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गवाक्ष - 27

गवाक्ष

27==

यह निरीह कॉस्मॉस जहाँ भी जाता, वहीं से अपने भीतर एक नई संवेदना भरकर ले आता । भयभीत भी था किन्तु बेबस भी। उसकी बुद्धि में कुछ भी नहीं आ रहा था, वह क्या करे? मंत्री जी ने उसे अपने प्रोफ़ेसर के कार्य में विघ्न न डालने की हिदायत दी थी जिसका उसने पालन करने का प्रयास भी किया था परन्तु उसके भीतर उगती संवेदना ने उसे एक गर्भवती स्त्री की मनोदशा व शारीरिक पीड़ा से आत्मग्लानि से भर दिया था ।

" समर्पण ---अपनेआपको झुका देना और माँ तो सदा बच्चे के समक्ष झुकती ही आई है। " कॉस्मॉस के लिए यह एक नया अनुभव था । उसे एक माँ की इस संवेदना ने भीतर तक छू लिया था |

गर्भवती अक्षरा ने प्रसव-पीड़ा से नेत्र मूँद लिए, उसके नेत्रों की कोरों से अश्रु ऐसे बहने लगे जैसे किसी मोम की चिकनी सतह पर पानी बह रहा हो । कैसी दुहरी मार पड़ी थी उस पर ! उसके मन में कितनी ही बार शिशु के पिता के चेहरे की कल्पना बनी थी किन्तु सब व्यर्थ था । कुछ समय तक वह अपने छोटेपन में बेचारी बनकर गुमसुम हो गई किन्तु अपनी पूरी स्थिति पर ध्यान केंद्रित करने के पश्चात उसने सकारात्मकता की डोर पकड़ ली । वह दर्शन की एक ज़हीन छात्रा थी जिसके टूटने का अर्थ जीवन से विश्वास उठ जाना था । उसने अंत में अपने शिशु को जन्म देने का निश्चय किया और जैसे ही उसने निश्चय किया, वह अपने विचारों तथा व्यवहारिकता में दृढ़ होती चली गई । कॉस्मॉस के चले जाने के पश्चात उसे कमरे में उसकी प्रिय सखी शुभ्रा, भाभी स्वरा तथा भाई सत्यनिष्ठ दिखाई दिए ।

"मैं भाभी, भैया को बुलाने चली गई थी, नर्स को कहकर गई थी । कुछ परेशानी तो नहीं हुई ?। " कमरे में घुसते ही उसने सफाई दे डाली।

भाभी आते ही उसके गले चिपटकर रो पड़ीं --"कैसी है तू?"

"डॉक्टर कहते हैं सब ठीक है पर अभी समय लगेगा । "भाई ने सिर पर लाड से हाथ फेरा --

अक्षरा को शायद कोई इंजैक्शन दे दिया गया था, पीड़ा उसके चेहरे पर पसरी हुई थी और आँखों में अँधकार भरने लगा था। डॉक्टर के आदेशानुसार तीनों चुपचाप कमरे में पड़े हुए सोफे पर बैठ गए ।

बंद नेत्रों में भरे भूतकाल के सपनों भरे सतरंगी दिन उसके समक्ष मुखर होने लगे और वह उनसे जुड़ने लगी ।

सत्याक्षरा अर्थात बालपन की स्वीटी, युवावस्था की अक्षरा, स्कूल-कॉलेज की सत्याक्षरा ! एक नाज़ुक सी नन्ही बच्ची के इतने ही नहीं न जाने कितने नाम ! छुटकी, गुड़िया, डॉली, रोज़ी, महक ---जो जिसका मन होता अपने अनुसार उसका नामकरण कर देता। नन्ही सी गुड़िया सबकी बाहों में उछलती रहती, मचलती तो कंधे पर उठाकर उसे सैर कराई जाती, रोती तो आँसू पोंछने के लिए कई हाथ आगे बढ़ जाते। बालपन के नखरे पूरी मुहब्बत व उत्साह से झेले गए । समय की रफ़्तार ने न जाने कहाँ, कैसे त्वरित पँख लगा लिए थे कि पता ही नहीं चला वह किन नाज़ुक क्षणों में सोलहवीं दहलीज़ पर आ खडी हुई । उसके सोलहवें वर्ष का स्वागत कितने हर्षोल्लास से किया गया था ! अड़ौसी-पड़ौसी, नाते-रिश्तेदार सभी के उदर में खलबली मच गई थी! एक बेटा भी तो हुआ था बरसों पहले, कितना बुद्धिमान!ज़हीन बच्चा ! कितना समझदार! उसके लिए तो इतने दिखावे किए नहीं गए थे ! हाँ, अक्षरा का बड़ा भाई -- सत्यनिष्ठ !वो भी बहन से लगभग दस वर्ष बड़ा ।

“ मास्टर, मास्टरनी का दिमाग़ चल गया है बुढ़ापे की संतान --- वो भी लड़की!उस पर कैसे फुदक रहा है पूरा परिवार ! बेटे को भी घुट्टी पिला दी है। भाई बहन के लिए हर पल न्योछावर करने के लिए तैयार रहता है। अपने बारे में तो वह कुछ सोचता ही नहीं। " समाज की आदत है ताने कसने की ! बेटी को इतना लाड़ देना समाज पचा नहीं पाता !

शास्त्री युगल अर्थात सत्यनिष्ठ एवं सत्याक्षरा के माता-पिता दोनों शिक्षण में संलग्न थे। परंपरावादी होते हुए भी हितकर बदलावों से उन्हें कोई आपत्ति न होती। वे समाज के ढकोसलों से सदा दूर रहते तथा जीवन में वर्तमान को स्वीकारते हुए प्रसन्नता से अपने समक्ष आने वाली कठिनाई का सामना करते रहे अत: कठिनाईयाँ भी उनके पुरुषार्थ के समक्ष टिक नहीं सकी थीं। स्मिता तथा सत्यलंकार शास्त्री का विवाह भी खासी उम्र में हुआ था ।

विवाह के वर्ष भर में बेटे के जन्म के पश्चात लंबे दस वर्षों तक वे अपने बेटे सत्यनिष्ठ में सुन्दर संस्कार सींचते रहे। दस वर्षों के पश्चात स्मिता की प्रौढ़ावस्था में जब एक नन्ही सी सुकोमल परी के आगमन का अचानक ही संदेश प्राप्त हुआ ---हाँ, संदेश ही तो था ।

स्मिता की शारीरिक अस्वस्थता व शरीर में बदलावों के बारे में चिंतित पति-पत्नी जब महिला स्वास्थ्य केन्द्र गए तब महिला-चिकित्सक के द्वारा ज्ञात हुआ कि स्मिता पुन: माँ बनने वाली है । चालीस वर्षीया स्मिता नख-शिख लाल भभूका हो उठी ! इस उम्र में माँ ! समाज में सब क्या कहेंगे ? स्मिता के मन में हलचल होने लगी । डॉक्टर ने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी थी कि यद्यपि गर्भ को अधिक समय नहीं हुआ है तथापि उन्हें माँ व शिशु के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए बच्चा रखना ही होगा। पति-पत्नी दोनों भ्रूण हत्या के बारे में सोच भी नहीं सकते थे, उनके संस्कार ही उन्हें इसकी आज्ञा नहीं देते थे । इस प्रकार अक्षरा माँ के ममतामय आँचल में आ गई थी ।

क्रमश..

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