गवाक्ष
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अट्ठारह वर्ष की होने पर भव्य समारोह में धूमधाम से सत्याक्षरा का जन्मदिन मनाते हुए पिता सत्यालंकार को दिल का भयंकर दौरा पड़ा और परिवार में दुःख और मायूसी के बादलों ने आनंद व प्रसन्नता को अपनी काली चादर के नीचे ढ़क लिया । इतनी शीघ्र बदलाव हो सकता है क्या?जीवन की प्रसन्नताएँ इतनी क्षणभृंगुर! लगता, दिन के उजियारे काल -रात्रि में परिवर्तित हो गए। कुछ ही समय में जीवन की वास्तविकता स्वीकार ली गई, थमा हुआ सा जीवन पुन:गति पकड़ने की चेष्टा में संलग्न हो गया । सत्यनिष्ठ तब तक अपनी शिक्षा पूर्ण करके एक सम्मानीय पद पर प्रतिष्ठित हो चुका था। वह बहन तथा माँ को बाध्य करके अपने साथ पूना ले आया जहाँ से लगभग एक वर्ष पश्चात ही उसका स्थानांतरण बंबई हो गया।
अपने परीक्षा-परिणाम के फलस्वरूप अक्षरा को बंबई के नामी तथा स्तरीय कॉलेज में प्रवेश प्राप्त हो गया । बहन की शिक्षा में रूचि थी और वह शिक्षण में माँ व भाई का नाम रोशन कर रही थी। अपने पुत्र व पुत्री की प्रगति देखकर माँ बहुत प्रसन्न थी किन्तु वह पति का वियोग बहुत दिनों तक नहीं संभाल सकीं और अपनी लाड़ली पुत्री को बेटे के हवाले करके उन्होंने भी संसार से विदा ले ली।
माँ के जाने के कुछ दिनों के पश्चात ही सत्यनिष्ठ बहन के विवाह के बारे में चिंतित रहने लगा ;
"अक्षरा !अब बस तेरी शादी किसी अच्छी जगह हो जाए तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँ--"
"क्यों भाई ! क्या जीवन का ध्येय केवल शादी ही है --? इससे आगे कुछ नहीं ? मैं अभी अध्ययन करना चाहती हूँ, माँ भी तो चाहती थीं कि मैं आगे अध्ययन करूँ। "
वह जीवन-दर्शन के प्रति समर्पित थी । जिस विश्वविद्यालय के कॉलेज में वह शिक्षा ग्रहण कर रही थी उसके दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष से वह बहुत प्रभावित थी। कई बार उसने उनका व्याख्यान सुना था और उसके मन में एम.ए पूर्ण करके पी. एचडी उनके हस्ताक्षर से करने का सपना पलना शुरू हो गया था ।
उसे रातों को नींद न आती और आती भी तो वह अपने समक्ष प्रो.श्रेष्ठी को व्याख्यान देते हुए पाती। एम.ए करने के लिए जउसने विश्विद्यालय में प्रवेश लिया तब वह नहीं जानती थी कि प्रो.श्रेष्ठी का विभाग उसकी कक्षा के ठीक सामने ही था। समय मिलने पर वह प्रो. को उनकी कक्षा लेते हुए देखती और बाहर से कभी कभी उनका व्याख्यान भी सुनती। उसे उनका व्याख्यान देने का तरीका इतना सहज व शब्दों का चयन इतना प्रभावित करता कि उसका आगे शिक्षा प्राप्त करने का विचार और भी सुदृढ़ हो गया।
दस वर्ष बड़ा भाई ! वह भी कब तक अपनी गृहस्थी केवल सपनों में बसा सकता था?जीवन की वास्तविकताएं एवं व्यवहारिकताएं सतही होती हैं तथा सपनों के पंखों की उड़ान आकाशी --। सत्यनिष्ठ चाहता था कि वह पहले बहन का विवाह कर दे उसके पश्चात अपनी गृहस्थी के बारे में सोचे ।
“"भाई! मैं दर्शन में आगे काम करना चाहती हूँ, डॉ.श्रेष्ठी के हस्ताक्षर से पी.एचडी करना चाहती हूँ । "
" यह तो तू विवाह के बाद भी कर सकती है --"
"भाई ! किसने देखा है ---" वह मुस्कुराकर बोली थी; अचानक उसने चुटकी बजाई ;
" भाई ! आप क्यों नहीं कर लेते पहले शादी?मेरी बाद में हो जाएगी, मैं मना नहीं कर रही हूँ केवल आगे पढ़ना चाहती हूँ । "
भाई की अंतरंगता अपनी एक सहकर्मी के साथ थी परन्तु उसने अभी तक बहन को उस बारे में कुछ भी नहीं बताया था । माँ होतीं तो और बात थी, बहन का पूरा उत्तरदायित्व उस पर था और वह उसे पूरे मन व सम्मान से पूरा करना चाहता था।
“ज़िंदगी का फ़लसफ़ा भी अजीब है जब दाँत होते हैं तो खाना नहीं होता और जब खाना सामने हो और दाँत गायब हो जाएं तो खाने वाला ललचाता रह जाता है। " न जाने किन संवेदनशील क्षणों में सत्यनिष्ठ ने अपनी सहकर्मी प्रेमिका के समक्ष उगल दिया, वह भड़क उठी --
" कम से तुमसे इस व्यवहार की अपेक्षा नहीं करती। बहन है वह तुम्हारी, उसने तुम्हें कब परोसे व्यंजन चखने से रोका है, वैसे भी प्रेम व्यंजन नहीं है जिसे चखा, डकार ली और बस !प्रेम साहचर्य है, बलिदान है, प्रेम अर्थों से सराबोर है, उत्तरदायित्व का अहसास है, जीवन की आस, विश्वास है, कोई वृत्त नहीं है प्रेम जिसके भीतर घूमना और थककर चूर हो जाना मनुष्य की नियति हो । प्रेम वह आकाश है जिसकी कोई सीमा नहीं ---और तुम --- ? किसीके साथ प्रेम यानि उससे जुड़ी तमाम वस्तुओं, व्यक्तियों से, अच्छाईयों-बुराइयों से प्रेम होना है । मुहर नहीं है प्रेम, ठप्पा लगा दिया और---बस ---!! ?? गलती तुम्हारी है कम से कम अपने रिश्ते के बारे में उससे बात तो करते । तुममें ही साहस नहीं है, कमज़ोर हो तुम! । " स्वरा उससे बहुत बहुत रुष्ट थी ।
" क्या बात करती हो ? दस वर्ष छोटी है वह मुझसे ! उसके प्रति संवेदना की बात है, मैं उसके भविष्य के लिए चिंतित हूँ और कुछ नहीं। माँ-पापा होते तो और बात थी ---", उसने गंभीर स्वर में स्वरा से कहा । सत्यविद्य बौखला गया था, उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि स्वरा उसे शब्दों के इतने कोड़े मार देगी ।
"नहीं हैं न ?अब समस्याएँ तुम्हें सुलटानी हैं, वो तो नहीं आएँगे न?"
" स्वरा! मेरी बहन मेरे लिए समस्या नहीं है, मेरा गुरूर है वह ---" उसे भी दुःख था, न जाने कैसे उसके मुख से ऎसी बात निकल गई थी । हो जाता है कभी कभी, न चाहते हुए भी मुह से कुछ ऎसी कच्ची बात निकल जाती है कि बाद में पछतावा होता है ।
"चमड़े की ज़बान है, कभी फिसल भी सकती है। " माँ कहा करती थीं, सत्यनिष्ठ को सहसा माँ की स्मृति हो आई ।
"तोउसे सुधार लेना चाहिए, और उस गुरूर को संभालकर रखो, मुसीबत मत समझो उसे । "स्वरा का स्वर गंभीर था।
क्रमश..