मुझे लग रहा है कि आपको पूरी बात बताई जाए।
एक बार एक सेमिनार में बहुत सारे रिसर्च स्टूडेंट्स ने मुझसे पूछा कि जिस तरह से विज्ञान के क्षेत्र में नई - नई बातों पर विशेषज्ञों के शॉर्ट राइट- अप्स उपलब्ध होते हैं और साइंस के शोधार्थी उनमें से शोध के नए व अछूते विषय चुन लेते हैं, उसी तरह साहित्य के विद्यार्थियों को नवीनतम महत्वपूर्ण कृतियों पर ऐसा कुछ क्यों नहीं मिलता?
मुझे ये बात वजनदार लगी। मैं जानता था कि साहित्य में ऐसा कुछ नहीं होता। और यदि होता भी है तो वो समूह, विचारधारा, दलगत राजनीति आदि के पूर्वाग्रहों से कलुषित होता है। बड़े- बड़े समर्थ प्रकाशन समूह तक केवल अपने लेखकों की मार्केटिंग करते हैं।
संस्थाएं केवल अपने सदस्यों की सुधि लेेती हैं।
विडंबना ये है कि अपने से इतर विचारधारा के साहित्य को साहित्य ही नहीं माना जाता। उसे ख़ारिज करने के षडयंत्र चलते हैं।
ऐसे तटस्थ, निष्पक्ष व सर्वव्यापी प्रयास नाममात्र के ही होते हैं जिनमें साहित्य को केवल साहित्य मान कर बात की जाए। न तो विमर्शों का पूर्वाग्रह हो, और न वर्गों का तुष्टिकारक पोषण।
हमने इसी ज़रूरत को ध्यान में रख कर हर साल हिंदी साहित्य के सौ बड़े नामों को निष्पक्षता से चुनकर शोधार्थियों के सामने लाने का निर्णय किया ताकि नई पीढ़ी के बच्चे उनके वर्तमान साहित्य को अपनी शोध का विषय बनाने के लिए चुनें।
इसकी व्यापक तैयारी की गई।
अपने अनुभवों के आधार पर मैं ये भी अच्छी तरह जान चुका था कि इस तरह का काम आसान नहीं होगा।
जो वास्तव में बड़े लेखक हैं वो तो इस प्रक्रिया से निस्पृह रहेंगे किन्तु छद्म लेखक, असफल लेखक, नकारात्मक स्वभाव के लोग इसमें नुक्ताचीनी करने का पूर्णकालिक रोज़गार पा जाएंगे और बिना पारिश्रमिक या आर्थिक लाभ के भी अपनी पूरी शक्ति एक दूसरे की फजीहत और टांग घसीटी में लगाएंगे।
आरंभ में हमने कुल पचपन सदस्यों का एक समूह बनाया।
इन सदस्यों में कुछ शिक्षक, विद्यार्थी, शोधार्थी, संपादक,समीक्षक, पुस्तकालय कर्मी, प्रकाशक,और प्रतिष्ठित पुस्तक विक्रेता तक शामिल थे। सामान्य रूचि शील पाठकों के रूप में कुछ साहित्यानुरागी गृहणियां भी।
और शेष इंटरनेट सर्फर्स।
इस समूह के गठन में पूर्णतः अनौपचारिक रहते हुए हमने अपने "इरादे" को ही प्रधानता दी। विवाद से बचने के लिए थोड़ी गोपनीयता भी, और बहुत सारी पारदर्शिता भी।
और हम शुरू हो गए।
हमारा नारा यही था - "अगर बेईमानी ही करनी है तो ऐसा काम करें ही क्यों?"
हमें न तो किसी ने ऐसा करने के लिए कहा था, न इससे किसी को कोई आर्थिक लाभ होने वाला था और न ही इस प्रक्रिया से चुने गए लोगों को कोई प्रत्यक्ष पुरस्कार या सम्मान मिलने वाला था।
हमने तय किया कि हम प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के अवसर पर ये सूची जारी करेंगे।
सन दो हज़ार पंद्रह से ये शुरुआत हो गई।
पहले साल तो हमारे प्रयास को नोटिस ही नहीं किया गया। दूसरे साल इस पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई, नकारात्मक भी और सकारात्मक भी।
सोशल मीडिया के माध्यम से इसका व्यापक प्रचार हुआ। इस सूची के प्रिंटेड फोल्डर्स तैयार करके देश के सभी विश्वविद्यालयों व साहित्य से जुड़े संस्थानों में भेजे गए।
कई पत्रिकाओं ने भी सहयोग का रुख़ अपनाया और इस सूची को प्रकाशित किया।
कई शहरों में अख़बारों ने इसे खबर बनाया। टीवी चैनलों ने भी सहयोग दिया।
हमारे द्वारा चुने गए साहित्यकारों के साक्षात्कार, सूचनाएं आदि प्रसारित किए।
तीसरे वर्ष इसमें लगातार चुने गए साहित्यकारों के विस्तृत साक्षात्कारों पर आधारित एक किताब "हरे कक्ष में दिनभर" मेरे संपादन में अाई जिसका देश भर में स्वागत हुआ।
हमारी सूची में शामिल करने के लिए संसार भर के हिंदी लेखकों के नाम पर विचार किया गया। कई प्रवासी लेखकों ने भी इस सूची में जगह बनाई।
इस प्रयास की गूंज देश से बाहर भी पहुंची।
चुने गए वर्तमान (जीवित) सौ साहित्यकारों की इस सूची का लोकार्पण अलग- अलग जगहों पर विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक कार्यक्रमों में भी किया गया।
ये एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट बन गया।
मैं इस प्रयास में रहा कि कुछ युवा और जिज्ञासु शोधार्थी अपना स्थाई सहयोग देकर इस कार्य को निरंतर जारी रखें।
कुछ आर्थिक संसाधन भी उनके पास रहें ताकि वे इस काम का व्यापक प्रचार- प्रसार करने के साथ साथ चुने गए साहित्यकारों के काम पर कुछ सामग्री भी प्रतिवर्ष प्रकाशित करते रह सकें।
कभी - कभी मुझसे ये सवाल भी किया जाता है कि मैं ख़ुद अपने लेखन को लेकर अब क्या सोचता हूं, और क्या कुछ लिखने की मेरी इच्छा है।
इस प्रश्न का तो मेरे पास एक बहुत ही संक्षिप्त तथा प्यारा सा उत्तर है जो मैं सभी को देता हूं।
ये उत्तर है - "पता नहीं!"
वैसे तो ये उत्तर अपने आप में संपूर्ण है और किसी व्याख्या की दरकार नहीं रखता, फ़िर भी मैं आपके लिए इसका थोड़ा सा खुलासा कर देता हूं।
दुनिया और ज़िन्दगी को लेकर मेरा नज़रिया थोड़ा अलग है। यहां हमारी आयोजना या वांछना से कुछ नहीं है।
अगर इस दुनिया को चलाने वाली कोई ताक़त वास्तव में है तो वो मेरे हिस्से का काम मुझसे भी करवा ही लेगी।
ये किसी निराशा या भाग्य वादिता का सवाल नहीं है, मेरा मतलब केवल अनिश्चितता से है।
मैं आपसे आज कह दूं कि मैं गांव में रह कर निर्धन विद्यार्थियों के लिए वेदों का सरल भाषा में रूपांतर करूंगा और कल मेरी लाखों रुपये की लॉटरी निकल आए और मैं विदेश के किसी बड़े शहर के किसी क्लब में जाकर नाचने लगूं !
ज़िन्दगी में सब संभव है।
हां, अगर आपको ऐसा लगता है कि साहित्यकार या शिक्षाविद ऐसा थोड़े ही कहते हैं, वो तो आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श सरीखे होते हैं, तो मैं भी कह देता हूं कि मैं आदमी की चंद पाशविक वृत्तियों पर एक ऐसा उपन्यास लिखना चाहता हूं जो पढ़ने वाले को उन लोगों से घृणा करना सिखादे जो औरों के जीवन को कठिन बनाते हैं, दुर्गम बनाते हैं, ऐसे सपने देखते हैं जिनसे दूसरों की राह के उजाले गुम हो जाते हैं।
दुनिया अस्तित्व के संघर्ष और योग्यतम के जीवित रहने के सिद्धांत पर चलती है। अब केवल दुनिया के वाशिंदों के हाथ में अगर कुछ है तो वो "योग्यतम" की परिभाषा निर्धारित करना ही है।
दुनिया कैसी बने, ये इसी पर अवलंबित है। और इसी में अस्तित्व के संघर्ष की जिजीविषा छिपी है।
मैं आपको बताता हूं कि मुझे दूध, छैने या पनीर से बनी मिठाइयां पसंद नहीं हैं।
मैं बालूशाही, पेठा,जलेबी, इमरती, गज़क जैसी मिठाइयां पसंद करता हूं। ये अपने स्वाद या जायके के लिए ख़ुद अपने पर आश्रित मिठाइयां हैं। दूध और खोए की मिठाइयां अपने स्वाद व शुद्धता के लिए दूसरों के भरोसे पर हैं।
जब हम खाद्य पदार्थों में मिलावट की बात करते हैं तो हमें सबसे पहले दूध वालों का ख़्याल आता है। और इसी के साथ मनुष्य में खोट के लिए शिक्षा में मिलावट की बात आती है।
मुझे ज़्यादा जनसंख्या वाले देश अच्छे नहीं लगते। दैव योग से हम जनसंख्या के मामले में दुनिया में दूसरे नंबर पर हैं।
मैं मनुष्यता की अधिकांश समस्याओं के लिए ज़्यादा जनसंख्या को ही दोषी मानता हूं। यदि मैं इस विषय पर ज़्यादा कुछ कहूंगा तो ये केवल एक दोहराव ही होगा क्योंकि मैं इस विषय में अपनी कहानी में पहले भी काफ़ी कुछ कह चुका हूं। दोबारा ये मुद्दा तो मैंने केवल इस लिए उठा लिया क्योंकि ये मुझे बहुत खिजाता है।
अब एक बिल्कुल नए विषय पर बात करते हैं।
मैं आपको अपने उपन्यासों के कुछ मुख्य पात्रों के बारे में बताता हूं।
कई समीक्षक और विद्वान कहते हैं कि उपन्यास में खुद लेखक भी एक पात्र होता है। बल्कि कहा जाता है कि आरंभिक रचनाओं में तो खुद लेखक ही प्रमुख पात्र होता है। बाद में परिपक्वता आने पर वह छिपना सीख जाता है और पात्रों को अपने से इतर दिखा पाने के हुनर में पारंगत हो जाता है।
मैं अपने पहले उपन्यास "देहाश्रम का मनजोगी" के नायक करण की बात करता हूं। आपको बता दूं कि मैं चरित्र को कोई अग्निपरीक्षा नहीं मानता बल्कि एक अनुशासन के रूप में ही देखता हूं। करण यही कहने के लिए आता है।
करोड़ों - लाखों अजूबों से भरी लंबी- चौड़ी दुनिया में अपना चार हाथ का बदन लेकर हमें बरसों गुजारने होते हैं। ऐसे में हम इसका क्या और कितना बचाए रख सकते हैं। तो चरित्र है क्या?
अगर हमें जंगल में शेर या शहर में दानव ने पकड़ लिया तो वो हमारे किस हिस्से को खाए, किस भाग को नौंचे ये सब हमारे हाथ में थोड़े ही है।
इसी तरह किसी अपने से कमज़ोर के सामने हम कैसा बर्ताव कर जाएंगे, ये तो हमारे मानस की खोट ही तय करेगी। हमारे तन की आग बताएगी।
तो चरित्र को मैं फकत अनुशासन का नाम देता हूं।
अगर करण के रूप में मैं हूं तो आप देखिए। मैं क्या कह सकता हूं।
मेरे दूसरे उपन्यास "बेस्वाद मांस का टुकड़ा" का नायक भी करण का ही विस्तार है। इसका नाम उपन्यास में नहीं है, ये "मैं" के रूप में ही आया है।
मेरे तीसरे उपन्यास "रेत होते रिश्ते" का नायक शाबान एक दिलचस्प किरदार है। ये एक चढ़ती उम्र का युवक है को तन मन धन से फ़िल्म में काम पाने के लिए एक स्ट्रगलर के रूप में जुटा हुआ है। वैसे ये बिहार के एक संपन्न परिवार का बेटा है पर ये बार - बार मुंबई में आकर फ़िल्मों में काम पाने के लिए दर- दर भटकता है।
यहां लेखक मुंबई में रहने वाले उसके मित्र के रूप में है जिसके पास रहने के लिए शाबान आता है।
शाबान अपने जुनून के चलते अपने शरीर की जरूरतों से भी पूरी तरह निर्लिप्त और अनभिज्ञ सा है। उसकी लालसा तो किसी भी तरह फ़िल्म वर्ल्ड में एंट्री पाने की है। वह मॉडलिंग को भी फ़िल्मों में जाने की एक सीढ़ी ही समझता है और उसके लिए भी प्रयास रत रहता है।
अंततः उसे एक फ़िल्म में काम मिल ही जाता है।
कथानक के अंत में बेहद नाटकीय ढंग से शाबान एक ऐसी लड़की से विवाह करने के लिए तैयार हो जाता है जिसे लाइलाज बीमारी एड्स है।
वो घर वालों द्वारा बार- बार विवाह के लिए ज़ोर डालने पर खीजा हुआ है और इस युवती से केवल इस वजह से शादी के लिए तैयार हो जाता है कि इससे एक तीर से दो शिकार होंगे।
एक तो उसका विवाह हो जाएगा, जिसके लिए छोटे भाई- बहनों का घर बसाने की जल्दी में परंपरा वादी माता -पिता निरंतर दबाव डालते रहे हैं।
दूसरे, एड्स पीड़ित युवती से एक फ़िल्म कलाकार का विवाह होना उसे मीडिया की नजर में सुर्खियों में लाएगा, जो उसकी रिलीज़ होने वाली फ़िल्म के लिए व्यावसायिक दृष्टि से लाभप्रद होगा।
"रेत होते रिश्ते" का ये नायक अपनी मानसिकता में कुछ अलग ज़रूर है पर अविश्वसनीय नहीं है। फिल्मी दुनिया ऐसे जंजालों से भरी पड़ी है और वहां सफलता के लिए कुछ भी जायज़ है।
मेरे लिए भी ये सब केवल ख़याली पुलाव नहीं है बल्कि ये नायक वास्तविक जीवन में आज भी मेरा दोस्त है।
शायद मेरा ये पात्र मेरे मन के सबसे ज़्यादा क़रीब है।
मैं इसके भोले जुनून से बेइंतेहा प्यार करता हूं।
इसने मेरी और मैंने इसकी असल ज़िंदगी में भी बहुत सहायता की है।
ये फ़िल्म स्टार नहीं है। उपन्यास भी विवाह के लिए इसके स्वीकृति दे देने पर ही समाप्त हो जाता है। कथानक में न इसकी फ़िल्म रिलीज़ होती हुई बताई गई है और न ही इसका विवाह संपन्न होता हुआ दिखाया जाता है।
जहां से वो ज़िंदगी का मोड़ मुड़ गया था हमारा रिश्ता शायद आज भी वहीं खड़ा है।
लगभग इसके साथ ही मेरा एक और उपन्यास "वंश" भी आया था।
ये उपन्यास पहले मुंबई जनसत्ता की साप्ताहिक पत्रिका "सबरंग" में धारावाहिक रूप से छपा था फ़िर दिल्ली के कादंबरी प्रकाशन से पुस्तक रूप में आया।
इस उपन्यास का नायक वरुण एक बिल्कुल अलग ही क़िस्म का किरदार है।
वरुण आत्मकेंद्रित, पैसिव और एक हद तक ख़ुदग़र्ज़ व्यक्ति है जो रत्ना नाम की एक ग्रामीण अशिक्षित और फूहड़ स्त्री से शादीशुदा है। लेकिन को बाद में उपन्यास की नायिका सुष्मिता को मोहित करने में सफल हो जाता है।
इस तरह दो स्त्रियों की आपसी सहमति से वो पहले तो दोनों के साथ ही एक साथ रहता हुआ जीवन बिताता है परन्तु जीवन की सांझ के आगमन पर वो एक दकियानूसी परंपरावादी पुरुष साबित होता है जब वो नायिका सुष्मिता को छोड़ कर अपनी विवाहिता पत्नी के साथ रहने के लिए ही वापसी करता है।
यहां पाठक ये देख कर हताश होता है कि नौकरी करने वाली, आधुनिक नायिका से उसने संबंध केवल इस लिए ही रखा कि वो आर्थिक सहयोग करते हुए वरुण की पुत्रियों की परवरिश में सहायता करती रही थी।
अब सबका जीवन व्यवस्थित हो जाने के बाद उसे दूध की मक्खी की तरह परिवार की ज़िन्दगी से निकाल फेंका जाता है। और इस तरह जीवन भर मन के रिश्ते के सहारे दूसरों की मदद करने वाली नायिका अंततः अपने जीवन से बेदखल हो जाती है।
यद्यपि उपन्यास यहां समाप्त नहीं होता और नायिका का प्रवेश ज़िन्दगी की इस व्यर्थता की निराशा से निकल कर राजनीति में होता है।