आने वाला फ़ोन मेरे एक मित्र का था जो इसी शहर में एक बड़ा डॉक्टर था।
उसने कहा कि उसे अपने एक क्लीनिक के लिए एक छोटे लड़के की तत्काल ज़रूरत है जो थोड़ा बहुत पढ़ा- लिखा हो और क्लीनिक में मरीजों का पंजीकरण करने का काम कर सके। चौबीस घंटे उसे वहीं रहना होगा।
जैसे ही मैंने उसे बताया कि दो लड़के आज ही आए हैं और अभी मेरे पास ही हैं, वह ख़ुशी से उछल पड़ा।
बोला- तुम्हें थोड़ी परेशानी तो होगी पर अभी रात को ही उनमें से एक को मेरे पास भेज दो, क्योंकि फ़िर एक सप्ताह के लिए मैं बाहर जा रहा हूं।
लड़के हिम्मत वाले थे मगर शहर में नए- नए थे। फ़िर रात के दस बज रहे थे। डॉक्टर का क्लीनिक करीब चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित था।
मैंने गाड़ी निकाली और दोनों को बैठा कर वहां पहुंचा। मैंने मित्र को जानबूझ कर नहीं बताया कि मैं ख़ुद आ रहा था, अन्यथा वो नाराज़ होता कि मैं क्यों आया। वो यही कहता कि अगर लड़का छोटा है, अकेला नहीं आ सकता तो मैं उसे लेने आता हूं। मैं जानता था कि मेरी ही तरह वो भी अपने ड्राइवर को रात को उसके घर भेज देता है।
इसलिए वहां भी मैं भीतर नहीं गया। एक लड़के को अंदर भेज कर दूसरे को वापस लिए मैं लौट आया।
घर लौट कर कपड़े उतार कर सोते- सोते ग्यारह बज गए।
अब अकेला रह जाने पर दूसरा वाला लड़का मेरे पास मेरे कमरे में ही आ गया।
लड़का खासा ख़ुश और उत्साहित लग रहा था। वो चकित था कि उसके जोड़ीदार को इतनी जल्दी अच्छी नौकरी मिल गई थी। अब वो भी काफी आशान्वित हो गया था।
वैसे भी उसे ये समझा कर तो भेजा ही गया था कि जब तक कहीं नौकरी नहीं मिलती वो मेरे साथ मेरे पास ही रहेगा।
अगली सुबह से उसने पूरी मुस्तैदी से घर का काम संभाल लिया था।
कुछ दिन बाद ही मेरा फ़िर से अमेरिका जाने का कार्यक्रम बन गया।
उस लड़के के काम की व्यवस्था मैंने अपने एक मित्र की बेटी के बुटीक में कर दी। लड़का वहां लगने के दो दिन बाद मुझे मिलने आया तो बेहद खुश था। दुकान के ऊपर बने कमरे में ही दुकान के तीन- चार लड़कों के साथ ही उसके रहने की भी व्यवस्था कर दी गई थी।
वो इस बात से भी खासा उत्साहित था कि मैं विदेश जा रहा हूं।
पिछले दिनों लिखी गई मेरी आत्मकथा का पहला भाग "इज़्तिरार" भी छप कर आ गया था। मैं सोचता था कि लोग आत्मकथा जैसी शुष्क और नीरस किताब रुचि से नहीं पढ़ते। इसीलिए मैंने दो एहतियात बरतने की कोशिश अपनी ओर से की।
एक तो मैंने इसकी शैली थोड़ी सी बदल कर संस्मरणात्मक कर दी और दूसरे इसे अलग- अलग भागों में बांट दिया।
मैंने इस विभाजन के लिए अपनी उम्र को आधार बनाया। पहले भाग में अपने जन्म से लेकर लगभग बीस साल की उम्र तक के संस्मरण शामिल किए, जिनमें मेरे विद्यार्थी जीवन की झलक थी।
दूसरे भाग में मैंने अपनी नौकरी लगने, गृहस्थ जीवन शुरू होने और पारिवारिक जिम्मेदारियां आ जाने के बीस साल को आधार बनाया। मेरी आत्मकथा का ये भाग मेरी बीस से लगभग चालीस वर्ष की अवस्था तक के क्रिया- कलापों को छूता था।
प्रकाशक ने मुझसे हुई बातचीत के आधार पर ही किताब के फ्लैप पर इस बात का ज़िक्र भी अपनी प्रकाशकीय टिप्पणी में कर दिया था कि मेरी आत्मकथा कुल चार भागों में आयेगी।
इस टिप्पणी से मैं भयानन्द में डूबने- उतराने लगा था।
आप सोच रहे होंगे कि ये भयानन्द क्या होता है? भय अलग चीज़ है, आनंद अलग।
दिवंगत हास्य अभिनेता महमूद के शब्दों में कहूं तो..."ये भयानन्द क्या जी? या भय बोलो, या आनंद बोलो!"
बताता हूं। जब आप किसी मेले में किसी गगनचुंबी झूले पर झूलते हैं तो आपको आनंद आता है।
अगर आनंद न आता तो आप झूलते ही क्यों? क्योंकि वहां तो आप अपनी जेब से पैसे ख़र्च करके झूल रहे हैं, मगर फ़िर भी झूला तेज़ी से ऊपर जाने पर आपको स्वाभाविक रूप से थोड़ा डर लगता ही है।
तो ये है भयानन्द।
तो प्रकाशक की इस टिप्पणी से मुझे भयानन्द होने लगा।
भय तो ये था कि आत्मकथा "चार- चार" खंड में?
ओह! ऐसा क्या जी लिया जिसकी इतनी बड़ी रामकहानी है?
लेकिन इसी के साथ - साथ मन में थोड़ा- थोड़ा आनंद भी ये सोच कर था कि डॉ हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा भी तो चार खंडों में है।
नीड़ का निर्माण फ़िर, बसेरे से दूर, क्या भूलूं क्या याद करूं, दशद्वार से सोपान तक, ये चारों बच्चन जी की अत्यंत चर्चित आत्मकथा के चार खंड थे।
यहां यही तो फ़र्क था कि मेरी पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद मैंने नीड़ का निर्माण फ़िर दोबारा नहीं किया।
बसेरे से दूर आधे से ज्यादा जीवन में मैं भी रहा।
अब तक के लगभग सात दशक के जीवन में स्मृतिलोप मुझे कभी नहीं हुआ। मुझे भी सब याद है, कुछ भूला नहीं।
और अपने घर से पुत्र के घर में रहने के लिए चले जाने की कहानी एक दिन मेरी भी हो ही जाती अगर बेटा भारत में ही रह कर अपना घर अपने देश में ही बनाता, हमेशा के लिए अमेरिका में रहने के लिए तो मैं नहीं गया। हां, मैं उसे भूला भी नहीं, और न ही वो मुझे भूला!
बच्चन जी ने हिंदी अधिकारी की नौकरी की, मैंने भी की। बच्चन जी ने विश्वविद्यालयों में पढ़ाया मैंने भी पढ़ाया।
बच्चन जी बड़े साहित्यकार बने, तो साहित्य से थोड़ा बहुत लगाव मेरा भी रहा।
हां, उनकी तरह बड़ा आदमी मैं नहीं बना।
सच बताऊं आपको, छोटे आदमी की कहानी बड़े आदमी से हमेशा बड़ी होती है। उसे तो सब बताना पड़ता है कि वो बड़ा आदमी क्यों नहीं बन सका।
उनका परिचय भी कौन बहुत बड़ा है?
"कालजयी महाकवि"... बस! इतना ही तो? अमिताभ का पिता कहने पर तो वो नाराज़ हो जाते थे। नेहरूजी का दोस्त कहने पर ख़ुश नहीं होते थे। तेजी जी का पति कहने पर कहते थे कि "मेरा भी कुछ पढ़ा है या नहीं?"
तो मेरी कहानी तो उनसे बहुत बड़ी है, उन्होंने तो शायद मेरी एक लघुकथा भी नहीं पढ़ी होगी। तो उनका समय बचा कि नहीं?
मैंने उनकी मधुशाला पचासों बार पढ़ी। उनकी आत्मकथा शुरू से लेकर आख़िर तक पढ़ी। फ़िर?
ख़ैर।
जब मैं दो महीने बाद अमेरिका से लौटा तो मुझे एक बिल्कुल अविश्वसनीय नई बात जानने को मिली।
मेरे पास आए उन दो लड़कों में से एक को डॉक्टर साहब के पास भेज देने के बाद दूसरे को मैंने अपने जिस मित्र के परिवार में बुटीक पर काम करने के लिए भेजा था,उसे नौकरी से निकाल दिया गया था।
लेकिन लड़के के बार- बार ये कहने के बाद, कि मेरे अमेरिका से लौटने तक उसे वहीं रहने की अनुमति दे दें, उन्होंने उसे घर से निकाला नहीं था।
मेरे आते ही वो अपना बैग उठा कर मेरे पास चला आया।
और तब मुझे अपने मित्र से फ़ोन पर ही ये अजीबो- गरीब सच्चाई जानने को मिली कि लड़का रात को बुटीक पर रहने के दौरान कॉलोनी के ही कुछ घरों में सेक्स वर्कर के रूप में सेवाएं देता है। उसके साथियों का कहना था कि जितना बुटीक में हमें एक सप्ताह में मिलता है उससे ज़्यादा ये एक दिन में कमा लेता है।
मैं गंभीर हो गया। अठारह - उन्नीस साल के लड़के को इस बात पर डांटने- फटकारने का कोई फ़ायदा नहीं था।
अगर इस समस्या का हल डांटना फटकारना होता तो कॉलोनी के कई घरों को ये सज़ा मिलनी चाहिए थी।
जिस समय फ़ोन पर मेरे मित्र से मेरी लंबी बातचीत हो रही थी तब लड़का कुछ दूर बैठा सुन रहा था।
कुछ समझ कर, कुछ बिना समझे वो भी कुछ मायूस सा हो गया था।
किन्तु जब मैंने उसे कुछ नहीं कहा तो आश्वस्त होकर वो घर के काम में लग गया।
लेकिन रात का खाना खाने के बाद सोने से पहले जब वो मेरे पास आकर बैठा तो मैंने उसे समझाया - "दुनिया में काम करने वाले भी बहुत हैं और कामगार चाहने वाले भी। मगर नौकरी तभी मिलती है जब कोई किसी की ज़िम्मेदारी या गारंटी लेने वाला हो। अब अगर आगे से किसी के पास जगह ख़ाली हुई तो मैं तुझे बता तो दूंगा लेकिन तेरी कोई गारंटी या ज़िम्मेदारी नहीं लूंगा।"
इतना पर्याप्त था। लड़का इतने भर से ही रूआंसा हो गया और उसने मुझे बताया कि किस तरह ग्राहक बुटीक में खरीदारी करने आते थे और सामान बदलवाने या लौटाने के बहाने उसे घर बुला लेते थे। आर्थिक लाभ होने पर उसे भी इसमें रुचि हो गई।
कुछ दिन बाद अख़बार में एक दुकान पर सेल्स के लिए लड़कों की ज़रूरत की मांग पढ़ कर वो चला गया।
मैं कभी- कभी सोचा करता था कि हमारे समाज ने शादी की बात को आर्थिक आत्मनिर्भरता से जोड़ कर दैहिक ज़रूरतों की अनदेखी की है। हमारे वैवाहिक - पारिवारिक ढांचे में लड़की को पराश्रिता बना कर दूसरे घर में भेजना कोई बहुत सही निर्णय नहीं रहा। इस प्रथा ने लड़कियों का अहित तो किया ही, समाज के मूल तत्वों में भी असमानता का बीज बो दिया।
सारी व्यवस्थाएं इस तरह से जमाई गईं कि नए परिवार में पहले दिन से ही पुरुष मुखिया और स्त्री दोयम दर्जे पर रहे।
वह उम्र में अपने जीवन साथी से छोटी हो, वह शिक्षा में अपने पति से कम हो, और जब उसका विवाह हो तो उसके माता पिता उसकी नई गृहस्थी जमाने के लिए सब कुछ दें, और पति के घर वाले मांग मांग कर लें। यदि वह खुद कुछ कमाती हो तो पति की आमदनी ही उसकी सीमाओं का आकाश रहे। वह पति से पहले घर चली अाए।
और चाहे कितनी ही थकी मांदी घर लौटे, ये उसका कर्तव्य है कि घर में घुसते ही वह वहां रहते माता पिता और बच्चों के भोजन पानी की व्यवस्थाओं में जुट जाए।
ऐसे सड़े गले परिवार की व्यवस्था को हम सब ने न जाने कितना ढोया।
इस बार जब मैं अमेरिका में रहा तो वहां भी मुझे काफ़ी व्यस्त रहना पड़ा।
केवल घूमने फिरने के लिए ही नहीं, बल्कि इन दिनों मैं अपने नए उपन्यास "अकाब" पर काम कर रहा था।
इस उपन्यास के दौरान कुछ मित्रों और सहयोगियों से अक़्सर ये चर्चा होती थी कि बाज या चील की प्रजाति के इस प्राणी को "उकाब" कहा जाता है जबकि मैं अकाब कह रहा था।
जो विवाद किताब छपने से पहले ही सामने आ गया था उस पर स्पष्टीकरण भी ज़रूरी था।
और ख़ासकर तब जबकि मेरा पिछला उपन्यास "जल तू जलाल तू" नौ भाषाओं में छप चुका था तो ये आशा थी कि इस उपन्यास पर भी व्यापक विमर्श होगा।
असल में मेरे इस उपन्यास की पृष्ठभूमि मूल रूप से अमेरिका ही थी।
अमेरिका के विश्व व्यापार केन्द्र अर्थात वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टॉवर्स का एक आतंक वादी हमले में ध्वस्त हो जाना इस उपन्यास के कथानक की एक बड़ी घटना थी। मैंने इससे संबंधित जानकारी के सूत्र मीडिया और वहां स्थित संग्रहालयों से ही जुटाए थे।
आतंक की इस काली छाया को आसमान में मंडराते जिस प्राणी से संकेत रूप में दर्शाया गया था उसकी परिकल्पना भी मैंने एक ऐसे पक्षी के रूप में ही की थी जो उकाब, बाज या चील से कुछ अलग बनावट का किन्तु उसी प्रजाति का, सफ़ेद गर्दन और विशाल आकार वाला पंछी था। इसके स्वभाव की तमाम कुटिलता और धूर्तता के बावजूद इसकी पीली ख़ूबसूरत चौंच और कलात्मक पंखों की बनावट इसे एक आकर्षक परिंदे की श्रेणी में ही रखती थी।
इसे अंग्रेज़ी में अकाब ही कहा जाता था। मैंने इस संज्ञा को हिंदी में बदलने की ज़रूरत नहीं समझी और इस किताब का शीर्षक "अकाब" ही रहा।
बाद में इस किताब को पटियाला के एक वरिष्ठ साहित्यकार ने पंजाबी भाषा में अनूदित किया तो उन्होंने सबको समझ में आने का हवाला देते हुए इसका टाइटल उकाब ही रखा पर उन्होंने इस प्रजाति पर पर्याप्त शोध करके इसके सभी प्रकारों और उनके स्वभाव की रोचक मीमांसा करके पुस्तक में एक पृष्ठ अलग से जोड़ा।
अंग्रेज़ी में एक युवा पत्रकार इसे "अकाब" शीर्षक से ही पाठकों के लिए लेकर आए और ये बेहद लोकप्रिय हुआ।
हां एक मज़ेदार बात हुई। इस किताब को मुंबई के सिंधी भाषा के एक लेखक और प्रकाशक ने जब सिंधी के पाठकों के लिए लाने की इच्छा जताई तो उनके साथ कुछ पिछले अनुभव और भी थे। वो पहले भी मेरे एक उपन्यास "देहाश्रम का मन जोगी" का सिंधी भाषा में अनुवाद कर चुके थे जिसके लिए उन्हें केंद्रीय साहित्य अकादमी का अनुवाद पुरस्कार भी मिल चुका था।
उनका कहना था कि पुरस्कृत उपन्यास "मनजोगी" का प्रकाशन अरबी भाषा में हुआ था जबकि अब भारत में सिंधी भाषी नई पीढ़ी भी अरबी या फ़ारसी लिपि पढ़ने में दिलचस्पी नहीं रखती। वो देवनागरी में ही लिखी सिंधी किताबों को ही पढ़ना चाहती है, क्योंकि अब अखिल भारतीय भाषा के तौर पर हिंदी पढ़ने में रुझान सभी का रहता ही है, जिसके चलते देवनागरी लिपि से अधिकांश बच्चे परिचित होते ही हैं।
इस तरह अकाब का अनुवाद भी सिंधी भाषा में हुआ किन्तु ये देवनागरी लिपि में ही छपी। अनुवाद भी पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट एक युवा साहित्यकार ने किया और बेहद ख़ूबसूरती से किया जिसकी व्यापक सराहना हुई।
मेरे कौतूहल का विषय ये था कि सिंधी भाषा के अख़बारों में मेरी सिंधी किताबों के रिव्यू और कुछ एक मेरे इंटरव्यू पढ़ कर लोग मुझे फ़ोन करके मुझसे सिंधी में बात करने लग जाते थे पर उनको उसी तरह जवाब न दे पाने की अपनी विवशता के कारण मुझे बड़ी मायूसी होती थी।
मुझे याद आता था कि किस तरह कभी तेलुगु भाषा में मेरी कहानी "विपुला" पत्रिका में पढ़कर मेरे पास पाठकों के पत्र आया करते थे और उन्हें मैं मुंबई में अपने किसी तेलुगु जानने वाले मित्र से पढ़वाया करता था। मैंने अपने हस्ताक्षर उन दिनों तेलुगु में भी करना सीखा जो मैं अपने तेलुगु भाषी पाठकों को हिंदी में दिए गए जवाबों पर कर दिया करता था।
मैंने अपने हस्ताक्षर पंजाबी भाषा में भी करना सीखा।
मैं उन लोगों के प्रति दिल से नतमस्तक रहा करता था जो कई भाषाएं सीख कर उनमें न केवल प्रवीण होते थे बल्कि निष्णात हो जाया करते थे।
मेरी दक्षता तो मात्र हिंदी में ही रही। हां ये कोशिश मैं ज़रूर करता था कि सभी भाषाओं के लिए सद्भावना और आदर रखूं।