The चिरकुट्स- आलोक कुमार राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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The चिरकुट्स- आलोक कुमार

अगर अपवादों की बात ना करें तो आमतौर पर कॉलेज की दोस्ती ...कॉलेज के बाद भी किसी ना किसी माध्यम से हम सबके बीच, तब भी ज़िंदा एवं सक्रिय रहती है जब हम सब उज्ज्वल भविष्य की चाह में अलग अलग काम धंधों में व्यस्त हो जाते हैं क्योंकि हम सबने परिपक्व मन से अपने सभी दोस्तों को चुना होता है। इसके मुकाबले बचपन या फिर स्कूल की दोस्ती, स्कूल के खत्म हो जाने अथवा कॉलेज या शहर के बदल जाने पर महज़ यादों में बदल कर मृतप्राय सी हो जाती है अथवा कोई और चारा ना देख, कई मर्तबा बिल्कुल भुला भी दी जाती है।

आमतौर पर सभी, इस सार्वभौमिक सत्य के बावजूद कि.. अपोजिट अट्रेक्ट्स, अपनी रुचियों एवं आदतों के हिसाब से ही समान शौक़ एवं आदतों वाले दोस्तों की तरफ आकर्षित होते हैं। जहाँ एक तरफ पढ़ाकू लड़कों को पढ़ाकू लड़कों का सानिध्य ही आमतौर भाता है वहीं दूसरी तरफ खुराफ़ाती लड़के भी खुराफ़ाती लड़कों के संग ही उधम मचाने में रुचि लेते हैं।

दोस्तों आज मैं बात करने जा रहा हूँ कुछ चिरकुटिए टाइप के लड़कों की। शाब्दिक अर्थ की अगर बात करें तो चिरकुट माने चिथड़ा या फिर फटा पुराना..घिस चुका कपड़ा याने के ऐसा व्यक्ति जिसकी कोई कद्र..कोई पूछ ना हो। अब आप खुद ही सोचिए कि जिस उपन्यास का शीर्षक ही "the चिरकुट्स" है..उसके किरदार याने के चारों दोस्त कैसी किस मस्तियाँ करते हुए कैसे कैसे गुल खिलाएँगे। दोस्तों...आज मैं बात करने जा रहा हूँ आलोक कुमार जी के पहले उपन्यास "the चिरकुट्स" की।

कैची नाम के हिसाब से शीर्षक "the चिरकुट्स" बढ़िया नाम है मगर यकीन मानिए इसके किरदार इतने चिरकुट भी नहीं हैं कि उन्हें चिरकुट याने के नाकारा..बिना किसी काम का माना या सिद्ध किया जा सके। खैर!...ये तो लेखक ही ज़्यादा जानते होंगे कि उन्होंने क्या सोच के ये नाम रखा।
☺️

आइए...अब हम बात करते हैं उपन्यास की तो
"The चिरकुट्स" में एक सिंपल...सीधी..सपाट सी आम मध्यमवर्गीय युवकों की कहानी है कि कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद संयोग से बने चार रूममेट्स... किस तरह रैगिंग से बचने के चक्कर में एक दूसरे के नज़दीक आ..जिगरी दोस्त बन जाते हैं। उनमें से कोई कॉलेज में महज़ इसलिए आया है कि एक बार दिल टूट चुकने के बाद उसे फिर से लड़की पटानी है। तो किसी का ध्येय कॉलेज की पढ़ाई के बाद सिर्फ और सिर्फ गूगल कम्पनी में नौकरी पाना है। किसी का अंग्रेज़ी में हाथ तंग है मगर बोलता ज़्यादातर अंग्रेज़ी ही है।

कॉलेज के हुड़दंग, मस्तियों, परीक्षाओं..नकल के बीच होस्टल में पानी की किल्लत और उसको ले कर होने वाली दिक्कतों..परेशानियों तथा शरारतों से होती हुई कहानी पहले लव अफेयर और फिर बेवफाई तक जा पहुँचती है। माता पिता की पसंद से तय हुए रिश्ते के बीच नायिका और नायक के बीच तमाम हिचकिचाहटों एवं रोमानी पलों के बीच कहानी थोड़ी चुहल करती हुई आगे बढ़ती है तो हिंदू मुस्लिम का मसला टाँग अड़ाने को अचानक ही बीच में बिना किसी वार्निंग के आ धमकता है। दोस्तों की मदद से किसी तरह घर से भाग कर भागम भाग में शादी होती है और अंत तक सब मामला किसी आम हिंदी फिल्म की तरह खुशी खुशी सेट हो जाता है।

देखा जाए तो थ्री इडियट्स स्टाइल में शुरू हुई इस कहानी कुछ खास नयापन नहीं है। ट्रीटमेंट भी बिना ज़्यादा झोलझाल या अतिरिक्त उतार चढ़ाव के एकदम औसत याने के सीधा साधा है। बीच बीच में कुछ वन लाइनर औचक ही पढ़ने वाले के चेहरे पे मुस्कान ला देते हैं जिन्हें और अधिक मात्रा में होना चाहिए था। आम बोलचाल की भाषा में लिखा गया यह उपन्यास जहाँ एक तरफ नए पढ़ने वालों को आकर्षित करता है। वहीं पुराने पढ़ने वालों को थोड़ा निराश भी करता है।

मज़े की बात ये कि मज़े मज़े में...मज़े के लिए लिखा गया यह उपन्यास मज़े मज़े में ही "दैनिक जागरण नील्सन बेस्टसेलर" अवार्ड से सम्मानित भी हो गया। इसे हिंदी का बढ़ता प्रभुत्व नहीं कहेंगे तो फिर क्या कहेंगे?

141 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्द युग्म ब्लू ने और इसका मूल्य रखा गया है ₹115/- मात्र। आने वाले सुखद भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई।