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गवाक्ष - 26

गवाक्ष

26==

समय-यंत्र की रेती नीचे पहुँच चुकी थी।

"देखो!मेरा तो सारा खेल समाप्त हो चुका है, मैं अब निश्चिन्त हूँ, दंड तो मिलेगा ही मुझे। फिर मैं कुछ सुखद यादें समेटकर क्यों न ले जाऊँ ? "

वह अपनी पूर्ण योग्यता से सत्याक्षरा को फुसलाने की चेष्टा में संलग्न हो गया। जिस प्रकार 'सेल्समैन'अपने 'प्रोडक्ट' को बेचने के लिए कोई न कोई मार्ग तलाशते रहते हैं, दूत भी उस गर्भवती को फुसलाने की चेष्टा जी-जान से कर रहा था।

"इस संसार में दुःख और परेशानियों के अतिरिक्त और है क्या? सच कहना!क्या इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति मोक्ष की इच्छा, आकांक्षा नहीं करता?और तुम हो कि एक और प्राणी को इस संसार में लाना चाहती हो !मेरे साथ चलो और इस दुःख भरे वातावरण से निकलकर खुलकर साँस ले लो, कितनी पीड़ा तुम्हारे चेहरे और शरीर में भरी हुई है । "

दूत अपना पूरा ज़ोर लगा रहा था, पीछे ही पड़ गया था वह सत्याक्षरा के अपने साथ चलने के लिए !

"पर मैं चलूंगी ही क्यों तुम्हारे साथ?तुम मेरे सुख में व्यवधान डाल रहे हो, माँ के लिए गर्भ की पीड़ा के ऐसे अनमोल क्षण होते हैं जिनको वह कभी नहीं भूलती, अपने शिशु का मुख देखते ही उसकी समस्त पीड़ा समाप्त हो जाती है। शिशु का मुख देखते तथा उस कोमल जीव को अपनी बाहों में लेते ही माँ स्वर्गिक सुख की प्राप्ति करती है । तुम मुझे यहाँ से ले जाना चाहते हो, कितना अमानवीय कृत्य करना चाहते हो तुम ?"पीड़ा से कराहती स्त्री मृत्युदूत पर बरस पड़ी थी ।

यकायक उसे कोई बात स्मरण हो आई ---

" तुम चाहते हो मैं अपने अजन्मे शिशु की हत्या कर दूँ?यानि भ्रूण-हत्या, यानि पाप ---क्या तुम नहीं जानते जीवन ईश्वर की देन है, शायद तुम्हारे सूत्रधार की देन है जिसे तुम छीन लेना चाहते हो?भ्रूण-हत्या के बारे में बात करना कितना सरल है तुम्हारे लिए ! तुम समझते हो अपनी संवेदनाओं का गला घोट देना इतना सहल है? कितने क्रूर हो तुम! "! अक्षरा ने उस विक्षिप्त से भागने का उपाय पा लिया था।

दूत सोच में पड़ गया, गर्भवती स्त्री की आँखों की कोरों में अश्रु – जल, मुख पर मुस्कुराहट का पुष्प खिलने लगा, उसे लगा वह सुरक्षित हो गई है।

" मैं अपने शिशु को जन्म देने वाली हूँ, क्या तुम जानते हो मातृत्व से ऊँची कोई भावना नहीं है, हो ही नहीं सकती । यदि तुम समझते हो मैं इस आनंद से, इस संवेदना से खुद को अछूता रहने दूंगी तो तुम जैसा मूर्ख कोई नहीं हो सकता । " उसने कहा और पीड़ा सहन करने के लिए अपने दाँतों को कसकर भींच लिया। कमाल था या कोई ईश्वरीय प्रताप ? अपनी प्रसव-पीड़ा के बढ़ने के साथ ही वह और भी अधिक दृढ़ होती जा रही थी ।

" बच्चा माता-पिता के प्रेम का परिणाम माना जाता है न ? फिर इसका पिता तुम्हारी इस स्थिति में तुम्हारे साथ क्यों नहीं है ? "मृत्यु -दूत वाचाल था, वह उत्साहित हो स्वयं को आवरण में छिपा स्त्रियों के पीछे चल पड़ा था और पूरा वातावरण तैयार करने के पश्चात वह अब उस स्त्री को येन-केन-प्रकारेण पटाने का प्रयास कर रहा था ।

" हाँ, तुमने अपने शिशु के पिता का नाम बताया नहीं ?व्यर्थ ही इस दुनिया की लालसा में लिप्त हो रही हो जबकि शिशु के पिता को अपने शिशु की कोई चिंता ही नहीं है । बताओ तो अपने शिशु के पिता का नाम । "

अक्षरा भयंकर प्रसव-पीड़ा में डूबी हुई थी, उसे दूत पर क्रोध आने लगा, एक तो वह पीड़ा से दुहरी हुई जा रही थी दूसरा यह उसकी जान खा रहा था । भला वह कौन होता है उससे उसके शिशु के पिता का नाम पूछने वाला !ज़िंदगी उसकी, शिशु उसका फिर ----यह क्यों फटे में टाँग अड़ा रहा है ? उसने दूत के प्रश्न का कोई उत्तर न दिया, बस अपने उभरे हुए पेट की पीड़ा से कराहती रही, अपना उभरा पेट सहलाती रही। यह भी इसी धरती के प्राणियों के जैसा तुच्छ प्राणी है और बात करता है देवदूत की भाँति ! --- उसने सोचा ।

प्रसव-पीड़ा की तीव्रता के साथ वह असहज होने लगी, अपने ऊपर से नियंत्रण हटने लगा और उसे क्रोध आने लगा। गर्भ का शिशु उसके भीतर हाथ-पैर मार रहा था और वह अपने शिशु के उस स्पंदन का आनंद इस दूत के कारण नहीं ले पा रही थी। उसके बार-बार पूछने पर वह झल्लाने लगी ---

"तुम्हें कुछ समझ में नहीं आता क्या ---?आखिर क्यों जानना चाहते हो मेरी कोख के शिशु के पिता का नाम ? कोई भी हो सकता है मेरे शिशु का पिता ---तुम भी ----"वह क्रोध से बोली । उसके मुख से दबे हुए स्वर निकल रहे थे, वह पीड़ा के कारण दाँत भींचकर बोल रही थी । दूत भली प्रकार समझ रहा था कि अक्षरा उस समय बहुत क्रोध में थी परन्तु उसकी झल्लाहट भरी बात सुनकर वह सकते में आ गया ।

" मैं---तुम्हारा अर्थ है मैं इस शिशु का पिता हो सकता हूँ ? मैं---- अर्थात ???"उसकी देह कंपित होने लगी, संभवत:वह पिता होने का अर्थ समझता था ।

'क्या 'गवाक्ष' में भी इसी प्रकार रिश्ते बनते-टूटते होंगे, क्या वहाँ भी ज़िंदगी इसी प्रकार ऊपर-नीचे बहती होगी, क्या वहाँ भी ज़िंदगी के अर्थ अपने-अपने अनुसार बाँट दिए जाते होंगे ?' अक्षरा के मन की क्यारी में जैसे ढेरों प्रश्न सिर उठाने लगे फिर उसने अपने विचारों को एक झटका दिया । उसे भय हुआ कि यदि वह इस दूत के साथ अधिक खुल जाएगी तब वह अवश्य ही उसका हरण कर लेगा, उसने अपनी जिज्ञासा को ताले में कैद करना उचित समझा।

दूत का गात कँपित हो उठा---

'क्या कह रही है यह स्त्री ?'उसने सोचा। कैसे हो सकता है वह उसके शिशु का पिता?! वह आज पहली बार उसके परिचय में आया है। क्या कमाल की स्त्री है!दूत को उस सुन्दर बला से भय लगने लगा।

"यानि पिता कोई भी हो सकता है ----पर माँ नहीं। समझे मूर्ख ? माँ के अतिरिक्त और कोई इस सत्य को उद्घाटित नहीं कर सकता कि उसके शिशु का पिता कौन है? यह सत्य सर्वव्यापी, जगजानी है। स्त्री गर्भ धारण करती है, नौ मास तक शिशु को अपने गर्भ में रखकर अपने रक्त से सींचती है इसीलिए केवल वही यह दावा कर सकती है कि उसके शिशु का पिता कौन है?वह शिशु को जन्म देती है, जननी कहलाती है। " गर्भवती का मुख मातृत्व के गर्व से दपदप करने लगा, उसने मृत्युदूत को बौखलाहट से भर दिया था । पुन: दूत पर प्रहार करते हुए वह बोली --

"यह केवल मैं ही जान सकती हूँ कि मेरे शिशु का पिता कौन है? मैं नहीं समझती कि तुम्हें अथवा किसी अन्य को यह जानने का कोई अधिकार भी है ---"स्त्री की दृढ़ता से दूत पर प्रहार पर प्रहार हो रहा था ।

" मैं तुम्हें बताती हूँ माँ क्या होती है !दुनिया की प्रत्येक माँ अपने शिशु को जन्म देती है और अपने स्थान पर उसको पिता का नाम देती है । कैसी महान कलाकार है माँ जो अपनी कलाकारी पर किसी दूसरे का नाम खुदवा देती है ! लेकिन --अपने इस शिशु को मैं अपना नाम दूंगी ---" वह ममता से भरकर अपने उदर को सहलाने लगी ।

'फिर ये समाज, ये दुनियादारी --जिसका अंग हो तुम?"वह बोला ।

" किस समाज और किस दुनियादारी की बात कर रहे हो ?जानते ही कितना हो तुम इस दुनिया और इस दुनियादारी के बारे में ?---बस हवा में सुन लिया और हो गया -"

" नहीं, नहीं मैं तो बस इसलिए कह रहा था कि तुम अकेली और निरीह ----" उसे चुप हो जाना पड़ा क्योंकि बीच में ही वह दृढ़ स्वरों में बोल उठी थी ।

" न मैं निरीह हूँ और न ही बेचारी ---जाओ जाकर किसी निरीह और बेचारी की तलाश करो। मैं एक सबल माँ हूँ जो अपने शिशु की सुरक्षा के लिए बीहड़ बनों और विशाल पर्वतों से टकरा सकती हूँ। " वह इतने ज़ोर से बोली कि बेचारा दूत घबरा गया, उसको लगा अभी यह स्त्री उठकर आस-पास रखे औज़ारों में से कुछ भी उठाकर उसे दे मारेगी, वह बेचारा तो वैसे ही दण्ड भुगत रहा था ।

" बात तो तुम्हारी ठीक है और तुम्हारा प्रश्न भी--- मैं भला कैसे तुम्हारे शिशु को ले जा सकता हूँ, मैं तो तुम्हें लेने आया था --!"

'न जाने उसके हिस्से में ही ऐसे लोग क्यों आते हैं ?' कॉस्मॉस के मस्तिष्क में फिर प्रश्न उभरा !

सहसा स्त्री को लगा अब वह उसका पीछा छोड़ देगा लेकिन वह गलत थी।

" एक काम हो सकता है--- शिशु को जन्म देकर तुम मेरे साथ चल सकती हो ?" दूत ने चुटकी बजाई ।

" लगता है तुम मंदबुद्धि हो! क्या कोई माँ अपने नन्हे शिशु को छोड़कर कहीं जा सकती है?”

यह तो उसने सोचा ही नहीं था----

"माँ सदा समर्पण करती है---और समर्पण एक मन:स्थिति है। जिसके लिए माँ कुछ सोचती नहीं, समय नहीं लेती ---बस प्रत्येक स्थिति में स्वयं का समर्पण करती है । अपनी भावनाओं का, अपनी इच्छाओं का, अपनी भूख का, अपनी प्यास का, ---जो कुछ भी उसके बच्चे को आवश्यकता होती है, माँ बच्चे को बिना किसी शर्त के देती है ।

माँ का सब कुछ ही तो समर्पित होता है, बिना किसी शर्त को ध्यान में रखे अपने आराम का, अपने मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य का ---और तभी माँ --माँ होती है जिसका स्थान कोई नहीं ले सकता । यह प्रेम बिना शर्त का प्रेम होता है। जानते हो, समर्पण का अर्थ क्या होता है?" फिर स्वयं ही बोल उठी---

"समर्पण ---व्यर्थ की बातें, व्यर्थ की सोच, व्यर्थ की चिंता निकालकर फेंक देना ---यही समर्पण है जो स्वयमेव हो जाता है। जब हम किसी भी परिस्थिति में कुछ बदलाव कर ही नहीं सकते, वह समर्पण हो जाता है । जब माँ बच्चे को प्रत्येक परिस्थिति में अपना 100% देती है, उसके एवज में उसकी कोई इच्छा, कोई मांग नहीं होती, वह समर्पण हो जाता है । अब तुम ही सोचो, बच्चे को इस प्रकार छोड़कर जाया जा सकता है, जैसी तुम मुझसे अपेक्षा कर रहे हो? "

कॉस्मॉस चकरा गया, उसकी बुद्धि ने जैसे काम करना ही बंद कर दिया । कुछ तो कहना था --

"अपने बारे में बताओ न " वह बच्चों की भाँति बोला ।

“ अभी मैं तुमसे कुछ बात नहीं कर सकती, यहाँ से जाओ। कभी अवसर मिलेगा तब देखेंगे । "अक्षरा की प्रसव-पीड़ा बढ़ गई थी ।

मृत्यु-दूत की स्थिति इस समय 'मरता क्या न करता 'की सी थी। वह शांत मुद्रा में गर्भवती स्त्री के चेहरे पर पीड़ा के चिन्ह देखते हुए कक्ष से बाहर निकल गया।

क्रमश..

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