था। राज्य में चलने वाले सिक्कों पर भी ऐरावत का चित्र बनाया गया। सुग्रीव के इश्टदेव इन्द्र थे, इसलिए राज्य के सारे निशानों पर सूरज की जगह इंद्र के चिन्ह आ गये। बस इतना सा परिवर्तन हुआ । बाकी सब ज्यों का त्यों रहा। वही मंत्री परिशद। वही सेनापति और वही युद्ध प्रणाली।

फिर एक दिन चमत्कार हुआ...।

थके और कमजोर से एक बानर योद्धा ने पम्पापुर में बड़े सुबह प्रवेश किया । वह धूलधूसरित और कई जगह से फटा हुआ लंगोट पहने था।उसके शरीर पर बने कई जख्मों से खून बह रहा था और वह ,जमीन को ताकते हुए चल रहा था। बाजार के मुख्य चौराहे पर आ कर वह बानर खड़ा हुआ तो उसके चेहरे पर अचरज झलक उठा। चौराहे पर बने ध्वज दण्ड में केशरिया रंग का ऐसा ध्वज लहरारहा था जिसके बीचोंबीच सफेद रंग के एक हाथी की आकृति बनी थी जिसकी तीन सूंड़ थी।

झण्डा देख कर उस बानर ने एक तेज हुंकार भरी तो लोगों ने आवाज से पहचाना, ‘अरे ये तो हमारे पुराने महाराज बाली है, जिनको मरा हुआ मान कर सारे आखिरी क्रिया करम कर दिये गये हैं।’

बाली की हुंकार जब राजमहल में पहुंची तो वहां भूकंप सा आ गया। महल के नये सैनिक, नौकर और दूसरे लोग भयभीत से इधर-उधर भागने लगे। ...और राजा सुग्रीव तो सबसे ज्यादा डरे हुए थे। उन्होंनेअपने मंत्रियों को तत्काल बुलाया । मंत्रियों ने ही तो जल्दी मचाई थी कि बाली को मरा हुआ मान कर सुग्रीव राजा बन जायें। सुग्रीव इंतजार कर रहे थे, लेकिन सिवाय हनुमान और जामवंत के कोई भी मंत्री उनके पास नहीं आया था, लग रहा था कि वे भी डर के मार या तो कहीं भाग गये थे या फिर छिप कर बैठ गये थे।

जामवंत की सलाह पर सुग्रीव ने अपना राजमुकुट एक थाली में सजाया और वे अपने दोनों प्रिय मत्री जामवंत व हनुमान के अलावा, अपनी पत्नी रूमा, बेटा गद और भाभी तारा व भतीजे अंगद को साथ लेकर चौराहे पर खड़े बाली के पास चल पड़े।

स्ुाग्रीव को देख कर बाली ने फिर से हुंकार भरी। जिसे सुन कर सुग्रीव के आगे बढ़ते कदम जहां के तहां ठिठक गये। लेकिन अब लौटना संभव न था सो वे तुरंेत ही आगे बढ़ने लगे।

बाली के सामने पहुंच कर वे उन्होनेे झुककर प्रणाम किया । राजमुकुट उनके सामने रखा और नीची नजरें करके जहां के तहां खड़े रह गये।

बाली का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वे चीखे, ‘‘ क्यों वे डरपोक चूहे, तुझे राजा बनने का बड़ा शौक था । तूने मेरा इंतजार भी नहीं किया और मेरी गुफा को बंद कर के भाग आया। ’’

‘‘ भैया, आपने पन्द्रह दिन इंतजार करने को कहा था फिर भी मैं एक महीने...’’ सुग्रीव ने अपनी बात कहने की कोशिश की लेकिन बाली ने उनकी बात काट दी ‘‘ अरे चुप्प रहे झूठे, अंदर गुफा में कितना अंधेरा था और वो तो उसका अपना घर था, उसके पास जाने कितने हथियार थे। मैं निहत्था लड़ रहा था उससे और वो चूहा इधर-उधर छिप जाता था। तू क्या जानता है कि मैं उसके सामने गिडगिड़ाता कि बस भाई रहने दे,, पन्द्रह दिन पूरे हो गये, मेरा भैया मुझे मरा मान लेगा।....धत्तेरे की नालायक !’’

बिना गलती के बाली सुग्रीव को डांटे जा रहे थे सो उन्हे भी चिढ़ हो आई, बोले ‘‘आप को क्या पता कि बिना राजा के यह राज्य कितना असुरक्षित था। आपको तो आदत है कि जहां तहां फटे में टांग अड़ाते हों।’’

बाली को बड़ा अचरज हुआ कि सुग्रीव ऐसी कड़वी बात कह रहा है, उसमें इतनी हिम्मत कहां से आई ? उन्होंनेसुग्रीव के पास खड़े जामवंत और हनुमान को देखा, फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘ तो तू इन दो सलाहकारों की दम पर मुझसे ऐंठ रहा है। अरे इन दोनों को तो मैं यों मच्छर कीतरह मसल डालूंगा।’’

जामवंत ने बीच बचाव करते हुए कहा, ‘‘ महाराज बाली, हम तो आज भी आपको ही राजा मानते हैं। हम आप भाई-भाई के बीच काहे को लड़ाई करायेंगे? और सुग्रीव जी भला हमारी हिम्मत से अपने बड़े भाई को गलत काहे बोलेंगे। घर की बात घर में रहने दो। आप महल में पधारो और अपना राजपाट संभालो।’’

बाली ने जामवंत की उम्र का भी ख्याल नहीं किया । अपनी आदत के अनुरूप उन्हे भी बूढ़ा और रंगा सियार आदि अपशब्द बोलने लगे तो हनुमान का भी खून खौल उठा, लेकिन वे चुप खड़े रहे। बाली ने उनसे कुछ नहीं कहा था इसलिए बीच में बोलना उन्हे उचित नहीं लगा।

अचानक बाली का गुस्सा फिर भढ़क उठा, उन्होंनेअपनी गदा संभाली और बिना चेतावनी दिये एक छलांग लगाकर सुग्रीव पर हमला कर दिया। सुग्रीव तो पहले से ही डरे हुये थे और फिर बिना हथियार के वहां आये थे सो वे जब तक संभलते तब तक तो बाली ने उन्हे मारते-मारते अधमरा कर डाला था।

तब हनुमान को लगा कि अब बीच में आना ठीक होगा सो उन्होंनेबाली और सुग्रीव के बीच जाकर बाली का हाथ पकड़ लिया और बोले ‘‘ इनको मार ही दोगे क्या?’’

बाली हैरान थे। उन्हे पता था कि यदि कुश्ती हुई तो हनुमान भी ज्यादा कमजोर साबित नहीं होंगे। मन मार के उन्होंनेअपना हाथ रोका और नफरत भरे स्वर में बोले, ‘‘ तुम कहते हो तो आज इसे छोड़ देता हूं। जाओ मैं आज से तुम तीनों को देशनिकाला देता हूं। आप लोग तुरंत ही मेरा राज्य छोड़ दो।’’

सुग्रीव बहुत बेइज्जत हो चुके थे। वे मुड़े और अपनी पत्नी से बोले, ‘‘ चलो रूमा, अपन लोग चलते हैं।’’

‘‘ इसको कहां ले जाता है? इसी जगह रहेगी।’’ बाली ने सुग्रीव को डांटा तो सुग्रीव को सांप ही सूंघ गया।

हनुमान और जामवंत भी हक्के-बक्के होकर सुग्रीव को देख रहे थे।

फिर बाली ने घुड़क कर सुग्रीव से कहा, ‘‘ तुम बड़े बेशर्म हो, अब तक यहीं खड़े हो। चलो भागो यहां से। नही तो...’’

‘‘ भाई साहब मैं अपने पति के साथ...’’ रूमा ने बाली को टोकने का प्रयास किया, लेकिन बाली ने उसकी बात को बीच में ही काट दिया, ‘‘ तुम चुप रहो रूमा। ये तो आज से खानाबदोश हो गया, तुम कहां मारी-मारी फिरोगी? चलो तुम तारा के साथ महलों में रहो।’’

बाली ने बिलखती रूमा का हाथ पकड़ा और नन्हे से गद को भी अपने साथ लेकर महल की ओर चल दिये थे। उधर संुग्रीव बेइज्जती और गुस्से में भरे हुए उन्हे देख रहे थे। जब बाली नजरों से ओझल हो गये तो सुग्रीव को होश आया और वे चुपचाप उस मार्ग पर बढ़ गये जो पम्पापुर से बाहर ऋष्यमूक पर्वत को जाता था।

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ऋष्यमूक

जामवंत जब कोई किस्सा सुनाते हैं तो ऐसा रोचक होता है कि सुनने वाले बंध कर रह जाते हैं। लोग खाना-पीना भूल कर उनकी बातों में डूब जाते है। उन्होंनेएक लम्बी सांस लेकर उस आगे का किस्सा आरंभ किया।

सुग्रीव का नया ठिकाना ऋष्यमूक पर्वत बना। वही ऋष्यमूक पर्वत जहां के बारे में कई किंवदन्ती प्रचलित हैं। कोई कहता है कि बाली को वहां के सात ताड़ वृक्षों के नीचे तपस्या करते मुनि ने गुस्सा होकर शाप दिया है कि जिस दिन ऋष्यमूक पर्वत पर बाली आ गये उनके सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे । तो कोई कहता है कि वहां बने सूर्य मंदिर पर गलती से खून का अभिशेक कर देने की आत्मग्लानि से बाली वहां खुद ही नहीं जाते। कोई-कोई यह भी कहता है वहां के वनवासिया ने तय कर रखा है बाली जिस दिन ऋष्यमूक पर्वत पर चढ़ कर ऊपर आ गए, उसी दिन उनका काम तमाम कर दिया जायगा। कोई यह भी कहता कि अपने छोटे भाई के बचपने और डरपोक स्वभाव से परिचित बाली बहुत निश्चिंत थे। वे पम्पापुर के इतने पास रह रहे सुग्रीव की कुशलता के समाचार लेते रहते हैं और यहां जानबूझ कर नहीं आते कि कहीं सुग्रीव यहां से भाग कर किसी दूर के पर्वत पर किसी असुरक्षित जगह न चला जाये। उधर कुल मिला कर यह जगह सुग्रीव को सुरक्षित जान पड़ी, सो उन्होंने अपने दोनों सचिवों के साथ वहां रहना शुरू कर दिया।

बाली के मन में सुग्रीव और उसके राज्यकाल के मंत्रियों के प्रति बहुत नफरत बढ़ गई थी । वह कोई न कोई बहाने खोज कर हर उस आदमी को भरे दरबार में अपमानित कर देते, जो सुग्रीव की तारीफ कर देता या जिसके बारे में यह पता लगता था कि वह सुग्रीव के प्रति वफादार है। वे उसे किसी न किसी तरह अपने दरबार से निकाल देते थे, और वह आदमी सीधा सुग्रीव के पास आ पहुंचता था। इस तरह तीन लोगों की संख्या से आरंभ हुआ यह काफिला लगातार बढ़ने लगा । जिस दिन अयोध्या के निर्वासित राजकुमार राम और लक्ष्मण यहां आये, तब तक यहां बानर योद्धाओं की अच्छी-खासी छावनी बन चुकी थी।

प्ंापापुर में पहले जामवंत की देख रेख में चलने वाला जासूसी यानी गुप्तचर विभाग अब महारानी तारा की देखरेख में चल रहा था, ठीक उसी तरह जैसे लंका का गुप्तचर विभाग लंका की महारानी मंदोदरी संभालती थीं। अंगद को भली प्रकार से याद है कि महारानी तारा के जासूसों ने ही खबर दी थी कि लंका इतना सुरक्षित किला है कि वहां यदि मच्छर भी भीतर घुसता है, तो लंका के जासूसों को तत्काल खबर हो जाती है।

जामबंत ने ऋष्यमूक पर्वत के वनवासियों की मदद से दूर-दूर तक के पहाड़ों पर रहने वाले दूसरे ऐसे आदिवासियांे को अपना दोस्त बनाना शुरू कर दिया था,जो सुग्रीव के प्रति हमदर्दी रखते थे। । इन्ही दोस्तों में से ज्यादातर लोगों की बस्ती में जाकर वे उन्हे इस तरह लड़ना सिखाने लगे कि बिना किसी हथियार के वे लोग पत्थर के टुकड़े या वृक्ष हाथ में रखकर किसी हथियारबंद आदमी से लड़ कर आसानी से उससे जीत सकें। कुछ जवान लड़के छांट कर उन्हे जामवंत जासूसी सिखा रहे थे। जिनमें से कुछ को आजकल पर्वत के चारों ओर इस तरह मौजूद रखा जाता था कि जब भी कोई अंजान आदमी ऋष्यमूक पर्वत के आसपास दिखे, इशारों ही इशारों तुरंत ही जामवंत तक इसकी खबर आ जाये।

यह व्यवस्था काम में आई । राम और लक्ष्मण पर्वत की चोटी की की तरफ जाने वाले मुख्य रास्ते से ओर बढ़े, तो सबसे नीचे एक पेड़ पर बैठे आदिवासी युवक ने कोयल की तरह कूकने की आवाज उत्पन्न की। यह आवाज सुन कुछ दूरी पर ऊपर की ओर बैठे दूसरे ने वही आवाज की और इस तरह एक-एक कर जामवंत के इन जासूसों के इशारों से पर्वत के ऊपर बैठे जामवंत को पता लग गया कि कोई दो हृश्ट-पृश्ट जवान लोग हाथों में धनुश बाण लेकर तेजी से ऊपर चले आ रहे हैं। सुग्रीव को पता लगा तो वे घबरा गये। मन ही मन जाने क्या सोचते हुए डरे हुए अंदाज में उन्होंनेएक-एक कर अपने आसपास बैठे सारे योद्धाओं पर नजरें डाली, फिर आखिरी में हनुमान से बोले, ‘‘ हनुमान, इस काम में केवल तुम समर्थ हो, इसलिए तुम्ही जाकर पता लगाओ कि इस तरह निडर हो कर पहाड़ पर चढ़ने वाले वे दोनों अन्जान वीर कौन हैं? ’’

हनुमान क्षण भर में तैयार थे। सुग्रीव दुबारा बोले ‘‘हो सकता है ये अन्जान लोग मेरी तलाश में आये हों। मुझे मारने के लिए इन्हे कोई उपहार देकर शायद बाली ने भेजा होे। अगर तुम्हे ऐसा लगे तो वहीं से इशारा कर देना, मैं इस पर्वत को छोड़ कर किसी सुरक्षित जगह भाग जांऊंगा।’’

जामवंत सुग्रीव को धीरज बंधते हुए बोले, ‘‘ सुग्रीव जी, आप बिना बात डरो मत। हम लोग पूरी तरह से किसी का भी मुकाबिला करने के लिए तैयार है। फिर भी मुझे इन दोनों वीर लोगों से कोई भय नहीं लग रहा है। मैंने सुना है कि इन दिनों गंगा पार के एक बहुत बड़े साम्राज्य के बहादुर और दयावान दो राजकुमार हमारे आसपास के जगल में भटकते फिर रहे हैं। अगर हमारे पर्वत पर आने वाले वे ही दोनों जन हैं तो वे हमारे लिये कोई खतरा पैदा नहीं करेगे बल्कि हो सकता है कि ऐसा कोई रास्ता निकल सकेगा कि हम लोग पम्पापुर वापस पहुंच सकेंगे।’’

जामवंत की बात पर ध्यान न देते हुए सुग्रीव ने इस ढंग से अपनी तैयारी शुरू करदी कि अचानक ही जरूरत होने पर वे आसानी से चल सकें। तब तक हनुमान ने अपने बदन पर एक पीला चादर लपेट लिया था और अपना अस्त्र यानी गदा एक तरफ रख कर वे भी नीचे की ओर चलने को तैयार थे। उन्होंनेजामवंत की ओर उचित सलाह के लिए नजरें फेंकीं तो जामवंत ने बिना कुछ कहें उन्हे जल्दी से चल पड़ने का संकेत किया।

एक पेड़ से दूसरे पर छलांग लगाते हनुमान बड़ी तेजी से पहाड़ के निचले हिस्से की ओर बढ़ चले और वे घड़ी भर में ही राम-लक्ष्मण के सामने थे। लक्ष्मण ने पहलवान जैसे एक बहुत ही लम्बे और तगड़े आदमी को बदन पर पीली चादर लपेटे अपने सामने खड़ा पाया तो आदत के मुताबिक उनके हाथ अपने आप धनुश बाण पर चले गये । वे धनुश पर बाण चड़ाने लगे कि राम ने उन्हे रूकने का इशारा किया ।

हजारों लोगों से मिल चुके अनुभवी हनुमान क्षण भर में ही देख चुके थे कि अपनी रक्षा के लिए हमेशा फुर्ती से तैयार होने में समर्थ इन युवकों की वेशभूशा से इनके बारे में काफी पता लग जाता है। माथे पर बालों का खुबसूरत सा जूड़ा बांधे दोनों युवकों ने बदन पर एक-एक पीला सा दुपट्टा लटका रखा है और बहुत साधारण से पीले कपड़े की धोती को अपने पैरों में इस खुबसूरत ढंग से बांध रखा है कि जरूरत पड़ने पर वे लोग बिना किसी बाधा के तेज गति से किसी का पीछा कर सकें और बिना किन्ही हथियारों केे किसी का भी मुकाबिला कर सकें। बड़ी बारीकी से राम और लक्ष्मण का निरीक्षण करते हनुमान ने देखा कि उनके पांवों में बांधी हुई धोती इस ढंग की थी जो गंगा के उस पार के बड़े मैदानों में बसे हुये लोगों के राजा-महाराजा बांधा करते थे। उन दोनों के चेहरे पर छाई उदासी और अपनी तेज नजरों से आसपास के इलाके को घूरते रहने के उनके अंदाज को देख हनुमान ने महसूस कर लिया कि वे किसी की तलाश में ही ऋष्यमूक पर्वत पर जा रहे हैं। हनुमान को उन दोनों के चेहरे के भाव देख कर लगरहा था कि किसी की हत्या करने वाले भाड़े के हत्यारे नहीं है, बल्कि दोनों के मुख पर किसी दयावान व्यक्ति की तरह हरेक को सम्मान से देखने के भाव थे।

हनुमान ने विनम्र होकर उन दोनों को नमस्कार किया तो देखा कि बदले में वे दोनों भी मुस्करा कर उन्हे नमस्कार कर रहे हैं।

हनुमान बोले, ‘‘ हे बहादुर युवको, मैं एक साधारण सा ब्राह्मण तपस्वी हूं और इसी पहाड़ी इलाके में रहता हूं। मैं जानना चाहता हूं कि दिखने में मैदानों के किसी बड़े राजा के बेटे जैसे लगते आप लोग कौन हैं, और इधर सूने पहाड़ों पर कैसे घूमते फिर रहे है? हो सकता है कि मैं आपकी कोई मदद कर सकूं।’’

‘‘ आप ख्ुाद को तपस्वी ब्राह्मण कहते हैं जबकि आपके हट्टे-कट्टे कसरती बदन से आप एक योद्धा जैसे दिख रहे हैं इसलिए सचाई बताना नहीं चाहिए, फिर भी छिपाने से क्या फायदा। हम लोग गंगा के उस पार के एक बहुत बड़े राज्य अवध के महाराज दसरथ के बेटे राम और लक्ष्मण हैं। अपने पिता के आदेश से हम लोग उधर पंचवटी के जंगलों में वास कर रहे थे कि किसी ने मेरी पत्नी का अपहरण कर लिया है । सुना है कि इन पहाड़ों के बीच बसे नगर पम्पापुर में एक अभिमानी और दुश्ट बानर राजा बाली रहता है जिसकी दोस्ती इसी तरह के एक दूसरे दुश्ट राजा लंकाधिपति रावण से है। हम दोनों उन्ही को खोजते इन पहाड़ों और जंगलों में भटक रहे हैं। अगर आप इस मामले में हमारी मदद कर सकते हैं तेा भैया हमारी मदद कीजिये।’’ बहुत लम्बे हनुमान के चेहरे की ओर ताकते राम ने विनम्र आवाज में जवाब दिया ।

हनुमान को जामवंत की बात याद आ गई। वे अपना पीला चादर समेट कर उसे दुपट्टे की तरह अपने बदन पर लपेटते हुए बोले, ‘‘ मेरे कपट को क्षमा करें प्रभू! सच्ची बात यह है कि हम लोग बानर जनजाति के लोग हैं और इस पर्वत पर अपने नेता सुग्रीव के साथ बहुत सतर्क रहकर निवास करते हैं क्योंकि हमको चारों ओर से खतरा नजर आता है। इसलिए मैंने अपना झूठा परिचय दिया था। आपको पूरी कहानी मेरे नेता सुग्रीव सुनायेंगे। चलिए हम उन्ही के पास चलते हैं।’’

हनुमान ने दुबारा प्रणाम कर अपने झूठ के लिए क्षमा मांगी और राम की सहमति जानकर उन्हे रास्ता दिखाते हुए पर्वत की चोटी की तरफ चल पड़े।

कुछ ही पल में वे लोग पहाड़की चोटी पर थे। हनुमान ने एक बहुत छोटी और सरल पगडण्डी पकड़ कर उन्हे यहां तक पहुंचा दिया था।

राम ने देखा कि पहाड़ की चोटी पर पत्थर की बहुत बड़ी खुली गुफा में एक ऊंची से चट्टान पर डरा हुआ सा एक बानर योद्धा हाथ में गदा लिये खड़ा है, जिसके पास उसी जैसे कई दूसरे लोग खड़े हुए उनकी ओर बड़ी सतर्क सी निगाहों से ताक रहे हैं।

लक्ष्मण तो चौंक ही गये जब उन्होंनेदेखा कि बहुत ही बूढ़े सज्जन ठीक उनके पीछे की झाड़ी के पीछे से छलांग लगा कर सामने आ खड़े हुये थे और हाथ जोड़कर अपना परिचय दे रहे थे, ‘‘ मैं हनुमान जी के पीछे पीछे नीचे तक पहुंच गया थ और आप लोगों कीबातें सुन चुका हूं। मेरा परिचय यह है कि मैं इन महाराज सुग्रीव का मंत्री जामवंत हूं। मैंने इस पूरे आर्यवर्त देश को घूम रखा है। मैंने आपकी राजधानी अयोध्या भी देखी है और आपकी पत्नी जानकी का मायका जनकपुर भी मैं देख चुका हूं। आप हम सबको अपना दोस्त समझिये।ये हमारे नेता सुग्रीव जी हैं और हनुमान से आप मिल ही चुके हैं, बाकी लोगों से आपका परिचय अभी कराते हैं। ’’

हनुमान ने आगे बढ़ कर सुग्रीव को राम और लक्ष्मण का परिचय दिया तथा अपने दल के लोगों का परिचय राम-लक्ष्मण से कराया। राम लक्ष्मण उन सबसे गले लग कर दोस्तों की तरह मिले, फिर सब लोग वहां रखे हुए पत्थर के टुकड़ों पर बैठ गये।

द्विविद, मयंद और नल-नील ने तुरंत ही सबके लिए ताजे फलों का इंतजाम कर अल्पाहार कराया । जामवंत ने पहाड़ पर चढ़ने की मेहनत से थक चुके राम और लक्ष्मण से कुछ देर आराम करने का अनुरोध किया।

राम ने उनका अनुरोध मान लिया वे गुफा के भीतर जाकर बिश्राम करने लगे, जबकि लक्ष्मण हाथ में धनुशबाण लेकर बाहर पहरा देने लगे।

सूरज का गोला अस्त होने की तैयारी कर रहा था कि राम उठ कर बाहर आये। लक्ष्मण के साथ सबने उन्हे प्रणाम किया। सुग्रीव ने अपने सबसे ऊंचे आसन पर उन्हे बैठने का इशारा किया। राम बैठे तो बाकी सब भी बैठने लगे।

राम ने हंस कर सुग्रीव से पूछा, ‘‘ बताओ सुग्रीव, तुम इस सुनसान और असुविधा वाले पहाड़ पर अपने दोस्तों के साथ क्यों निवास कर रहे हो?’’

सुग्रीव रूआंसे हो उठे। उनका गला भर आया। उन्होंने दुःखी भाव से अपने भाई बाली का किस्सा बड़े विस्तार से राम - लक्ष्मण को सुनाया और अंत में निवेदन किया कि उनकी एक ही इच्छा है कि किसी तरह उनका खोया हुआ सम्मान मिल सके तथा वे बाली को उसके गलत व्यवहार का दण्ड दे सकें और पूरी इज्जत के साथ वापस पम्पापुर लौट जायें।

राम ने उन्हे पूरा भरोसा दिलाया कि उनकी इच्छा पूरी होगी। लक्ष्मण ने तो राम के मन में छुपे हुए भाव को खुल कर बताया ‘‘ हे सुग्रीव जी, अब आप निश्चिंत रहिए। हम लोग इस पहाड़ी क्षेत्र को बाली नाम के दुश्ट आदमी के आतंक से छुटकारा दिला कर दम लेंगे। जल्दी ही आप अपने घर वापस पहुंच जायेंगे।’’

अचानक राम ने पूछा, ‘‘ हे सुग्रीवजी , आपकी तकलीफ तो हमने सुन ली । आप हमारा दुख भी सुन लीजिये।’’

राम ने विस्तार से बताया कि किस तरह पंचवटी नामक जगह पर रहने के दौरान उनकी ऐसे वक्त जब राम और लक्ष्मण शिकार करने गये थे, सूनी कुटिया से उनकी पत्नी सीता का किसी ने हरण कर लिया है। उन्हे शंका है कि अपनी ताकत के घमण्ड में मतवाले बाली ने तो ऐसा नहीं किया है!

जामबंत ने तुरंत ही कहा ‘‘ प्रभु यह सही है कि बाली को अपनी ताकत का बड़ा अभिमान है लेकिन आपकी पत्नी जानकी का हरण बाली ने नहीं किया होगा। क्योंकि मैं उनका पुराना साथी हूं। बाली को किसी को भी गालियां देने, बुरा भला कहने और बिना बात भिढ़ जाने की आदत तो है लेकिन किसी की पत्नी का अपमान करने या हरण करने का बुरा काम उन्होंनेआज तक नहीं किया है।’’

राम को अब भी आशंका थी, वे बोले ‘‘ लेकिन सुग्रीव जी कह रहे हैं कि बाली ने इनकी पत्नी और बेटे को इनसे छीन कर अपने महल में रख लिया है।’’

जामवंत पूरी गंभीर आवाज में बोले, ‘‘ मेरे जासूसों ने खबर दी है कि सुग्रीव जी की पत्नी को वहां पूरा सम्मान और सुविधा दी गई है। वे न तो महल के जेलखाने में बंदी हैं न ही उन्हे नौकरानी या दासी बनाया गया है।’’

लक्ष्मण ने सुना कि सुग्रीव बुदबुदा उठे हैं, ‘‘ मुझे तो आपके जासूसों पर विश्वास नहीं है, मेरा मन तो कहता है कि बाली ने रूमा को जबरदस्ती अपनी पत्नी बना लिया है।’’

‘‘ बाली की दोस्ती रावण जैसे नीच आदमी के साथ है, जो इसी बात के लिए बदनाम है कि जहां तहां से लड़कियों और औरतों को उठा लाता है और उनको बेच कर अपनी सोने की लंका में सोने का भण्डार बढ़ाता जाता है।’’ राम ने जामवंत से फिर पूछा।

‘‘ हे प्रभो, रावण से बाली की कभी दोस्ती नहीं रही। बाली ने तो रावण का घमण्ड तोड़ा है और उसे अपने महल में छह महीने तक बंदी बना कर रखा था। हां, आपका शक रावण की तरफ ठीक गया है, वह ऐसा ही दुश्ट और कमीना है। और मुझे तो लगता है कि उस दिन अपने रथ में एक रोती हुई औरत को बैठा कर वही भागा जा रहा था...’’ जामवंत को सहसा कुछ याद आया और वे आगे बोलते इसके पहले ही राम ने उनकी बात काटी ‘‘ कब कीबात है यह?’’

अब सुग्रीव बोले, ‘‘ हे रधुवंशी रामजी, हम सब एक दिन ऋष्यमूक पर्वत के निचले हिस्से में एक सुरक्षा चौकी देखने गये थे कि हमने पाया कि एक काला कलूटा सा भैंसे जैसे तगड़ा आदमी अपने रथ में एक बहुत संदर स्त्री को बैठाये भागा जा रहा था। उसने अपने बांये हाथ से रथ में जुते घोड़ों की डोर थाम रखी थी जबकि दांये हाथ से उसने रोती हुई स्त्री के बाल पकड़ रखे थे। वह औरत देख कर जोर से चीखी और हमसे मदद की गुहार करने लगी । लेकिन हम लोग तो पहले से ही बाली से डरे हुए लोग हैं, सो हम जहां के तहां खड़े रहे और वह दुश्ट हमारे सामने से निकल गया। उन भली महिला ने हमे देख कर अपने कुछ जेवर हमारी ओर फेंके थे कि शायद सोने के जेवरों के बदले हम उन्हे मुक्त कराने का साहस करेंगे। हालांकि उस दुश्ट की यह हरकत देख कर महाबली हनुमान ने आगे बढ़ने की कोशिश की थी तो जामवंत जी ने उन्हे रोक कर कहा था कि जब तक दुश्मन की ताकत का अंदाजा न हो, तब तक उस पर हमला नही करना चाहिए।’’

राम ने जल्दबाजी में कहा, ‘‘ वे जेवर कहां है?’’

‘‘ जाओ द्विविद वे जेवर उठा लाओ।’’ सुग्रीव ने हुकुम दिया।

बानर द्विविद ने गुफा से लाकर महिलाओं द्वारा गले में पहने जाने वाले एक हार और कान का एक कुण्डल लाकर राम के हाथ में दिया तो राम तत्काल पहचान गये कि यह तो सीता के ही जेवर हैं। उन्हेाने लक्ष्मण से कहा, ‘‘ यह पक्का हो गया कि सीता को रथ में बैठा कर ले जाया गया था, लेकिन वो काला कलूटा आदमी कौन था, इसका पता लगना बाकी है।’’

जामवंत बोले, ‘‘ प्रभु आप सुग्रीव जी का कश्ट दूर कर दीजिये । हम सब आपके साथ हें । हम कंधे से कंधा भिढ़ा कर उस चोर को तलाश करेंगे और उसे इस भयानक अपराध के बदले में उचित सजा देने के लिए अपनी जान तक दांव पर लगा देंगे। हम लोगों ने इस बीच एक वनवासी सेना बनाई है जिसका उपयोग हम पम्पापुर पर हमला करने के लिऐ करने वाले थे, अब यह सेना आपके काम के लिए काम में लाई जायगी।’’

राम भी अपनी बात पर अटल पर थे। वे बोले, ‘‘ मैं कल ही चल कर बाली को उसकी सजा देने का तैयार हूं।’’

जामबंत बोले, ‘‘ प्रभो, आपका कोई निजी बैर भी बाली से नही हैं फिर आप तो पिता की आज्ञा से वनबास में हैं, इन दिनों आप किसी नगर में जाते भी नही है । इसके अलावा यदि आप बिना बात ही इन दो भाइयों के बीच लड़ाई में कूदेंगे, तो हमारे साथ के बहुत से बानर और आदिवासी लोग आपसे नाराज हो जायेंगे। इसलिए इस लड़ाई से आप दूर दिखते हुए ऐसा कुछ तरीका खोजिये कि सुग्रीव जी के हाथों बाली को दण्ड दिलाया जाये।’’

लक्ष्मण ने देखा कि सुग्रीव ने यह सुना तो वे कंप गये। धीरज त्याग कर वे बोल उठे, ‘‘जामवंत जी, मेरे भाई इतने ज्यादा ताकतवर हैं कि मै सपने में भी नहीं सोच पाऊंगा कि उन्हे दण्ड दे सकूं।’’

‘‘ आप चिन्ता न करें, मेरा छोटा भाई लक्ष्मण पम्पापुर जाकर बाली को पकड़ कर इसी पहाड़ पर घसीट लायेगा और आप यही उसको दण्ड देंगे।’’ राम ने सुग्रीव को निश्ंिचंत किया।

जामबंत फिर अपनी बात पर आ गये,‘‘नही रघुवीर राम जी, आप दोनो भाइयों का इस तरह बाली से लड़ने से हमारे अगले संघर्श पर गलत असर पड़ेगा। हम पहाड़ी लोगों के झगड़े में आप मैदान के रहने वाले लोगों का बीच में आना कोई स्वीकार नहीं कर पायेगा।’’

‘‘तो आप क्या चाहते हैं?’’ राम ने जामवंत पर आखिरी निर्णय छोड़ा।

‘‘ कल मैं विचार करके कोई रास्ता सुझाने की कोशिश करूंगा।’’ जामवंत ने बेहिचक उत्तर दिया तो यह सभा समाप्त हो गई और सब लोग संध्या के भोजन और सोने की तैयारी करने लगे।

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कुश्ती

पांच दिन बाद!

सब लोग चलने को तैयार थे बस राम के हुकुम का इंतजार था।

दो दिन में राम और जामवंत को बहुत कुछ करना पड़ा।

राम ने सुग्रीव को समझाया कि बाली से इतना डरो मत! वह कोई पत्थर की मूर्ति नहीं है, एक साधारण सा आदमी है, यदि पूरी हिम्मत के साथ उससे कुश्ती की जावे तो उसे हराना कोई कठिन काम नही है, और राम का खुद जाकर बिना बात उससे लड़ बैठना ठीक नही है। क्योंकि बाहर का आदमी लड़ाई करेगा तो तुम्हारे समाज के लोग भी गुस्सा हो जायेंगे। उनका गुस्सा होना ठीक नहीं, क्योंकि कल को तुम राजा बनोंगे तो उन्ही से तो काम लेना है तुम्हे।

उधर जामवंत ने अपने जासूसों से पम्पापुर में यह अफवाह फैला दी कि ऋष्यमूक पर्वत के मुनियों ने ताकतवर असर वाली जड़ी-बूटीयों को खिलाने के साथ मल्लयुद्ध के दांवपेंच सिखा कर सुग्रीव की देह वज्र सी कठोर बना दी है, यानीकि आजकल सुग्रीव बहुत बलशाली हो गये हैं। वे किसी भी दिन पम्पापुर आकर बाली को कुश्ती के लिए ललकारने वालेे हैं। बाली के राजदरबार के अनेक बानर वीरों को भी यह समझाया गया कि मनमाने तरीके से राज काज चलाने के बाली के दिन खत्म होने वाले हैं, अब भलाई इसी में है कि बाली-सुग्रीव की लड़ाई में सुग्रीव का साथ दिया जाय।

कुल मिला कर पम्पापुर का माहौल ऐसा हो गया था कि बाली सुग्रीव की लड़ाई को लोग इस तरह देखने लगे थे , यह दो भाइयों की आपसी लड़ाई है न कि किष्किन्धा के राजा की किसी दूसरे देश के नागरिक से।

हनुमान , द्विविद, नील , नल और जामवंत ने अपने सैकड़ों वनवासी साथियों के साथ पम्पापुर के बाहर उस बागीचे तक पहुंच कर उसको चारों ओर से घेर लिया जहां कि बाली को उकसा कर सुग्रीव कुश्ती के लिए लाने वाले थे।

इसके बाद सुग्रीव को तैयार कर राम और लक्ष्मण भी ऋष्यमूक पर्वत से चलपड़े। फिर राम-लक्ष्मण को बागीचे के बाहर छोड़कर सुग्रीव पम्पापुर में धंसते चले गये और ठीक राजमहल केसामने जापहुंचे। बाहर खड़े सेनिकों ने उन्हे देखा तो वे पहले चौंके फिर पिछले दिनों नगर में चल रही अफवाहेंउन्हे याद आई ंकि इन दिनों सुग्रीव का बदन वज्र की तरह हो गया है और वे किसी भी दिन आकर बाली को कुश्ती के लिए ललकारने वाले है। अब भलाई इसी में है कि बाली की बजाय सुग्रीव का सा थ दिया जाय। सैनिक डर से चिल्लातेहुए भीतर की ओर भागे तो सुग्रीव ने खुशी और अहंकार में भर कर एक किलकारी मारी। महल के सन्नाटे में सुग्रीव का स्वर कोने-कोने तक गूंज उठा। भीतर बाली आराम फरमा रहे थे, उन्होंने सुना तो अपने एक सेवक से सारा माजरा पूछा। भय से थर-थर कांपते सैनिक ने जो कुद सुना था वह और जो कुछ देखा था पूरा का पूरा कहसुनाया। बाली ठहाका लगा कर हंस पड़ें।

सहसा सुग्रीव की ललकार फिर सुनाई पड़ी तो बाली की हंसी ठहर गई। उन्होंने बैठे-बैठे ही एक हुंकार लगाई और अपनी गदा संभाल कर बाहर की ओर चलने को उठ खड़े हुए। अचानक ही महारानी तारा उनके सामने आ खड़ी हुई थीं। बाली ने गुससा होते हुए उन्हे अपने सामने से हटने को कहा तो वे बोलीं, ‘‘ महाराज, आप सुग्रीव को अकेला जान कर उससे कुश्ती के लिए जा रहे हैं, लेकिन आपको शायद पता नहीं हैं कि इस समय सुग्रीव की दोस्ती अयोध्या के राजकुमार राम और लक्ष्मण से हो चुकी है। वे दोनों भाई सुग्रीव के साथ हैं और आपको अनुमान नही है िक वे दोनों कितने ताकतवर इंसान हैं।’’

बाली ने तारा द्वारा जुटाई गई गुप्त सूचना पर कतई विश्वास नही किया बल्कि उसकी हंसी उड़़ाते हुये बोले, ‘‘ महारानी, तुम इन झूठी सच्ची अफवहों पर ध्यान न दिया करो। और फिर राम ओर लक्ष्मण भी यदि इस वक्त बाली के साथ हैं तो मुझे उनसे क्या डरना? मैं उनसे भी दो-दो हाथ कर लूंगा।’’

यह कह कर बाली महल से निकल पड़े।

सुग्रीव ने देखा कि हृश्ट-पुश्ट बाली अपने हाथ में भारी भरकम गदा लिये हाथी की तरह मदमस्त हो चले आ रहे है। बाली को पुराने सारे प्रसंग याद आ गये, जब कि बाली ने अपने हाथेां से उनकी ढंग्र से कुटम्मस की थी। सुग्रीव डर के मारे कंप गये। उन्होंने अपने चारों ओर देखा। वे यहां निहायत अकेले खड़े थे। आसपास न तो कोई सहयोगी था न ही कोई सहायक पहलवान। वे सहसा पलटे और उन्होंनेउस बागीचे की ओर दौड़ लगा दी, जहां बाली को घेर कर लाने की योजना राम ने बनाई थी।

बाली ने भागते सुग्रीव को देखा तो वे फिर हंस पड़े। लेकिन उन्हे लगा कि इस बार यदि सुग्रीव को पीटा नहीं गया तो वह बार बार दूसरेां के बहकावे में आकर इसी तरह नाटक करता रहेगा। सो वे सुग्रीव के पीछे खुद भी दौड़ पड़े।

सुग्रीव ने अपने पीछे तेज गति से भागते बाली को देखा तो वे सिर पर पैर रख कर भाग निकले।

बागीचे में जाकर सुग्रीव रूके और बाली की ओर देखने लगे। बाली केपीछे पम्पापुर के अनेक नागरिक तमाशा देखने के लिए चल ेआये थे। सुग्रीव को ललकारते बाली बोले, ‘‘ क्यों वे डरपोक, तुझमे इतनी हिम्मत कहां से आ गई कि अपनी मौत को ललकार रहा है।’’

झिझकते से सुग्रीव ने कहा, ‘‘ तुमने बहुत अत्याचार कर लिया महाराज बाली, आज मैं आपसे आर या पार की लड़ाई के लिए आया हूं।’’

‘‘ तो आजा नकली पहलवान, हो जायें दो-दो हाथ!’’ बाली ने दांत मिसमिसाये।

इतना कह कर बाली ने अपनी गदा एक तरफ फेंकी और एक झपट्टा मारा व सुग्रीव को दबोच लिया। सुग्रीव ने पूरी ताकत लगाकर अपने आपको छुड़ाने का प्रयास किया और सफल न हुए तो वे ऋष्यमूकपर्वत पर फुरसत के दिनों में सीखे गये कुश्ती के दांव याद कर कोई दांव लगाने का सोचने लगे। क्षण भर का सोचना ही उन पर भारी हो गया था। बाली ने उन्हे घूंसों और घुटने की ठोकरो से धुन कर रख दिया तो सुग्रीव हांपने लगे। उन्होंनेआशा भरी नजरों से दूर खड़े राम और लक्ष्मण की ओर देखा तो बाली तुरंत ताड़ गये।

बाली ने भी सुग्रीव को पीटते हुए उधर नजर दौड़ाई जहां सुग्रीव ताक रहा था। दूर दो तपस्वी युवक हाथ में धनुश बाण लिए इधर ही ताक रहे थे। उन दोनों तपस्वियों के चेहरे पर परेशानी के भाव देख कर बाली को भारी खुशी हुई। वे चिल्ला कर बोले, ‘‘ अरे नादान राजकुमारो, इस बेवकूफ को क्यों भढ़का कर यहां मर जाने के लिए ले आये हो। यदि तुम लोग नामर्द नहीं हो और तुम्हे अपने बल का ज्यादा घमण्ड है दूसरे की ओट से क्यों तीर चलाते हो, खुद आकर मुझसे कुश्ती लड़ों।’’

इतना सुनकर लक्ष्मण को गुस्सा आ गया, वे अखाड़े में कूदना ही चाहते थे कि राम ने इशारे से उन्हे रोक दिया।

बाली की आदत थी कि वे बहुत कड़वी बातें बोलते थे, सो चुप नही हुए बोले, ‘‘ तुम एक दूसरे को क्या ताक रहे हो डरपोक चूहो। आओ, मैं ताल ठोंक कर तुम्हे कुश्ती के लिए ललकारता हूं।’’

राम अब भी चुप थे और मुस्करा रहे थे। हनुमान को अब गुस्सा आने लगा था। लेकिन राम को मंद-मंद मुस्कराते देख कर वे भी कसमसा कर चुप खड़े रहे। जामवंत जैसे सहनशील व्यक्ति को भी बहुत गुस्सा आने लगा था।

जामवंत ने देखा कि बाली के दरबार के सारे के सारे बड़े योद्धा बागीचे के इस अखाडे़के चारों ओ रं आ चुके थे और इस वक्त एक तरफ खड़े हो कर यह तमाशा देख रहे थे।

बाली का मन सुग्रीव की पिटाई और राम के अपमान से पूरा नहीं भरा था उन्होंने सुग्रीव के हाथ से गदा छीनी, उसके दो टुकड़े कर डाले और दूर फेंक दिये। फिर उन्होंने एक बार और दर्द से कराहते सुग्रीव को पीटना शुरू कर दिया। सुग्रीव अब सहन नही कर पा रहे थे सो वे बुक्का फाड़ कर रो उठे। राम का दया आ गई। वे सोचने लगे कि यह बेचारा भोला आदमी मेरे कहने से बिना कारण ही पिटा जा रहा है। कुछ करना होगा।

एकाएक बाली को जाने क्या सूझा कि उन्होंनेबहुत तेज आवाज में हुंकार भरी और राम की ओर देख कर चिल्ला उठे, ‘‘ अरे ओ तपस्वी, क्या देख रहे हो? तुम्हारा दोस्त पिट रहा है। तुम तो सचमुच नामर्द आदमी हो । ’’

लक्ष्मण को फिर गुस्सा आया तो वे कसमसा उठें, लेकिन लक्ष्मण को रूकने का इशारा कर राम मुस्कराते हुऐ चुप खड़े रहे।

बाली का हौसला बढ़ गया। वे और जोर से चिल्लाये, ‘‘ मेरे सभासदो और बानर वीरो, देखा तुमने? ये डरपोक सुग्रीव आज बड़ा पहलवान बन कर आया था, और मेरे हाथों कैसा पिट रहा है। इसे भढ़काने वाले चुपचाप खड़े इसे पिटता देख रहे हैं।’’

राम ने बानर वीरों की तरफ देखा। वे सब उदास से खड़े थे, जैसे उन्हे कोई मतलब न था। यह बात सुगीव के पक्ष में थी। यदि वे लोग बाली की हां में हां मिलाते तो इससे साबित हो जाता कि वे सब बाली को नुकसान पहुंचने पर भढ़क उठेंगे।

बाली अब भी चिल्ला रहे थे, ‘‘ अरे ओ राम, मैं तुम्हारे पूरे परिवार को जानता हूं। तुम्हारी माँ कैकेयी जितनी सुन्दर हैं उतनी ही दुश्ट भी हैं। तुम्हारे पिता तो उनके गुलाम की तरह हैं। तुम भी......’’

बाली की बात को राम ने काट दिया, ‘‘ बस्स , चुप रहो मूर्ख बाली। बहुत हो चुका। तुम मुझे कुछ भी कहते रहो, लेकिन तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मेरे माँ-बाप के बारे में कुछ बोलो।’’

उधर जामवंत भी चिल्ला उठे थे, ‘‘ महाराज बाली, इस लड़ाई में आप राम को क्यों समेट रहे हो? फिर राम को बुरा-भला कहने के बजाय उनके पिता और माँ के बारे में क्यों अपशब्द कहते हो?’’ बानर वीरों की ओर मुड़कर जामवंत आगे बोले, ‘‘ आप सब सुनरहे हो न बानर वीरो, हमारे बाली महाराज ने राम के माता-पिता को अपमान करके पूरी बानर बिरादरी का अयोद्धा जैसे बलशाली राज्य का दुश्मन बना लिया है। वहां की सेना हमारे किष्किन्धा को क्षण भर में तहस-नहस कर डालेगी।’’

बानर योद्धा विकटास बाली का सेनापति था, वह जामवंत से बोला ‘‘ जामवंत जी, बाली महाराज की हर गलती के लिए हम लोग जिम्मेदार नही है। यह उनका निजी मामला है, आप श्रीराम से कहिये कि वे हमे अपना दुश्मन न समझें।’’

राम ने बाली से कहा, ‘‘ ये तुम्हारा निजी मामला था, मैं बोलना नहीं चाहता था, लेकिन तुम चाहते हो तो आओ हम दोनों युद्ध करते हैं।’’

बाली को मजा आ गया। राम भढ़क उठे थे।

बाली ने बगीचे का एक पतला सा पेड़ उखाड़ा और उसे लाठी की तरह घुमाते हुए राम की तरफ निशाना बांध कर फेंक दिया। राम फुर्ती से एक तरफ हट गये और उसके वार को बचा गये। लेकिन बाली रूके नहीं। उन्होंनेपास में बड़ा एक बड़ा सा पत्थर उठा लिया था और उसे राम की ओर फेंकने ही जा रहे थे कि सब चौंक उठे। इस बीच राम ने गजब की फुर्ती दिखाते हुए अपने धनुश पर एक तीर चढ़ाया था और बाली की तरफ छोड़ दिया था। राम का तीर इतनी तेजी से सनसनाते हुए बाली की ओर लपका कि देखने वाले सन्न रह गये।

तीर सीधा बाली की बांयी पसली में जाकर धंसा और वहां से खून का फोबारा निकल पड़ा। बाली के हाथ की चट्टान नीचे गिर गयी। वे अपने दांये हाथ से तीर निकालने का प्रयास करते हुए जमीन पर बैठते चले गयेउधर सुग्रीव इतने में ही डर गये थे उन्होंनेकंपते हुये हाथ से राम को दूसरा कोई बाण छोड़ने से मना कर दिया।

बाली जितना गरजते थे उतने दमदार नहीं निकले। राम के एक ही बाण ने उनका काम-तमाम कर दिया था। उनमे ंअब इतना साहस नहीं बचा था कि उठ पाते। वे राम से बोले ‘‘ हे रघुवंशी, आप बहुत बलशाली हैं। आप पहले आदमी हैं जिन्होने मुझे युद्ध में हरा दिया। मैं बहुत खुश हूं। बोलो क्या वरदान मांगते हो?’’

लक्ष्मण को हंसी सूझी कि जो आदमी खुद मौत के मुंह में फंसा हुआ हो वह दानी और महाराज बन कर वरदान की बात करता है। लेकिन राम बहुत मीठी आवाज में बोले, ‘‘ महाराज बाली, आप भी बहुत बलबान हैं। आप धीरज रखिये पंपापुर के राजवैद्य को बुूलवा कर हम आपका उचित इलाज कराते है।’’

बाली को यही सुनने के पहले ही मूर्छा आ गई थी।

किसी ने राजवैद्य को सूचना कर दी थी इस कारण कुछ ही देर में पंपापुर के एक रथ में आकर राजवैद्य अपनी दवाओं के पिटारे के साथ उतरते दिखे। वे जल्दी से बाली के इलाज में जुट गये। राम के इशारे पर सुग्रीव ने बाली का सिर अपनी गोदी में रख लिया था जबकि पंपापुर के वे बानर योद्धा जो बाली के स्वामीभक्त थे, डर गये थे और एक-एक कर के वहां से खिसकने लगे थे।

कुछ ही देर में एक रथ और आया जिसमें से बाली की पत्नी महारानी तारा अपने बारह-तेरह साल के पुत्र अंगद के साथ हड़बड़ी में उतरीं। तारा के बाल बिखरे हुए थे और वे रह-रह कर रो उठती थीं।

तारा ने अपनी गोद में बाली का सिर लिया और वैद्य की सहायता करने लगी।

वैद्य की दवा का चमत्कार था कि क्षण भर बाद बाली की मूर्छा जागी, ‘उन्होंने तारा को देखा तो मुस्करा उठे। तारा से बोले ‘‘ तुम रो क्यों रही हो। तुम्हारा पति एक बलबान और बहादुर आदमी के हाथेां हारा है। यदि मैं मर भी गया तो अब चिन्ता नही है। ये सामने राम खड़े हैं न ये मेरे बेटे अंगद को बाप की तरह लाड़ करेंगे। तुम चिन्ता मत करो।’’

ये आखिरी शब्द थे बाली के। बस इतना ही बोलना लिखा था बाली के भाग्य में। इसके बाद वे एक शब्द भी नहीं बोल पाये और तुरंत मूर्छित हो गये फिर उसी मूर्छा में कुछ देर बाद उन्होंने देह छोड़ दी।

राम ने तारा को समझाया कि बाली एक महान योद्धा थे, उन्हे लड़ाई का बहुत शौक था। उन्हे तो किसी युद्ध में ही वीर गति पाना थी। इसलिए जो हुआ उसका उन्हे खेद है। अब वे पूरे निडर होकर रहें। अंगद आज से उनका बेटा है, उसकी चिन्ता न करें।

फिर राम ने सुग्रीव को पूरे राजकीय सम्मान के साथ बाली का अंतिम संस्कार करने का आदेश दिया और वापस ऋष्यमूक पर्वत चले आये।

लक्ष्मण ने स्वयं जाकर सुग्रीव को किष्किन्धा राज्य का राजा बना कर राजतिलक किया और अंगद को युवराज बनाया। लोग श्रीराम की बुद्धिमानी पर खुश थे कि कहीं ऐसा न हो कि बाली के बेटे और पत्नी को दुश्मन मान कर सुग्रीव उनके साथ गलत बर्ताव करे सो उन्होंनेअंगद को राजा के बराबर का सम्मान और हक दे दिया।

राजा बनने के बाद सुग्रीव ने श्रीराम को पंपापुर के पास के सुदर और सुविधायुक्त पर्वत प्रवर्शन पर ठहराया और उनसे निवेदन किया कि अब वे जल्दी ही अपनी सारी सेना जनक सुता सीता को खोजने के लिए भेज देंगे।

लेकिन पूरी बरसात बीत गयी न तो सुग्रीव ने सीता को खोजने का कोई बंदोवस्त किया था न ही स्वयं आकर इस बारे में कुछ कहा तो राम को लगा कि सुग्रीव राजा बनते ही सुख और सुविधाओं में ऐसा रम गये कि उन्हे मेरा काम याद नहीं रहा सो उन्होंने लक्ष्मण को पंपापुर जाकर सुग्रीव को सबक सिखाने का निर्देश दिया था।

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