पके फलों का बाग़ - 10 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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पके फलों का बाग़ - 10

इन दिनों मुझे लगने लगा था कि जीवन भर के रिश्तों को एक बार फ़िर से देखा जाए और जिस तरह किसी अलमारी की सफ़ाई करके ये देखा जाता है कि कौन से काग़ज़ संभाल कर रखने हैं और कौन से फाड़ कर फेंके जा सकते हैं, ठीक उसी तर्ज पर संबंधों की पड़ताल भी की जाए।
वैसे अपने घर में अकेला मैं आराम से ही था। मेरी दिनचर्या में ऐसा कुछ नहीं था जिसके लिए मुझे चिंतित होने की लेशमात्र भी ज़रूरत पड़े, फ़िर भी कुछ बातों पर मुझे ध्यान देना था।
पहली बात तो ये कि परिवार के सभी लोगों ने मुझे हमेशा अपनी पत्नी, मां और बच्चों के साथ आराम और आन बान से रहते हुए ही देखा था, अतः वे ये सोच नहीं पाते थे कि मेरे यहां आने पर अब मैं उन्हें पानी कैसे पिलाऊंगा, चाय कैसे पिलाऊंगा और खाना कैसे खिलाऊंगा।
शुरू- शुरू में तो एक - दो बार ऐसा तक हुआ कि मुझसे मिलने परिजन अाए तो अपने साथ मेरे लिए भी नाश्ता पैक करवा कर लेते आए।
यहां आने पर अगर मैं उन्हें पानी देने के लिए भी उठता तो शायद उन्हें अटपटा लगता। वे या तो स्वयं उठ कर पानी आदि पीते, या फ़िर ज़रूरत नहीं कह कर मना कर दिया करते।
अगर मेरे पुराने कार्यालयों या संपर्कों से मेरे पास कोई नौकर होता तो उन्हें ऐसा लगता कि मैं बिना ज़्यादा काम होते हुए भी पूरे समय का सेवक रख कर फ़िज़ूल ख़र्च क्यों कर रहा हूं।
कुछ लोग तो ये समझते कि नौकर न जाने खाने - पीने की व्यवस्था में कैसी साफ़- सफ़ाई रख पाता होगा और वो उसे संदेह से देखते।
इस सब का नतीजा ये हुआ कि मैंने अपने परिजनों को घर पर आमंत्रित करने के लिए ज़ोर देकर कहना लगभग बंद कर दिया। धीरे - धीरे सबका आना - जाना भी कम ही हो गया।
एक कारण यह भी था कि मुझे साहित्य और लिखने- पढ़ने के काम में व्यस्त देख कर परिवार के लोग इस चिंता से थोड़े बेफिक्र भी हो जाते थे कि मेरा समय अकेले में कैसे निकलता होगा।
परिजन तो परिजन होते हैं, वो आपको समझते हैं, आप कैसे भी हों, वक़्त ज़रूरत वो आपको निभाते ही हैं।
अब बात करें मित्रों की।
जीवन भर ढेरों ऐसे मित्र परिवार रहे थे जिनके साथ मेरा और मेरे परिवार का बिल्कुल परिजनों का सा रिश्ता ही रहा था।
अब वे भी आने में कुछ संकोच करते।
लेकिन सबके घरों से सुख - दुःख के समाचार और शादी विवाह के आमंत्रण लगातार आते ही रहते।
ऐसे में मुझे भी थोड़ा सा असमंजस होता था कि क्या मुझे ऐसे परिवारों के उल्लास पर्वों में जाना चाहिए जिनसे वर्षों से मेल मुलाक़ात न रही हो।
पर भला हो सोशल मीडिया का, कि अब सबसे आभासी संपर्क तो बहुत आसानी से रहने ही लगा। मुझे भी ऐसा लगता कि जैसे मैं सारे समाज से निकटता से जुड़ा ही हुआ हूं।
मैं कभी- कभी अकेले में भी ये सोच कर शर्मिंदा होता था कि कभी बच्चों व विद्यार्थियों को मोबाइल पर ज़्यादा समय न ख़राब करने की नसीहत देने वाले हम लोगों को अब जब बच्चे हर वक़्त "ऑनलाइन" देखते होंगे तो क्या सोचते होंगे।
इसीलिए तो किसी ने कहा है- "वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज़"!
तो क्या अब मैंने सब लोगों से मेल- मुलाक़ात बिल्कुल ही बंद कर दी थी?
नहीं! मैंने अब शहर में ख़ुद गाड़ी चलाना तो बंद कर दिया था, पर सप्ताह में एक - दो दिन मैं सबसे मेल मुलाक़ात के लिए ही रखता था। मैं इन दिनों अपने ड्राइवर को बुला लेता और सुबह से देर रात तक शहर के कौने- कौने में अपने मिलने वालों से थोड़ी- थोड़ी देर मिलने- जुलने का कार्यक्रम बना लेता।
एक बात आपको बताना और भी ज़रूरी है।
मेरे ऊपर ये बोझ हमेशा रहता था कि मैं अपने पारिवारिक मित्रों, संबंधियों का मेहमान तो लगातार बनता रहता हूं किन्तु मुझे उनकी मेज़बानी का अवसर नहीं मिलता। मेरा भी मन करता था कि उन्हें भी तो कभी चाय- पानी के लिए पूछा जाए।
इसका भी एक रास्ता मैंने निकाल लिया था।
मैं अपनी किताबों के प्रकाशन पर, अथवा किसी पुरस्कार सम्मान के मिलने पर छोटी - मोटी गोष्ठियां रखने का शौक़ीन रहा।
मेरी किताबों के विमोचन, लोकार्पण, चर्चा आदि पांच सितारा होटलों से लेकर प्रेस क्लब, रिसॉर्ट, सभागृहों आदि में अक्सर होते और इनमें मेरा आमंत्रण साहित्यिक मित्रों के अलावा परिवार व पारिवारिक मित्रों को भी रहता।
इनका बुलावा भी मैं बहुत विभेदात्मक तरीक़े से देता। साहित्यिक मित्रों व प्रतिष्ठित साहित्यकारों को तो मुद्रित निमंत्रण पत्र जाते ही, दोस्तों व घरवालों से फ़ोन पर बस इतना कहता कि लंच पर आना है, या डिनर में शामिल होना है।
और समारोह के दौरान शहर का साहित्य जगत ये देखकर हैरान होता कि ये कौन लोग हैं जो हमारे भाषण, उदबोधन, चर्चा, मुबाहिसों के दौरान तो बाहर खड़े थे अब भोजन कक्ष में संजीदगी से दाखिल हो रहे हैं।
वो क्या जानें, कि उन बेचारों को आमंत्रण ही ऐसा था।
और अगर आमंत्रण ऐसा न होता, ये कह कर दिया जाता कि साहित्यिक आयोजन है तो वो आते ही नहीं।
तो अब आप ख़ुद ये फ़ैसला कीजिए कि "बेचारा" मैं था या वो मेहमान?
तो इस तरह, जो रोग लगा हुआ था उसके लक्षण तो दिखने ही थे समय- समय पर। इस साहित्य साधना की आख़िर कोई तो सज़ा मिलनी ही थी।
अब आपके दिमाग़ में आने वाला अगला सवाल भी मैंने भांप लिया है। आपको लग रहा है कि क्या अब मेरे घर कोई भी आता - जाता नहीं था? और यदि कोई आता था तो उसकी मेज़बानी मैं कैसे करता था।
आपको बताऊं, मेरे पास बहुत सारे लोग आते थे। केवल आते ही नहीं, बल्कि आते रहते थे।
मेरे पास अक्सर कोई न कोई पूरे समय का सेवक भी होता था, और समय पर आकर खाना बनाने वाली कुक भी। सफ़ाई करने वाले भी। ज़रूरत पर ड्राइवर भी। माली, वॉचमैन और लॉन्ड्री की सुविधा भी, और घर पर बीस मिनट में शाकाहारी या मांसाहारी भोजन लाकर दे देने वाला निकट का एक टेक - अवे रेस्टोरेंट भी। घर पर राशन सप्लाई कर देने वाले दुकानदार भी और एक फ़ोन कॉल पर आ जाने वाले प्लम्बर, केबल टीवी वाले, इलेक्ट्रीशियन, कोरियर वाले, आरओ वॉटर प्लांट वाले, साइबर कैफे, पत्र - पत्रिकाओं वाले और अंशकालिक टाइपिस्ट भी। वाकिंग डिस्टेंस पर बैंक एटीएम और पोस्ट ऑफिस की सुविधा थी। एक मशहूर प्रिंटिंग प्रेस भी घर के पास ही थी जो घर से मैटर लेने और वापस भेजने तक की सुविधा देने में कभी कोताही नहीं करती थी।
इस सबके बावजूद मुझे ख़ुद कुकिंग का अच्छा ख़ासा शौक़ रहा। अपनी पत्नी के देहांत को एक दशक से ज़्यादा समय हो जाने, बेटी की शादी हो जाने तथा बेटा और बहू के विदेश चले जाने के बाद मैंने अपने कुकिंग के शौक़ के चलते खुद भी कई व्यंजन बनाने में भी दक्षता हासिल कर ली थी।
साल में एक बार बच्चे कुछ दिन के लिए यहां आते ही थे। मेरे लिए वही कुछ दिन साल भर के सारे त्यौहारों का मौसम होता।
ऐसे में घर आने वाले मित्र शहर के स्थानीय भी होते, और शहर के बाहर से भी आकर ठहरते।
काश, ये सब मैं अपनी तिरानबे साल की माताश्री को भी समझा पाता जिन्हें मृत्यु से पहले अपने होश रहने तक हमेशा ये चिंता होती थी कि मैं अब अकेला कैसे रहूंगा।
मैं अपने एक ऐसे दुःख को भी आपसे बांटना चाहता हूं जो अब सचमुच मुझे बहुत कष्ट देता है। मैं अब कुछ नहीं कर पाता, सिवा ये सोचने के, कि अब पछताए क्या होय, जब चिड़िया चुग गई खेत।
दुःख इस बात का है कि मेरे विचारों ने मुझे बहुत दुःख दिया। मैं सोचता था कि मशीनें इंसान को आलसी, नाकारा और ख़ुदग़र्ज़ बना देती हैं और इसीलिए मैं उनसे चिढ़ा करता था।
मैं अपने इन्हीं विचारों के चलते घर में एसी, वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव, बूस्टर, गीज़र, एलसीडी, डिशवॉशर, कंप्यूटर, लैपटॉप, कुकिंग रेंज आदि जैसी चीज़ों का उपहास उड़ाते हुए इनके उपयोग को रोकने की कोशिश किया करता था।
अब मैं घर - घर में इन चीज़ों के हरवक्त के इस्तेमाल को देख कर सोचता हूं कि मैं अपनी पत्नी, मां, बहनों, बच्चों को अकारण कितने श्रम के लिए बाध्य करता था। सब मेरी बातों को सम्मान देने के लिए भावनात्मक समर्थन मुझे देते थे और ज़माने की इस हवा को मेरे घर में आने से रोकने के लिए सहमत होते थे। या शायद रोकने के लिए सहमत होने पर बाध्य होते थे।
अब अपने ख़ाली पड़े घर में इनमें से अधिकांश सुविधाएं लेकर मैं अकेला पड़ा हूं। मेरे न चाहते हुए भी बच्चों ने केवल मेरी सहूलियत के लिए मेरे पास ये सब जुटा दिया है।
मेरा मन इन्हें अब इस्तेमाल करने से मुझे रोकता है। अपनी कार के खड़ी रहते हुए मैं अक्सर टैक्सी बुला लेता हूं। फ़्रीज़र का कभी प्रयोग नहीं करता। एसी में कभी बैठता नहीं, गीज़र से पानी न लेकर ठंडे पानी से पूरे साल नहाता हूं। माइक्रोवेव ओवन केवल डस्टिंग के लिए है। कंप्यूटर, प्रिंटर, यूपीएस, स्कैनर आदि बरसों से केवल सजावट के लिए मेरी मेज़ पर हैं। फ्रिज का पानी नहीं पीता।
मैंने पत्नी के देहांत के बाद कभी कोई पैन ख़रीदा नहीं है किन्तु पचास से अधिक अब भी मेरे पास हैं। कई फेंकता भी रहा हूं।
एक से एक शानदार और महंगी तीस डायरियां अब भी मेरी अलमारी में हैं जबकि कई मैं मित्रों और विद्यार्थियों को भेंट कर चुका हूं।
लगभग अस्सी पत्रिकाएं डाक से मेरे पास नियमित रूप से आती हैं।
चलिए, विषय बदलते हैं।
मैं आपको अब एक अपनी ख़राब आदत के बारे में बताता हूं। इसने मुझे जीवन भर बहुत नुक़सान पहुंचाया है। हो सकता है कि मैंने इसका ज़िक्र पहले भी किया हो क्योंकि इससे मैं परेशान तो हमेशा ही रहा।
ये आदत है किसी को "रेसिप्रोकेट" न कर पाना। मतलब किसी ने अपने साथ जैसा व्यवहार किया हो, उसके साथ वैसा ही न कर पाना।
जो लोग मुझे अच्छे लगते हैं, या मैं जिन्हें योग्य समझता हूं वो मेरे साथ चाहे जैसा भी व्यवहार करें मैं उन्हें पसंद ही करता रहूंगा। और जो अच्छे नहीं लगते वे कितना भी मेरे लिए कुछ करें मैं उनकी ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाता।
एक बार मुंबई में एक फ़िल्म अभिनेत्री को एक समारोह में लाना था।
हम लोग कार्यक्रम की तैयारियों में जुटे हुए थे। मेरे एक परिचित बड़े अधिकारी मुझसे बोले- तुम्हारे पास कार नहीं है, बार बार टैक्सी लेने में परेशानी होगी, तुम दो - तीन दिन समारोह होने तक मेरी कार रख लो।
मैंने उनका प्रस्ताव मान लिया। वो बाद में कार्यक्रम में अपने एक मित्र के साथ पहुंचे।
समारोह के बाद सभी के लिए सभागार में जलपान की व्यवस्था थी। सिर्फ़ थोड़े से गिने- चुने लोगों के लिए हमने अभिनेत्री के साथ अलग वीआईपी कक्ष में नाश्ते की व्यवस्था रखी थी।
जब मैं अभिनेत्री को चाय के लिए लेकर जाने लगा तो बेहद निरीह से चेहरे से उन अधिकारी महोदय ने मेरी ओर देखा जिनकी कार तीन दिन से मैं काम में ले रहा था। किन्तु अपनी आदत के कारण मैं कुछ नहीं समझा। मुस्कुरा कर आगे बढ़ गया।
जब मैंने उनकी कार लौटाई तो उनके रूखे व्यवहार से मुझे कुछ खिन्नता तो हुई पर मैं तब भी कुछ न समझा।
तीन दिन बाद अचानक बैठे - बैठे मुझे ख़्याल आया कि मुझे उनको वीआईपी कक्ष में चाय के लिए आमंत्रित करना चाहिए था।
पर ऐसी ढेर सारी घटनाएं ज़िन्दगी में मेरी इस आदत की भेंट चढ़ी हैं। और मेरे संबंध और सिकुड़ कर रह गए।
लोग बाद में मेरे लिए क्या सोचते होंगे पर मेरा भगवान जानता है कि मुझे ये सब ख़ुद कभी नहीं सूझता। दुनियादारी और व्यवहार के प्रशिक्षण की ज़रूरत मुझे हमेशा रही।
पुराने ज़माने में हम नामवर साहित्यकारों की क्लासिक कहानियों में पढ़ते थे कि यदि आप में कोई गुण या विशेषता है तो आपको कोई भी अनजान व्यक्ति ढूंढ़ भी लेता था और बुला भी लेता था। या आप के पास चला ही आता था।
आज की दुनिया में तो ये सब सचमुच कहानियों सा ही लगता है। आज तो जद्दोजहद के बिना किसी के लिए कुछ भी पा लेना दुश्वार है।
लेकिन कहानियां तो आज भी हैं ही।
एक दिन मेरे पास मेल आया कि आपको एक प्रस्ताव भेजा गया है। यदि आपको ये स्वीकार हो तो अपनी सहमति भेज दें और जल्दी ही आकर मिलें।
अपने ही विश्वविद्यालय में मुझे कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर निदेशक, स्टाफ वेलफेयर के पद पर नियुक्ति दी गई थी।
ये फ़िर से अपनी सक्रिय ज़िन्दगी में वापसी करने जैसा था।
मुझे ये सहूलियत भी दी गई थी कि यदि मैं पूर्णकालिक रूप से कार्यग्रहण करने में अपने को किसी भी तरह सक्षम न समझूं तो मैं अंशकालिक अथवा विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भी अपने दायित्व से जुड़ सकता हूं।
मैंने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और प्रत्येक सप्ताह में दो दिन के लिए ये अनुबंध स्वीकार कर लिया।
मुझे परिसर के अतिथिग्रह में ही इस अवधि के लिए रहने की सुविधा भी दे दी गई।
एक बार अपने बीते दिनों की डोर फ़िर हाथ में आ गई।