पके फलों का बाग़ - 7 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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पके फलों का बाग़ - 7

अनुवाद बहुत आसान है।
कोई भी मैटर लो, फॉर एग्जांपल, "ये ज़िन्दगी उसी की है जो किसी का हो गया", ठीक है?
अब हम इसे किसी अन्य भाषा में अनुवाद करेंगे। बताओ, किसमें करना चाहते हो?
- बृज भाषा में! मैंने कहा।
वो किसी मूर्धन्य विद्वान की तरह बोला- अच्छा, इसके लिए अंग्रेज़ी अल्फाबेट का कोई एक अक्षर हमें लेना है। हम एक्स वाई जेड में से "वाई" लेे लेते हैं। ओके? अब हमें एक जानवर का नाम लेना है।
- हिरण! मैंने उत्साह से कहा।
- नहीं गाय! और उसे भी हिंदी में नहीं, इंग्लिश में लेना है।
- काऊ! मैंने चहकते हुए कहा।
- यस! तो अब हमारा अनुवाद होगा..."ये जिन्दगी वाई की है जो काऊ को है गयौ"
मैं उसका मुंह ताकने लगता और वो खिलखिला कर हंस पड़ता।
ये सब बचपन की बातें थीं, जो स्कूल के किसी ख़ाली पीरियड में कुछ शरारती लड़कों के साथ हुआ करती थीं। लेकिन ये बताती हैं कि अनुवाद को लेकर एक जिज्ञासा बचपन से ही मेरे मन में घर कर चुकी थी।
साथ ही उस दौर में चाहे अध्यापक हों या छात्र, सभी किसी न किसी तरह से ये जता ही देते थे कि अंग्रेज़ी हमारी ज़िन्दगी की हर बात में घुस चुकी है, इससे विदेशी भाषा कह कर बचना अब मुमकिन नहीं।
मेरी रचनाओं के अनुवाद गुजराती,अंग्रेज़ी,तेलुगु, संस्कृत,सिंधी,उर्दू,असमिया,ओड़िया,मराठी,राजस्थानी, अरबी,बंगाली आदि भाषाओं में हो जाने के बाद मुझे कई भारतीय भाषाओं के लिए कुछ दिलचस्प जानकारियां समय- समय पर मिलती ही रहती थीं।
फ़िर भी कुछ भाषाओं के बारे में मेरा दृष्टिकोण ये भी बन गया था कि हमारी कुछ भाषाएं शायद राजनैतिक अलगाव,होड़,अवज्ञा, ईर्ष्या आदि का परिणाम मात्र हैं।
यह बात आपको जटिल, कड़वी या द्वेष पूर्ण लग सकती है पर आप चाहें तो मैं इस पर कुछ समय तक बोल सकता हूं।
ओह, लेकिन आप मुझे बताएंगे कैसे कि आप ऐसा चाहते हैं अथवा नहीं? तो ऐसा करता हूं कि मैं बोल देता हूं, अगर आपकी सहमति न हो तो आप इसे ख़ारिज कर दीजियेगा।
मुझे ऐसा लगता है कि किसी ज़माने में संचार और आवागमन के पर्याप्त साधन न होने पर हम सब अलग- अलग हिस्सों में अपने- अपने आप में आत्ममुग्ध होकर रहते रहे इसलिए हमारे रीति - रिवाज़, पहनावा,खानपान और बोली भाषा अलग - अलग होते रहे। किन्तु जब हम संचार के आधुनिक तंत्र के प्रभाव से एक दूसरे से मानसिक रूप से निकट आए तो हमारा पहनना, खाना, बोलना भी काफ़ी समान सा होता चला गया। हम "कॉमन" ढूंढ़ कर उसे अपनाने लगे।
लेकिन हम में से कुछ अपने निजी या स्थानीय लाभों के लोभ में अपनी निजी सत्ता और अलगाव की पहचान बनाए रखने के लिए भी अड़ने- भिड़ने लगे। कहीं - कहीं तो लड़ने पर भी उतारू हो गए।
बस, भाषाओं के लिए भी मैं इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि मुझे पता नहीं है कि आप मेरी बात पसंद कर रहे हैं या नहीं।
राजस्थान की कुछ संस्थाओं ने मुझे "राजस्थानी" भाषा को मान्यता दिए जाने की मांग के आंदोलन से भी जोड़ा।पर इस दिशा में मेरी कोई उपलब्धि नहीं है। वो कहते हैं न, कुछ तो गुड़ ढीला और कुछ बनिया ढीला!
मेरा उपन्यास अकाब विस्थापन के दंश पर भी कुछ कहता था। मैंने इसमें विस्थापन के दर्द की भावुकता को न छूकर इसकी जटिलता और उलझन पर बात की। शायद विस्थापन की इस असुविधा को कुछ ऐसे लोगों ने भांप लिया जो विस्थापन को केवल भावुकता के चश्मे से ही नहीं देखते, बल्कि देशों और समाजों पर उनके असर के गुण दोष दोनों को परखते हैं।
मुझे इस उपन्यास के लिए कश्मीर के प्रतिष्ठित साहित्यकार "साकी" की स्मृति में स्थापित पुरस्कार दिया गया। इस पुरस्कार को ग्रहण करने के लिए कोलकाता के राजभवन में जाते समय भी एक विचित्र अनुभव जीवन में संभवतः पहली बार हो गया।
मैं जिस विमान से यात्रा कर रहा था उसे रात के लगभग दस बजे कोलकाता विमान तल पर उतरना था।
किन्तु उस दिन कोलकाता में एक तूफ़ान के आने की आशंका के बीच भारी बारिश भी हो रही थी।
कभी - कभी मैं सोचता हूं कि अकेले रहने के चलते फूंक- फूंक कर कदम रखने वाला मैं उस दिन कैसे चूक गया कि ऐसे मौसम के पूर्वानुमान पर भी गौर न कर सका।
शायद इन दिनों थोक में हुई विदेश यात्राओं ने मुझे ऐसा सूरमा बना दिया होगा कि मैं 'देश के भीतर की यात्रा में क्या घबराना' जैसी आश्वस्ति पाल बैठा।
जब विमान कोलकाता में उतरने वाला ही था तभी तेज़ हवाओं और बारिश के कारण घोषणा हुई कि उतरने की अनुमति नहीं मिल रही है, और हमारा विमान आकाश में ही चक्कर काटने लगा। एक बार विमान को उतारने की कोशिश भी की गई। जब विमान का पिछला हिस्सा ज़मीन से कुछ गज़ की दूरी पर ही होगा बड़ी ज़ोर से विमान के इधर- उधर हिल - डुल कर थरथराने की आवाज़ आई।
भीतर से बच्चों का रोना और महिलाओं का चीखना भी सुनाई देने लगा।
मैं दिल को कड़ा करके मन ही मन सोचने लगा कि सैकड़ों ज़िंदगियों को हवा में उछाल देने का ये जोखिम कौन दुस्साहसी पायलेट लेे रहा है।
तभी उतरते हुए विमान ने अकस्मात फ़िर ऊंचाई पर उड़ान भर ली। सबकी जैसे जान में जान आई।
लगभग पचपन मिनट की अफरा- तफरी के बाद घोषणा हुई कि विमान को कोलकाता में उतरने की इजाजत नहीं मिलने के कारण इसे निकटवर्ती विमान तल ओड़िशा के भुवनेश्वर के लिए डायवर्ट किया गया है।
मैंने भुवनेश्वर की यात्रा कई बार की थी और मैं जानता था कि यदि विमान ने भुवनेश्वर उतार दिया तो वहां से रेल या टैक्सी से भी कोलकाता पहुंचना टेढ़ी खीर होगा।
किया ही क्या जा सकता है, की हताशा के साथ हाथ में पकड़ा सैंडविच भी मैं ढंग से खा न सका।
थोड़ी ही देर में हम भुवनेश्वर हवाई अड्डे के ऊपर चक्कर काट रहे थे।
भुवनेश्वर से लगभग कार से डेढ़ घंटे की दूरी पर मेरे निकट रिश्तेदार रहते थे, किन्तु अब आधी रात को वहां जाने या वहां से किसी को भुवनेश्वर आने की तकलीफ़ देना बिल्कुल भी व्यावहारिक नहीं था।
लेकिन एकाएक मुझे याद आया कि मेरा एक मित्र कुछ महीनों पहले मुंबई से ट्रांसफर होकर भुवनेश्वर आया है और अभी उसके परिवार के वहां न होने के कारण अकेला ही रहता है।
मैंने भुवनेश्वर विमानतल पर विमान के भीतर ही बैठे- बैठे उसे फ़ोन किया। फ़ोन तुरंत मिल गया। मैंने उसे पूरी परिस्थिति बताई तो वो तत्काल बोला कि वो एयरपोर्ट से पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर रहता है पर मैं वहां उतर जाऊं और वो मुझे लेने आ रहा है। उसने कहा कि वो लगभग बीस मिनट में एयरपोर्ट पर होगा।
मैं कुछ देर शेष पैसेंजर्स की तरह भीतर ही बैठा रहा। लगभग पंद्रह मिनट बाद ही घोषणा हुई कि मौसम के साफ़ होने के संकेत हैं और हम अब कोलकाता के लिए फ़िर से उड़ान भर रहे हैं।
मेरा मित्र जो मुझे लेने आ रहा था शायद हवाई अड्डे के आसपास ही कहीं पहुंचा होगा कि मैं फ़िर से आसमान में था।
उसे मेरा फ़ोन भी स्विचऑफ मिला होगा !
लेकिन कोलकाता के एक अतिथि ग्रह में आधी रात के बाद पहुंचने पर भी गर्म खाना मिला। और अगले दिन राज्यपाल महोदय के हाथों सम्मान भी।
इस तरह मैं अब कह सकता हूं कि मैंने सिर्फ़ लिख कर ही नहीं बल्कि जान पर खेल कर भी सम्मान हासिल किए।
ये मेरी कहानी है न? तो मेरे बारे में एक तथ्य और जान लीजिए।
मुझे नकली दांत अच्छे नहीं लगते।
लेकिन अगर ये बात मुझे पहले पता चल जाती तो मैं अपने कुदरती दांतों को किसी न किसी तरह जतन से बचाए रखने की कोशिश तो करता। पर मुझे ये अहसास बहुत बाद में जाकर हुआ कि मुझे बनावटी दांत अच्छे नहीं लगते।
परिणाम ये हुआ कि मेरे दांत गिरते गए और बदले में नए लगवाने से मैं बचता रहा।
इस समय तक मेरे जबड़े की बत्तीस ख़ाली पोस्ट्स पर केवल सात दांत नियुक्त थे।
आदमी के मुंह में दांत न होने के नुक़सान क्या हो सकते हैं इसका अनुमान तो आप ख़ुद लगाइए,पर दांत न होने के फ़ायदे क्या हुए, ये मैं आपको बताऊंगा।
मुझे टीवी, मीडिया या मंचों पर कुछ कार्यक्रमों के जब आमंत्रण मिलते तो मैं अपना मुंह छिपाने की कोशिश में या तो मना कर देता, या आनाकानी करता।
इससे कई बार ये समझा जाता कि मैं वास्तविक बड़ा लेखक हूं जो मंच या टीवी तक के लिए लालायित नहीं रहता। इसे मेरा बड़प्पन माना जाता।
क्योंकि ज़माना ऐसा आ गया था कि छपने, चर्चित होने, मंच पर आने या स्क्रीन पर दिखने के लिए लोग साम- दाम- दण्ड- भेद जुटे ही रहते।
वैसे तो मैं भी ऐसा ही था, पर मजबूरी का नाम महात्मा गांधी।
मुझे कुछ अधूरापन सा लग रहा है। मैंने आपको ये तो बताया ही नहीं कि दांत न रहने पर मैं खाना कैसे खाता था।
मेरा मानना ये था कि हमें कुदरत के हिसाब से ही चलना चाहिए। अतः मैं अपने भोजन में धीरे - धीरे ऐसी चीज़ें या आदतें छोड़ता जाता था जो दांतों के बिना संभव ही नहीं थीं।
ओह, आप सोच रहे होंगे कि अब मैंने अख़रोट, बादाम, सुपारी जैसी चीज़ें खाना छोड़ दिया होगा।
जी नहीं, जिस तरह चाय में डालने के लिए अदरक कूटी जाती है उसी तरह मैं इन्हें भी कूट कर खा जाता था।
लेकिन ये सब केवल अपने घर में ही संभव हो पाता था, बाहर जाकर किसी और के घर नहीं। वहां तो मुझे त्याग की मूर्ति बन कर ही रहना होता था।
धीरे धीरे मेरा मन केवल उपन्यास, कहानी लिखने में ही लगने लगा।
अब मैं लेख कम लिखता था, कविता तो बिल्कुल नहीं।
लेकिन कहानी या उपन्यास को लेकर मेरा जुड़ाव किसी गुट, किसी वाद,किसी दल या किसी मंच आदि से कभी नहीं रहा।
मेरी कलम की छतरी केवल और केवल पाठकों पर ही धूप में साया करती रही।
मैं नहीं जानता, साए में धूप भी करती होगी।
इसीलिए प्रोफ़ेशनल समीक्षकों से भी मेरा सरोकार कभी नहीं रहा। वो मेरी ओर देखते भी नहीं थे। मुझे याद नहीं कि उनमें से कुछ ने तो कभी मेरे अभिवादन का जवाब भी दिया हो।
हां, अगर किसी आम पाठक ने कुछ कहा तो मैंने उसे ही समीक्षक जैसी तवज्जो देने की कोशिश ज़रूर की, पर मानी उसकी भी नहीं।
इसका कारण ये था कि लिखते समय मैं अपनी खुद की भी नहीं मान पाता था।
मेरा लेखन मेरे लिए किसी ऑटोमैटिक कार की तरह होता था जो मुझे सवारी का सुख तो देती थी पर मेरी बताई दिशा में ही चले, ये ज़रूरी नहीं था।
ख़ैर, इससे मतलब भी किसे था?
मैं बहुत देर से एक ऐसी बात भी कहना चाह रहा हूं जो कई लोगों को अच्छी नहीं लगेगी। मेरे कई मित्र तो शायद नाराज़ भी हो जाएं।
ये बात साहित्य के शोध या अनुसंधान को लेकर है।
हमने न जाने कैसे एक ऐसा समाज गढ़ लिया है कि हमारे पास कुछ चीज़ें केवल कहने के लिए हैं और कुछ केवल करने के लिए।
किया हुआ हम कहना नहीं चाहते और कहा हुआ हमसे होता नहीं।
सीधी बात करें।
शोध का मतलब है कि हमने कभी कुछ लिखा था। अब उसे आधी सदी गुज़र गई। नई पीढ़ी देखना चाहती है कि हमारे लिखे का क्या असर समाज पर हुआ, हमने ऐसा क्यों कहा था। हम पर क्या गुज़री। क्या जो हमने कहा था वह अब भी कायम है आदि आदि। ये अनुसंधान है।
हो क्या रहा है?
हमने आज लिखा, कल से उस पर शोध होने लगी। खोजने वाले को कहीं कुछ ढूंढने - भटकने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि हम ख़ुद उसकी मदद करने के लिए उसके साथ हैं।
ये अनुसंधान नहीं है। ये तो निर्धारित संख्या में पन्नों का पुलंदा बना कर डिग्री और नौकरी ले लेने का उपक्रम है। विश्वविद्यालयों में ऐसी सामग्री के ट्रक के ट्रक भर भर कर निकल रहे हैं और हमारे विद्यार्थी सदियां गुज़र जाने के बाद भी तुलसी, सूर, कबीर, मीरा, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला को भज कर गंगा नहा रहे हैं।
लेकिन ये व्यंग्यबाण सब पर नहीं छोड़े जा रहे। कुछ काम भी हुआ है। पर कम, आटे में नमक बराबर।
कई विश्वविद्यालयों से अपने जुड़ाव के दौरान इन्हीं दिनों एक और परियोजना सामने आई।
शोध, शोधार्थियों और साहित्य से संबंधित अपने विचार मैंने न जाने क्या सोच कर कुछ समर्थ लोगों सामने रख दिए और उन्हीं कुछ लोगों का विचार इस दिशा में ज़रा और आगे बढ़ जाने का बन गया। समन्वयक के रूप में कार्य की ज़िम्मेदारी मुझे ही मिली।
एक एनजीओ की मदद फंड के लिए ली गई। एक और स्थापित एनजीओ ने उनके वर्कफ़ोर्स की सहायता दी। इस तरह हिंदी के आधुनिक साहित्य की एक अनौपचारिक पड़ताल का दौर शुरू हो गया।
कुछ विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों के हिंदी विभाग भी हमसे जुड़ गए।
और सबकी मदद से मैंने एक मधुमक्खी के छत्ते में हाथ दे दिया।