मुझे अपने जीवन के कुछ ऐसे मित्र भी याद आते थे जो थोड़े- थोड़े अंतराल पर लगातार मुझसे फ़ोन पर संपर्क तो रखते थे किन्तु उनका फ़ोन हमेशा उनके अपने ही किसी काम को लेकर आया।
- आप बैंक में बैठे हैं, मेरे मकान का काम चल रहा है, कुछ पैसा किसी तरह मिल सकता है क्या?
- मैं आपसे मिलना चाहता हूं, मेरे चचेरे भाई के गांव का एक आदमी अपनी बेटी की स्कॉलरशिप के लिए परेशान हो रहा है, उसे अपने साथ लेे आऊं?
- मेरे गुरुजी के लड़के की अटेंडेंस शॉर्ट हो गई, सर आपका आशीर्वाद मिल जाए तो उसका साल बच जाएगा।
- मेरे ननिहाल के एक लड़के ने ग्रामीण प्रतिभा परीक्षा में सत्तर प्रतिशत लिए हैं उसकी फ़ोटो पेपर में निकल सकती है क्या?
- मेरे मौसा जी के लड़के ने बीमा कंपनी ज्वाइन की है, कम से कम पांच पॉलिसी तो आपको दिलवानी ही पड़ेंगी।
- आप ज़िला जज साहब के साथ एक कार्यक्रम में मंच पर थे, मैंने देखा था। मेरे ख़ास साढू साहब का एक काम उनके पास अटक रहा है, आप शाम को घर ही मिलेंगे ना?
ऐसे हर फ़ोन के बाद मैं कभी- कभी अकेला बैठा हुआ भी हंसने लग जाता था।
पर इसमें मुझे हंसी क्यों आती थी, ये सब तो दुनियादारी के ज़रूरी काम हैं, यही सोच रहे हैं न आप?
मुझे हंसी इसलिए आती थी क्योंकि मैं ऐसे फ़ोन के बाद बैठा- बैठा दिवास्वप्न देखने लग जाता था।
इन सपनों में मैं देखता कि मैं एक समारोह में मुख्य अतिथि बन कर गया हूं, आयोजक अपनी कार से मुझे लेने आए हैं। मंच पर मुझे बैठा कर फूलमालाएं पहनाई जा रही हैं, साहित्य और पत्रकारिता में मेरे योगदान को इंगित करते हुए उपस्थित भीड़ को मेरी उपलब्धियों का परिचय दिया जा रहा है। कई छायाकार फ़ोटो लेे रहे हैं, किसी टीवी चैनल का कोई पत्रकार न्यूज़ में दिखाने के लिए मेरी बाइट लेना चाहता है, तभी मैं मेरी बगल में बैठे हुए समारोह अध्यक्ष के कान में फुसफुसाने लगता हूं..."सुनिए महाशय, बाईस साल पहले दक्षिण भारत के एक प्रांत में एक आदमी मेरे पड़ोस में रहता था, उसके साढू का आपके इलाक़े में अपने पड़ोसी दुकानदार से किसी छज्जे को लेकर विवाद हो गया है, मुझे पूरी बात तो पता नहीं, पर अगली सुनवाई पर आपको उसी के हक़ में फ़ैसला देना है। ठीक है?"
समारोह के आयोजक सोच रहे हैं कि मैं उनके आयोजन से प्रभावित होकर निरंतर अध्यक्ष से चर्चा कर कर रहा हूं ताकि वे अध्यक्षीय संबोधन में उसका उल्लेख करें।
कार्यक्रम के सहभागी और भी तत्परता से उत्साहित होकर अपनी प्रस्तुतियां देने लगे हैं।
सपना टूटता और फ़िर मैं बैठा- बैठा हंसने लग जाता।
मैं कुछ देर बाद फ़िर से स्मृति कल्पनाओं में खो जाता हूं।
मुझे याद आता कि काम के चलते मैं अपने एक निकट परिजन से मिलने उनकी बीमारी में भी नहीं जा पाया था।
मेरे एक अध्यापक की मृत्यु हुए लगभग महीना भर होने को है पर मैं अपनी व्यस्तता के चलते उनकी धर्मपत्नी को सांत्वना देने जाने का समय नहीं निकाल पाया हूं।
मेरी बुआ की लड़की का चयन विदेश में एक अच्छी नौकरी पर हुआ है, उसे बधाई देने उनके घर जाना है, कहीं उसके जाने का समय आ ही न गया हो।
मेरे सगे मामा के लड़के ने यहां एमबीए में जब प्रवेश लिया था, तो उन्होंने कहा था कि ये पहली बार इतनी दूर पढ़ने जा रहा है, अब तुम्हारे शहर में है, ज़रा कभी- कभी इसे संभालना।
मुंबई में मेरे साथ दो वर्ष एक ही कॉलोनी में रहे मेरे मित्र के पिता अब रिटायरमेंट के बाद यहीं सैटल हो गए हैं। मित्र हर बार फ़ोन पर कहता है कि तुम लकी हो जो मेरे मम्मी- पापा के मुझसे भी ज़्यादा क़रीब रहते हो। पर मैं ढाई साल से उन्हें देखने भी नहीं गया।
... मैं दोपहर में बैठा- बैठा सोच रहा हूं कि एक दिन गाड़ी लेकर इन सब घरों में चला जाऊं और इन सबका बीमा करके आ जाऊं ताकि मेरे मित्र के मौसा के लड़के को जीवन- पर्यन्त कमीशन मिलता रहे।
आख़िर मित्र धर्म भी तो कुछ है कि नहीं?
और आप हैं कि मुझसे हंसने का कारण पूछ रहे हैं।
आपको लग रहा होगा कि मैं ये सब व्यंग्य या मज़ाक में कह रहा हूं पर सचमुच कुछ मित्र ऐसे मेरे पास हैं जिन्होंने हमेशा अपने ही किसी काम के लिए, कोई न कोई सिफ़ारिश करवाने के लिए ही मुझे फ़ोन किए।
और मैं ये भी आपको विश्वास से कह सकता हूं कि अधिकांश सिफ़ारिशें ग़लत या बेतुके कामों के लिए ही होती हैं।
छोटे- छोटे ग़लत काम हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बनते जाते हैं। और हम उन पर पर्दा डालने के लिए दूसरों का सहारा ढूंढने लग जाते हैं।
मुझे ये सोच कर हैरानी होती थी कि हम अपनी कमियों, अपनी गलतियों, अपनी अयोग्यता को दूसरों की मदद से क्यों छिपाना चाहते हैं? क्यों हम अपनी संतान या परिजनों को उनकी योग्यता के दर्जे से ऊपर जबरन बैठाना चाहते हैं?
ये मज़ाक की नहीं, मेरे लिए नाराज़गी की बात होती थी।
इन्हीं दिनों हुई नेपाल यात्रा में मुझे बड़ा मज़ा आया।
हम लमही भी गए, जो चर्चित उपन्यासकार प्रेमचंद का गांव है।
ऐसी जगह जाकर हम कुछ भावुक हो जाते हैं। मैं भी प्रेमचंद के घर में घूमते हुए कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था। साथ में गए कुछ मित्र इस बात पर उत्तेजित भी थे कि अन्य देशों में कालजयी रचनाकारों के स्मृति संयोजन की जैसी भव्य व्यवस्थाएं की गई हैं वैसी यहां क्यों नहीं की जाती हैं।
इन कुछ ही सालों में मुझे भी तोलस्तोय, गोर्की, पुश्किन जैसे लेखकों- कवियों के नगर अथवा आवास प्रत्यक्ष रूप से देखने का अवसर मिला था।
लेकिन मैं ऐसे स्थलों के भ्रमण के समय प्रायः अंतर्मुखी रह कर साथियों से किसी भी तरह की चर्चा से बचता था।
वर्षों पहले हिंदी की उस समय की अत्यंत चर्चित पत्रिका "सारिका" ने तो मेरे एक उपन्यास की समीक्षा के बहाने ये लिखा भी था - " ऐसे रचनाकार दाढ़ी रखते हैं, दुशाले ओढ़ते हैं और अपने को समकालीन समाज से ऊपर समझते हैं।"
मैंने कभी दाढ़ी नहीं रखी। मुझे तो मुंह के क्या, बदन के छिपे- ढके भागों के बाल भी बढ़ने से परेशानी होती है। तत्काल उनसे छुटकारा पाते रहना अच्छा लगता है।
कुर्ता पायजामा या दुशाला भी मौसम के इशारे और सामाजिक दिखावे के चलते पहना तो खूब, पर दिल से तो अपने शरीर पर हल्की चड्डी - बनियान ही भाती है।
पर इन बातों पर क्या बात करना।
ये तो अपनी - अपनी फ़ितरत, अपनी- अपनी चाहत, अपनी- अपनी किस्मत...!
मैंने अपनी कहानी के शुरू में ही इस बात पर विस्तार से लिखा है कि मुझे जन्म से ही धागे, डोरी, शू लेस, रस्सी,इलास्टिक, रबरबैंड, नाड़े, कलावा आदि चीज़ों से एक अजीब क़िस्म की एलर्जी थी। मैं इन्हें छू तो पाता ही नहीं था, बल्कि इन्हें देखने में भी एक अरुचि का सा भाव पैदा होता था।
यहां तक कि जिन लोगों के हाथ में कलावा बंधा हो उनके हाथ से खाने की कोई चीज़ लेने में भी मेरा मन उचट सा जाता था। और यदि ये चीज़ें गीली, भीगी हुई हों तब तो मुझे उबकाई आने लग जाती थी। अगर किसी के हाथ में बंधे कलावे का धागा ढीला होकर साग सब्जी अथवा खाने की चीज़ से छूता रहे तो मैं ऐसे व्यक्ति के साथ बैठ कर खाना खाना तो दूर, उस कमरे में खड़ा तक भी नहीं रह पाता था।
मैंने इस एलर्जी के चलते बहुत कुछ खोया। एनसीसी, स्काउट, स्पोर्ट्स आदि में मैं इसी कारण भाग नहीं ले पाता था कि वहां लेस वाले फॉर्मल जूते पहनने की अनिवार्यता रही।
यहां तक कि मैं पूजा के बाद हाथ पर बांधा गया कलावा, और राखी आदि भी खाना खाने से पहले ही उतार दिया करता था।
लेकिन बचपन की इस उलझन और बाद में युवावस्था में इससे छुटकारा पाने की मेरी कोशिशें आप मेरी दो किताबों - "इज्तिरार" तथा "लेडी ऑन द मून" में बहुत विस्तार से पढ़ सकते हैं।
ये दोनों किताबें मैंने संस्मरणात्मक शैली में अपनी आत्मकथा के खंडों के रूप में ही लिखीं।
जिस तरह मैंने बालाघाट के गांवों में ऐसे आदिवासी देखे थे जो पूरी तरह नंगे तो हो सकते थे पर हाथ,पैर,कमर,बाजू या गले में बंधा काला धागा या ताबीज़ का कपड़ा नहीं हटा सकते थे, वैसे ही मेरी हालत ये हो जाती थी कि मैं डोरी या धागा अपने तन पर बांध नहीं पाता था चाहे और किसी भी तरह की ड्रेस पहन लूं।
मुझे जीवन में अक्सर अकेले रहते हुए एक उलझन और होती थी, जिससे अब तक मुझे निजात नहीं मिल सकी है।
ये उलझन थी मेरी दिनचर्या का अनुशासन, जो एक तरह से मेरी विवशता ही रही।
सुबह- सुबह के समय दूध वाले, अख़बार वाले, खाना बनाने वाले या वाली, सफ़ाई करने वालेे या वाली का एक के बाद एक आना और इधर नींद से उठते ही वाशरूम जाने, शेव करने, नहाने, तैयार होने, फ़ोन सुनने के अनवरत सिलसिले में सामंजस्य बैठाना टेढ़ी खीर थी।
कभी आप टॉयलेट में हैं,और दरवाज़े की घंटी बजी, कभी आप नहा रहे हैं और गैस वाला सिलिंडर लेकर चला आया है, कभी आप केवल बनियान पहने अंडरवियर को पहनने के लिए उलट - पलट कर देख रहे हैं कि हवा के घोड़े पर सवार अख़बार के बिल वाला, या केबल के पैसे मांगने वाला चला आया। कोई और न हो तो कोरियर ही वाला तशरीफ़ लेे आया।
और सबके पास समय की कमी होती। यदि आपने दरवाज़े तक पहुंचने में ज़रा सी भी देर लगाई तो पलट कर वापस जाते हुए भी उन्हें देर नहीं लगती थी। सबका रूख़ देख कर ऐसा लगता था जैसे किसी को पैसा देना हो, चाहे उससे लेना हो, ये आपका ही काम है।
और फ़िर उनकी दोबारा विजिट के लिए आप बार- बार उन्हें फ़ोन कीजिए और ये सुनने के लिए तैयार रहिए कि "कितनी घंटियां बजाई पर आपने दरवाज़ा खोला ही नहीं"।
कभी- कभी तो मेरा मन करता कि कपड़े पहन रहा हूं तो नंगा ही निकल कर दरवाज़े पर आ जाऊं। टॉयलेट में होऊं तो चड्डी का नाड़ा पकड़े- पकड़े उसी तरह दरवाज़ा खोलने निकल आऊं जिस तरह बरसों पहले हम लोग गांव में नदी किनारे निवृत्त होकर नदी में धोने जाते थे।
और सचमुच कभी - कभी तो ऐसा ही लगता कि वास्तव में इस वक़्त- हीन दुनिया के ये कुंठित वाशिंदे ऐसा ही चाहते हैं। महिलाएं भी अपवाद नहीं।
मुझे अब सेवानिवृत्त होने के बाद ये महसूस होता था कि अपनी ज़िम्मेदार बड़े पदों की नौकरी में मैंने भी मुझसे मिलने के लिए दूर - दराज से आए जिन लोगों को ख़ूब ख़ूब इंतजार करवाया होगा उनका बदला ही शायद अब मुझसे लिया जा रहा है।
कभी- कभी यदि थोड़े बहुत दिनों के लिए किसी भी कारण से कोई मेरे पास रहने के लिए आ जाता था तो मुझे इस कष्ट के संदर्भ में बड़ा आराम हो जाता था।
पास आ कर रहने वाले ज़्यादातर यहां परीक्षा देने वाले, कोचिंग आदि के लिए आने वाले दूर- पास के विद्यार्थी ही होते थे।
किसी - किसी के स्वभाव को देख कर तो मुझे ऐसा लगता कि ये हमेशा के लिए अगर मेरे पास ही रह जाए तो कितना आराम हो जाए।
लेकिन हमेशा के लिए रह जाने वाला कोई नहीं होता था।
नहीं, एक मिनट रुकिए। मैं ग़लत कह गया।
कुछ ऐसे युवक मेरे पास ज़रूर अाए जो मेरे पास ही रह जाना चाहते थे।
वे या तो मामूली घर के होते और यहां किसी ऊंची पढ़ाई के लिए आए हुए होते, या फ़िर भविष्य में कोई नौकरी दिलवा देने की उम्मीद मुझसे रखने वाले लड़के।
लेकिन पढ़ने वाले लड़कों को बिना कोई पैसा लिए रखना एक तरह से उन पर घर का कामकाज करने का दबाव बनाने जैसा होता जिससे उनकी पढ़ाई में विघ्न पड़ने की आशंका रहती। एक तरह से उनकी मजबूरी का फायदा उठाना।
जो लड़के ऐसा दबाव नहीं मानते थे कि वो मेरे पास मुफ़्त में रह रहे हैं तो मेरे घर के काम- काज ही कर दें, वो जल्दी ही मेरे मन से उतर भी जाते थे।
आखिर मानव स्वभाव भी तो ऐसा ही होता है कि जो आपसे थोड़ा सा खुल कर अनौपचारिक हो जाए, उससे आप जल्दी ऊब जाते हैं।
मुझे मेरे बहुत संपन्न एक बुज़ुर्ग मित्र की बात इस संदर्भ में हमेशा याद आती थी। एक दिन उनके घर पहुंचने पर उनकी पत्नी ने चाय पीने का आग्रह किया तो मैंने सहज ही कह दिया कि अभी पीकर ही आ रहा हूं।
वो तत्काल बोले- जिस दिन ये कहोगे कि आज चाय पीकर नहीं आया उस दिन ये भी चाय के लिए पूछने वाली नहीं हैं। दुनिया का दस्तूर यही है।
बात साधारण सी थी, मगर बात में दम था।
एक रात मैं खाने से निवृत होकर थोड़ी देर में सोने की तैयारी ही कर रहा था कि मेरे दरवाज़े की घंटी बजी।
द्वार खोला तो देखा कि सत्रह- अठारह साल की उम्र के दो ग्रामीण लड़के कंधों पर अपने बैग लिए उपस्थित हुए।
मैंने उन्हें बैठाया। फ़िर आने का कारण और संदर्भ पूछा कि किसने भेजा है।
मुझे बताया गया कि उनके एक अध्यापक ने मेरे नाम एक चिट्ठी देकर उन्हें भेजा है। उनके अध्यापक ने उन्हें कहा था कि मैं बहुत व्यस्त रहता हूं और अपने घर में अकेला ही हूं इसलिए शाम के बाद ही घर में मिलूंगा।
वो अपने गांव से शाम चार बजे चल कर छह बजे तक यहां आ गए थे पर मेरे पास आने के लिए रात का इंतजार ही कर रहे थे। उन्होंने खाना किसी ढाबे पर खा लिया था।
उनके टीचर की अत्यंत विश्वास और अपनेपन से दी हुई चिट्ठी ने मुझे लड़कों के रात को रुकने की व्यवस्था करने के लिए तत्पर कर दिया।
वे दोनों आपस में बातें करते हुए एक कमरे में सोने के लिए लेटे ही थे कि मेरे पास मेरे एक मित्र का फोन आ गया।
आनन- फानन में मुझे लड़कों को उठा कर फ़िर से कपड़े पहन लेने के लिए कहना पड़ा।
अब बड़े आदमियों के क्या दिन और क्या रात?