कर्म पथ पर - 82 - अंतिम भाग Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म पथ पर - 82 - अंतिम भाग





कर्म पथ पर
Chapter 82


माधुरी ने दरवाज़ा खटखटाया।‌ एक लड़की ने दरवाज़ा खोला। इस समय माधुरी को एक अंजान आदमी के साथ देख कर उसे आश्चर्य हुआ। माधुरी ने कहा,
"फुलवा यह मेरे भाई हैं। इनके चाय पानी का प्रबंध करो।"
माधुरी जय को अंदर ले गई। आंगन पार कर के पीछे की तरफ एक कमरा था। उस कमरे को खोल कर जय से बोली,
"चाचा जी का देहांत चार महीने पहले हो गया। वह यहीं रहते थे। अपना बंगला धन दौलत सब कुछ दूसरों की भलाई के लिए दान कर वह इस साधारण से कमरे में रहते थे।"
जय ने कमरे पर नजर डाली। ‌ खुला और हवादार कमरा था। वहाँ बहुत अधिक सामान नहीं था। कमरे की खिड़की खोलते हुए माधुरी ने दिखाया,
"पीछे पड़ी जगह पर चाचा जी बागबानी करते थे। मैंने तखत डलवा दिया था पर फिर भी वह जमीन पर चटाई डाल कर सोते थे। कुछ किताबें साथ लाए थे।‌ वही पढ़ते रहते थे। सुबह गांव में दूर तक टहल कर आते थे। गांव में कई लोगों से उनकी जान पहचान हो गई थी। खासकर बच्चों से उन्हें बहुत लगाव था।"
जय माधुरी की बात सुनते हुए कमरे को बड़े ध्यान से देख रहा था। ऐसा लग रहा था कि उसकी निगाहें श्यामलाल को ढूंढ़ रही हों। माधुरी ने कुछ समय उसे अकेला छोड़ देना ही सही समझा। नाश्ते की व्यवस्था देखने के बहाने वह चली गई।
कमरे में एक और दरवाजा था। उसे खोलकर जय बगीचे में गया। वहाँ फूलों और पौधों को छूकर उसे एहसास हुआ कि जैसे वह अपने पापा के पास हो। कुछ देर बगीचे में बिता कर वह अंदर आ गया। उसने गौर किया कि उसके पापा का सारा सामान अभी भी वैसे ही रखा था। उनके कपड़े, किताबें माधुरी ने सब कुछ वैसे ही रखा हुआ था। कोने में पड़ी चटाई उठाकर उसने फर्श पर बिछा दी। उस पर बैठकर श्रीमद्भगवद गीता निकालकर पढ़ने लगा।
माधुरी फुलवा के साथ चाय नाश्ता लेकर आई। वही उसके पास चटाई पर बैठ गई। जय को चाय का प्याला पकड़ाते हुए बोली,
"चाचा जी तुम्हें बहुत याद करते थे भैया। वो अलमारी में जो तुम्हारी तस्वीर है उसे देखते रहते थे। ‌ मुझसे कहते थे कि मेरा बेटा मेरा गुरु है। उसने ही मुझे जीवन का सही अर्थ समझाया। मुझे उस पर गर्व है।"
यह बात सुनकर जय को बहुत अच्छा लगा‌। उसने कहा,
"तुमने कमरे का सारा सामान वैसा ही रखा है।"
"भैया चाचा जी से पिता की तरह प्यार हो गया था। उनके जाने के बाद कभी कभी मन बहुत खाली हो जाता है। तब इस कमरे में आकर बैठती हूँ। मन को बड़ा सुकून मिलता है। चाचा जी की जाने का डेविड को भी बहुत धक्का लगा। वह चाचा जी से बहुत हिला हुआ था। जब भी छुटि्टयों में आता तो नानाजी नानाजी करके उनके आसपास ही मंडराता रहता।"
"डेविड कहाँ है बहन ?"
"लखनऊ में अपने नाना नानी के साथ है। कॉल्विन तालुकेदार्स कॉलेज में प्राइमरी सेक्शन में पढ़ रहा है। उसकी मौसियां उसकी खूब देखभाल करती हैं। मालती टीचर बनना चाहती है। मेघना का कहना है कि वह नर्सिंग की ट्रेनिंग लेकर मेरे साथ मेरे अस्पताल में काम करेगी।"
"डेविड भी अब काफी बड़ा हो गया होगा ?"
"नौ साल का पूरा हो गया। अभी से बड़ी बड़ी बातें करता है। कहता है कि वैज्ञानिक इस देश की उन्नति में हाथ बंटाएगा।"
"आखिर माँ बाप का असर तो होगा ना। बड़ी खुशी हुई यह जानकर कि तुम्हारी बहनें भी तुम्हारी तरह पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़े होना चाहती हैं।"
माधुरी ने जय से कहा कि वह नाश्ता कर ले। फिर उसे डेविड की तस्वीर दिखाएगी। दोनों भाई बहन नाश्ता करते हुए और भी बहुत सारी बातें करते रहे। नाश्ते के बाद माधुरी डेविड की तस्वीर लेकर आई। जय बड़े ध्यान से देखा। अपने पिता की तरह सुंदर था। आँखों में गहराई थी। जय बोला,
"देखना बहन एक दिन यह अपने सारे सपने पूरे करेगा। इस देश का नाम रौशन करेगा। यह जो चाहे उसे करने देना।"
माधुरी ने जय से कहा,
"अब तुम आराम करो। फुलवा खाना बना रही है। मैं जरा अस्पताल का एक चक्कर लगा आऊँ। फिर दोनों भाई बहन बैठकर खाएंगे।"
माधुरी के जाने के बाद जय चटाई पर लेट गया। अपनी आँखें बंद कर वह अपने पापा के बारे में सोचने लगा। कभी कितनी शानो शौकत से रहा करते थे। बिना गाड़ी के कहीं नहीं आते जाते थे। नौकर हाथ बांधे उनके आसपास खड़े रहते थे। अगर उनसे काम में कोई चूक हो जाए तो बहुत डांट लगाते थे। लेकिन अपने जीवन के आखिरी दिनों में वह किस सादगी के साथ रह रहे थे। उसके पापा ने अपने आप को बहुत बदल लिया था। उसके मन में अपने पापा के लिए इज्जत और बढ़ गई। उसने सोचा कि जब भी मौका मिलेगा वह उनका श्राद्ध कर देगा।
कुछ देर आराम कर लेने के बाद जय उठा और अपने पापा की किताबें देखने लगा। उसने दो किताबें और अपने पापा के कपड़ों में से एक धोती कुर्ता अलग रख लिया। वह एक किताब लेकर पढ़ने लगा। माधुरी ने आकर पूँछा,
"क्या चल रहा है भैया ?"
जय ने छांटे गए सामान की तरफ इशारा करते हुए कहा,
"ये दो किताबें और पापा का एक धोती कुर्ता मैंने निकाला है। इसे ले जाऊँ।"

माधुरी ने कहा,
"आपको इजाज़त लेने की जरूरत नहीं है भैया। पर कहाँ जाने की बात कर रहे हैं।"
"तुमने मिलने आया था। मिल लिया। पापा के बारे में पता चल गया। अब अपनी राह पर फिर चल पडू़ँगा।"
"भैया कुछ दिन रुक जाते।"
"नहीं बहन बड़ी मुश्किल से बरसों पुरानी दोस्ती का मोह तोड़ कर आया हूँ। तुम मेरा मकसद समझो। मुझे किसी मोह में ना उलझाओ। आसान नहीं होता है बंधन छुड़ाना।"
"नहीं भैया मैं बाँधूंगी नहीं। जाने से पहले साथ में खाना तो खा सकते हैं।"
"हाँ खाना तो ज़रूरी है। लंबी यात्रा पर जो जाना है। चलो खाना खाते हैं।"

खाना खाने के बाद जय माधुरी से भी विदा लेकर अपनी राह पर आगे बढ़ गया। वह कंधे पर अपना झोला लटकाए रास्ते पर चला जा रहा था। ना उसे धूप की परवाह थी और ना ही धूल की। वह बस अपनी धुन में मस्त बढ़ा चला जा रहा था। चलते हुए उसे लगा जैसे कि वृंदा ने पीछे से आकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया है। उसका हाथ पकड़ कर वह कह रही हो कि तुम चाहते थे ना कि मैं तुम्हारी हमसफ़र बनूँ। तो मैं आ गई। अब जहाँ जहाँ तुम जाओगे मैं तुम्हारे साथ रहूँगी। कोई हैमिल्टन अब मुझे तुमसे जुदा नहीं कर सकता है।
अपने कर्मपथ पर चलते हुए जय छुआछूत निवारण, दलितों और पिछड़ों के उत्थान, किसानों की समस्याओं, स्त्री शिक्षा जो भी सामाजिक मुद्दे थे सब पर काम करता रहा। उसकी छवि एक समाज सुधारक की बन गई। कुछ ही सालों में वह लोगों के बीच जयदेव बाबा के नाम से मशहूर हो गया।
समाज में जयदेव बाबा की बहुत इज्जत थी। उसकी इस छवि का लाभ उठाने के का प्रयास भी हुआ। कुछ राजनीतिक दलों ने उसे अपने साथ मिलाने की कोशिश की। उसे एक बड़ा सा आश्रम बनाने के लिए एक ज़मीन देने की बात हुई। पर जयदेव बाबा ने हर एक प्रलोभन को ठुकरा दिया। वह तो बस वृंदा की याद को मन में बसाए अपने कर्म पथ पर डटे हुए थे।‌
देश आधुनिकीकरण की राह पर आगे बढ़ रहा था। इसका खामियाजा हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों और सदियों से प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर जी रहे लोगों को भुगतना पड़ रहा था। नदियां प्रदूषित हो रही थीं। जंगल काटे जा रहे थे। उनके इर्दगिर्द बसे लोग विस्थापित हो रहे थे। जयदेव बाबा ने अपने आप को प्रकृति के संरक्षण और विस्थापितों के पुनर्वास के काम में लगा दिया।
एक दिन वृंदा की याद को सीने में लिए वह उसका हाथ थाम कर इस दुनिया से चले गए।

इति