अनिर्णय Pavitra Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पवित्रा अग्रवाल

"आरती अभी से सोने चल दी ? ...कुछ देर गप्पें ही लगाते ।'

"नीलम क्यों परेशान करती है, उसे सोने दे। आज तो उसने सपनों की महफिल में डा.रवीन्द्र सिंह को आने का निमन्त्रण दिया है।'

"हाय रवीन्द्र को...फिर जे.पी. का क्या होगा आरती ? वह तो बड़ी बेसब्री से हाँ का इंतजार कर रहा है। आज ही मुझे वार्ड में मिल गया था, कह रहा था- पता नहीं आरती मुझ से क्यों नाराज रहती है, ढ़ंग से बात ही नहीं करती। मेरी उस से सिफारिश कर दो तो तुम्हे फाइव स्टार होटल में डिनर दूँगा' ...यार एक नजर उधर भी डाल दे । सच मुझे तो उस पर बड़ा तरस आता है।'

'तुझे जे.पी.पर तरस आता है और मुझे सुनील पर ...बेचारा... इसका दीवाना है। इसके लिए जान दे सकता है। कल ही कह रहा था कि आरती से पूछ कर देखना, मुझ से शादी करना पसन्द करेगी ?'...क्या इरादा है, उसे क्या जवाब दूँ ? तू लकी है यार। एक अनार सौ बीमार। जिसको देखो आरती के सपने देख रहा है...हमें तो कोई लिफ्ट ही नहीं मारता ।'

मैं उत्तेजित हो उठती हूँ- डा.अनिल तुम्हें मुबारक हो। उसकी हरकतें मुझे बिलकुल पसन्द नहीं हैं ।'

"रहने दे तू तो नाराज हो गई...अच्छा तो मैं चलती हूँ ' अनीता उठ कर खड़ी हो जाती है, नीलम भी।'

"आइइई...इतनी जोर से नोचा है...अनीता ठहर तुझे अभी बताती हूँ ।'

"बस आरती इतने में ही घबड़ा गई...फिर... ' वाक्य अधूरा छोड़ कर स्वीट ड्रीम्स चिल्लाती हुई वह भाग खड़ी होती है। "थैंक यू कह कर मैं मुस्करा देती हूँ।...बहुत शरारती हैं। प्रारम्भ में जब मेडीकल कालेज के इस हास्टल में आई थी तब इस तरह की छेड़-छाड़ बुरी लगती थी...खीज जाती थी। सोचती थी इन लोगों के कितने हल्के विचार हैं। किसी को किसी सहपाठी या अन्य लड़के से बात करते देख लिया तो बस बना दिया उसका आशिक। फिल्म जगत के अभिनेता अभिनेत्रियों की तरह यहाँ एक दूसरे के साथ नित नए नाम जुड़ते हैं...अब तो आदत पड़ गई है। मेडिकल की जटिल पढ़ाई के तनाव से बोझिल मन इन क्षणों में कुछ समय के लिए हल्का हो जाता है।ये हल्के फुल्के छेड़-छाड़ वाले मजाक ट्रेंकुलाइजर का काम करते हैं।

एका एक दीपक का स्मरण हो आया। आँखों में धुन्ध सी छा गई।उस दिन घर से लौटी थी...

"आरती घर से लौट आई ?...क्यों बुलाया था मम्मी पापा ने ?...ओ...ये गुलाबी साड़ी, ये नई अंगूठी, क्या चक्कर है यार ?' अनीता चहकी थी

"हाँ यार मम्मी ने बाँध दिया ।'

"कौन है वह खुशनसीब ?...होगा तो डाक्टर ही...क्या नाम है, कहाँ का रहने वाला है...पार्टी कब दे रही हो ?'-- अनीता ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी ।

"नाम दीपक है, मेरठ में एम.एस.कर रहा है, पार्टी का क्या है जब चाहे लेलो।'

"फोटो तो लाई होगी ? दिखा न जल्दी से ।'

"न बाबा फोटो नहीं दिखाऊँगी, ...नजर लगा दी तो ?' मैं ने उसे छेड़ा था ।

दीपक के पत्र आते रहे थे मेरे जाते रहे थे। तभी अचानक दीपक के पत्र आने बन्द हो गए। मेरे पत्रों का भी कोई जवाब नहीं, मैं चिन्तित हो उठी थी...एक दिन माँ का पत्र आया था कि दीपक का विवाह किसी अन्य सम्पन्न घराने में तय हो गया है। उसके पिता ने पचास हजार नकद माँगे थे ... हमने अपनी असमर्थता व्यक्त करदी थी ।बेटी तू जरा भी दुखी न होना ...तुझ में क्या कमी है, उस से भी अच्छा घर वर मिलेगा ।'

मैं अपने इस विवाह को लेकर पूरी तरह आश्वस्त थी और प्रसन्न भी। पूरी तरह उसी मन:स्थिति में जी रही थी जो भविष्य में आने वाली थी किन्तु माँ का पत्र पढ़ कर सन्न रह गई। आँखें भर आई थीं ...कमरा बन्द करके घन्टों रोती रही थी...कई कई रातें रोते बिताई थीं, भावनाओं को ठेस लगी थी । मैं इस मानसिक झटके के लिए तैयार नहीं थी, इसी लिए अव्यवस्थित व अस्थिर हो उठी थी। कई बार इच्छा हुई कि दीपक को पत्र लिखूँ पर

स्वाभिमानी मन में अहम जागृत हो गया, क्या तू उस से प्रणय की भीख माँगेगी ...स्वंय को कमजोर दिखाएगी। नहीं वह ऐसा नहीं करेगी ।दीपक भी लालची ही होगा वरना पिता का विरोध कर सकता था कि दोनो की समान शिक्षा, समान व्यय, दहेज किस लिए ?

दीपक का चित्र जिसे वह घर पर पापा की अलमारी में से निकाल कर कई कई बार देख लेती थी किन्तु माँगने का साहस नहीं होता था । बाद में दीपक को पत्र लिख कर दोबारा मंगाया था और उसे फोटो फ्रेम में सजा लिया था।...चाहते हुए भी उस फोटो को फाड़ नहीं पाई, मेजपोश के नीचे सरका दिया था।

मन स्वंय से विद्रोह कर उठा - पागल लड़की तेरे आसपास इतने आकर्षण बिखरे पड़े हैं, उधर कभी भी आकृष्ट न हो कर कुछ क्षणों के परिचित दीपक की पुजारिन कैसे बन बैठी ? तेरे साथ की लगभग सभी लड़कियों के बॉयफ्रेण्ड हैं पर तू सब से कटी कटी क्यों रहती है ? जीवन साथी ही चुनना है तो क्यों न अपने साथियों में से ही चुना जाए। फिर तेरे पास तो विवाह के कई प्रस्ताव भी आते रहे हैं ।

तभी उसकी मित्रता रवीन्द्र सिंह से हो गई थी ।

"अच्छा आरती चलता हूँ, गुड नाइट, कल मिलेंगे।' उसने धीमें से हाथ हिलाया और अपने होस्टल की दिशा में बढ़ गया।

सुन्दर, स्वस्थ, आकर्षक व्यक्तित्व...संतुलित, संयमित व्यवहार बस यही तो गुण हैं जिन्होंने मुझे रिझा लिया है। अपने में मस्त भूली सी मैं हास्टल के गेट में प्रवेश कर गई।

"आरती ...

अपने नाम की पुकार सुन कर मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो मम्मी - पापा हास्टल के दूसरे दरवाजे से बाहर निकल रहे थे। मुझे संतुष्टि हुई कि अच्छा हुआ वह रवीन्द्र को नहीं दंख पाए वरना अभी बवंडर खड़ा कर देते ।

"नमस्ते पापा, नमस्ते माँ ...आप कब आए ?'

पापा का चेहरा क्रोध से तमतमाया हुआ था। वह थूक निगल कर स्वंय को सहज करने का प्रयास कर रहे थे। माँ तीखे किन्तु धीमें स्वर में बोली थीं - "तीन घन्टे से गैस्टरूम में बैठे तुम्हारा इंतजार कर रहे थे...तू अब तक कहाँ थी ?'

कहना तो चाहती थी कि लोकल फ्रेण्ड के घर गई थी पर झूठ बोलने से पहले ही सच मुँह से निकल गया था --"पिक्चर '

"रात में अकेली ?...साथ में कौन था ?'

मैं सकपकाई कि क्या कहूँ यदि वे रवीन्द्र को देख चुके होंगे तो झूठ पकड़ा जाएगा अत:जानबूझ कर फ्रेण्ड शब्द का स्तेमाल किया।

"अकेली नहीं फ्रेण्ड के साथ गई थी।'कहते कहते मैं ने जीभ काट ली क्यों कि आने वाले तूफान का अहसास होने लगा था

अब तक स्वंय पर नियन्त्रण करने का प्रयास करते पापा फुफकार उठे थे --"बेटी मित्र बनाने के लिए लड़कियों का अकाल पड़ गया है क्या जो लड़कों से दोस्ती करनी पड़ रही है। अपने शहर के किसी व्यक्ति ने देख लिया तो मुश्किल होगी ।'

कहना तो मैं बहुत कुछ चाहती थी पर इतना ही कह कर चुप हो गई कि "पापा आप तो व्यर्थ में ही नाराज हो रहे हैं, साथ में एक सहेली थी। वह उधर से ही अपने घर चली गई। रवीन्द्र वहाँ मिल गए थे, मैं उनके साथ घर लौट आई।'

पापा आपको क्या पता मेरे पास पढ़ने के लिए किताबें तक नहीं हैं... एक एक किताब कई कई सौ की आती है ...आप तो दिलवा नहीं सकते। किताबें रवीन्द्र ने ही अपनी व अपने मित्रों की ला कर दी हैं। वरना मैं कैसे पढ़ पाती ?'

माँ ने पिता जी को झिड़क सा दिया था --"लड़की पर क्यों नाराज होते हो जी ? जब सब साथ साथ पढ़ते हैं तो आपस में बोला चाला जाता ही है, वरना घर बैठाते ।'

माँ मुझे एक तरफ खींच कर कान में फुसफुसाई --"अपनी जाति का है क्या ?'

जाति के नाम पर मुझे दीपक की याद आ गई । वह भी तो हमारी ही जाति का था। कुछ कड़ा उत्तर देने की इच्छा हो आई। अच्छा हुआ अंधरे की वजह से मेरे चेहरे के भाव वह नहीं देख पाए। फिर स्वंय पर नियन्त्रण पा कर बोली --" कौन माँ ...अच्छा रवीन्द्र ? अपनी जाति का तो नहीं है...पर जाति का होना जरूरी है क्या ?'

"नहीं वैसे ही पूछा था...पर जाति का तो होना ही चाहिए' कहते कहते माँ का चेहरा मुरझा गया था, साथ ही कठोर भी हो आया था -"रात विरात इस तरह घूमना लड़की जात को शोभा नहीं देता ।'

"आरती बाबा ' 'होस्टल के चौकीदार का स्वर गूँजा। इस हास्टल में कर्मचारियों द्वारा छात्राओं को बाबा कह कर पुकारने की प्रथा सी बन गई है।

"क्या है राम सिंह ?'

"बाबा आपके गैस्ट आए हैं'

"गैस्ट नहीं स्पेशल गैस्ट रवीन्द्र सिंह ही होगे ।' चिकोटी काटती हुई अनीता चहकी

"आरती बैस्ट आफ लक, बैस्ट आफ लक' की ध्वनियां सब कमरों से गूँजने लगती हैं।

मैं गाउन उतार कर जल्दी से साड़ी बाँधती हूँ।पाउडर का एक पफ चेहरे पर फेर, बालों में कंघी कर चप्पल पहन कर खट खट सीढ़ियां उतर जाती हूँ।

देखा कि एक एम्बेस्डर कार हास्टल के दरवाजे पर खड़ी थी। उसके बाहर रवीन्द्र एक स्त्री -पुरुष के साथ खड़ा था।

"मम्मी यह आरती है', रवीन्द्र ने परिचय कराया

"आरती यह मेरे पापा, जज हैं, ये मम्मी हैं।'

मैं हाथ जोड़ देती हूँ ।

वह स्नेह से उत्तर देती हैं - "तुम से मिल कर बहुत खुशी हुई...आज डिनर हमारे साथ लेना और अभी हम फिल्म देखने जा रहे हैं, तुम भी चलो न ।'

चेहरा लाल सा हो आया। पता नहीं रवीन्द्र ने उन्हें मेरा क्या परिचय दिया होगा। ये लोग भी न जाने क्या सोचते होंगे। रवीन्द्र की तरफ नजर उठाई तो वहाँ भी मौन आग्रह था । मैं ने टालना चाहा किन्तु आग्रह का ज्यादा विरोध नहीं कर पाई, जाना पड़ा। तभी रवीन्द्र ने कहा "कल मम्मी का चैकअप भी करा देना वह यहाँ इसी लिए आई हैं।‘

"आरती मम्मी पापा तुम से बहुत प्रभावित हुए हैं, तुम्हारी बहुत तारीफ कर रहे थे ।...सच मुझे तो तुम से ईष्र्या होने लगी है।'

अपनी प्रशंसा किसे नहीं भाती, मुझे भी अच्छी लगी, टालते हुए मैं ने कहा -- "गाइनिक्स मे हाउस जॉब के लिए यहाँ तो फार्म भरा ही है, लखनऊ का भी भर दिया है। वहाँ ज्वाइन करूँ या यहाँ, बाद में सोचूँगी।'

"मुझे तो यहीं रहना है, हाउस जॉब अगले माह समाप्त हो जाएगा। आरती एक बात कहूँ ...वैसे तो हम तुम मित्र हैं। मानसिक रूप से एक दूसरे के अत्यधिक निकट आ गए हैं, पापा अब विवाह पर जोर डाल रहे हैं। मैं तुम से हट कर कहीं अन्यत्र विवाह की कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूँ...तुम क्या सोचती हो ? मुझ से शादी करोगी ?'

मैं तो न जाने कब से इस अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी। मन ऐसा ही कुछ सुनना चाहता था...आज वही सब सुन कर रोमांच हो आया। नजरें अपने आप झुक सी गर्इं। साड़ी का पल्ला उंगलियों में लपेटते हुए पूछा - "तुम्हारा पारिवारिक परिवेश तुम्हें इसकी इजाजत देगा ?'

"हाँ आरती मेरे घरवाले खुले विचारों के हैं। मेरी इच्छाओं की पूर्ति में वे कभी बाधक नहीं बनेंगे ।तुम्हारे परिवेश का मुझे ज्ञान नहीं है । तुमने कभी कराया भी नहीं ।'

मैं अनमनी हो उठी - "मेरे परिवार वाले इसे किसी दशा में स्वीकार नहीं करेंगे । यद्यपि तुम्हें पा कर मैं स्वंय को धन्य समझती ।'

"मुझे तो भय लगने लगा है...उनकी स्वीकृति नहीं मिली तो क्या तुम मेरा साथ छोड़ दोगी ?...मैं तुम्हारे बिना रह नहीं पाऊंगा ।'

"तुम अभी से परेशान क्यों होने लगे ? इस विषय में बाद में सोचेंगे। मैं ने उसे छेड़ते हुए कहा -- "मैं न भी मिलूँ तो क्या ...तुम्हें अच्छी अच्छी लड़कियां मिल जाएंगी, लड़के जो हो । समस्या तो लड़की की होती है।'

वह गंभीर हो गया था।

"आरती तुम कुछ परेशान नजर आती हो...क्या बात है ? मुझे नहीं बताओगी ? ''

"हाँ अनीता मैं बड़ी उलझन में हूँ..समझ नहीं पा रही कि क्या करूँ ?'

"क्या उलझन है बता तो ।'

"रवीन्द्र ने शादी का प्रस्ताव रखा है।'

"किन्तु वह तो तेरी जाति का नहीं है ?...तेरे मम्मी पापा इसे स्वीकार करेंगे ?'

"बस यही तो उलझन है, मेरे माता पिता जाति से बाहर इस शादी की अनुमति कभी नहीं देंगे किन्तु मुझे अब जाति में बिलकुल आस्था नहीं रही ।दीपक के परिवार से धोखा खा कर भी मेरे माता पिता का जाति से मोह भंग नहीं हुआ है।'

"बुरा न माने तो एक बात कहूँ आरती, जे.पी. तुझे बहुत चाहता है, सुनील भी अपना प्रस्ताव भेज चुका है..दोनो ही तेरी जाति के हैं और हर तरह से अच्छे हैं, ...रवीन्द्र में ही ऐसा क्या है ?'

'शायद उन दोनों की तरफ मेरा ध्यान न जाने का कारण उनका मेरी जाति का होना रहा हो...क्या भरोसा है या था कि उनके घर वाले ऐसी माँग नहीं करते...पर अब यह सब सोचने का फायदा कुछ भी नहीं है।'

'क्या तुम दोनों एक दूसरे को जीवन साथी बनाने का प्रामिज कर चुके हो ?'

"नहीं अभी मैं ने कोई प्रोमिज नहीं किया है...यही कहा है कि मेरे माता पिता इस विवाह के लिए तैयार नहीं होंगे किन्तु हम दोनों एक दूसरे की भावना तो जानते ही हैं न।...मन से मैं भी जुड़ाव महसूस करती हूँ।'

"पहले अपने घर बात कर के देख। वे न माने और तेरा इरादा पक्का है फिर तो कोर्ट में शादी करनी पड़ेगी ...दूसरा कोई रास्ता नहीं है।'

दोपहर को वार्ड में जे.पी.मिल गया था, कहने लगा -"आरती सुना है आप रवीन्द्र से शादी करने का विचार बना रही हैं।पता नहीं आपको ज्ञात है या नहीं फिर भी आपका शुभ चिन्तक होने के नाते आपको एक जानकारी देना अपना फर्ज समझता हूँ कि रवीन्द्र हरिजन है, जाति से चमार है।'

"ये आप से किसने कह दिया कि मैं उस से शादी करने जा रही हूँ ?अभी मैं ने ऐसा कोइ निर्णय नही लिया है । रही बात उसके हरिजन होने की तो मैं इतना जानती हूँ कि जाति उसकी कोई भी हो किन्तु वह एक अच्छा इंसान है।'

भावनाओं में बह कर यह सब कह तो आई किन्तु अब संस्कार प्रबल होने लगे हैं। मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि वह हरिजन होगा। मैं तो उसे ठाकुर समझती थी । रवीन्द्र ने यह बात मुझे क्यों नहीं बताई । जीवन के एक महत्व पूर्ण निर्णय के बीच उसे यह बताना चाहिए था । आज हम चाहे लाख सामाजिक समानता की बात करें किन्तु ऐसे शादी विवाह लाखों में एक दो होते होंगे... शादी के मामले में तो अभी भी दोनो वर्गो के बीच गहरी खाई है जिन्हें भरने में सैंकड़ो वर्ष लग जायेंगे। मुझे जे.पी. की बात पर विश्वास नहीं हुआ, ..आफिस से पता चला कि जे.पी. ने ठीक कहा था।

तभी से मन अशान्त है ।समस्याओं के अजीब से व्यूह में फँस गई हूँ। लगता है मेरे सोचने व समझने की शक्ति समाप्त हो गई है। यद्यपि अभी मैं ने रवीन्द्र को स्पष्ट हाँ नहीं कहा है, माता पिता इस विवाह की स्वीकृति कभी नहीं देंगे, यह भी बता चुकी हूँ । फिर भी वह आश्वस्त लगता है। उसे मुझ से इन्कार की उम्मीद नहीं है। अन्त:करण कहता है अब उसे ना कहना उस के मन को आघात पहुँचाना होगा...यह गलत है...धोखा है। वह जन्म से ही तो हरिजन है, कर्म से तो न वह चमार है ना उसके माता पिता। वह सुन्दर है, शिक्षित है, सुसंस्कृत है...दीपक और उसके परिवार की तरह लालची लोभी नहीं जहाँ लड़की की कीमत मिलने वाले दहेज से आंकी जाती है ।

तभी दूसरा पक्ष हावी होने लगता है धोखा उसको तुम नहीं दे रहीं बल्कि वास्त्विकता को छिपा कर धोखा देने की कोशिश उसने की है।

"नहीं यह नहीं हो सकता ' अपनी ही आवाज से मेरी नींद खुल गई थी। मैं पसीने से लथपथ थी ...बड़ा भयानक स्वप्न देखा था कि पापा ने मेरी शादी की खबर सुन कर आत्म हत्या कर ली है। माँ व दोनों बहनें चिल्ला चिल्ला कर एक स्वर में कह रही हैं कि इस घर की बरबादी व पापा की मौत का कारण तुम हो...तुम ही हो।...

मैं पसीना पोंछती हूँ और संतोष की साँस लेती हूँ कि अरे यह तो एक सपना था...किन्तु यह सपना सच भी हो सकता है...यदि मैं ने रवीन्द्र से शादी की तो यह सपना अवश्य सच होगा ...यदि ऐसा हो गया तो क्या मैं अपने को कभी माफ कर पाऊँगी ?...क्या मैं चैन की जिन्दगी जी सकूँगी ? मैं अनिर्णय की स्थिति में हूँ...मुझे लगता है यह अनिर्णय मेरा नहीं, मेरी पीढ़ी का है जो नए मूल्यों और पुराने संस्कारों के बीच जी रहे हैं ।

पवित्रा अग्रवाल

4-7-126 इसामियां बाजार, हैदराबाद – 500027

मोबाइल – 9393385447

ईमेल - agarwalpavitra78@gmail.com