सड़क पार की खिड़कियाँ - 2 Nidhi agrawal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सड़क पार की खिड़कियाँ - 2

सड़क पार की खिड़कियाँ

  • डॉ. निधि अग्रवाल
  • (2)
  • लंचब्रेक में मैंने आज एकांत नहीं तलाशा… सबके साथ ही लंच किया। बॉस वहाँ से गुज़रा पर मेरी हँसी नहीं छीन पाया। मैं सुरुचि का हाथ पकड़े रही। शायद उसी समय अमन ने भी मेरे कान में शलभ का कोई सीक्रेट बताया था और शलभ उसे मारने दौड़ा था। अमन वहीं बैठा रहा लेकिन बॉस डर कर भाग गया।

    जाने क्यों ऑफिस में मैंने कई बार वह सड़क तलाशी। मुझे लगता है कि यहीं-कहीं आस-पास है पर काम की अधिकता से मैं तलाश नहीं पाई। आज दिन और शाम के बीच दूरी कुछ ज़्यादा ही है। मैं अपनी बेताबी पर हैरान भी हूँ और खुश भी।

    यह सड़क अब सड़क भर नहीं है। मेरा दूसरा घर बन चुकी है। क्या हैरानी है? जिनके अपने घर नहीं होते सड़कें सदा ही से उनका घर बनी हैं। भले ही वह बुरे मौसम से आपकी रक्षा न कर पाए… भले ही किसी अनियंत्रित गाड़ी के नीचे आप कुचल दिए जाओ… भले ही अपेक्षित निजता यहाँ अप्राप्य है लेकिन हर प्रकार की दरिद्रता का विकल्प सड़कें ही हैं। सड़कों ने कभी किसी के लिए भी अपनी बाहें नहीं सिकोड़ी।

    पीले गुलाब वाली खिड़की पर आजकल मोगरा खिला है। मैं उसे देख मुस्कराती हूँ। वह खिड़की मेरे मुँह पर ही बन्द कर देती है। मैं हतप्रभ खड़ी हूँ। बराबर वाली खिड़की से नीली आँखों वाली लड़की कहती है- वह तुमसे नाराज़ है। तुम आजकल उसके पास रुकती जो नहीं।

    मैं नहीं रुकती यह सच है क्या? हो भी सकता है। एक लंबे समय से मैं अपने पास भी नहीं रुकती।

    मैं किसी अपराधिनी की तरह नज़रें झुकाए आगे बढ़ जाती हूँ। प्रेम की अभिव्यक्ति न हो तब वह प्रेम नहीं कहलाता पर अप्रेम व्यक्त न करने पर भी उसकी तरंगें द्रुत गति से संदेश सम्प्रेषित कर देती हैं। कवि की खिड़की पर चिनार की पत्तियां बिखरी हैं। चिनार..विरह का सुनहरा रंग!

    'इन सूखे पत्तों में इतना आकर्ष किसने भर दिया?',

    मैं पूछती हूँ।

    कवि के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान पल में जन्मी और क्षण में ही बिखर गई।

    'साहित्य और कला में दुख का रूप मोहना है। जो अनिश्चितताएँ जीवन में डराती हैं, गल्प में वही लुभाती हैं। '

    वे मेरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करते हैं। न मिलने पर आगे कहते हैं-

    'अधिकतर प्रसिद्व उपन्यास दुखांत हैं- हेमलेट, जूलियस सीज़र, निर्मला….,'

    'न न! दुख की मार्केटिंग नहीं होनी चाहिए,'

    मैं उन्हें बीच में ही टोक देती हूँ।

    'सुख की शॉर्टेज है… सुख की डिमांड है ...वही क्यों न सप्लाई किया जाए? सुख क्यों नहीं बिक सकता?', मैं पूछती हूँ।

    'औरों का सुख हमें और दुखी जो करता है। अपने से अधिक दुखी पात्रों से गुज़रते अवचेतन में हमारा अहम् तुष्ट होता है, चेतन में हम इसे संवेदना कहते हैं…हम किताबें पढ़... फिल्में देख रोते हैं। ज्यों सच ही विकल होते तब क्या अपने आस-पास दुख हरने का प्रयास न करते?'

    'हम्म',

    शायद वे सही थे।

    'जो तुम कहो तो मैं लिखूँ एक सुखांत कहानी?',

    यह कहते उनके स्वर से उम्र झर गई। यह स्वर कैसा मीठा है।

    'फिर कौन पढ़ेगा उसे?', मैं पूछती हूँ।

    'जिसके लिए लिखी जाए क्या उसका ही पढ़ लेना काफी न होगा?'

    कवि को अधिक समझ न पाने के बावजूद भी मैं उन्हें सुनना चाहती हूँ पर रहस्यों का एक झुरमुट उन्हें घेरे रहता है। मैं सहजता की तलाश में हूँ।

    लौटते हुए नीली आँखों वाली लड़की से पुनः भेंट हो गई। वह मुझे पुकारती है। फिर क्षण भर रुकती है ज्यों कुछ निर्णय करना चाहती हो फिर ससंकोच कहती है-

    'क्या सच ही सफेद केशधारी वृद्ध कवि तुम्हारे प्रेम में हैं?'

    मेरा समूचा बदन काँप रहा है। इतना निर्बल मैंने अपने बॉस के समक्ष भी स्वयं को नहीं पाया। मैं लौट रही हूँ… लौट रही हूँ और सोच रही हूँ कि इस सड़क की विलक्षणता छद्म थी क्या? यहाँ भी वैसी ही ईर्ष्या है... द्वेष है… जजमेंट्स हैं।

    मैं घर पहुँच पाती उससे पहले ही किसी ने पुकारा है। आज मैंने पहली बार संज्ञान लिया उनके केशों में कहीं-कहीं चाँदी झलकती है।

    'मुझसे बचना चाह रही थी न,'

    इस स्वर में अधिकार अधिक है, उलाहना या प्यार? मैं निर्धारित नहीं कर पाती लेकिन मैं रुक गई हूँ। शायद मेरी आँखें भीगी हैं।

    वे कह रहे हैं कि मैं रो सकती हूँ। मन हल्का होगा। मैं सच ही रो रही हूँ। रोते-रोते जाने कब सो भी गई। देर रात आँख खुली तो जाना कि वह अभी तक ठहरे हैं। वह कहते हैं कि मैं किसी शिशु की तरह रोती हूँ। मैं वही बन जाना चाहती हूँ। मैं माँ का आँचल चाहती हूँ... मैं पिता का संरक्षण चाहती हूँ। मैं एक गोद में सिमट इस दुनिया से छुप जाना चाहती हूँ।

    वे कह रहे हैं-

    ' दुनिया से छुपो नहीं, उससे मिलो… मेरी नज़र से मिलो… दुनिया खूबसूरत लगेगी।'

    मैं उनकी नज़र उधार ले लेना चाहती हूँ।

    वे कह रहे हैं-

    'मेरी नज़र ही नहीं मेरे मन-प्राण भी तुम्हारे लिए हाज़िर हैं।'

    मैं सच में किसी पर इतना अधिकार चाहती हूँ। लेकिन नहीं… उनसे मेरा रिश्ता ही क्या है? मैं पूछती हूँ,

    'लेकिन क्यों?'

    'कुछ क्यों के उत्तर दिए नहीं जा सकते केवल महसूस किए जा सकते हैं।'

    मैं मौन उन्हें देख रही हूँ। हमारे चेहरों पर क़िरदार जाने कौन सी लिपि में लिखे जाते हैं, मैं पढ़ नहीं पाती हूँ।

    'उत्तर तलाशना। प्रतीक्षा करूँगा।'

    वे लौट गए हैं। मैं भी लौट आई हूँ। सुबह की गुनगुनाहट दम तोड़ चुकी है। एक सन्नाटा साँय-साँय कर रहा है। गौरी का माथा चूम उसे देखती रही। उसके कमरे से बाहर आ कर आखिरी सिगरेट सुलगा, मैं फिर इस नई खिड़की पर बैठी हूँ। न कोई दिख रहा है... न किसी की प्रतीक्षा है। रात की नीरवता को चीरती पंखों की फड़फड़ाहट सुनाई दे रही है। छोटे-छोटे कई चमगादड़ मेरे चारों ओर घूम रहे हैं। कुछ के चेहरे मैं पहचानती हूँ कुछ से पूर्णतः अनभिज्ञ। अचानक वे सब मिलकर एक बड़ा चेहरा बन गए हैं। मुझे निगल जाना चाहते हैं। गौरी को भी निगल सकते हैं। मुझे जीतना होगा। मैं हिम्मत करके उन्हें बाहर धकेलती हूँ। खिड़की बन्द करती हूँ।

    एक भयावह रात की सुबह मोहक भी हो सकती है। यह कल्पनातीत लगता है किन्तु सत्य यही है। सुबह अंशुकिरणों ने हौले से मुझे छुआ है। उठ कर देखती हूँ तो खिड़की पर हरसिंगार गमक रहा है। मैं अंजुली में भर लेती हूँ। काश कुछ लम्हों को,जीवन को भी यूँ ही सहेजा जा सकता।

    'बेहद खूबसूरत'

    बिना किसी पदचाप चला आया कवि का यह स्वर मुझे चौंका देता है।

    'न, न! आप नहीं आपके पीछे लगी वह चिनार की पेंटिंग। आपने बनाई है?'

    'जी',

    मैं सकुचा कर जवाब देती हूँ। मेरे एकांत पर उनका यह अतिक्रमण मुझे इस पल भला नहीं लग रहा।

    'चिनार ने फिर बिखरा दी है

    एक सुनहरी चादर.....

    पत्तों के बदलते रंग जैसी

    ख़्वाहिशें भी कुछ और

    अमीर हो गयी हैं.

    पेड़ो से छनकर आती किरणों ने

    छितरा दिए हैं

    यादों के इंद्रधनुष......

    पलाश के दोने में

    एक सुर्ख़ नाम सहेज रखा है मैंने'

    कविता वे अपनी जेब में लिए ही चलते हैं शायद।

    'तुम जानती हो हम सब कोई न कोई नाम सहेजे हैं। हम अपने दोने के नाम में खोए रह जाते हैं यही दुख का कारण है। हमें तलाशना उसको है जो हमारे नाम का दोना लिए हो',

    वे कह रहे हैं मैं उन्हें मौन सुन रही हूँ। अचानक मुझे एहसास हुआ कि उन्हें सुनना मुझे अच्छा लगने लगा है। मैं चाहती हूँ कि आज दिन रुका रहे। वे यूँ ही बोलते रहें…मैं यूँ ही सुनती रहूँ।

    'कब लौटोगी?',

    वे पूछ रहे हैं।

    ओहो, यह इशारा है कि वक्त थम नहीं सकता। मुझे ऑफिस जाना होगा… गौरी को स्कूल।

    'वही शाम तक। मैं कहती हूँ'

    'मैं इंतज़ार करुँगा। बाय'

    'बाय'

    मैं उन्हें पुकारना चाहती हूँ पर पुकार नहीं पाती। एक सन्देश छोड़ती हूँ।

    'आपके साथ रहकर

    अकसर मुझे लगा है

    कि मैं असमर्थताओं से नहीं

    सम्भावनाओं से घिरी हूँ।'

    (सर्वेश्वरदयाल)

    वे मुड़ते है और मुस्कराते हुए पर्ची उठा लेते है ज्यों वे जानते हों कि मैं पुकारना चाहूँगी।

    'तो जान ही लिया सर्वेश्वरदयाल जी को तुमने। अब उनके प्रेम में मुझे न भूल जाना।'

    वे मुस्करा रहे हैं। उनकी मुस्कराहट का संक्रमण मुझे भी छू रहा है।

    आज गौरी को बुखार हुआ। सुबह वह बिल्कुल ठीक थी। करीब दस बजे स्कूल से फोन आया। ग्यारह बजे क्लाइंट से मेरी इम्पोर्टेन्ट मीटिंग थी। बॉस से कहती तो दिक्कत होती। मैंने शलभ और सुरुचि को बताया और चली आई। गौरी को सीधे डॉक्टर चेतन को दिखाया। वह बोले कोई चिंता की बात नहीं। मौसमी बुखार है। कुछ दवाइयाँ लिखी हैं। गौरी का बदन गीले कपड़े से पोंछ उसे दवाई दी। वह मेरी गोदी में ही सो गई। मैं उसके बाल सहला रही हूँ। मेरे कुछ आँसू उसके बालों में उलझे हैं। मैं कहना चाहती हूँ कि मैं थक गई हूँ…. मैं रोना चाहती हूँ…. मैं रोने के लिए एक कंधा चाहती हूँ।

    जाने वह कौन सा पल था जब मैंने स्वयं को पुनः इस सड़क पर पाया। आज मैं अदृश्य होकर यहाँ से गुज़रना चाहती हूँ। पीले फूलों वाली खिड़की की महिला से राह में कई जगह सामना हुआ। शायद यह उसके वॉक का समय है। मन में एक टीस ज़रूर उठी पर मैं वहाँ से बिना पदचाप आगे बढ़ गई। गुलमोहर के पेड़ के नीचे गीत की कोई पंक्ति बढ़कर मेरी राह रोकती है लेकिन मैं नहीं रुकती। मेरी आँखें कवि को तलाश रही हैं। उन्हें उनकी खिड़की पर न पाकर मैं मायूस हो जाती हूँ। पुकारती हूँ पर कोई उत्तर नहीं। मैं निरुद्देश्य आगे बढ़ गई हूँ। अनजान खिड़कियाँ मेरे चारों ओर हैं। एक खिड़की के बाहर कवि को देख मैं ठिठक जाती हूँ। यह किसी कॉलेज गर्ल की खिड़की है। वह लज्जाकर कवि को सुन रही है। उसके चेहरे के सुर्ख़ रंग को देख मेरे चेहरे का रंग सफेद पड़ गया है। कवि जाने के लिए मुड़ते हैं। मैंने देखा उनका चेहरा बॉस से मिलता है। चेहरे पर वही विद्रुप मुस्कान है।

    वे उस खिड़की से दूसरी खिड़की पर जा पहुँचे है। उन्होंने चिनार के कुछ पत्ते हर खिड़की पर छितरा दिए है। हर खिड़की का रंग सुनहरा होता जाता है। एक डोर इन सुनहरी खिड़कियों से उनकी खिड़की तक बँधती जाती है। उन्हें बस डोर खींचनी है। हर खिड़की पर एक कठपुतली है। वे काला जादू जानते हैं? वे मुझे भी कठपुतली बना देंगे?

    भीड़ में अकेलापन और तीता हो जाता है। मैं अपने अकेलेपन को समेट लौट आई हूँ। गौरी की दवाई का भी समय हो गया है। पहले दलिया देकर तब उसे दवाई खिलानी है।

    "हाऊ आर यू फीलिंग नाउ?",

    मैं उसका माथा छूते हुए पूछती हूँ। वह मुस्कराती है। कमरा फूलों से भर जाता है।

    "मम्मी मैं खेल लूँ?" वह पूछती है।

    मैं उसका डॉल सेट उसे पलंग पर ही दे देती हूँ।

    बॉस की कॉल है। मैं नहीं उठाती। फोन स्विच ऑफ कर मैं लैपटॉप खोल लेती हूँ। चिनार की पत्तियाँ खिड़की से अंदर आ रही हैं। मुझे खिड़की बन्द कर देनी चाहिए थी। अब देर हो चुकी। वे कह रहे हैं-

    'बहारों में टेसू हो तुम

    खिली-खिली सुर्ख अंगार

    पतझड़ में चिनार हो तुम

    झरती बन कंचन हर द्वार'

    पत्तों का पूरा गलीचा बिछ गया है। न मैं खिड़की बन्द करती हूँ और न ही उत्तर देती हूँ। अनकहे को पढ़ना कठिन होगा क्या?

    हमारी पसन्द-नापसंद महत्वहीन हो जाती है जब कोई चुपके से हमारी आदतों में शामिल हो जाता है।

    हर शाम मन आतुर हो जाता है जगमगाती सड़क की ओर। मैं सप्रयास स्वयं को रोकती हूँ। वहाँ की हवाओं में अवश्य ही अफ़ीम घुली है।

    ऑफिस और गौरी … गौरी और ऑफिस के बीच कहीं एक रिक्तता है। मैं इसे भरना चाहती हूँ। कभी मंज़िल दिखती है, राह नहीं। कभी राहें अनेक खुल जाती है पर मंज़िल नदारद। यह सड़क कहाँ जाती है? कितने मोड़ हैं? अंत कहाँ?

    खिड़की पर आज सहसा चाँद उगा है-

    'चाँद की चाँदनी सा तेरा साथ
    हौले हौले कुछ यूँ ही
    पसरा है ज़िंदगी में
    बिना कोई शोर बिना कोई पदचाप
    जैसे चाँदनी बिखर जाती है
    हर शाम आँगन में
    तारो की कुछ सरगोशी
    और मद्धिम-सी दीपक की लौ
    निष्काम...निर्लिप्त

    बस शीतल सा सुकून भरा

    एक अहसास!

    'मेरे सुख की मार्केटिंग कर दोगी क्या?'