सड़क पार की खिड़कियाँ - 3 Nidhi agrawal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

सड़क पार की खिड़कियाँ - 3

सड़क पार की खिड़कियाँ

  • डॉ. निधि अग्रवाल
  • (3)
  • स्वर मासूम है। मैं अपने द्वंद से स्वयं ही आहत। सपने भी हमें रुला सकते हैं। आभासी दुनिया यथार्थ से अधिक करीबी हो सकती है। हर ज़हीन व्यक्ति का अनदेखा एक क्रूर चेहरा होता है। कई क्रूर आँखोंं के आँसूओं ने धोए हैं धरती के दाग। कुरूप सच या मोहक झूठ किस का चुनाव सुखकर है? जो दुनिया को नहीं छल पाते, वे स्वयं को छलते हैं। वे निष्काम प्रेम में विश्वास करते हैं। हर रिश्ते में एक विक्टिम है, एक कलप्रिट। कुछ लोग हर रिश्ते में ही विक्टिम का रोल पाते हैं। क्या मैं एक और रिश्ते में विक्टिम होने के लिए तैयार हूँ? मेरे पास कभी 'राजा' की पर्ची क्यों नहीं आती? मैं थक रही हूँ। मैं सुकून चाहती हूँ। किसी बेखुदी में मैं गुलमोहर के पेड़ वाली खिड़की पर झाँक कर आती हूँ। वह अभी भी गा रहा है। भीड़ पहले से भी अधिक है। मैं आँखें बंद कर गीत सुनना चाहती हूँ। कभी कभी लगता है कि मैं गीत पर अपना नाम चाहती हूँ। किसी और के नाम का गीत मुझे नहीं मोहता।

    बॉस नाराज़ है। बिना बताए नहीं जाना चाहिए था। बताने पर वह उलझा देता। वह कह रहा है-

    "ओवरटाइम करो। आज डेडलाइन है।"

    बॉस के पीछे खड़ा अमन मुझे शांत रहने का इशारा कर रहा है। मैंने गौरी की आया को देर तक रुकने के लिए फोन कर दिया। अमन, शलभ और सुरुचि तीनों मेरे साथ ऑफिस में रुके हैं। बॉस ने दो- तीन चक्कर लगाए और फिर अपना बैग उठा चला गया। शलभ उसकी झल्लाहट की नक़ल उतार रहा है। अमन ने पिज़्ज़ा आर्डर किया। सुरुचि से मैं बहुत कुछ टिप्स सीख रही हूँ। काम खत्म होते-होते आठ बज गए थे। गौरी की चिंता न हो तो यूँ दोस्तों के साथ समय बिताया जा सकता है। प्रसून को गौरी की कस्टडी मिल जाए तो क्या बुरा है?

    घर पहुँचते नौ बज गए। गौरी ने खाना नहीं खाया। वह मेरा इंतज़ार कर रही है। पिज़्ज़ा खाते हुए क्या मैंने गौरी को याद किया था? शायद किया था… हाँ पक्का किया था। मैंने सोचा था गौरी होती तो चोकोलावा केक मँगाने की भी ज़िद करती। मैं अपनी नज़रों में गिरने से बच गई हूँ। मैंने गौरी को गले लगा लिया। उसे अपने हाथों से खाना खिलाया।

    "गौरी आई कान्ट लिव विदआउट यु। यु आर माइ लाइफ शोना",

    कहते हुए मैं उसका माथा चूम रही हूँ। वह नन्ही अँगुलियों से मेरे आँसू पोंछ रही है। जब तक वह सो नहीं जाती मैं उसके साथ हूँ। वह जल्द ही सो गई। मैं आदतन जाग रही हूँ। दिन की गतिविधियाँ सुनने-सुनाने वाला कोई पास न हो तो रातों का क्या औचित्य? साइड स्टूल की ड्रावर से दवाई की बोतल निकालती हूँ। बोतल की आखिरी गोली खाते हुए मैं खिड़की पर फड़फड़ाती हुई पर्ची पढ़ रही हूँ-

    'आँगन में हौले हौले पाँव पसारती
    सुरमयी सी शाम,
    जानती हो जैसे कि

    आज भी तुम नहीं आओगी,
    तुम तो नहीं....लेकिन वो कुछ
    शर्मिंदा सी लगती है
    तुम्हें बिना लिए आने का

    खुद को दोष देती

    पंछियों ने भी मौन रह

    मानो शाम का ही समर्थन किया है,
    उन्हें कैसे समझाऊँ? तुम ही बतलाओ
    धुंधलका बाहर नहीं, मेरे भीतर अधिक है

    बाहर तो फैली है दूर तलक नीरवता
    पर भीतर का कोलाहल
    कई रातों से मुझे जगाए है..!'

    यह नीरवता… यह कोलाहल दोनों मेरे भीतर एकरूप रहते हैं। मैं दोनों से डरती हूँ। मैं इनसे एक मुलाकात चाहती हूँ। मैं इनसे लड़ना चाहती हूँ। मैं एक साथी चाहती हूँ जिसके कहकहे इस नीरवता को भंग करे… मैं एक साथी चाहती हूँ जिसके मृदुल स्वर से सब कोलाहल शांत हो जाए।

    'मुझे अकेला छोड़ दीजिए', मैं कह उठती हूँ।

    'I am here… with you… for you!'

    वे वही क्यों कह देते हैं जो मैं सुनना चाहती हूँ।

    खिड़की की चौखट आँसूओं से भीगी है।

    रात ही रात में खिड़की की नमी आकाश तक फैल गई। दो स्याह दुखों का साझा रंग इंद्रधनुषी होता है। इंद्रधनुष क्या है? अधूरी धूप और अधूरी बूंदों के

    प्रेम भरे साझा हस्ताक्षर! किसी एक के हस्ताक्षर से कोई कॉन्ट्रैक्ट पूरा नहीं होता। कवि के हस्ताक्षर खिड़की पर छूटे हुए है। क्या मैं भी अपने हस्ताक्षर कर दूँ?

    कवि की तलाश में मैं सड़क पर हूँ। मैं यह देख कर हैरान हूँ कि कवि के हस्ताक्षर कई खिड़कियों पर हैं। लेखक ऑटोग्राफ देने में अभ्यस्त होते हैं। लेखकों के ऑटोग्राफ पा, लोग गर्वित होते हैं। मैं क्यों उदास हूँ? मुझे कवि नहीं चाहिए… कविता भी नहीं… मैं एक दोस्त चाहती हूँ। मैं दोस्ती में विश्वास चाहती हूँ। मैं दोस्तों की भीड़ नहीं चाहती। मैं एकनिष्ठता चाहती हूँ। कवि पुकार रहे हैं पर मैं भाग रही हूँ। मैं अपनी क्षमता से भी तेज भाग रही हूँ। मैं अपनी आत्मा पर एक और आघात नहीं चाहती। वे पीछे छूट गए है। मैं वह खिड़की बन्द कर देती हूँ जिससे वे मुझ तक पहुँच न सकें।

    मैं गौरी को जगा रही हूँ। आज हम साथ रहेंगे। नो ऑफिस? वह हैरान है। यस, नो ऑफिस। मम्मा- गौरी टाइम ओनली। मैं उसे आश्वस्त करती हूँ। वह मेरे गले में बाँह डाल कर फिर सो गई है। जब ऑफिस नहीं जाना तब घड़ी से क्यों दौड़ लगानी। मैं भी कुछ और देर सो सकती हूँ।

    तान्या का फोन आया है। वह कह रही है कि प्रसून मिलना चाहता है। घर का दरवाज़ा अचानक खुल गया है। मैं गौरी को पूछ रही हूँ-

    'क्या मम्मा-गौरी टाइम में एक नाम और शामिल किया जा सकता है?',

    प्रश्न खत्म होने से पहले ही गौरी 'पापा' कहते हुए हाथ फैलाकर दरवाज़े की ओर दौड़ गई। प्रसून उसे गोदी में लिए मुस्करा रहा है। वह प्रसून को देख मुस्करा रही है। वह पापा को किस्सी दे रही है। पापा उसके लिए खिलौने लाए हैं। हर मूवी में पापा से बच्चियाँ यूँ ही मिलती हैं। बस मूवी के अंत में मम्मी-पापा एक हो जाया करते हैं लेकिन यह तो जीवन है… नहीं यह सपना है…. भयानक सपना…. आँख खुलती है…. शरीर पसीने से भीगा है… गौरी मेरे बराबर गहरी नींद सोई है। समय देखा सुबह के सात। सुबह का सपना सच होता है…. माँ कहती है… है नहीं, कहती थी जब कहने लायक थी। अस्थिपंजर कब बोलते हैं? माँ के अस्थिपंजर होने का तो सपना नहीं आया था। वह अस्थिपंजर कैसे बन गई? पहले माँ की आवाज़ बदली फिर खाना फँसा और फिर पानी भी। आवाज़ बदलने को कौन पहचानता, माँ इन सालों में पूरी ही बदल गई थी कोई देख पाया था क्या? वह स्वयं भी तो नहीं। और गले में तो औरतों के जाने क्या-क्या फँसा ही रहता है। जो बातें वह कभी बोल नहीं पाईं, उपेक्षा से ऊब, उन बातों ने बगावत की … यूनियन बनाई और एकत्र हो, एक गाँठ बनकर फँस गईं। चीरा लगा… दवाइयाँ दी गईं… मशीन से जलाया गया…. लेकिन यह माँ थी … जो बातें मन में दफना ली वह कभी पिघलने ही नहीं दी फिर। पिघली तो माँ के शरीर की वसा.. गाँठ ज्यों की त्यों। बाती के अनवरत तिल-तिल जलने पर वसा का उपभोग कोई आश्चर्य नहीं।

    मिले हो तुम मुझको बड़े नसीबों से… मिला नहीं कोई बस मेरे फोन की रिंगटोन है जो अनजान नम्बर से बज उठा है।

    "हैलो", मैंने कहा।

    "गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले

    चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले"

    "कौन?"

    "चार दिन की ज़िंदगी में नाराज़गी अच्छी नहीं

    अपनों से पूछे हो 'कौन' यह अदायगी अच्छी नहीं"

    फोन रखने ही वाली थी जब आवाज़ आई-

    "यशोवर्धन प्रताप… नाम तो सुना ही होगा!"

    "अरे आप…", उफ्फ! एक खिड़की खुली ही छुटी थी पर मन का कोई ईमान ही नहीं। इस भूल पर भी हज़ार तर्क ठुकरा कर उछल पड़ा।

    "नम्बर कैसे मिला?"

    "जहाँ चाह वहाँ राह।"

    मुझे लगा मैं रो पडूँगी।

    "आई क्यों नहीं?"

    "पता नहीं था कि कोई इंतज़ार करेगा।"

    "तुम्हारा मन तो जानता था। तुम न स्वीकारो चाहे।"

    मेरी सिसकियाँ उन तक पहुँच रहीं थीं शायद।

    वे बोले-

    "न न रोते नहीं।खुश रहो। मुस्कराती रहो। आज कुछ लिखूँगा तुम्हारे लिए। आओगी न?"

    मैंने 'हाँ' में सिर हिलाया।

    "बोलो? आओगी न?"

    "जी", मैंने आँसुओंं को रोकते, भरे गले से बमुश्किल कहा।

    भुरभुरी मिट्टी के पुतले है हम। कोई छूता है और बिखर जाते हैं। सबके साथ रहते भी जाने कैसे एक निर्वात हमारे अंदर बन जाता है। चारों ओर से हवा उसे भरने दौड़ पड़ती है। द्वंद का बवंडर हमें घेर लेता है। आँखों में धूल भर जाती है। कुछ स्पष्ट नहीं दिखता।

    गौरी को जगाया। दोनों तैयार होकर 'फ्रोजेन-2' का मॉर्निंग शो देखने गए। गौरी को कुछ झूलों पर बिठाया। शॉपिंग की। barbeque nation में लंच किया। गौरी ने कहा-

    "काश! आज मेरा बर्थडे होता।"

    मैंने कहा-

    "मान लो कि आज ही है।"

    बर्थ डे कैप लगाकर केक काटती गौरी के चेहरे पर निर्दोष हँसी खिल उठी। तालियों की गूँज के साथ 'हैप्पी बर्थडे टू यू' के स्वर हवा में तैर गए। कुछ मासूम झूठ सच मान लेने भर से खुशियाँ यूँ ही सहज मिल जाया करती हैं क्या? मन में सोचा-

    'Give me the beautiful lie and you can keep your ugly truth. What you don’t know won’t hurt you.'

    (Anonymous)

    मॉल की दुनिया उस जगमगाती सड़क जैसी ही खूबसूरत प्रतीत होती है पर यहाँ खुशी की कीमत बहुत अधिक है हम बाहर आ जाते हैं।

    "गौरी, घर या पार्क?", मैंने पूछा।

    गौरी ने पार्क चुना। वह पार्क में स्लाइड पर दौड़ गई। बच्चों के लिए नीचे गिरना भी कैसा रोचक है। हम जाने क्यों ऊँचाइयों में ही उलझे रहते हैं। गौरी जल्द ही दूसरे झूले पर दौड़ गई। वह पार्क के हर झूले पर बैठेगी। मैं पास ही बेंच पर बैठ उसे देख रही हूँ। मैं उसके आस-पास खेलते और बच्चों को भी देख रही हूँ। मैं उन बच्चों के साथ आए उनके मम्मी और पापा को भी देख रही हूँ। मैं गौरी के पास भी उसके पापा चाहती हूँ। नहीं, मैं एक इरेज़र उठा इस तस्वीर से सब पापा मिटा देना चाहती हूँ। मैं अपने पापा को अपने पास चाहती हूँ। मैं कवि में अपने पापा चाहती हूँ?

    एक यायावर दिन का अंत कर हम घर लौट आए हैं। पिछले कुछ सालों में गौरी के लिए ऐसे कम ही दिन जुटा पाई हूँ मैं। मै उसका निर्मल मुख चूम लेती हूँ। ऐसे खूबसूरत दिन का अंत भी मीठा ही होना चाहिए। पिज़्ज़ा और चोकोलावा केक आर्डर किया गया। गौरी डिलीवरी बॉय के डोरबेल बजाने का इंतज़ार करती 'माशा एन बेयर' देखने लगी। दरवाज़े से पहले ही खिड़की पर दस्तक हो गई। मैंने झाँका-

    'कुछ सीले से हर्फ़ लिखे थे..... पढ़े थे किया?'

    मैंने पूरी खिड़की की तलाशी ली। कहीं कुछ नया नहीं था। कहा-

    'कैसे पढ़ती मिले ही नहीं'

    वे बोले- 'जाने क्यों तुम मेरा मन पढ़ नहीं पाती?'

    'मन पढ़ने को ज़रूरी है मन की आँखें

    मन ही मर जाने पर कैसे पढूँ मन की बातें'

    'देखो, तुम तो कवि बन गई', वे मुस्कराए।

    मैं स्वयं अचंभित थी। यह क्या हो रहा था? क्या चाहती हूँ मैं? वे क्या चाहते हैं?

    'आप शायद मुझे गलत समझ रहे हैं', मेरे शब्द सच ही सीले थे।

    'विश्वास रखो, किसी कामनावश तुमसे बात नहीं करता', उन्होंने कहा।

    'आज थका हूँ। जल्दी सोऊँगा', आगे कहा।

    'जी'

    'बस तुम्हारी एक मुस्कान के लिए रुका था। मुस्करा दो तो जाऊँ',

    कहीं दूर बेला महका और हवा के संग खिड़की से भीतर चला आया।वह चले गए। मैं उनकी जाने की दिशा में देखती रही।

    सुख पर शंका का परछाया है। विश्वास का टीका लगाना चाहती हूँ। नेह की कुछ बूँद और मन गीली मिट्टी-सा गलता जाता है।

    मैं पुकारती हूँ- 'सुनिए'

    वे दूर जा चुके थे पर लौट आए। इस पुकार की अनुगूंज उनके चेहरे पर मुस्कान बन थिरक रही है।

    'आप न आया करिए। मैं पहले ही टूटी हुई हूँ'

    वे स्तब्ध खड़े हैं।