क्या कोई इंसान अकेला रह सकता है?
कोई संत संन्यासी तो रह सकता है, पर क्या कोई दुनियादारी के प्रपंच में पड़ा हुआ इंसान भी इस तरह रह सकता है?
क्यों? इसमें क्या परेशानी है? इंसान के शरीर की बनावट ही ऐसी है कि उसमें ज़रूरत के सब अंग फिट हैं। दुनिया में ज़िंदा रहने के लिए जो प्रणालियां चाहिएं वो तो सब हमारी बॉडी में ही इनबिल्ट हैं, फ़िर अकेले रहने में कैसी परेशानी?
नहीं, बात इतनी आसान नहीं है।
कई बार किसी नगर में तमाम तरह की रोशनियों के उम्दा प्रबंध होते हैं। सवेरे सूर्य का सुनहरा प्रकाश तो सांझ को दूधिया बल्बों का उजाला... गहराती रात में हल्के नीले बल्बों का दिपदिपाता जादू।
लेकिन ये बल्ब अपने आप नहीं जलते।
इन्हें ऑन करने के लिए कोई हाथ चाहिए। यहां हर वक्त अपना ही हाथ काम नहीं आता। यही सह - अस्तित्व है। इसी से दुनिया चलती है।
मेरे से भी कुछ मुंह लगे आत्मीय मित्र कभी- कभी ये पूछते थे कि तुम अकेले कैसे रह लेते हो। क्या कभी तुम्हारा मन नहीं होता कि तुम्हारे साथ कोई तो ऐसा हो जिसकी निगाह तुम्हें छूती हो, तुम्हारे उल्लास जिसे छूते हों।
इसका उत्तर देने के लिए मैं अपने आप को कभी बाध्य नहीं मानता था किन्तु मैं ये जोखिम भी नहीं लेना चाहता कि जब आप मेरी कहानी पढ़ कर उठें तो अपने मन में सोचें- अधूरी कहानी!
इसलिए कुछ तो कहूंगा।
मैंने किसी के अंतरंग साथ से मिलने वाली कशिश को टुकड़ों में बांट लिया था।
आप भोजन करने बैठें और छत्तीस व्यंजनों की थाली से तृप्त होकर उठें, एक तरीका तो ये है खाना खाने का...एक दूसरा तरीक़ा ये भी है कि सुबह उठते ही आपने एक बिस्किट खा लिया, फ़िर चाय पीली, थोड़ी देर बाद दो बादाम खा लिए, ज़रा देर बाद एक टमाटर खा लिया, एक घंटा गुज़रा कि आप एक कटोरी दही लेकर बैठ गए।
बीच में एक केला या चार अंगूर के दाने आपने उदरस्थ कर लिए। एक घंटे बाद आप सैंडविच खाते हुए साथ में सलाद चबाते रहे। दोपहर गुजरी भी नहीं कि आपके हाथ में कॉफी का कप है!
आप सोच रहे होंगे कि बिना किसी अंतरंग साथी के अकेले रहने के सवाल पर मैं ये क्या क्या कहे जा रहा हूं? आख़िर इस सबका मतलब क्या है?
तो इसका मतलब ये है कि हमें जीवन में " आॅल इन वन" जीवनसाथी से जो कुछ मिलता है वो हम उसके न रहने पर बहुत सारे लोगों से किश्तों में भी तो लेे सकते हैं! यहां बेवजह चरित्र- वरित्र जैसी बातें बीच में न लाइएगा।
अब कोई दुनिया से चला जाए तो क्या किया जाए?
ठीक है, आपको भोजन कोई देगा, कपड़े कोई और धो देगा,आपके साथ घूमने कोई और चला जाएगा,आपके साथ त्यौहार कोई और मना लेगा, पार्टियों में किसी और को लेे जाइए, आपके पैर कोई और दबा लेगा...
आपका धैर्य जवाब दे रहा है न! मेरे मित्रों का भी धैर्य भी जवाब देने लगता था फ़िर वो पूछते, चलो रात देर तक डिनर और उसके बाद थोड़ा दूध भी हो गया।
फ़िर?
लेकिन मेरा धैर्य कभी जवाब नहीं देता था। मैं कहता, कुल जमा सात आठ घंटे की रात, और उसमें भी करने के लिए ढेर सारे काम।
सोच, कल्पना, सपने, ख़ुमारी, नींद!
सवाल करने वाले मित्रों के मुंह पर ऐसा भाव आता था मानो कह रहे हों कि खोदा पहाड़ निकली चुहिया।
और मैं प्रकरण का पटाक्षेप ये कहकर कर देता था कि ज़िन्दगी के इस मुकाम पर अब क्या अजगर निकलेंगे?
दोबारा यूनिवर्सिटी जाना शुरू होने पर कुछ दिन तक तो काफ़ी अच्छा लगा किन्तु जल्दी ही मुझे कुछ बातों को लेकर बेचैनियां होने लगीं।
मेरी उलझन ये थी कि हमारी शिक्षा व्यवस्था ने ज्ञान अथवा सीखने - सिखाने की प्रक्रिया को एक ऐसे मुहाने पर ला खड़ा किया है जहां हम सब के बीच की सद्भावना, सीखने की ललक और जीवन की सकारात्मकता कहीं ओझल हो गई है।
मुझे अब ऐसा नहीं लगता था कि जो कुछ हम जानते हैं उसे कोई सीखना चाहता है।
बल्कि नई पीढ़ी तो हम लोगों को इस रूखी नज़र से देखने की अभ्यस्त होती जा रही थी कि मानो हम जिस आसन पर बैठे हैं, उसे हमारे नीचे से खींच लेने पर ही उन्हें उनकी मंज़िल मिलेगी।
हम हटें, तभी वो जी पाएंगे।
हम उनकी ज़िंदगी मुक्त कर दें। मजे की बात यह है कि उन्हें हम से कुछ चाहिए भी नहीं। हम अपना जो कुछ हमारे पास है, उसे अपने साथ ही लेे जाएं।
फ़िर वो अपनी नई दुनियां गढ़ेंगे।
ऐसे में मैं कितने दिन उनका "वेलफेयर" सोच पाता। मेरा मन नहीं लगता था।
अच्छा, इधर साहित्य की दुनिया का तो और भी बुरा हाल था।
केवल लेखक ही इसकी मुंडेर पर रखे हुए दीए हैं। एक दूसरे की लौ से ही वो एक दूसरे को जलाते हैं और एक दूसरे की फूंक से ही वो बुझते हैं।
न कोई और उन्हें जलाने आता और न कोई हवा या आंधी उन्हें बुझाती।
मंचों पर अपने हाव- भाव, आकार आदि से ही वो पहचाने जाते हैं, उनके लिखे लफ़्ज़ों से किसी का कोई लेना- देना नहीं।
उनके बटुए का नामा ही उनके चेहरे की चमक तय करता है, और ये नामा कम से कम उनके लिखे हुए से तो नहीं ही आता।
बार्टर सिस्टम है। वो दे, ये लेे!
बाबू देवकीनंदन खत्री का तो बस नाम है, बाक़ी तिलिस्मी तो सारे हैं।
नॉन करेप्ट अफ़सर, वर्जिन व्हीकल और अपुरस्कृत लेखक आपको शहर से लेकर गांव तक नहीं मिलते।
जाने दीजिए, इसका मेरी कहानी से क्या?
जब यूनिवर्सिटी में कोई समारोह होता तो मुझे याद आ जाता कि इसका ये सभागार उस महिला की याद को ही लोकार्पित है जो कभी मेरी जीवन संगिनी थी।
लेकिन ये कैसा भ्रम, जीवन - संगिनी के न होते हुए भी जीवन चलता रहे।
नहीं, ऐसा सोचना ठीक नहीं। मैं सती प्रथा का समर्थक या हिमायती कभी नहीं रहा। एक जीवन के समाप्त होने का कोई संबंध दूसरे जीवन से नहीं।
जब लोग जीवनसाथी से मिलने से पहले बीस- पच्चीस साल अलग - अलग जीवन बिता ही लेते हैं तो जीवन यात्रा खत्म एक साथ क्यों हो?
मेरे हिसाब से तो ये नामकरण ही ग़लत है, जीवन साथी।
मैंने सतीप्रथा पर एक कहानी "अखिलेश्वर बाबू" कभी लिखी थी जो कई बार कई जगह छपी।
जो लोग मन में ये धारणा पाले रहते हैं कि पति - पत्नी में से एक का जीवन न रहने पर दूसरे का भी व्यर्थ है वे एक प्रकार से अपने मन में सती प्रथा की हिमायत के तंतु ही लिए रहते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि हर सूरत में, हर हाल में, हर आयु में स्त्री और पुरुष का साथ होना ही चाहिए। शायद यही कारण है कि वो दूसरा, तीसरा, चौथा विवाह भी कर लेते हैं क्योंकि विधाता दो इंसानों की ज़िन्दगी इंचीटेप से बराबर नाप कर तो दे नहीं सकता।
कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि एक उम्र के बाद इंसान की शारीरिक ज़रूरतें नहीं रह जाती हैं, बल्कि केवल साहचर्य या भावनात्मक साथ की ज़रूरत ही रहती है। ऐसे साथ के लिए स्त्री- पुरुष का वैवाहिक दायरे में ही बंधकर रहना कतई ज़रूरी नहीं हो सकता। ये रिश्ते और भी हो सकते हैं।
लोग केवल लड़की या लड़के से ही नहीं, कला, साहित्य, समाजसेवा, खेल, संगीत, घुमक्कड़ी और देश तक से शादी कर लेते हैं।
मुझे भी ढेरों प्रस्ताव मिले, मिलते रहते हैं।
मैं कभी- कभी सोचता हूं कि किसी इंसान में सौ प्रतिशत पुरुष हो, या सौ प्रतिशत स्त्री ही हो, ऐसा तो केवल कल्पना में ही होता है। वास्तविक जीवन में नहीं होता।
एक सफ़ल ज़िन्दगी के लिए कुल सौ प्रतिशत "मानवता" की दरकार होती है। आदमी और औरत, दोनों में मिलकर सौ।
गणित की भाषा में कहें तो दो सौ में से सौ। अर्थात पचास प्रतिशत।
अब ये पचास प्रतिशत आप किसी एक में ही पा लें तो ये आपकी किस्मत है, वरना दो में पा लीजिए, तीन में पा लीजिए...
ये बिल्कुल वैसा ही है कि आपको एक गिलास दूध चाहिए। यदि दुधारू पशु है तो एक ही दे देगा, अन्यथा दो।
हां, ये सब गणित केवल तब कारगर है जब आप अपने आधे अंग के दुनिया से रुखसत हो जाने के बाद तनहा हो गए।
अगर आप जीवन संगी के साथ हैं तो इस जोड़ बाक़ी की कोई ज़रूरत नहीं। तब दूसरी गणित लगेगी।
आपको तो पता है कि मेरी गणित हमेशा से कमज़ोर रही।
इसी बात को मैंने लगभग चार दशक पहले अपनी एक कहानी "महज़ औरत" में कहा था।
कहानी क्या थी और इसका मंतव्य क्या था, ये सब बताने से पहले मैं आपको ये बता दूं कि मुंबई में रहते हुए लिखी गई इस कहानी का शीर्षक कहानी की पत्रिका "कथाबिंब" के प्रधान संपादक अरविंद जी को पसंद नहीं आया था।
आमतौर पर मैं किसी के कहने भर से अपनी रचना का शीर्षक बदलने पर सहमत नहीं होता, पर अरविंद जी की बात मुझे गंभीरता से इस लिए लेनी पड़ी क्योंकि उन्हें ये कहानी बहुत पसंद आई थी। और मुझे लगता है कि यदि कोई किसी रचना को इतना पसंद कर लेता है तो उसका थोड़ा बहुत अधिकार उस रचना पर बन ही जाता है। फ़िर माधव सक्सेना अरविंद तो संपादक थे।
कहानी का नाम बदल गया।
इस कहानी में यही बात थी। यदि एक आदमी और एक औरत के शादी करके साथ रहने पर भी ज़िन्दगी में सुकून का साम्य स्थापित न हो सके तो कई विकल्प खुल जाते हैं।
शादी टूट जाए।
रोज़ बात - बात पर लड़ते - भिड़ते दिन गुजरें।
दोनों में से एक ख़ुदकुशी कर बैठे।
किसी एक की हत्या हो जाए।
या अपने- अपने रोज़गार के सहारे एक दूसरे से दूर रह कर भी रिश्ता निभाया जाए।
मेरी कहानी "महज़ औरत" ने एक और नया विकल्प दिया था।
शहरी शिक्षित प्रोफ़ेसर पति और ग्रामीण परिवेश की अशिक्षित गुस्सैल पत्नी के आपस में शादी के बंधन में बंध जाने के बाद जीवन की नाव तीन बेटियों के होते हुए भी हिचकोले खाने लगी।
इसी समय पति से सहानुभूति रखने वाली एक शिक्षित महिला ने केवल मित्रता वश उस परिवार को आर्थिक, बौद्धिक तथा मानसिक सहारा दिया।
और जीवन के संध्याकाल में लगातार लेता रहने वाला तो सफ़ल पति, सफ़ल पिता, सफ़ल शिक्षक सिद्ध हो गया किन्तु उसकी मित्र या प्रेयसी "महज़ औरत" ही सिद्ध हुई।
तो यहां भी एक पुरुष ने अपना मनचाहा दो स्त्रियों से लिया।
अर्थात अगर आपको जीवन का अभीष्ट किसी एक स्रोत से हासिल होने की स्थिति न रहे तो ज़िन्दगी को नष्ट करने, नरक बना लेने या असामाजिक हो जाने के ही विकल्प नहीं रहते।
मैंने एक चालाकी भी की।
इस कथानक को अपने एक उपन्यास "वंश" में भी पिरो दिया, जहां इससे पहले भी बहुत कुछ और था तथा इसके बाद भी।
वैसे भी इस उपन्यास के पुस्तकाकार आने से पहले ये धारावाहिक रूप में भी छपा था तो इसके कुछ भाग का पुनर्लेखन अख़बारी नाटकीयता के निर्वाह में करना ही पड़ता था।
तो आप ही बताइए कि जब मैं अपने पात्रों को उनकी ज़िंदगी की बेचैनियों के बाबत इतने विकल्प ढूंढ़ कर दे सकता हूं तो क्या ख़ुद अपने लिए कोई विकल्प नहीं ढूंढ़ सकता?
इसलिए एक बार फ़िर कहता हूं कि मुझे अकेले रहने में कोई परेशानी नहीं थी।
कहते हैं कि अगर किसी इंसान को पूरा जानना हो तो ये भी जानना चाहिए कि उस इंसान का रवैया अन्य प्राणियों, अर्थात पशु- पक्षियों के प्रति कैसा है।
मुझे आरंभ से ही पक्षी बहुत अच्छे लगते रहे हैं। उनका रंग बिरंगा होना मुझे बचपन से ही आकर्षित करता था। ये शायद इसलिए भी होता हो कि मैं बचपन में चित्र बनाया करता था। तो सुन्दर या कलरफुल पंछियों को देख कर उन्हें चित्र में उकेरने की इच्छा होती थी।
इसी तरह पशुओं को ध्यान से देखना और उनके शरीर की बनावट को भी बारीकी से समझना मुझे पसंद था।
लेकिन जैसे कई लोगों को पशु - पक्षी पालने का शौक़ होता है, वो मुझे कभी नहीं रहा।
पर आज इस उम्र में भी बचपन में सुनी पंचतंत्र की कहानियां और स्वयं की चित्रकारी मुझे टीवी पर किसी जानवर को देख कर आंदोलित ज़रूर करती हैं। मेरा एक संवाद सा स्थापित हो जाता है उनसे।
मेरे एक मित्र ने मुझे बहुत रहस्यमय तरीके से बताया कि आजकल तो बेहतरीन नस्ल के पशुओं के निष्णात प्रशिक्षक उन्हें इस खूबसूरती से तैयार करते हैं कि वो आपके साथ आपके नाज़ुक अंतरंग क्षणों में एक अभिन्न मित्र के रूप में बर्ताव करें।
मैंने उसकी बात को गंभीरता से न लेकर हंसी में उड़ा दिया। लेकिन शायद इस बात से वो खासा आहत हो गया।
संभवतः उसने ऐसा कोई बेशकीमती डॉगी ख़ुद पाल रखा था जिसे वो अपना सब कुछ कहता था।
वो अपने इस पालतू जानवर की खूबियों को लेकर पर्याप्त संवेदनशील था और एक दिन उसने मुझे अचानक रात को फ़ोन किया कि वो अपने ड्राइवर को भेज रहा है, मैं उसके साथ उसके घर आ जाऊं। प्लान ये था कि "कॉफ़ी पिएंगे"!
मैं चला गया।
वो घर में अकेला ही था। उसके साथ रहने वाली उसकी एक वयोवृद्ध बुआ जी किसी और रिश्तेदार के यहां गई हुई थीं।
कॉफ़ी उसने ख़ुद बनाई।
हम उसके बेडरूम में ही बैठे थे। कॉफ़ी का कप हाथ में लिए हुए ही उसने अपने डॉगी का करतब मुझे दिखाया।
असल में वो कुछ महीनों के लिए विदेश जा रहा था और चाहता था कि उसके इस पालतू कुत्ते को कुछ समय मैं अपने पास रख लूं।
बात नहीं बनी। बहरहाल कॉफ़ी अच्छी बनी थी।
उसका ड्राइवर मुझे घर छोड़ गया।