पके फलों का बाग़ - 9 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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पके फलों का बाग़ - 9

कभी- कभी सभी लोग इस तरह की चर्चा करते थे कि इंसान का पहनावा कैसा हो।
वैसे तो ये सवाल लाखों जवाबों वाला ही है। जितने लोग उतने जवाब।
बचपन में इंसान वो पहनता है जो उसके पालक उसे पहना दें। थोड़ा सा बड़ा होते ही वो किसी न किसी तरह अपनी पसंद और नापसंद जाहिर करता हुआ भी वही पहनता है जो आप उसे लाकर दें।
किशोर होने पर वो अपने संगी - साथियों से प्रभावित होता है और जैसा देखता है उसी का आग्रह करने लगता है।
युवा होने पर उसका ध्यान दौर के फ़ैशन पर जाता है। और वयस्क होने के बाद प्रौढ़ता की ओर बढ़ते हुए उसकी अपनी आमदनी ये फ़ैसला लेने लगती है कि वो क्या धारण करे। कई बार ये सब घर के बजट का प्रश्न भी होता है।
ये तो साधारण सी बात है, इस पर क्या चर्चा करना?
लेकिन मैंने ये बात एक ख़ास प्रयोजन से यहां छेड़ी है।
मुझे बहुत बचपन से ही इस बात पर ध्यान देने की आदत थी कि हम अंतर्वस्त्र या अंदरुनी कपड़े कैसे पहनते हैं।
मैं थोड़ी सी समझ विकसित होने के साथ ही इस बात पर ध्यान देने लगा था कि कोई व्यक्ति कैसे अंडर गारमेंट्स पसंद करता है या पहनता है।
मेरे दिमाग़ में इस आधार पर भी किसी व्यक्ति की छवि बन जाती थी।
कभी- कभी किसी बेहद सम्मानित और विद्वान व्यक्ति का भाषण सुनते हुए भी जब सारा आलम उसके विचारों में खोया हुआ होता था तब मैं सोचता था कि इसने कैसी चड्डी पहन रखी होगी?
इस बारे में बहुत छोटी अवस्था से ही लिए गए अपने कुछ प्रेक्षण आपको बताता हूं।
मैं देखता था कि कुछ लोगों के साथ कई दिनों तक रहते हुए भी आप ये जान नहीं पाते थे कि वो कैसे अधोवस्त्र पहनते हैं।
लेकिन कुछ लोग पूरी तरह दबे- ढके होते हुए भी तुरंत किसी न किसी तरह ये जता देते थे कि भीतर वो क्या पहने हुए हैं।
ये बात मेरे साथ उनका परिचय होने, साथ रहने, मित्रता देर तक चलने या न चलने में बड़ी भूमिका निभाती थी।
मुझे महसूस होता था कि अंदर के कपड़े हमेशा हमारे तन को छूते हुए होते हैं और ये हमारे अपने मन के निर्णय से हमारे चुने हुए होते हैं तो यही हमारी असली पहचान हैं। क्योंकि बाहरी कपड़े तो हम अपने काम, व्यवसाय, नौकरी,अवसर के हिसाब से पहनते हैं और ये दिखावटी- सजावटी होते हैं।
आप इसे मेरी कोई मानसिक बीमारी कह लीजिए कि मुझे आज भी पांच- छः दशक पहले के अपने परिचितों, परिजनों, मित्रों के अंतर्वस्त्र याद हैं।
और अगर आपको किसी के बनियान- चड्डी याद हैं तो उसका बदन तो याद होगा ही।
सच बताऊं, लोग अपने बचपन के दोस्तों से वर्षों बाद मिलकर बेहद खुश होते हैं, उन्हें आलिंगन में भर लेते हैं, पर मैं उनसे मिलकर ये सोचता रह जाता हूं कि - अरे, ये ऐसा हो गया? फ़िर मुझे लगता है कि वो भी मेरे लिए ऐसा ही सोच रहा होगा। इसीलिए मैं किसी पुराने परिचित या मित्र से मिलने में कतराता हूं। लोग सोचते हैं कि मैं बदल गया, मुझमें वो पहले वाली सी बात नहीं रही, और मैं नए नए लोगों के संपर्क में आता जाता हूं।
जब मैं बाज़ार में, किसी स्टोर पर, किसी मॉल में अपने लिए कपड़े खरीदने जाता हूं तो वो लोग मुझे केवल इसी आधार पर अब भी याद आ जाते हैं।
मैं मन में अपने से इसी तरह बात करता हूं कि नहीं, मुझे उसका जैसा नहीं, उसका वाला कलर चाहिए। वो डिज़ाइन चाहिए जो उसने तब पहना था।
ये बे - सिरपैर की बात है, मैं कुछ भी ऊटपटांग बोले जा रहा हूं, पर क्या करूं, जो हुआ, होता रहा, वो तो बताऊं न आपको?
अब आप ही देखिए कि इंसान का स्वभाव कैसे बनता है। चरित्र कैसे बनता है, सोच कैसे बनती है।
तो मैं या मेरे पात्र चरित्र, व्यवहार या स्वभाव को लेकर इतने परंपरावादी और दकियानूसी कैसे हो सकते हैं? मुझे साहित्य के मौजूदा विमर्श, फ़ैशन या चलन से क्या?
मैं अपनी ज़िन्दगी लिख रहा हूं कोई लीपापोती नहीं कर रहा। काग़ज़ रंगने का ज़ुनून नहीं है मुझे। अख़बार या किसी पत्रिका में अपना नाम छपा देखने के लिए मेरा जी नहीं कलपता। मुझे किसी विचार, पार्टी या दल की नमक हलाली नहीं करनी।
कुछ समय बाद अपने शरीर की अवस्था के अनुसार जीकर हम सब ही मर जाएंगे...तो किस बात पर अड़ना?
क्या जो बातें कभी थीं, वो अब भी हैं?
क्या नई नस्ल भविष्य में उसी विचार की पूंछ पकड़ कर अागे बढ़ेगी जो हम निर्धारित कर जाएंगे?
ये सब मेरे लेखन को माइल्ड करता है। यही मेरे जीवन को समायोजन-कारी भी बनाता है।
यही बात हम सबको अवसाद से भी बचा सकती है।
जाने दीजिए, सब अवसाद में होते भी कहां हैं। और क्यों हों? स्वस्थ हों, संपन्न हों, ख़ुश हों।
जीवन में ऐसे कई अवसर आए जब मैंने परिजनों या मित्रों के वैवाहिक रिश्ते होते देखे। विवाह के विज्ञापन भी देखे।
ये एक सहज साधारण सी बात थी। सभी घरों में ऐसा होता ही रहता है।
मैं एक बात हमेशा सुनता और देखता था कि विवाह के प्रत्याशियों को खूब गोरा बताया जाता था, और इस पर गर्व किया जाता था।
पूछा जाता कि लड़की का रंग गोरा है या नहीं? लड़का देखने में कैसा है, ज़्यादा काला रंग तो नहीं...ऐसी बातें अक्सर चर्चा के दौरान सुनने में आती थीं।
मैं ऐसी बातों के समय उकता जाता था। मैं उठकर रेडियो की आवाज़ ही तेज़ कर देता। कोई और विषय बदलने की कोशिश करता।
मुझे गोरा रंग कभी पसंद नहीं रहा। मुझे लड़कियों का सांवला रंग अच्छा लगता था। और लड़कों का तो गहरा सांवला या काला रंग मुझे आकर्षित करता था।
मेरे भाई बहन और मित्र जानते हैं कि मैं बचपन में धूप में कभी छाता नहीं लगाता था। मैंने सुना था कि धूप में घूमने से रंग काला हो जाता है।
शायद इसका कारण यही हो कि मेरा रंग थोड़ा गोरा ही है। अपने सभी भाइयों में मैं सबसे गोरा हूं। बाल भी नहीं रंगता। भवों तक के बाल हटाता रहता हूं ताकि वो अब चेहरे को और सफ़ेद न बनाएं। उम्र के उस दौर में हूं कि अब वहां सफ़ेद बाल आते हैं।
मेरे पास शुरू से ही साहित्यिक किताबें बहुत आती रही हैं किन्तु मेरा मानना है कि ये किसी लेखक की स्टडी या कक्ष में रखी रहने से सीमित उपयोग की हो जाती हैं। समीक्षक इन्हें संदर्भ के लिए रखें, किन्तु किसी क्रिएटिव राइटर के कमरे में इनका जमा होना दिखावटी ही है।
हां, देखने वालों के लिए लेखक की गरिमा में इनसे ज़रूर इज़ाफ़ा होता है।
मुझे याद है कि अपने करियर के आरंभिक दिनों में मैं मुंबई या दिल्ली में जब कई बड़े लेखकों का साक्षात्कार पत्र- पत्रिकाओं के लिए लेने जाता था तो वे फ़ोटो सेशन के समय कुछ महत्वपूर्ण किताबों का प्रदर्शन सायास कैमरे की सीमा में किया करते थे।
कहते हैं कि आपका व्यक्तित्व किताबों से बनता है। लेकिन मैं इसमें केवल इतना सा जोड़ना चाहूंगा कि "किताबों को पढ़ने से" बनता है।
ओह, अगर मैं हर बात में ऐसे ही कहता रहूंगा कि सभी लेखक ऐसा करते थे, पर मैं ऐसा नहीं करता था, तो अनजाने में ही मैं न जाने क्या सिद्ध कर दूंगा!
शायद डॉ धर्मवीर भारती की मज़ाक में ही कही गई वो बात, कि तुम लेखक हो ही नहीं!
उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम न तो शराब पीते, न ही तुमने इतनी देर में कोई सिगरेट सुलगाई, तुम कैसे लेखक हो?
अब आपको तो बता देता हूं कि उनके सामने लिहाज़, संकोच,आदर आदि जैसे कई सवाल थे। बाक़ी हिंदी के ढेर सारे ऐसे लेखक भी हैं जिनके पास मेरे साथ बैठ कर शराब पीने के फोटो होंगे। मेरे पास भी तो हैं।
सिगरेट भी मैंने काफ़ी दिन तक पी।
पर सिगरेट केवल लिखते समय,और शराब केवल दोस्तों के साथ।
न तो मुझे शौक़ और न ज़रूरत!
बल्कि कई बार तो केवल ये देखने के लिए, कि इसमें है क्या? क्या मिलता है इनसे? न स्वाद न सेहत!
बाल साहित्य की मेरी कृति "मंगल ग्रह के जुगनू" पिछले कई साल से लगातार निकल रही थी।
अब इसका एक निश्चित पैटर्न ही बन गया था। इसमें हर साल मंगल ग्रह से धरती पर आने वाले दो जुगनुओं का कथानक रहता था जिसमें पृथ्वी के कुछ छोटे जीव जंतु, यथा कबूतर, गिलहरी, झींगुर, कोकरोच,मेंढक आदि उन जुगनुओं के मित्र बन गए थे और उनके यहां आने पर वो उनका ख़्याल रखने और उन्हें घुमाने - फिराने का काम करते थे।
उनके वापस जाते समय धरती के कुछ प्राणी उनके साथ मंगल ग्रह पर जाने का सपना देखते और फिर मंगल और धरती की तुलना करते हुए यहीं रह जाने का फ़ैसला करते। जुगनू वापस चले जाते।
कथानक का ये भाग एक लम्बी कविता के रूप में रहता।
इसी के साथ वो स्थान जहां जुगनू प्रतिवर्ष आया करते थे, दो बच्चों के घर के नज़दीक दिखाया जाता था और इस बहाने बच्चों की भी कई गतिविधियां इस कहानी में शामिल रहती थीं।
ये श्रृंखला भी दिनों दिन लोकप्रिय होती जा रही थी और कई पत्र- पत्रिकाएं इस पर समीक्षा और टिप्पणियां छापने लगी थीं।
मुझे कभी- कभी एक बात विचलित करती थी कि दुनिया में इंसान का भाग्य किस तरह की भूमिका का निर्वाह करता है।
मेरा मन करता था कि इस बात को कहने के लिए मैं किसी की जीवनी लिखूं। मैं चाहता था कि जीवनी किसी ऐसे व्यक्ति की लिखी जाए जिसने जीवन में कोई अलग तरह का संघर्ष किया हो।
वैसे तो संघर्ष सभी करते हैं। पैदा होने के बाद पेट भरने का संघर्ष भी कोई कम नहीं होता।
पेट भर जाने पर अपनी छवि का संघर्ष भी दिलचस्प होता है। दुनिया में किसी भी किस्म के स्थायित्व के लिए भी लोग जद्दोजहद करते हैं।
कोई अपनी मिल्कियत के सहारे अपना नाम अपने बाद की दुनिया के लिए छोड़ना चाहता है, कोई अपनी कला या साहित्य के सहारे तो कोई अपनी संतान के सहारे।
मुझे अपनी मंशा ज़ाहिर करने पर तरह - तरह के सुझाव मिलते थे।
कोई मुझे सलाह देता कि मैं राजस्थान के एक शाही परिवार से जुड़ी राजनेता व पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की कहानी लिखूं।
कोई कहता कि मुझे राजस्थान में निजी क्षेत्र का विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनस्थली विद्यापीठ संचालित करने वाले शिक्षाविद प्रो शास्त्री पर लिखना चाहिए।
किसी मित्र की सलाह होती कि मैं फ़िल्म अभिनेत्री दीपिका पादुकोण के पिता बैडमिंटन स्टार प्रकाश पादुकोण के संघर्षों की कहानी लिखूं।
राजस्थान के जिस ज़िले से मैं अधिकांश समय तक जुड़ा रहा वहां से उभर कर अंतरराष्ट्रीय ख्याति हासिल करने वाले अभिनेता इरफ़ान खान का संघर्ष भी मुझे लिखने के लिए प्रेरित करता था।
इस बीच मेरा अमेरिका जाना हुआ तो वहां समय निकाल कर मैंने चंद्रमा पर पहला क़दम रखने वाले अमरीकी नील आर्मस्ट्रॉन्ग के जीवन के बारे में भी बहुत सारी जानकारी जुटाई।
अमरीका के प्रख्यात उद्योगपति और न्यूयॉर्क शहर के मेयर रहे माइकल ब्लूमबर्ग की जीवन यात्रा ने भी मुझे काफ़ी प्रभावित किया।
लेकिन फिर मैंने दुनिया को खंगालने की बनिस्बत अपनी पोटली ही खोल कर देखी और अपनी मां के जीवन संघर्ष को ही लिखने का फ़ैसला किया।
मैं जानता था,और इस बात की पुष्टि बाद में प्रकाशक ने भी की, कि मेरी मां की कहानी में एक आम पाठक की थोड़ी बहुत दिलचस्पी केवल तभी बनेगी जब मैं इसे किसी जीवनी की तरह न लिख कर एक उपन्यास के रूप में ही लिखूं।
मैंने अपना ये फिक्शन "राय साहब की चौथी बेटी" के रूप में लिख डाला।
ख़ुद को जन्म देने वाली मां की कहानी उन्हें एक सामान्य पात्र मान कर कह देना आसान नहीं होता। लेकिन मैं क्या अब तक आसान कामों में ही पड़ा रहता?
हम छः भाई- बहन हैं। इस तरह मां पर मेरा हक़ केवल एक बटा छः हिस्से के रूप में ही था। सबकी शादी हो जाने के बाद तो अब दावेदार बारह हो गए थे। चार बहुएं और दो दामाद भी आ गए थे।
फ़िर सबके दो- दो बच्चे। यानी नाती- पोतों के रूप में अम्मा के ढेर सारे वारिस।
लोग तो एक मकान के बंटवारे तक में लहूलुहान हो जाते हैं। भाई बहनों में मन मुटाव और उम्र भर के अबोले हो जाते हैं।
फ़िर पूरी मां पर अकेले लिख लेना टेढ़ी खीर थी। भाई, बहन, भतीजे,भांजे अदालत में घसीट सकते थे।
किताब की रॉयल्टी में हिस्सा मांग सकते थे।
पर थैंक गॉड! हिंदी में रॉयल्टी, हिस्से, मुनाफे जैसे झंझट कहां होते हैं?
मेरी किताब "राय साहब की चौथी बेटी" लोगों ने खूब पढ़ी और पसंद की!
इसके बारे में कुछ भी और बता कर मैं किताब के संभावित पाठक कम नहीं करूंगा।
एक समय ऐसा था कि मैं तकनीक से बहुत घबराता था। चिढ़ता भी था।
कंप्यूटर के आ जाने के बाद तो मेरी पीढ़ी के लोगों को ऐसा लगता है कि हमने अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा तो अकारण गंवा दिया। हम तन मन धन से वो बातें सीखते रहे जो कंप्यूटर पलक झपकते ही कर देता है। इन्हें सीखने की जरूरत ही नहीं।
हम बचपन में जो पहाड़े रट कर अपने को बहुत कुशल और पढ़ा लिखा समझते थे वो तो ये ऐसे बताता है कि जैसे कुछ हो ही नहीं।
जो स्पेलिंग रटने में हमने अध्यापकों का क्रोध अपनी हथेलियों पर झेला वो तो ये ऐसे ठीक करके दे देता है जैसे केला छील रहा हो।