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हकीकत वास्तविकता - 2


जीवन में “हकीकत" शब्द बहुत मायने रखता है। क्योंकि यदि आप अपने जीवन में हकीकत अथवा वास्तविकता को स्थान देते हैं तो आप कभी दुखी या भयभीत नहीं रह सकते। क्योंकि बहुत लड़ाइयां हकीकत को छुपाने की वजह से होती हैं और बहुत सी अनबन हकीकत ना जानने की वजह से होती है। क्योंकि अधिकांश होता कुछ और है और हम मान कुछ और लेते हैं।
और लोग वास्तविकता तभी छिपाते हैं जब उसमें उन्होंने ही कोई गलत काम किया हो। और उस छिपाने के चक्कर में और भी गलत काम करके उसमे और उलझते जाते हैं।
ऐसी ही कहानी है ध्यानचंद की। जिसका जीवन बहुत ही सीधा साधा था। परंतु किसी एक गलती के कारण वह बहुत ही दुखी रहने लगा। आखिर! क्या किया उसने?
ये कहानी है गरीब गांव के गरीबदास के गरीब बेटे की। स्थिति से गरीब भले ही था मगर दिल से परिवार अमीर था। पिताजी का स्वभाव एकदम फूल के जैसे कोमल था, सभी से प्यार से बात करते थे, सभी की मदद के लिए हमेंशा तैयार रहते थे, और गांव के किसी भी व्यक्ति को उनसे कोई शिकायत नहीं होती थी सभी उसका बहुत सम्मान करते थे। कभी झूठ बोलना उसने जैसे सीखा ही न हो, कोई ग़लत काम जैसे ठगी, धोखा किसी से नहीं करता था। सभी के प्रति सरल व्यवहार रखने वाला "ध्यानचंद" था।
उसी तरह मानो उसकी ही परछाईं उसकी पत्नी में भी ज्यों के त्यों उसके जैसे ही गुण भरे हुए थे। हमेशा दोनों के एक से विचार होते थे दोनों हमेशा एक दूसरे के मन को पढ़ लेते थे एक दूसरे की तकलीफ़ समझ लेते थे। मानो वह ध्यानचंद कि पूर्ण रूप से अर्धांगिनी हो। कभी कोई बात को लेकर किसी से शिकायत नहीं होती। अपने पति की सेवा पूरे निष्ठा भाव से करती थी। ऐसी थी "पुष्पा"।
और दोनों के आपसी प्रेम और मेल मिलाप से उनका एक सुपुत्र था "धीरज"। वह भी अपने माता पिता की तरह भोला भाला था, सभी से मिलजुल के रहता, ना किसी से लड़ता झगड़ता, सदा ही अपने माता पिता की आज्ञा मानता, ओर उनकी सेवा करता था।
इनका इतना परिवार एक झोपड़ी में अपना गुजारा करता था। और थोड़ी जगह खेती की थी तो उसमें ही खेती बाड़ी करके जीवन यापन करते थे। मगर उससे मात्र दो समय कि रोटी ही नसीब होती थी। और जब सारी जरूरतें ही जिसकी पूरी ना हों तो वह क्या किसी ख्वाइश को अंजाम दे।
ध्यानचंद का बेटा भी गांव के सरकारी स्कूल में जाता था। और वही से जो कुछ मिल जाता उसी से अपनी शिक्षा की आगे बड़ाता था।क्योंकि अलग से और साधन जुटाने की उनकी सामर्थ्य नहीं थी।
ध्यानचंद रोज सुबह उठता और सीधे खेत पर काम के लिए निकल जाता था। वहां जो थोड़ी बहुत साग सब्जियों की खेती करता था उसे तोड़कर बेचने निकल जाता था। फिर थक हार कर घर आता और रोटी खाकर फिर काम पर निकल जाता था। और इसी बीच उसका बेटा सवेरे शाला चला जाता फिर शाम को आकर अपने पिता की सहायता के लिए उनके साथ हो लेता। तथा पुष्पा भी घर के काम निपटाकर अपने पति और बेटे के काम में हाथ बंटाती थी। इसी तरह प्रतिदिन की उनकी दिनचर्या थी।
न कोई शोक, न मन में कोई इच्छा, न कोई लालच! मानो उनका जीवन "सादा जीवन,उच्च विचार" की सूक्ति को सार्थक करता था।
ध्यानचंद जितना भी कमाता था उसका एक हिस्सा भविष्य के लिए अथवा अपने बेटे की पढ़ाई के लिए बचा कर रखता था। जिससे उसे भविष्य में अपने बेटे के लिए कोई परेशानी ना हो। क्योंकि वो नहीं चाहता था कि उसकी तरह उसका बेटा भी धन के अभाव में अनपढ़ रहे। वह अपने बेटे को और अपनी पत्नी को पूरा खुश रखने का प्रयत्न करता था।"क्योंकि हर किसी के मन में इच्छाएं होती हैं, भले ही वो पूरी हों या न हों।" “कोई अपनी इच्छाओं को दबा लेता है, तो कोई मेहनत करके पूरी कर लेता है, लेकिन को ये दोनों नहीं के पाता वह कुछ भी करके अपनी इच्छा पूर्ति करता है या स्वयं को ही मिटा देता है।" ये संसार का नियम है।
ऐसी ही इच्छाएं उसके मन में उत्पन्न होती थी लेकिन अभी तो वह उन इच्छाओं को दबा लेता था। सब कुछ अच्छा चल रहा था क्योंकि उन्हें न किसी बात का डर था न कोई चिंता। क्योंकि उसने कभी कोई ग़लत काम किया ही नहीं था तो डर किस बात का। ध्यानचंद का पूरा परिवार सुख शांति से अपना जीवन व्यतीत कर रहा था। उसका बेटा भी पूरी श्रद्धा के साथ पढ़ाई करता था। जिससे वह आगे चल कर अपने परिवार के लिए कुछ कर सके।
इस बार धीरज पांचवीं कक्षा की परीक्षा देकर आया था। और उसका परिणाम भी बहुत अच्छा आया था। सारे गांव वालों ने ध्यानचंद से उसके बेटे की बहुत तारीफ की। ध्यानचंद की छाती भी चौड़ी हो गई थी और आखिर क्यों न होती बेटा ने नाम रोशन जो किया था।“और जब इंसान को तारीफ ज्यादा ही अच्छी लगने लगे तो फिर वह मान के लिए कुछ भी कर सकता है।"
उस दिन ध्यानचंद बड़े आंनद के साथ अपनी मित्रमंडली में बैठा था। क्योंकि पता था कि आज तो उसके बेटे की ही बातें होने वाली हैं। इसलिए उसके अंदर और उत्साह से भरा था। सभी ने जमकर उसके बेटे की तारीफें की। फिर धीरे धीरे सब अपनी अपनी बातों पर आ गए। और अपने अपने हालचाल बताने लगे। “कोई कहता कि आज आज मेरी कमाई उम्मीद से ज्यादा हुई" “तो कोई कहता आज नुकसान ही नुकसान हुआ।" ऐसे ही “किसी ने कहा कि आज मेरी लुगाई मुझसे बहुत नाराज़ है," “तो कोई कहता कि आज मैने अपनी लुगाई को बिंदी का पत्ता और नई चूड़ियां लेकर दी।" इसी बीच “किसी ने जोरदार आवाज में कहा कि आज मैने अपनी बेटी का संबंध तय कर दिया। बढ़िया शहर के बाबू है सरकारी नौकरी करते हैं। बस दहेज में दश लाख रुपए मांगे है सो हम कहीं से जुगाड कर लेंगे, परसों शहर से ही शादी है।" इस बात को लेकर सभी ने उसको खूब शुभकामनाएं दी। और सभा समाप्त करके सभी अपने अपने घर चल दिए।
ध्यानचंद के घर में भी सभी खुश ही थे। और इसी खुशी के एवज में ध्यानचंद ने सोचा कि बहुत दिनों से बेटे को कोई उपहार नहीं दिया है। इसलिए इस बार वह अपने बेटे को कुछ खास देना चाहता था। तो उसने अपने बेटे और पत्नी के साथ शहर घूमने का विचार बनाया और जब उसने अपने बेटे और पत्नी को यह बताया तो वो भी बहुत खुश हुए। गर्मी का समय चल रहा था। धीरज की भी छुट्टियां चल रही थी। तो जाने का विचार तय हुआ। और सारी तैयारियां भी हो गई। क्योंकि महज चार से पांच दिन के लिए को जाना था।
शहर पहुंचने के बाद वे किसी धर्मशाला में रुके। और जिस लिए से शहर गए थे उस काम में लग गए। हर विशेष जगह घूमने को गए, सभी कुछ विशेष खाने के लिए गए और जब थक जाते तो वापिस धर्मशाला में विश्राम के लिए अा जाते थे।
इसी बीच गांव में जिस व्यक्ति की बेटी की शादी होने वाली थी उसके घर वालों की शादी की एक रात पहले ही हत्या कर दी गई। पुलिस केस बना तो सामने आया कि को उस व्यक्ति ने पांच लाख रुपए रखे थे वह भी गायब थे।पुलिस पूरी मेहनत के साथ अपना काम कर रही थी और इस केस कि कड़ी जांच पड़ताल कर रही थी।
उड़ते उड़ते यह खबर ध्यानचंद के कानों में भी का पहुंची। और उसने भी शहर घूम ही लिया था तो अब वह भी अपने गांव की और रवाना हो गया। और जब वह गांव पहुंचा तो उसने लोगों से हत्या मामले के बारे में पूछा। और पता भी किया को पुलिस ने अभी तक कुछ किया या नहीं।
कई महीने बीत गए। जाड़े का मौसम अा गया। धीरज के भी पढ़ाई जोरों पर थी तो वह मन से पढ़ाई करता था। और ध्यानचंद भी प्रतिदिन कि तरह अपने काम पर गया था। और अभी तक पुलिस भी उस मामले को सुलझा नहीं पाई थी। इसलिए वो मामला अब दब सा गया था।
मगर कुछ दिन से अचानक ध्यानचंद उदास उदास सा रहने लगा। न वह किसी से ठीक से बात करता था न सीधे मुंह जवाब देता, और न अब घर में चैन से रहता था।बहुत दिन हो गए और एक दिन तो उसकी किसी गांव के ही पड़ोसी व्यक्ति के साथ दो दो हाथ वाली बात हो गई फिर जैसे तैसे माहौल शांत हुआ और ध्यानचंद अपने खेत पर चला गया और वह व्यक्ति जो कि शांत स्वभाव का ही था तो उसने सोचा क्यों ना एक बार ध्यानचंद से मिलकर क्षमा मांग ली जाए क्यों आपस में बैर बंधे। इसलिए वह ध्यानचंद से मिलने उसके खेत पर गया। और जैसे वहां पहुंचा और उसने ध्यानचंद को तो वह हक्का बक्का रह गया...........।
उसने देखा कि ध्यानचंद किसी व्यक्ति को हसिया से काटकर उसके टुकड़ों की गाड़ रहा था। और जैसे ही ध्यानचंद को पता चला कि “मोहन" ने उसे देख लिया है वह तुरंत उसके पीछे भागा और उसे रोकने का प्रयत्न करने लगा.............।। To be continued.....
यहां से कहानी ने ध्यानचंद के जीवन में नया मोड़ के लिया था। “आखिर वह व्यक्ति कौन था जिसे वह बेरहमी से मारते हुए मोहन ने देख लिया था। आखिर क्या वजह थी इस सब के पीछे?"
अधिकांशतः लोग जीवन में किसी एक गलत काम को छिपाने के लिए हजारों गलत काम कर जाते हैं। और जब उनको अहसास होता है तब तक बहुत देर हो जाती है। अगर इंसान अपनी पहली ही गलती को स्वीकार कर ले तो कभी वह इंसान गलत राह नहीं पकड़ सकता। क्योंकि गलती तो सबसे ही होती हैं, बस फर्क इतना है कि कोई गलती सुधार लेता है, और कोई उस गलती को छिपाने के लिए और गलतियां करता जाता है।"
“मगर ये भी निश्चित है कि वह गलती कभी न कभी, किसी न किसी वजह सामने अा ही जाती है। चाहे उसे कितना भी छिपाने का प्रयत्न क्यों न कर लिया जाए।"


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